एच.एल. दुसाध |
शक्ति के स्रोतों को अपने वंशधरों के लिए आरक्षित करने की शासकों की स्वाभाविक इच्छा के वशीभूत होकर वैदिककालीन शासक गोष्ठी ने वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया। इसके लिए उन्होंने मानवजाति की सबसे बड़ी कमजोरी पारलौकिक सुख (मोक्ष) को हथियार बनाया। मोक्ष के लिए उन्होंने स्व-धर्म पालन को आवश्यक बताया तथा स्व-धर्म पालन के लिए कर्म-शुध्दता को अत्याय कर्तव्य घोषित किया। कर्म-शुध्दता की अनिवार्यता और कर्म-संकरता की निषेधाज्ञा के फलस्वरूप शुद्रातिशूद्र, जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष अर्जित करने के लिए अध्ययन-अध्यापन, पौरोहित्य, राय संचालन, सैन्यवृत्ति, भूस्वामित्व, पशुपालन, व्यवसाय-वाणियादि से विरत रहकर शक्ति संपन्न तीन उच्च वर्णों की निष्काम सेवा में निमग्न होने के लिए बाध्य हुए। किन्तु वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तक सिर्फ कर्म-संकरता (पेशों की विचलनशीलता) को निषेध घोषित आश्वस्त न हो सके। उन्हें भय था कि दैविक-दास में परिणित की गई मूलनिवासी आबादी सिर्फ नरक -भय से चिरकाल के लिए शक्ति के स्रोतों की वंचना को झेल नहीं सकती। वह संगठित होकर उनको चुनौती दे सकती है। ऐसे में उन्होंने अपने भावी पीढ़ी के सुख ऐश्वर्य के लिए भारतीय समाज को विच्छिन्नता और वैमनस्यता की बुनियाद पर विकसित करने की परिकल्पना की। इसके लिए भ्रातृत्व को बढ़ावा देनेवाले हर स्रोत को रुध्द किया। भिन्न-भिन्न जातिवर्णों के विवाह के माध्यम से एक-दूसरे के निकट आने पर भ्रातृत्व को बढ़ावा मिल सकता था इसलिए जाति-सम्मिश्रण अर्थात् वर्ण-संकरता को महापाप घोषित कर अंतरजातीय विवाह को निषेध कर दिया। सजाति की छोटी-छोटी परिधि में वैवाहिक सम्बन्ध कायम होते रहने के फलस्वरूप भारतीय समाज चूहे की एक-एक बिल के समान असंख्य भागों में बंटने के लिए अभिशप्त हुआ। अपनी इस परिकल्पना को बड़ा आयाम देने के लिए उन्होंने न सिर्फ वर्ण-संकरता को महापाप घोषित किया, बल्कि उसकी सृष्टि की अहर सम्भावना को निर्मूल करने का उपाय भी किया। वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने सजाति के मध्य विवाह को अनिवार्य कर समाज को छोटे-छोटे समूहों में बंटे रहने का सुबंदोवस्त किया ही, उनका जन्मजात सर्वस्वहाराओं से रक्त सम्बन्ध स्थापित न हो पाए, इसके ही लिए उन्होंने सती, विधवा, बालिका-विवाह बहुपत्निवादी जैसी प्रथाओं को जन्म दिया। सुविधाभोगी वर्ग की महिलाएं और उनके अभिभावक इन प्रथाओं के अनुपालन में स्वत:स्फूर्त से योगदान करते रहें, इसके लिए शास्त्रकारों ने हजारों अश्वमेध यज्ञ के बराबर पुण्य लाभ की प्रतिश्रुति दिया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मुताबिक सती-प्रथा के अंतर्गत भारत के सुदीर्घ इतिहास में सवा करोड़ नारियों को अग्निदग्ध करके मारा जा चुका है। इसी तरह विधवा-प्रथा के तहत जहां अरबों नारियों को जिंदा लाश में परिणत किया गया वहीं कोटि-कोटि बच्चियों को बालिका-विवाह प्रथा के अंतर्गत बाल्यावस्था से सीधे युवावस्था में प्रविष्ट करा दिया गया। पोलिगामी (बहुपत्निवादी)प्रथा के तहत एक व्यक्ति की पचास-पचास पत्नियों को अपनी यौन कामना को बर्फ बनाने के लिए कितनी संख्यक नारियों को अपार यंत्रणा से गुजरना पद होगा, इसका सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। हिंदू साम्रायवाद को कायम करने के इरादे से जिस वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया गया उसकी मात्र यही खराबी नहीं रही कि इसके अंतर्गत वर्ण-संकरता को महापाप घोषित कर कोटि-कोटि नारियों का निर्मम शोषण; सजाति विवाह के द्वारा विशाल समाज को छोटे -छोटे टुकड़ों में बंटे रहने के लिए अभिशप्त तथा बहुसंख्यक आबादी को श्रम-यंत्र में परिणत कर विशाल मानव संसाधन के दुरुपयोग का चूड़ान्त दृष्टान्त स्थापित किया गया। इसका एक भयावह परिणाम यह भी हुआ कि राष्ट्र चिरकाल के लिए प्रतियोगिताविहीन हो गया। पेशों की विचालनशीलता की वर्जना के कारण शिक्षा-संस्कृति और व्यवसाय-वाणियादि किसी भी क्षेत्र में पूरे देश की प्रतिभाओं को मिलजुलकर योग्यता प्रदर्शन का अवसर ही नहीं मिल पाया। प्रतियोगिता का विशाल मंच सजने ही नहीं दिया गया और यह सब हुआ एक योजना के तहत। इस योजना के तहत क्षत्रियों के शस्त्रों के साये में पालित शास्त्रों द्वारा मूलनिवासियों को अस्त्र स्पर्श वर्जित और शिक्षा निषिध्द कर प्रतियोगिता का मंच संकुचित कर दिया गया। शस्त्रहीन भारत में शस्त्रसजित क्षत्रिय जहां जन-अरण्य के सिंह जैसा आचरण करते रहे वहीं शिक्षा निषिध्द बहुजन समाज में मात्र धर्मग्रन्थ बांचने व श्लोकों का उच्चारण करने सक्षम लोग पंडित (ज्ञानी) की पदवी से भूषित हो गए। चूंकि भारत के 'सिंह' और 'पंडित' एक प्रतियोगिता-शून्य समाज से उठकर क्षमता लाभ किये थे इसलिए उच्चतर पर्याय की प्रतियोगिताओं में बराबर फिसड्डी साबित होते रहे। यही कारण है कि जब शस्त्र-निषिध्द समाज के 'सिंह' शस्त्र सजित समाजों के मोहम्मद बिन कासिम, गजनी, बख्तियारुद्दीन खिलजी, लार्ड क्लाइव इत्यादि से भिड़े तो देश को लंबी गुलामी देने से भिन्न और कुछ न कर सके। इसी तरह शिक्षा निषिध्द समाज में महज कुछ लिपि ज्ञान और मंत्रोचारण में पारंगत पंडित जब अपने 'पांडित्य 'से मानव-सभ्यता के विकास में योगदान के लिए आगे आये तो 33 करोड़ देवताओं को आविष्कृत कर उनकी संतुष्टि के लिए तरह-तरह मंत्र रचने के सिवाय और कुछ न कर सके। कुदरत के खिलाफ जहिनी जंग छेड़कर मानव सभ्यता के विकास में जो योगदान कोपर्निकस, जिआर्दानो ब्रूनो, गैलेलियो, लिओनार्दो विन्सी, न्यूटन इत्यादि जैसे पश्चिम के मुक्त समाज के पंडितों ने दिया, हिंदू-ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे जन्मजात पंडितों के लिए उसकी कल्पना तक करना भी दुष्कर रहा। प्रतियोगिताशून्यता का अभिशप्त सिर्फ सामरिक और शिक्षा का ही नहीं, बल्कि व्यवसाय-वाणिय का क्षेत्र भी रहा। वंश परम्परा से सामरिक और शिक्षा की भांति ही इस क्षेत्र में भी निहायत ही क्षुद्र संख्यक लोग ही प्रतिभा प्रदर्शन के अधिकारी रहे। इसलिए इस क्षेत्र में ऐसी श्रेष्ठतम प्रतिभाओं का उदय न हो सका जो ईस्ट इंडिया कंपनी की भांति देश-देशांतर में अपनी व्यवसायिक प्रवीणता का दृष्टान्त स्थापित करतीं। इनकी काबलियत का यह आलम रहा कि सदियों से देश का धन पूंजी में तब्दील होने के लिए तरसता रहा। बहरहाल वर्ण व्यवस्था के अमरत्व के रास्ते हिंदू-साम्रायवाद को अटूट रखने की परिकल्पना के तहत वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने सती-विधवा-बहुपत्निवादी और बालिका विवाह-प्रथा के साथ अछूत और देवदासी जैसी प्रथाओं को जो जन्म दिया उसके फलस्वरूप इतना विराट सामाजिक समस्यायों का उद्भव हुआ कि परवर्ती काल में वर्णजाति के उन्मूलन के लिए मैदान में उतरे तमाम महामानवों की ऊर्जा ही इनके खात्मे में क्षरित हो गई और वर्णव्यवस्था का कुछ बिगड़ा भी नहीं। दरअसल वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों ने उसके निर्माण के पीछे अपनी मनीषा का इतना बेहतरीन इस्तेमाल किया था कि इसकी अमानवीयता को गहराई से महसूस करने वाले अपवाद रूप से कुछ लोगों को छोड़कर, अधिकांश लोग ही गच्चा खा गए और इसका मुख्य पक्ष आर्थिक, उनकी नजरों से अगोचर रह गया। अगर इसके खिलाफ संघर्ष चलने वाले लोग, इसके निर्माण के पीछे साम्रायवादी-मनोविज्ञान की यिाशीलता को समझने की बौध्दिक कवायद करते तो उन्हें स्पष्ट रूप से यह प्रधानत: सम्पदा-संसाधनों और सामाजिक मर्यादा की वितरण-व्यवस्था नजर आती। फिर तो इसे मुख्य रूप से आर्थिक समस्या मानते हुए वे इससे आांत लोगों (दलित, पिछड़े और महिलाओं) को शक्ति के स्रोतों -आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक- में उनका वाजिब शेयर दिलाने पर अपनी गतिविधियां केंद्रित करते। इससे हिंदू साम्रायवाद कब का ध्वस्त हो गया होता तथा राष्ट्र बेहिसाब आर्थिक और सामाजिक विषमता, दलित-पिछड़ा व महिला अशक्तिकरण सहित विच्छिन्नता व पारस्परिक घृणा जैसी कई समस्यायों से मुक्त हो गया होता। लेकिन जो अब तक नहीं हुआ क्या उसकी शुरुवात आज से नहीं की जा सकती? (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं) http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3701/10/0 |
Sunday, May 12, 2013
हिन्दू-साम्राज्यवाद को अटूट रखने की परिकल्पना
हिन्दू-साम्राज्यवाद को अटूट रखने की परिकल्पना
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