मां माटी मानुष की सरकार आम जनता से सत्ता छीनने लगी!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
बंगाल में दुर्गोत्सव और पंचायत चुनाव एक साथ होने के आसार पैदा हो गये हैं। अदालती विवाद लंबा खींचने की वजह से जून में चुनाव होने की अब कोई संभावना नहीं है, जैसा कि हमने पहले भी लिखा है।पंचायती राज के माध्यम से बंगला में सत्ता का जो विकेंद्रीय करण हुआ और जिसका दूसरे राज्यों ने अनुकरण किया और फिर उसके मुताबिक पंचायतों और स्थानीय निकायों को सामाजिक योजनाओं के तहत जोड़कर विकास को स्थानीय स्वायत्तता का मसला बना दिया गया, यह पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था अब ढहने वाली है।मां माटी मानुष की सरकार आम जनता से सत्ता छीनने के सारे निरम्म हथकंडे अपना रही है। यही परिवर्तन के तहत व्यवस्था परिवर्तन है।
राज्य के पंचायत मंत्री सुब्रत मुखर्जी ने साफ साफ कह दिया है कि पंचायत चुनाव अब अक्तूबर में भी हो सकते हैं। उन्होंने जून के मध्य स्थानीय निकायों के चुनाव न होने से संवैधानिक संकट टालने के लिए आंध्र का हवाला देते हुए कहा है कि अध्यादेश जारी करके इन निकायों का कामकाज जिला व महकमा प्रशासक के हाथों में सौंपा जा सकता है। इसका सीधा मतलब यह हुआ कि पंचायतों ौर पालिकाओं में जो प्रत्यक्ष जनप्रतिनिधित्व है और जिसके माध्यम से ग्राम स्तर तक सत्ता का विकेंद्रीयकरण है, विकासकार्यों में गांवों की बागेदारी की व्यवस्था है, उसे सरकार अब प्रशासन के माध्यम से खुद अपने हाथों में लेने वाली है। इसका मतलब है कि सामाजिक योजनाओं और केंद्रीय अनुदानों के मार्फत जो पैसा आने वाला है, वह अगर नहीं रुकता है, तो उसे लेने और उसका खर्च करने का अधिकार गांववालों को नहीं, राज्य सरकार को होगा। इसमें चुनाव नतीजों में क्या कुछ संभव है, इसका कयास लगाना बेमतलब है। बल्कि सत्तावर्ग के इरादे की परख करना ज्यादा मुनासिब है।
बंगाल में मौजूदा पूरा परिदृश्य अलोकतांत्रिक और जनविरोधी है। पूरा अराजक आलम है। सत्ता का निरंकुश केंद्रीयकरण है। ऱाजनीतिक भाषा गिरते गिरते कहां पहुंच रही है, किसी को होश ही नहीं है। राजनीतिक सघर्ष और हिंसा अभूतपूर्व है। कोई राजनीतिक संवाद है ही नहीं। सत्ता पर वर्चस्व की लड़ाई है, सत्ता में जनता की बबागेदारी की चिंता है ही नहीं। राज्य के मंत्रियों तक को जब नीतिगत फैसला करने का, संवाददाताओं को संबोधित करने का या अपने मतामत रखने का अधिकार नहीं है, ऐसी हालत में पंचायत और पालिका चुनावों की वाकई कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है।
हाईकोर्ट के फैसले को न मानकर राज्य सरकार की ओर से मुख्यमंत्री और पंचायत मंत्री ने अदालती फैसले के खिलाफ जो टिप्पणियां की हैं, वह अभूतपूर्व है और इसे सिर्फ अदालत की अवमानना तक सीमित नहीं रखा जा सकता । यह न्यायिक व्यवस्था में आस्था, लोकतंत्र में पर्तिबद्दता और संविदान की शपथ लेकर उसके अनुपालन का मामला है। जिस केंद्र का तख्ता पलटने के लिए सत्तापक्ष जिहाद में लगा है, जिस सीबीआई की आलोचना की जा रही है, वहीं केंद्र सरकार, सीबीआई और भारतीय राजनीति सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने में कोई हिचक नहीं दिखाती। कोयला घोटाले में सीबीआई के दुरुपयोग के खिलाफ केंद्रीय कानून मंत्री को पदत्याग करना पड़ रहा है।
हाई कोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट या डिवीजन बेंच में अपील करने का मामला अलग है। वह न्यायिक अधिकार है। कानून की व्याख्या भी भिन्न हो सकती है। पर सार्वजनिक तौर पर अगर सरकार सीधे तौर पर अदालती फैसले को मानने से ही इंकार कर दें और लोकतांत्रिक व्यवस्था ही भंग हो जाये तो यह न सिर्फ अराजकता है बल्कि सरासर संविधान का उल्लंघन है। क्योंकिसंविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया है। इसके साथ ही संविधान की 7वीं अनुसूची (राज्य सूची) की प्रविष्टि 5 में ग्राम पंचायतों को शामिल करके इसके सम्बन्ध में क़ानून बनाने का अधिकार राज्य को दिया गया है। 1993 में संविधान में 73वां संशोधन करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गई है और संविधान में भाग 9 को पुनः जोड़कर तथा इस भाग में 16 नये अनुच्छेदों (243 से 243-ण तक) और संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़कर पंचायत के गठन, पंचायत के सदस्यों के चुनाव, सदस्यों के लिए आरक्षण तथा पंचायत के कार्यों के सम्बन्ध में व्यापक प्रावधान किये गये हैं।1988 में पी. के. थुंगन समिति का गठन पंचायती संस्थाओं पर विचार करने के लिए किया गया। इस समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा कि राज संस्थाओं को संविधान में स्थान दिया जाना चाहिए। इस समिति की सिफ़ारिश के आधार पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्रदान करने के लिए 1989 में 64वाँ संविधान संशोधन लोकसभा में पेश किया गया, जिसे लोक सभा के द्वारा पारित कर दिया गया, लेकिन राज्य सभा के द्वारा नामन्ज़ूर कर दिया गया। इसके बाद लोकसभा को भंग कर दिए जाने के कारण यह विधेयक समाप्त कर दिया गया। इसके बाद 74वाँ संविधान संशोधन पेश किया गया, जो लोकसभा के भंग किये जाने के कारण समाप्त हो गया।इसके बाद 16 दिसम्बर, 1991 को 72वाँ संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया, जिसे संयुक्त संसदीय समिति (प्रवर समिति) को सौंप दिया गया। इस समिति ने विधेयक पर अपनी सम्मति जुलाई 1992 में दी और विधेयक के क्रमांक को बदलकर 73वाँ संविधान संशोधन विधेयक कर दिया गया, जिसे 22 दिसम्बर, 1992 को लोकसभा ने तथा 23 दिसम्बर, 1992 को राज्यसभा ने पारित कर दिया। 17 राज्य विधान सभाओं के द्वारा अनुमोदित किय जाने पर इसे राष्ट्रपति की सम्मति के लिए उनके समक्ष पेश किया गया। राष्ट्रपति ने 20 अप्रैल, 1993 को इस पर अपनी सम्मति दे दी और इसे 24 अप्रैल, 1993 को प्रवर्तित कर दिया गया।
संविधान (73वां सेशोधन) अधिनियम, 1992 द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार
सबसे निचले अर्थात् ग्राम स्तर पर ग्राम सभा ज़िला पंचायत के गठन का प्रावधान है।
मध्यवर्ती अर्थात् खण्ड स्तर पर क्षेत्र पंचायत और
सबसे उच्च अर्थात् ज़िला स्तर पर पंचायत के गठन का प्रावधान किया गया है।
गौरतलब है कि पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तहसील, तालुका और ज़िला आते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राजव्यवस्था अस्तित्व में रही है, भले ही इसे विभिन्न नाम से विभिन्न काल में जाना जाता रहा हो। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भी संघर्षरत लोगों के नेताओं द्वारा सदैव पंचायती राज की स्थापना की मांग की जाती रही।
पंचायत व्यवस्था से सम्बन्धित प्रावधान
पंचायत व्यवस्था के सम्बन्ध में प्रावधान संविधान के भाग 9 में 16 अनुच्छेदों में शामिल किया गया, जो निम्न प्रकार हैं–
पंचायत व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्रामसभा होगी। इसमें एक या एक से अधिक गाँव शामिल किए जा सकते हैं। ग्रामसभा की शक्तियों के सम्बन्ध में राज्य विधान मण्डल द्वारा क़ानून बनाया जाएगा।
जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख से कम है, उनमें दो स्तरीय पंचायत, अर्थात् ज़िला स्तर और गाँव स्तर पर, का गठन किया जाएगा और 20 लाख की जनसंख्या से अधिक वाले राज्यों में त्रिस्तरीय पंचायत राज्य, अर्थात् गाँव, मध्यवर्ती तथा ज़िला स्तर पर, की स्थापना की जाएगी।
सभी स्तर के पंचायतों के सभी सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदाताओं द्वारा प्रत्येक पाँचवें वर्ष में किया जाएगा। गाँव स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव प्रत्यक्षतः तथा मध्यवर्ती एवं ज़िला स्तर के पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से किया जाएगा।
पंचायत के सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए उनके अनुपात में आरक्षण प्रदान किया जाएगा तथा महिलाओं के लिए 30% आरक्षण होगा।
सभी स्तर की पंचायतों का कार्यकाल पाँच वर्ष होगा, लेकिन इनका विघटन पाँच वर्ष के पहले भी किया जा सकता है, परन्तु विघटन की दशा में 6 मास के अन्तर्गत चुनाव कराना आवश्यक होगा।
पंचायतों को कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी और वे किन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करेंगी, इसकी सूची संविधान में ग्याहरवीं अनुसूची में दी गयी हैं। इस सूची में पंचायतों के कार्य निर्धारण के लिए 29 कार्य क्षेत्रों को चिह्नित किया गया है, जा निम्न प्रकार हैं—
कृषि, जिसके अन्तर्गत कृषि विस्तार भी है,भूमि सुधार और मृदा संरक्षण,लघु सिंचाई, जल प्रबन्ध और जल आच्छादन विकास,पशु पालन, दुग्ध उद्योग और कुक्कुट पालन,मत्स्य उद्योग,समाजिक वनोद्योग और फ़ार्म वनोद्योग,लघु वन उत्पाद,लघु उद्योग, जिसके अन्तर्गत खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी है,खादी, ग्राम और कुटीर उद्योग,ग्रामीण आवास,पेय जल,ईधन और चारा,सड़कें, पुलिया, पुल, नौघाट, जल मार्ग और संचार के अन्य साधन,ग्रामीण विद्युतीकरण, जिसके अन्तर्गत विद्युत का वितरण भी है,ग़ैर पारम्परिक ऊर्जा स्रोत,ग़रीबी उपशमन कार्यक्रम,शिक्षा, जिसके अन्तर्गत प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय भी हैं,तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा,प्रौढ़ और अनौपचारिक शिक्षा,पुस्तकालय,सांस्कृतिक क्रिया कलाप,बाज़ार और मेले,स्वास्थ्य और स्वच्छता (अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और औषधालय),परिवार कल्याण,महिला और बाल विकास,समाज कल्याण (विकलांग और मानसिक रूप से अविकसित सहित),कमज़ोर वर्गों का (विशेष रूप से अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का) कल्याण,लोक वितरण प्रणाली,सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण,राज्य विधान मण्डल क़ानून बनाकर पंचायतों को उपयुक्त स्थानीय कर लगाने, उन्हें वसूल करने तथा उनसे प्राप्त धन को व्यय करने का अधिकार प्रदान कर सकती है।पंचायतों की वित्तीय अवस्था के सम्बन्ध में जांच करने के लिए प्रति पाँचवें वर्ष वित्तीय आयोग का गठन किया जाएगा, जो राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट देगा।
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