असंभव समय से सामना
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013 Translation : अभिषेक श्रीवास्तव
विजय प्रशाद
रोजगार सृजन पूंजीवाद में दुर्घटनावश पैदा हुआ उप-उत्पाद है। उसका साध्य नहीं।
"किसी जमाने में जादू-टोने से एक मृत को जॉम्बी (जिन) बनाकर उससे मन मुताबिक काम करवाया जा सकता था। तब के जॉम्बी बिना रुके चौबीसों घंटा काम कर सकते थे। आज का जॉम्बी किसी किस्म के काम की उम्मीद नहीं कर सकता—नया जॉम्बी सिर्फ अपनी मौत का इंतजार करता है।"
-जुनोत डियाज
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन—आईएलओ) की रिपोर्टें कह रही हैं कि इस धरती पर रोजगार का संकट बहुत गहरा गया है। फिलहाल करीब साठ करोड़ लोग काम खोज रहे हैं। जिनके पास काम है, उनमें भी अधिकतर दो जून की रोटी नहीं जुटा पा रहे, उन्हें एक से ज्यादा काम करने पड़ रहे हैं या फिर वे बेहतरी की सारी उम्मीदें छोड़ चुके हैं। आईएलओ का अनुमान है कि फिलहाल अरक्षित रोजगारों की दर 50.3 फीसदी है। आईएलओ की 2012 की रिपोर्ट में एक चौंकाने वाला तथ्य आया है, "2011 में 15 से 24 साल के बीच के 7.48 करोड़ नौजवान बेरोजगार थे, जो कि 2007 के मुकाबले 40 लाख से ज्यादा की वृद्धि दिखाता है। वैश्विक युवा बेरोजगारी दर 12.7 फीसदी है जो कि आर्थिक संकट के पहले के दौर के मुकाबले पूरा एक फीसदी ज्यादा है। पूरी दुनिया में प्रौढ़ लोगों के मुकाबले युवाओं के बेरोजगार रहने की संभावना तीन गुना ज्यादा है। इसके अतिरिक्त अनुमानत: 64 लाख लोगों ने कोई भी रोजगार पाने की उम्मीद छोड़ दी है और पूरी तरह श्रम बाजार से बाहर हो गए हैं।"
क्या मौजूदा व्यवस्था इन लोगों को रोजगार दिला पाएगी? संभवत: नहीं। पूंजीवाद की प्रेरणा मुनाफा कमाना है, रोजगार पैदा करना नहीं। यदि रोजगार पैदा होते भी हैं तो वह उसका उद्देश्य नहीं होगा, बल्कि मुनाफा बढ़ाने की राह का मात्र पड़ाव है। दूसरे शब्दों में कहें तो रोजगार सृजन पूंजीवाद में दुर्घटनावश पैदा हुआ उप-उत्पाद है। उसका साध्य नहीं।
2008 में कर्ज संकट के आरंभ के बाद पश्चिमी देशों और ब्रिक्स देशों (बी.आर.आई.सी.एस.- ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) की सरकारों ने निजी बैंकों केलिए लंबी अवधि के लिए सार्वजनिक वित्त के दरवाजे पूरी तरह खोल दिए थे। पश्चिम में इन बैंकों ने रियायती दरों पर सरकारी कर्ज लिया, अपने कमजोर खातों को दुरुस्त करने के लिए इसका इस्तेमाल किया और फिर उस पैसे को दबा लिया। वहां निवेश को कोई प्रोत्साहन नहीं है। ब्रिक्स देशों में निवेश पूंजी संसाधनों के दोहन और कुछ हद तक औद्योगिक वृद्धि के लिए इस्तेमाल हुई, लेकिन उसकी भी मंशा कमोबेश बैठे-ठाले रहने की ही बनी रही। जिनके हाथों में पूंजी का नियंत्रण था, वे मांग में मंदी से चिंतित थे—चूंकि व्यापक जनता के हाथ में काम नहीं है, लिहाजा बढ़े हुए उद्योग यदि उत्पादन बढ़ाएंगे तो माल को खरीदने का उनके पास कोई साधन नहीं था। यह मंदी का दुश्चक्र है जिसमें कंपनियां इस डर से निवेश नहीं करती हैं कि उनके माल को खरीदार नहीं मिलेंगे और कामगार काम खोज पाने में असमर्थ रहते हैं जिससे उन्हें इन उत्पादों को खरीदने के साधन मुहैया नहीं हो पाते।
इस पेचीदा गांठ को सुलझाने के लिए कीन्स (जॉन मेनाड) द्वारा बनाई गई नीतियों की दरकार थी। इसके तहत राज्य अपनी संगठित ताकत का इस्तेमाल करते हुए सार्वजनिक संरचना संबंधी परियोजनाओं के लिए पैसे इकट्ठा करता है और मांग को बढ़ाने के लिए सीधे लोगों को रोजगार देता है। ऐसे में राज्य को 'पशुवृत्तियों' से संचालित नहीं होना चाहिए क्योंकि उसके पास कई अन्य सरोकार और प्रेरणाएं होती हैं। कीन्स द्वारा सुझाए गए समाधान का यही रास्ता बनता है। दिक्कत यह है कि अब यह रास्ता मुमकिन नहीं क्योंकि आज की तारीख में राज्य खुद वित्तीय बाजारों के बंधक बन चुके हैं और अपनी बॉन्ड रेटिंग को लेकर इस तरह चिंतित हैं गोया वे खुद कोई कंपनी हों, जो पूंजी के हाथ से फिसल जाने के डर से पंगु बन गई हैं। यदि राज्य सार्वजनिक क्षेत्र के रास्ते आक्रामक तरीके से सार्वजनिक व्यय की नीति अपनाता है और अगर उसका खुद अपने वित्त पर पर्याप्त नियंत्रण नहीं है, तो जाहिर है वित्तीय दादा लोग उसे बख्शेंगे नहीं। आज वित्तीय पूंजी के केंद्र राज्य के केंद्रीय बैंकों के मुकाबले कहीं ज्यादा पैसे के प्रवाह को नियंत्रित करते हैं। राजनीतिक सत्ता में आया यही बदलाव राज्य को कमजोर करता है।
हर कोई इस बात को स्वीकार करता है कि रोजगार का संकट है, लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था के प्रबंधकों के पास इसके समाधान की कोई योजना नहीं है। उनकी सारी योजना नव-उदारवाद के अनुकूल है—यानी पैसे की आजादी,प्रजा की नहीं। इन साधारण से सिद्धांतों से उनके वही साधारण से हल सामने आते हैं, समस्याओं का सबसे पहला समाधान—जनता के लिए मितव्ययिता और मुट्ठी भर लोगों के लिए संपत्ति।
सामाजिक तनाव
बेरोजगारी के व्यापक परिदृश्य में राज्य द्वारा सहायता के तंत्र का ध्वस्त होना, कमजोर होता सामाजिक ताना-बाना और आपराधिक स्तर पर पहुंच चुकी खाद्य और ईंधन दरें हैं जो कि अधिकतर जिंस बाजारों में सट्टेबाजी की देन है। रोम से खाद्य और कृषि एजेंसी (फूड एंड एग्रीकल्चरल ऑर्गेनाइजेशन—एफ एओ) बतलाती है कि दुनिया में भूखे लोगों की संख्या एक अरब को पार कर चुकी है। एफ एओ के पूर्व महानिदेशक जेम्स दिफ जिंदगी भर खाद्यान्न समस्या से जुड़े मसलों पर ही काम करते रहे हैं। मूंगफ ली से लेकर धान तक और कृषि से लेकर भूख तक के मुद्दों पर दिफ विशेषज्ञ हैं। इस हालिया रिपोर्ट का लोकार्पण करते हुए दिफ यह कहने से खुद को रोक नहीं सके कि "वैश्विक आर्थिक मंदी और कई देशों में खाद्य कीमतों की लगातार बनी रहनेवाली ऊंची दरों का यह खतरनाक सम्मिश्रण पिछले साल के मुकाबले दस करोड़ और लोगों को चिरंतन भुखमरी व गरीबी में धकेल चुका है। कुल इंसानियत के छठवें हिस्से में फैला हुआ भूख का यह बेआवाज संकट दुनिया की शांति और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है।" 2008 में बुर्कीना फासो, कैमरून, मिस्र, हैती, इंडोनेशिया और फिलीपींस में खाने को लेकर दंगे हो चुके हैं। वियतनाम, भारत और पाकिस्तान ने खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए खाद्यान्न का निर्यात रोक दिया है जबकि इंडोनेशिया, कोरिया और मंगोलिया जैसे खाद्य आयातक देशों ने आयात शुल्क में कटौती कर दी है। आईएमएफ ने माना है कि इस साल अरब में हुए विद्रोह की एक बुनियादी वजह रोटी की बढ़ती कीमत रही है जो कि 'रोटी के लोकतंत्र' के खात्मे का परिणाम है।
किसी का महज जिंदा रहने के स्तर पर पहुंच जाना बहुत खराब है, लेकिन इससे भी बुरा यह है कि यह सच समूची आबादी में नहीं है। आधुनिक दौर में सामाजिक गैर-बराबरी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है। अमेरिका में 'ऑक्युपाई' (कब्जा करो) आंदोलन ने एक फीसदी आबादी का सवाल उठाया था। हम जानते हैं कि इन लोगों का सामाजिक संपदा पर अश्लीलता की हद तक कब्जा है। दुनिया के स्तर पर धन-संपदा की स्थिति को देखें तो यह अपने आप में कलंक है। संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट दिखाती है कि धरती पर सर्वाधिक अमीर एक फीसदी वयस्क लोगों के पास 40 फीसदी वैश्विक संपदा है जबकि सर्वाधिक अमीर 10 प्रतिशत का दुनिया की कुल संपदा के 85 प्रतिशत पर कब्जा है।
निष्पक्षता और न्याय के व्यापक विचारों के साथ ऐसी वंचना और गैर-बराबरी अनुचित है। ताकतवर लोग इस बात को समझते हैं। जिस तरीके से राष्ट्रीय बजट को वे बांटते हैं, उससे उनके सरोकार समझे जा सकते हैं। अमेरिका का आम बजट सेना व पुलिस का ध्यान रखता है, स्कूल खोलने के बजाय कारागार बनाए जाते हैं, रोटी की जगह पैसा बंदूकों में लगाया जाता है। नव-उदारवाद के सामाजिक परिणामों के मद्देनजर सुरक्षा तंत्र को मजबूत करना, लोगों को तबाह शहरों में कैद कर देना या भीड़ भरी उच्च सुरक्षा जेलों में ठूंस देना सत्ता को ज्यादा प्रभावशाली और तार्किक मालूम देता है। कारागार उद्योग कांप्लेक्स में कुछ भी अतार्किक नहीं है। नव-उदारवादी नजरिये से यह बिल्कुल ठीक है। नव-उदारवाद जोर-जबर से ही आया है, प्रेम से कभी नहीं।
नतीजतन, सामाजिक असंतोष का बढ़ता सूचकांक दिखाता है कि दुनिया के आधे से ज्यादा देश इससे जूझ रहे हैं और अफ्रीका, पूर्वी और मध्य योरोप व मध्य-पूर्व सामाजिक विद्रोह के केंद्र बन चुके हैं। इस बार भी मंदी से उबरने की दवा वही है जिसने अस्सी के दशक में धरती के दक्षिणी हिस्से को तबाही के कगार पर ला दिया था। तब इसका नाम स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट (ढांचागत समायोजन) था, और इस बार यह सीधे-सीधे तथा क्रूरता की हद तक—ऑस्टेरिटी (यानी कमखर्ची) कहलाता है। अमेरिका में मायावी फिस्कल क्लिफ या वित्तीय घाटे के पहाड़ को छोटा करने के लिए की जा रही खर्चों में कटौती उसे दक्षिणी योरोप और अफ्रीका के कई देशों के समानांतर लाकर खड़ा कर देगी। ओबामा ने खर्च किए जाने वाले प्रत्येक डॉलर पर ढाई डॉलर की कटौती की घोषणा की है। अगर आर्थिक संकट की उड़ती धूल अमेरिकी शहरों में छाने लगी है, तो कमखर्ची का अगला चरण नाकाम साबित होगा। पश्चिम एशिया और अफ्रीका में जारी सामाजिक असंतोष और अमेरिकी स्वप्न के समूचे परिदृश्य में सामाजिक उथल-पुथल जंग और जेल के लिए वस्तुगत स्थितियां पैदा करेगा।
इस्तेमाल कर के फेंक दी जाने वाली व्यापक जनता के लिए औपचारिक क्षेत्र में या तो रोजगार बन नहीं रहे हैं या फिर खत्म हो चुके हैं, लिहाजा उसे मलिन बस्तियों में रहते हुए अपनी आजीविका की जद्दोजहद करनी पड़ेगी जहां मुश्किल से ही कोई राजकीय सुविधा होगी और पूंजीवाद के संगठित ढांचे में शामिल होने की बेहतरी के मौके भी बेहद कम होंगे। दुनिया में इस स्थिति में पहुंचनेवालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है।
असंभव का दौर
लंबी अवधि की बेरोजगारी और सामाजिक सुविधाओं को बढ़ानेवाले राज्य के संस्थानों के पतन की जगह दमन के तरीकों में इजाफा (पुलिस और जेल) हो रहा है तथा कर्ज लेकर उपभोग करने का दर्शन फैलता जा रहा है। यह खतरनाक सामाजिक शोरुवा है। यह सामाजिक स्थिति दुनिया भर में फैले उस स्लमलैंड या मलिनिस्तान की है जहां हर पांच में से एक नागरिक रहता है। पिछले चालीस साल की राजनीतिक आर्थिकी ने व्यापक जनता के सामाजिक हालात को स्लमलैंड में संकुचित कर दिया है, जहां राजनीति का व्याकरण खुद को उत्पादन की भाषा में तब्दील नहीं कर पाता (नौकरियां वहां हैं ही नहीं कि मिल पाएं)। वहां राजनीति उपभोग के दायरे में काम करती है और कभी-कभार आईएमएफ (इंटरनेशनल मोनेटरी फंड—अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) के पैदा किए रोटी पर होने वाले दंगों में (जैसा कि हैती में 2008 में हुआ), पानी और गैस की जंग में (बोलीविया, 2000 और 2003), महज जिंदा रहने के लिए होने वाले दंगों में (इंतिफादा—दो, 2000) या फि र तीव्र सामाजिक हताशा से उपजे दंगों में (लंदन, 2011) तब्दील हो जाती है। इस तरह के सामाजिक हालात ऐसी राजनीति की कल्पना को ही नामुमकिन बना देते हैं जो कि नागरिक केंद्रित और सामूहिक हो सकती है, जो कि राजनीतिक संस्थाओं आदि को कायदे से चलाना जानती है। इसीलिए महज एक व्यक्ति की मौत भी उपभोग के ठिकानों को तबाह करने या उन्हें चुराने का कारण बन सकती है। जैसा कि रोजा लक्जमबर्ग ने कहा था, "पूंजीवाद की बेडिय़ां जहां लादी हुई हों, वहां उन्हें तोड़ दिया जाना चाहिए।" इतिहास की यह महान त्रासदी है, कि वह लूट-खसोट का बहता हुआ ढेर तो पैदा कर देता है लेकिन हताशा और गुस्से को संगठित करने के रास्ते ही नहीं छोड़ता, और उम्मीद तो नजर ही नहीं आती।
हमारी नैतिक भड़ास गरीबों की हिंसा या उनकी छिटपुट अपराधिकता के लिए आरक्षित रहती है। नैतिक गुस्से की उंगली मुश्किल से ही व्यवस्था की ओर इशारा करती है। जैसा कि महान पाकिस्तानी शायर हबीब जालिब ने लिखा है:
ऐसे दस्तूर को
सुबह-ए-बेनूर को
मैं नहीं जानता
मैं नहीं मानता।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि आधुनिक दौर में सामाजिक गैर-बराबरी रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है। दुनिया के स्तर पर धन-संपदा के बंटवारे की स्थिति को देखें तो यह असमानता वीभत्स रूप ले चुकी है। गांधी को याद करें: "किसी समाज के सभ्य होने का असल पैमाना यह नहीं है कि उसमें कितने करोड़पति हैं, बल्कि यह है कि वहां कोई भूखा न हो।"
निष्पक्षता और न्याय के व्यापक विचारों के साथ ऐसी वंचना और गैर-बराबरी ज्यादा देर तक नहीं चल सकती। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था: "जो राष्ट्र साल दर साल सामाजिक उत्थान के कार्यक्रमों के बजाय लगातार सैन्य रक्षा पर पैसे खर्च करता जाता है, उसकी नियति बरबाद होना ही है।"
पिछले दो दशक की सबसे बड़ी जीत अगर कुछ कही जा सकती है तो वह है पूंजीवाद के मौजूदा चरण यानी नव-उदारवाद के औचित्य का धीरे-धीरे और अब तक पूरी तरह खत्म हो जाना है। नव-उदारवाद को पहला बड़ा झटका दक्षिण अमेरिका में लगा था। इसकी शुरुआत 1989 के काराकाजो में हुई और अंत उस गुलाबी ज्वार में हुआ जिसके कारण वाम रुझान वाली सरकारों ने सत्ताएं संभालीं। पिछले दो साल के दौरान हमने देखा है कि अफ्रीका और एशिया में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें अरब स्प्रिंग सबसे नाटकीय रहा, फिर दक्षिण योरोप में उठा जन उभार और आखिरकार में 'आक्युपाई' आंदोलन। ये बतलाते हैं कि नव-उदारवाद नंगा राजा है। शासक वर्ग की शासन की विचारधारा दिवालिया हो चुकी है।
नव-उदारवाद के अनैतिक नजर आने की शुरुआत हो चुकी है, न तो यह और न ही वह तर्क जो इसे अंदर से चलाता है यानी पूंजीवाद को कम से कम दो कारणों से बाहर नहीं किया जा सका है।
पहला यह कि नव-उदारवाद केंद्रीय बैंकों और बहुस्तरीय वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से अपनी संस्थागत ताकत का इस्तेमाल कर रहा है। इनके निशाने पर रोजगार नहीं, मुद्रास्फीति है। वित्तीय या नीतिगत स्तर पर कहीं ऐसी गुंजाइश नहीं है जहां राज्य या उसके नेता किसी अन्य सपने या कल्पनाओं को आकार दे सकें। यदि वे अपना कर्ज कम नहीं करते और मुद्रास्फीति को नीचे नहीं रखते, तो उनके कर्ज पर ब्याज दर बढ़ा कर उन्हें इसकी सजा दी जाती है। कुछ भी करने की आजादी उन लोगों के पास गिरवी है जिनके हाथ में तिजोरियों की चाबी है।
दूसरा, पूंजीवादी व्यवस्था के दीर्घकालिक रुझानों में एक पूंजी के नियंताओं द्वारा मानव श्रम का मशीनों से विस्थापन करते जाना है। पूंजीवाद बड़े पैमाने पर श्रमिकों को विस्थापित करने का एक तंत्र है। मानवीय श्रम के साथ दिक्कत यह है कि वह बेचैन और महंगा होता है। मशीनें सस्ती पड़ती हैं और बोलती नहीं हैं। पारिस्थितिकी के लिए मशीनें विनाशक साबित हों सकती हैं, लेकिन इससे पूंजीवाद का कोई लेना-देना नहीं। मशीनें सामाजिक रूप से फ लदायी भी हो सकती हैं, चूंकि उनसे जीवन की बाकी मनोरंजक गतिविधियों के लिए समय बच पाता है, लेकिन यह बात तो तभी कोई मायने रखेगी जब मशीनीकरण के फ ल उन मुट्ठी भर लोगों द्वारा न कब्जा लिए गए हों जिनके हाथ में सामाजिक संपदाएं कैद हैं।
हम इतना तो बेशक जानते हैं कि एक नव-उदारवादी सामरिक राज्य का, इससे संभव होने वाली सरकारों का समय अब लद चुका है। ऐसे राज्य यदि बच भी गए, तो उनकी वैधता खत्म हो चुकी है। असंभव का समय हमारे सामने है।
हमें सुधारों के लिए लडऩे की जरूरत है क्योंकि लोगों के वजूद के लिए वे अपरिहार्य हैं। सुधार हालांकि अपने आप में कभी भी वजूद से ज्यादा कुछ भी नहीं दे सकते। व्यवस्था इस हालत में नहीं है कि हमें गले लगा ले। प्रेम मुनाफे और संपत्ति का प्रतिपक्ष है। ऐसा कोई जुगाड़ नहीं जिससे हम इस व्यवस्था को जरा भी बेहतर बना सकते हों। कई लोग तो पहले ही इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि इस व्यवस्था को उनकी जरूरत नहीं रह गई है, इसीलिए उन्होंने खुद भी इस व्यवस्था को नकार दिया है। वे अब वैकल्पिक अर्थव्यवस्थाओं, नए समूहों, पैसे के ऊपर सामाजिक रिश्तों को तरजीह दिलाने वाले नए प्रयोगों को करने में लग गए हैं। या फि र, लोग नाउम्मीद हो चुके हैं। दुनिया भर में मतदान की दर गिरने लगी है (आधुनिक औद्योगिक देशों में आधी मतदाता आबादी वोट नहीं देती)। इनका अलग हो जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था का मखौल उड़ा रहा है।
भविष्य को लेकर हमारा डर, मेरा डर, हमें असंभव समय को खुल कर गले लगाने से रोक रहा है।
अनु.: अभिषेक श्रीवास्तव,
(विजय प्रशाद जाने-माने लेखक और अमेरिका के ट्रिनिटी कॉलेज में प्रोफेसर हैं)
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