Wednesday, 15 May 2013 09:36 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' जनसत्ता 15 मई, 2013: वर्तमान लोकसभा अपना कार्यकाल पूरा कर सकेगी, इसकी संभावना लगातार क्षीण हो रही है। कई नेताओं के बयानों से स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि अगली लोकसभा के लिए आम चुनाव नवंबर, 2013 से आगे नहीं टाले जा सकते। आम चुनाव कभी भी हों, आज ताजे-चटपटे गरमागरम समोसे जैसा विषय तो अगले प्रधानमंत्री पद के लिए शुरू हो चुकी खुली दौड़ का है। अब यह दिन के उजाले जैसा दिखने लगा है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए होड़ खुले मैदान में हो रही है। आम जनता भी इस वाद-संवाद में चटखारे लेकर भागीदारी कर रही है। असमंजसकारी तथ्य यह है कि मोदी प्रशासन और कार्यशैली की जितनी सकारात्मक ख्याति पड़ोसी राज्यों- राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र में सुनाई पड़ती है वह गुजरात की जनता में व्याप्त संतुष्टि, प्रशंसात्मक 'जनमत' की तुलना में बहुत ज्यादा है। मोदी की कार्यशैली और कड़े अनुशासन के किस्से अमदाबाद, वडोदरा, भरुच, मेहसाणा, पालनपुर आदि में सुनने को मिलते हैं उससे कहीं ज्यादा और बड़ी-बड़ी कहानियां राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र के शहर-कस्बों में सुनने को मिलती हैं। अमदाबाद से पंद्रह सौ किलोमीटर दूर उत्तर प्रदेश की राजधानी पहुंचने तक ऐसे किस्सों का विस्मयकारी विस्तार हो जाता है। लखनऊ में तो ऐसे प्रशासनिक और पुलिस अफसर भी मिलते हैं जो दो-चार बरस के लिए गुजरात आदर्श का अभ्यास करने वहां जाने को तत्पर हैं। चंद सक्रियतावादी आलोचकों की बात छोड़ दें, आम जनता में न तो मोदी नेतृत्व से असंतोष है न कटु आलोचना। मगर कट्टर समर्थक भी यह दावा नहीं करते कि गुजरात में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया है। इतना तो सभी स्वीकार करते हैं कि विशिष्ट कारोबारी वर्ग के लिए जितनी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा रही हैं उतनी व्यवस्था आमजन के लिए न भी हो तो सरकारी अमले की पहले जैसी धींगा-मुश्ती अब नहीं है। आम नागरिक को पटवारी, तहसीलदार की कचहरी में काम का 'वाजिब' दाम तो चुकाना ही पड़ता है, अब पहले जैसी लानत-मलामत बिल्कुल नहीं सहनी पड़ती। 'दस्तूरी' राजी-खुशी तय हो जाती है और लेन-देन होता है। साधारणतया सरकारी कर्मचारियों में कहीं कोई असंतोष नहीं झलकता। चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अवश्य रोष व्यक्त करते हैं। उनकी 'दस्तूरी' और 'इनाम' में कमी आई है। 'लोग चाय भी हिकारत से पिलाते हैं।' भ्रष्टाचार के संबंध में सर्वाधिक निंदात्मक रपट अंतर-प्रांतीय ट्रक चालकों की है। ये ड्राइवर हरियाणवी, पंजाबी, राजस्थानी, कर्नाटकी या अन्य कोई हो सकते हैं। इनके अनुभव के मुताबिक गुजरात में सड़क से सफर देश भर में सबसे महंगा है। पालनपुर के उत्तरी छोर से दक्षिण में वापी तक के गलियारे की दूरी छह सौ किलोमीटर से कम है। इसके लिए हजार-पंद्रह सौ रुपए प्रति सौ किलोमीटर का खर्चा तो अवश्य चुकाना पड़ता है। इसके विपरीत तथ्य यह है कि गुजरात में सड़कें ही बेहतर नहीं, सुरक्षा भी बहुत अच्छी है। महाराष्ट्र की सड़कें भी खराब हैं और सुरक्षा का बंदोबस्त नदारद है। राजमार्गों पर ठगी की प्रथा पनप गई है। वहां के पुलिसकर्मी ठगों के सहयोगी की भूमिका में ही मिलते हैं। तात्पर्य यह है कि 'गुजरात में' सड़क सफर बेशक महंगा, लेकिन महाराष्ट्र जैसी अराजकता बिल्कुल नहीं। ट्रक चालकों के विपरीत, जो गुजराती आम बसों-रेलगाड़ियों में मिलते हैं वे अपने मुख्यमंत्री की प्रशासनिक योग्यता की प्रशंसा में कतई कंजूसी नहीं करते। ऐसे तमाम आलोचकों को सिर्फ कोसते हैं, जो तरह-तरह से मोदी की राह में रोड़े अटकाने का प्रयास कर रहे हैं- विशेष रूप से दिल्ली की कांग्रेस और सरकार। कानून के अमल में कड़ाई से आए 'अच्छे परिणामों' को सभी स्वीकार करते हैं। केवल मुसलमान चुप रहते, या दबे स्वर में इतना ही कहते हैं- सब बरोबर है, अब बारह बरस से अमन ही है, धंधा कारोबार ठीक चलता है। सामान्यतया गुजरात, पड़ोसी राज्यों का मुसलमान राजनीतिक संवाद से परहेज करता है। उत्तर प्रदेश के मुसलमान की तरह मुखर नहीं है। हिंदू का ध्रुवीकरण निचले तबकों तक व्याप्त है। विस्तृत चर्चा विश्लेषण में यह मुखरित हो जाता है कि आमजन की नजरों में कानून, शांति भंग करने की जिम्मेदारी बिहार, उत्तर प्रदेश के प्रवासियों की हुआ करती थी। 2002 के सबक के बाद 'ऐसे तमाम शरणार्थी या तो प्रदेश छोड़ गए या सुधर गए'। केवल भाजपा कार्यकर्ता या समर्थक नहीं, आम हिंदू नागरिक की समझ से शहरी अमन का मसला सांप्रदायिक चेतना से जुड़ा है। अब केवल गुजरात नहीं, देशभर में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए मंदिर, मस्जिद, सिविल कोड- जैसे किसी मुद्दे की आवश्यकता नहीं है, केवल मोदी का नाम, व्यक्तित्व, कृतित्व, सक्रियता अपने आप में पर्याप्त है। अयोध्या रथ यात्रा के दिनों में (1990-91) आडवाणी राजनीतिक हिंदुत्व के प्रतीक रूप में स्थापित हुए थे। उस तुलना में 'मोदी करिश्मा' कई गुना विशाल और दीर्घकाय है। इस वस्तुस्थिति को अन्य राजनीतिक दल, विद्वान, पर्यवेक्षक देख-समझ सकें या न समझ सकें, संघ हाईकमान इस वस्तुस्थिति से भली-भांति अवगत है और वह इस मौके की अनदेखी नहीं करना चाहता। गुजरात विधानसभा चुनावों में तीसरी बार मिली प्रभावशाली विजय मोदी करिश्मे के सफल प्रयोग का प्रमाण है। मोदी ने हिंदुत्ववादी छवि के साथ चुस्त-दुरुस्त प्रशासन और विकासवाद की वक्तृता को कुशलता से संशलिष्ट करके एक अनोखे करिश्मे का चमत्कार प्रस्तुत किया है। अब संघ परिवार हिंदुत्व के नारे के बिना ही बड़ी सहजता से मोदी नेतृत्व के सहारे घोर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ उठा सकेगा। (जारी) http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44655-2013-05-15-04-07-26 |
Wednesday, May 15, 2013
किस्सा कुर्सी का
किस्सा कुर्सी का
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