Tuesday, 14 May 2013 10:24 |
अपूर्व जोशी दरअसल, उत्तर प्रदेश में इस समय सभी दलों के बीच सवर्ण मतों के ध्रुवीकरण को लेकर संघर्ष तेज हो गया है। जाहिर है, इसके चलते फिर से नारायण दत्त तिवारी की पूछ बढ़ गई है। कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह समझ में आ गया है कि अगर एक बार फिर से सवर्ण और अल्पसंख्यक पार्टी के साथ जुड़ जाते हैं तो शायद 2014 के चुनाव में उसकी स्थिति कुछ बेहतर हो जाए। तिवारी से इसी के मद््देनजर कांग्रेस आलाकमान ने बात की। तिवारी के एक करीबी की मानें तो सोनिया गांधी ने उनसे उत्तर भारत में कांग्रेस के घटते जनाधार पर चर्चा की और मार्गदर्शन चाहा। लेकिन इसके साथ ही इन अटकलों ने भी जोर पकड़ा है कि ब्राह्मण वोट बैंक को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए तिवारी को कोई सम्मानजनक पद दिया जा सकता है। जानकारों के अनुसार दोबारा राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव स्वयं तिवारी ने खारिज कर दिया है। ऐसे में इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि पार्टी के लिए बोझ बनते जा रहे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को बाहर का रास्ता दिखा कहीं कांग्रेस आलाकमान नारायण दत्त तिवारी को तो यह जिम्मेदारी नहीं सौंपने जा रहा? राजनीतिक दृष्टि से यह कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा साबित हो सकता है। अब तक के सभी छह मुख्यमंत्रियों में तिवारी का प्रदर्शन हर तरह से बेहतर रहा है। उनके समय में राज्य में सबसे ज्यादा पूंजीनिवेश हुआ और रोजगार के अवसर भी सबसे ज्यादा बढ़े। हालांकि भ्रष्टाचार में भी उनके कार्यकाल में खासा इजाफा हुआ था लेकिन सिटूजिर्या जमीन घोटाला और जलविद्युत परियोजनाओं में धांधली भाजपा सरकारों के कार्यकाल में भी देखी गई और खुली लूट का जैसा माहौल बहुगुणा के शासनकाल में हो गया है उसे देखते हुए तिवारी अब तक के सबसे बेहतर मुख्यमंत्री साबित हुए हैं। उत्तराखंड अपने आप में कांग्रेस के लिए ज्यादा महत्त्व नहीं रखता। मात्र पांच लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में नारायण दत्त तिवारी की ताजपोशी का जोखिम कांग्रेस उठा सकती है, क्योंकि यह दांव चल गया तो उसे पूरे देश में और विशेष रूप से हिंदीभाषी राज्यों में सवर्ण मतों का फायदा पहुंच सकता है, जो 2014 में उसकी वापसी का कारण भी बन सकता है। कांग्रेस के भीतर इसलिए भी बेचैनी बढ़ रही है क्योंकि सबसे ज्यादा संसदीय सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ने स्पष्ट रणनीति बना कर ब्राह्मणों और मुसलमानों को साधना शुरू कर दिया है। पिछले दिनों लोकसभा में बसपा के मुसलिम चेहरा कहे जाने वाले शफीकुर्रहमान बर्क ने वंदे मातरम् को लेकर जो बयान दिया उससे साफ संकेत मिलते हैं कि मायावती, मुलायम सिंह यादव के इस वोट बैंक में सेंध लगाने में जुट गई हैं। लोकसभा में वंदे मातरम् का गान एक परंपरा है। इस गीत में कुछ भी सांप्रदायिक नहीं लेकिन जबरन इसे मुसलिम विरोधी करार दिया जाता रहा है। बसपा सांसद ने इसे न गाने की बात कह समाजवादी पार्टी को बचाव की मुद्रा में ला दिया है। अगर सपा इस मुद्दे पर बसपा का विरोध करती है तो मुसलमान उससे नाराज हो सकते हैं। दूसरी तरफ अगर सपा खामोश रहती है तो उसके द्वारा आयोजित 'परशुराम जयंती समारोह', 'प्रबुद्ध वर्ग सम्मलेन' आदि के चलते जुड़ रहे सवर्ण मतदाता के दूर होने का खतरा सामने है। ये दोनों दल अपने पैंतरे बहुत संभल-संभल कर चल रहे हैं क्योंकि दोनों ब्राह्मण वोट बैंक की अहमियत समझते हैं। इससे चिंतित कांग्रेस भी अब इस खेल में कूदने की तैयारी कर रही है। नारायण दत्त तिवारी की वापसी की संभावना इसी की तरफ संकेत करती है। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के मुख्यालय में भले ही तिवारी के समर्थकों की संख्या कम हो, जमीनी कांग्रेसी उनकी वापसी की चर्चा से प्रसन्न हैं। वे इसे राहुल गांधी के कथन 'मैं ब्राह्मण हूं और पार्टी का महासचिव हूं' से जोड़ कर देख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में हार के बाद समीक्षा बैठक में जब पार्टी के कुछ बड़े सवर्ण नेताओं ने अपनी अनदेखी का आरोप लगाया था तो राहुल ने खुद के ब्राह्मण होने की बात कह उन्हें चुप करा दिया था। इन नेताओं का मानना है कि अब आलाकमान सही रास्ते पर आ रहा है और इससे अगले लोकसभा चुनाव में पार्टी भारी फायदे में रहेगी। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44561-2013-05-14-04-55-06 |
Wednesday, May 15, 2013
ब्राह्मण मतों के सहारे
ब्राह्मण मतों के सहारे
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