दामोदर घाटी में भूमिपुत्र जमीन, रोजी और रोटी से बेदखल!पानी के लिए हाहाकार!
एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास
कोयलांचल में पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है।हर साल का यही नजारा है। दामोदर वैली निगम होने के बावजूद न पेयजल की समस्या सुलझी है और न सिंचाई का माकूल बंदोबस्त हो सका है। जबकि 1943 में आई भयंकर बाढ़ ने तो बंगाल को हिलाकर रख दिया। इस स्थिति से निपटने के लिए वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की पहल पर अमेरिका की 'टेनेसी वैली आथोरिटी' की तर्ज पर 'दामोदर घाटी निगम' की स्थापना 1948 में की गई। इसके बाद पश्चिम बंगाल का प्रभावित इलाका जल प्रलय से मुक्त होकर उपजाऊ जमीन में परिवर्तित हो गया, लेकिन झारखंड में इसी नदी पर चार बड़े जलाशयों के निर्माण के बाद यहां विस्थापन की समस्या तो बढ़ी ही ,उपयोगी व उपजाऊ जमीन डूब गए। यही नहीं, इस नदी के दोनों किनारे अंधाधुंध उद्योगों का विकास हुआ और इससे नदी का जल प्रदूषित होने लगा।
डूब में शामिल गांवो को फिर बयाया नहीं जा सकता, बाद में बने तमाम बांधों के मामले में यह साबित हो चुका है। लेकिन विस्थापितों के पुनर्वास का भी इंतजाम न हो तो क्या कहा जाये। इस पर तुर्रा यह कि तेज औद्योगिकीकरण की वजह से समूचा कोयलांचल समेत दामोदर घाटी की जद में आने वाले बंगाल और बिहार में तेज औद्योगिकीकरण के कारण विस्थापन की निरंतरता बनी हुई है।
अब रानीगंज और जरिया के स्थानांतरण की बारी है। पुराने अनुभवों के मद्देनजर पुनर्वास और मुावजा की उम्मीद लोगो को बहुत ज्यादा नहीं है। लेकिन वैकल्पिक रोजगार का दावा तो उनका बनता है, जिससे उन्हें वंचित किया जाता है।
भूमिपुत्र ही अपनी जमीन से बेदखल हैं और उनकी रोजी रोटी का कोई अता पता नहीं है। उनके लिए बाढ़ रोकने के लिए बनाये बांध के बावजूद बाढ़ सालाना आपदा है। बिजली उनके घरों को रोशन नहीं करती। पेयजल के लिए वे त्राहि त्राहि करते हैं। अवैध खदानों के अंधेरे में घुट घुटकर मरने को अभिशप्त हैं वे। इस दामोदर कथा की ओर देस की नजर नहीं है।झारखंड का बहुत बड़ा इलाका स्थायी डूब क्षेत्र बन गया । लाखों लोग विस्थापित हुये । विकास के तथाकथित मंदिर विनाश के स्रोत बन गये । नदी-नालों के सतह जल,भू-गर्भ जल, मिट्टी,हवा, आदि प्राकृतिक संसाधन विषाक्त होकर मानव,पशु-पंछी के उपयोग लायक नहीं रह गये ।जिस दामोदर जल को पीकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिये लोग तटवर्ती क्षेत्रों में डेरा डालते थे,जिसे उद्गम स्थल चुल्हा-पानी से नीचे काफ़ी दूर तक देवनद के नाम से जाना जाता है, विडम्बना है कि उस दामोदर के पानी को पीने से कई स्थानों पर जानवर भी कतराने लगे हैं।
दामोदर घाटी में विकास योजनाओं की रूपरेखा तैयार करने के लिये १९४८ में दामोदर घाटी निगम की स्थापना की गयी । बी सी राय और मेघनाद शाहा सदृश बंगाल के राजनेताओं और बुद्धिजीवियों के अनुरोध पर अंग्रेजी हुकुमत ने दामोदर के बरसाती पानी को बिहार, अब झारखंड, की पहाड़ियों में घेरकर रखने और मानसुन के बाद इसका उपयोग बंगाल के इलाके में सिंचाई हेतु करने की योजना तैयार किया । इसके लिये संविधान सभा ने एक अधिनियम पारित किया । उस समय भारत की संसद का अस्तित्व नही था ।इस अधिनियम मे दामोदर घाटी निगम को व्यापक अधिकार दिया गया है । निगम को शक्ति प्राप्त है कि वह नद के पानी को गंदा होने से रोकेगा और गंदा करने वाले के खिलाफ़ कारवाई करेगा । पिछले ६४ वष में निगम ने इस शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया है। विकास के मंदिरों को दामोदर नद और दामोदर घाटी के जन,जंगल,जीव-जंतुओं पर अत्याचार करने के लिये बेलगाम छोड़ दिया है। खुद निगम के बोकारो और चंद्रपुरा ताप बिजलीघरों जैसे उपक्रम भीषण प्रदूंषण फैला रहे हैं।
दस्तावेजों के मुताबिक दामोदर नदी झारखंड प्रदेश के लोहरदगा और लातेहार जिले के सीमा पर बसे बोदा पहाड़ की चूल्हापानी नामक स्थान से निकलकर पश्चिम बंगाल के गंगा सागर से कुछ पहले पवित्र नदी गंगा में हुगली के पास मिलती है। झारखंड में इसकी लंबाई करीब 300 किलोमीटर और पश्चिम बंगाल में करीब 263 किलोमीटर है। दामोदर बेसिन का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 16,93,380 हेक्टेयर है। लंबाई के अनुसार झारखंड में सबसे बड़ी बेसिन है जिसमें धरातलीय जल की कुल उपलब्धिता 5800 एमसीएम तथा भूगर्भीय जल की उपलब्धिता 1231 एमसीएम है। द्वितीय सिंचाई आयोग के अनुसार क्रमश: 1254.1 एमएसीएम तथा 422 एमसीएम का उपयोग झारखंड में होता है।
बदले हुए परिदृश्य में दामोदर वैली के बनने के बाद हुए विकास के मद्देनजर तनिक अतीत पर भी गौर किया जाये, तो उस ग्रामीण व्यवस्था पर नजर पड़ेगी जिसके तहत विस्थापित भूमिपुत्रों के पुरखे ्पने हक हकूक के साथ बाकायदा अपने गांवों में सकुशल जी रहे थे।विल्काक्स (1930) ने पिछले समय में बंगाल के वर्ध्दमान जिले में दामोदर नदी द्वारा घाटी में सिंचाई पध्दति के बारे में बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है। इस घाटी में किसान नदी के किनारे 60-75 सेण्टीमीटर ऊंचे बौने तटबंधों का हर साल निर्माण करते थे। सूखे मौसम में इनका इस्तेमाल रास्ते के तौर पर होता था। उनके अनुसार घाटी में बरसात की शुरुआत के साथ-साथ बाढ़ों की भी शुरुआत होती थी जिससे कि बुआई और रोपनी का काम समय से और सुचारु रूप से हो जाता था। जैसे-जैसे बारिश तेज होती थी उसी रफ्तार से जमीन में नमी बढ़ती थी और धीरे-धीरे सारे इलाके पर पानी की चादर बिछ जाती थी। यह पानी मच्छरों के लारवा की पैदाइश के लिए बहुत उपयुक्त होता था। इसी समय ऊनती नदी का गन्दा पानी या तो बौने तटबंधों के ऊपर से बह कर पूरे इलाके पर फैलता था या फिर किसान ही बड़ी संख्या में इन तटबंधों को जगह-जगह पर काट दिया करते थे जिससे नदी का पानी एकदम छिछली और चौड़ी धारा के माध्यम से चारों ओर फैलता था। इस गन्दले पानी में कार्प और झींगा जैसी मछलियों के अण्डे होते थे जो कि नदी के पानी के साथ-साथ धान के खेतों और तालाबों में पहुंच जाते थे। जल्दी ही इन अण्डों से छोटी-छोटी मछलियां निकल आती थीं जो मांसाहारी होती थीं। ये मछलियां मच्छरों के अण्डों पर टूट पड़ती थीं और उनका सफाया कर देती थीं। खेतों की मेड़ें और चौड़ी-छिछली धाराओं के किनारे इन मछलियों को रास्ता दिखाते थे और जहां भी यह पानी जा सकता था, यह मछलियां वहां मौजूद रहती थीं। यही जगहें मच्छरों के अण्डों की भी थीं और उनका मछलियों से बच पाना नामुमकिन होता था।
अगर कभी लम्बे समय तक बारिश नहीं हुई तो ऐसे हालात से बचाव के लिए स्थानीय लोगों ने बड़ी संख्या मे तालाब और पोखरे बना रखे थे जहां मछलियां जाकर शरण ले सकती थीं। सूखे की स्थिति में यही तालाब सिंचाई और फसल सुरक्षा की गारण्टी देते थे और क्योंकि नदी के किनारे बने तटबंध बहुत कम ऊंचाई के हुआ करते थे और 40-50 जगहों पर एक साथ काटे जाते थे इसलिए बाढ़ का कोई खतरा नहीं होता था और इस काम में कोई जोखिम भी नहीं था। नदी के ऊपरी सतह का पानी खेतों तक पहुंचने के कारण ताजी मिट्टी की शक्ल में उर्वरक खाद खेतों को मिल जाती थी। बरसात समाप्त होने के बाद बौने तटबंधों की दरारें भर कर उनकी मरम्मत कर दी जाती थी।
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