प्रिय मित्र,
हिंदीसमय (www.hindisamay.com) हमेशा इस कोशिश में रहता है कि आपके सामने वह साहित्य के विविध रूपों को लेकर आए। हम साहित्य की सभी विधाओं को आपके सामने पहले भी रखते रहे हैं। इसी क्रम में इस बार पेश है कुमार रवींद्र की काव्य-नाटिका : कहियत भिन्न न भिन्न। आजकल राम कठघरे में हैं और उनके कृतत्व को ले कर गंभीर और खुराफाती, दोनों तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। फिर भी, राम के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है, जो कथाकारों, कवियों और नाटककारों को नई-नई रचनाएँ देने के लिए प्रेरित करता रहा है। इस काव्य-नाटिका में रचनाकार राम के जीवन के तमाम असुविधाजनक सवालों से टकराता है। यह अनायास नहीं है कि यहाँ राम ज्यादातर समय खुद से संवाद करते नजर आते हैं।
हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य ही नहीं, वरन विश्व साहित्य की विरल उपलब्धि हैं। उनकी अनेक रचनाएँ आप पहले भी हिंदी समय पर पढ़ चुके हैं। इस बार आपके सामने हैं उनकी कुछ लघुकथाएँ : चंदे का डर, अपना-पराया, दानी, रसोई घर और पाखाना, सुधार और समझौता
जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी खुद भी विवाद पैदा करते रहे हैं और विवादों के केंद्र में भी बने रहते हैं। यहाँ हाजिर है हिंदी में प्रचलित किसिम-किसिम के अज्ञानों, गलतियों और दुराग्रहों पर उनका विचारोत्तेजक लेख चिंदी-चिंदी हिंदी। ओम जी की इस बात से कौन असहमत हो सकता है कि भाषा बहता नीर है, बहता नाला नहीं है।
व्यंग्य है कामता प्रसाद सिंह 'काम' का मेरी जेब। कामता प्रसाद जी उस पीढ़ी के लेखक हैं, जो हिंदी के विस्मृति-गह्वर में फेंक दी गई हैं।
इस बार हम आपके सामने दो गजलकारों को लेकर आए हैं। हंसराज रहबर की गजल है - तबीयत में न जाने ख़ाम ऐसी कौन सी शै है और रमेश तैलंग की तीन गजलें हैं - किसी को ज़िंदगी में जानना आसाँ नहीं होता, जहाँ उम्मीद थी ज़्यादा वहीं से खाली हाथ आए और मेरे जज़्बात में जब भी कभी थोड़ा उबाल आया।
हमने आपसे बताया था कि हम अलिफ लैला की कहानियों को नियमित रूप से आपके सामने पेश करते रहेंगे। इस बार की पाँच कहानियाँ हैं - किस्सा मछुवारे का, किस्सा गरीक बादशाह और हकीम दूबाँ का, किस्सा भद्र पुरुष और उसके तोते का, किस्सा वजीर का, किस्सा काले द्वीपों के बादशाह का।
आप की टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार बना रहता है, यह आप के ध्यान में होगा।
अगले हफ्ते फिर मिलते हैं।
सादर,
राजकिशोर
संपादक
हिंदी समय
No comments:
Post a Comment