Sunday, May 12, 2013

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अंबेडकरियों के नाम

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अंबेडकरियों के नाम

Posted by Reyaz-ul-haque on 5/08/2013 06:15:00 PM


आनंद तेलतुंबड़े का यह लंबा लेख उस बहस से उपजा है, जिसमें मार्क्सवादी होने का दावा करने वाले कुछ गिरोहनुमान संगठनों ने अपनी ब्राह्मणवादी मूर्खताओं का सार्वजनिक प्रदर्शन ही नहीं किया, उन्होंने यह भी दिखा दिया कि अपनी मार्क्सवादी दिखने वाली शब्दावली की ओट में वे शासक वर्ग के यथास्थितिवादी हितों से वह कितनी गहराई तक जुड़े हुए हैं. इसी के साथ, इस बहस ने कुछ नकली अंबेडकरियों (अंबेडकराइटों) की अस्मिता की राजनीति और अवसरवाद को भी उजागर किया, जो जाति के उन्मूलन और समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की चर्चा चलते ही कानों पर हाथ धर लेते हैं और दूर छिटक जाते हैं. यथास्थिति उनका सबसे बड़ा मकसद है. इन दोनों पक्षों पर आनंद तेलतुंबड़े ने काफी विस्तार से लिखा है. 

मार्च के दूसरे हफ्ते से लेकर अप्रैल के पहले हफ्ते तक यह बहस काफी विस्तार से हस्तक्षेप पर चली और हाशिया पर आनंद तेलतुंबड़े और रिपब्लिकन पैंथर्स के बयानों को जगह दिया गया. तेलतुंबड़े ने इस पूरे प्रसंग पर काफी दर्द के साथ और बेहद गुस्से में यह आलेख मार्च के आखिरी हफ्ते में लिखा था, जो मूल अंग्रेजी में सन्हति पर प्रकाशित हुआ. हाशिया पर इसका अनुवाद पेश किया जा रहा है. अनुवाद: रेयाज उल हक



साफ साफ कहूं तो मैं चंडीगढ़ जाने के लिए खुद को कोसता हूं. इसलिए उतना नहीं कि मैं महाराष्ट्र में कुछ नकली अंबेडकरियों द्वारा छेड़े गए अंतहीन विवाद से शर्मिंदा हूं, बल्कि इसलिए कि जड़ दिमाग वाले कुछ घमंडी लोगों के एक गिरोह द्वारा खुद को मार्क्सवादियों के रूप में पेश किए जाते हुए देख कर मुझे गहरा दुख हुआ है. मैंने कल्पना की थी कि वहां जातियों की मौजूदा दशा पर और उनके खात्मे के संभावित तरीकों पर गंभीर बहस होगी. लेकिन कुछ घंटों की अपनी छोटी सी मौजूदगी में मुझे यह अहसास हुआ कि इसका मकसद अपने अप्रोच पेपर में पेश किए गए नजरिए को बाहरी लोगों की भागीदारी से और समृद्ध बनाना नहीं था, बल्कि यह साबित करना था कि कैसे वे ही सही हैं और दूसरे सभी गलत.

ऐसे सम्मेलनों का मकसद परेशान करने वाले कुछ मुद्दों पर समझदारी विकसित करने के लिए आजाद और खुली बहसों को मुहैया कराना होता है. ये आमसभाओं की तरह नहीं होतीं, जिनमें आयोजक एकतरफा तौर पर लोगों के सामने अधूरी और बेनतीजा बहस को सार्वजनिक करने का फैसला कर सकते हैं. ऐसा महज इसलिए कि व्यापक जनता समझ के उसी स्तर पर नहीं होती, जिस पर सम्मेलन के प्रतिनिधि हुआ करते हैं, जिनको संबोधित करके बातें कही जाती हैं. इसलिए आयोजकों की बुनियादी गलती यह रही कि उन्होंने अपने इस दावे को साबित करने के लिए सम्मेलन के आधे-अधूरे रिकॉर्डों को सार्वजनिक कर दिया, कि वे विजेता हैं. अगर उनमें जिम्मेदारी का जरा भी अहसास होता तो उन्होंने ऐसा नहीं किया होता. अकेले यह बात ही साबित करती है कि वे जाति की भारतीय हकीकत को समझने से कितनी दूर हैं और वे ऐसे नाजुक मुद्दे को हाथ लगाने के लिहाज से कितने अपरिपक्व हैं.

मीडिया को सनसनी की तलाश रहती है और वे मेरी बातों को संदर्भों से काटते हुए, उनमें से यहां-वहां से कुछ बातों को चुन कर उन पर टूट पड़े. उन्होंने कहा कि मैंने बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा दलितों की मुक्ति के लिए की गई सारी कोशिशों को महान विफलता कहा था. असल बात तो ये है कि अप्रोच पेपर में यह बात पहले से ही मेरे नाम पर मढ़ दी गई थी और इस तरह मैं पहली बार ऐसा धमाकेदार खुलासा नहीं कर रहा था. ऐसी राय मैं विभिन्न संदर्भों में अनेक बरसों से जाहिर करता आ रहा हूं और कभी भी इसे बाबासाहेब अंबेडकर के अपमान के रूप में नहीं लिया गया. जहां तक हिंदी अखबार तक बात के लीक होने की बात है, अभिनव सिन्हा इसे पत्रकारों को देने से इन्कार करते हैं, लेकिन क्या वे इसकी जिम्मेदारी से बच सकते हैं? क्योंकि जिस तरह से वे मेरे द्वारा अपनी बात से पलट जाने के रूप में मेरे 'दूसरे बयान' पर अटके हुए हैं, वो यह दिखाता है कि मैं जिस संदर्भ के साथ वहां खड़ा हुआ था और अपनी बातें रखी थीं, उसके बारे में उनमें कितनी अज्ञानता है, चाहे वो असली हो या दिखावटी. मैंने शुरुआत में ही अपना संदर्भ साफ कर दिया था कि मुझे इस अप्रोच पेपर में कुछ भी नया नहीं मिला है, सिवाय उस भयानक तोड़-मरोड़ के जिनमें ज्योतिबा फुले, बाबासाहेब अंबेडकर और पेरियार जैसे महान व्यक्तियों के नेतृत्ववाले जाति-विरोधी आंदोलनों की अंतर्वस्तु का ब्योरा देते हुए उन्हें लगभग खारिज कर दिया गया था. इसी तरह से एक निश्चित रेडिकल नजरिए के साथ इन आंदोलनों पर लिखने वाले जानेमाने लेखकों जैसे गेल ओमवेट, सुभाष गाताड़े और मुझे भी खारिज किया गया था. जाति के बारे में 'मार्क्सवादी' इतिहासलेखन पर हमेशा लिखी जानेवाली बातों के अलावा, इस पूरे पेपर से गैर-मार्क्सवादी (इसे भारतीय संदर्भ में जाने-पहचाने शब्दों जातिवादी और ब्राह्मणवादी होने से अलगाने वाली रेखा बहुत बारीक है) आंदोलनों, सिद्धांत और विचारों के खिलाफ गहरे पूर्वाग्रह की बू आ रही थी. इसलिए मैंने आयोजकों को फटकारने के खयाल से सिर्फ इन तोड़-मरोड़ों को उजागर भर करने का फैसला लिया, कि इस तरह के जातिवादी रवैए के साथ वे जाति पर बहस करने के लायक नहीं हैं. मैंने अप्रोच पेपर से सिर्फ एक पैराग्राफ चुना जिसमें जातियों पर मेरी तथाकथित राय पर बात की गई थी. ऐसा मैंने सिर्फ इसलिए किया क्योंकि मैंने अपने लिए जो मकसद तय किया था, उस दिशा में मैं सबसे बेहतर यही कर सकता था.

वह पैराग्राफ हिंदी में यों था: 

''मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद में समन्वय के एक और प्रमुख प्रस्तोता आनन्द तेलतुम्बड़े एक ओर तो यह मानते हैं कि जाति-उन्मूलन की अम्बेडकर की सारी परियोजनाएँ निष्फल सिद्ध हुईं फिर भी न जाने क्यों अम्बेडकर की पुस्तक जाति-उन्मूलन को (जिसकी विवेचना हम ऊपर कर चुके हैं) भारत में 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' जितना महत्वपूर्ण बताते हैं। तेलतुम्बड़े आरक्षण को एक भँवरजाल मानते हैं और लगातार घटती नौकरियों के इस दौर में उसे निरर्थकप्राय मानते हैं। अस्मिता-राजनीति के भी वे कटु आलोचक हैं। लेकिन मूलाधार-अधिरचना रूपक के फ्रेमवर्क में जाति को समझने के बजाय वे इस फ्रेमवर्क को ही जाति और वर्ग के सम्बन्धों को समझने की राह में बाधा समझते हैं और भारतीय क्रान्ति के लिए जाति को वर्ग संघर्ष से न जोड़ पाना भारतीय कम्युनिस्टों की अक्षम्य भूल मानते हैं। मूलाधार-अधिरचना के प्रश्न पर हम अपनी बात ऊपर कह चुके हैं। तेलतुम्बड़े से भी हमें जाति-उन्मूलन की कोई दिशा नहीं मिलती, न ही यह पता चलता है कि जाति को वर्ग संघर्ष की रणनीति से जोड़ने के लिए अम्बेडकर से मार्क्स वाद को क्या अवदान हासिल होगा!''

इसके पहले एक वाक्य था, जिसमें मेरा हवाला इस तरह दिया गया था:


''हाँ, ऐसे अधिकांश मा-ले ग्रुप, गेल ओमवेत, आनन्द तेलतुम्बड़े, सुभाष गाताडे आदि-आदि अम्बेडकर के इस मौलिक सैद्धान्तिक अवदान पर विस्फारित-नेत्र रह जाते हैं कि जाति-व्यवस्था महज श्रम विभाजन नहीं बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन है और यह चीज़ भारत की विशिष्टता है। नासमझी हमें सामान्य बातों को भी मौलिक मानकर चकित होने के लिए मज़बूर करती है...''

जातियों के विभाजन को छोटा करके मानते हुए, उसे एक उत्पादन व्यवस्था में किसी की जगह तय करने की व्यवस्था जैसे दूसरे विभाजनों के (ऐसे विभाजन मानसिक और शारीरिक श्रम, कुशल और अकुशल श्रमिकों, स्थायी और अस्थायी मजदूरों, ब्रिटेन में ब्रिटिश और आयरिश मजदूरों और अमेरिका में गोरे और काले मजदूरों के बीच हैं-ये मिसालें खुद उनके द्वारा ही दी गई हैं) स्तर पर ले आने की महान अज्ञानता को भी छोड़ दीजिए, जरा इस वाक्य के अपमानजनक लहजे पर गौर कीजिए. यह गलत जगह आधारित, घमंड जो कि जाति विरोधी आंदोलनों, उनके नेताओं और उनके ऊपर लिखने वालों के बारे में बहस पर छाया रहा.

अब जो लोग मेरे लेखन से वाकिफ हैं, उन्हें यह बात कहीं नहीं मिलेगी कि मैंने कभी अंबेडकरवादऔर मार्क्सवाद के समन्वय की हिमायत की है. बल्कि मैंने कभी अंबेडकरवाद शब्द का इस्तेमाल भी नहीं किया है, जिसे मेरे नाम के साथ जोड़ा जा रहा है. जाति का उन्मूलन के प्रति जैसा रवैया रखने का मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है, कि यह कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना ही अहम है, इससे यह संकेत मिलता है मानो जाति का उन्मूलन बेकार है. अप्रोच पेपर में दूसरों के नजरियों का मजाक उड़ाने या उन्हें नकारने के साथ साथ उनके अपने नजरिए को ही सही समझदारी बताने के हवाले भरे पड़े हैं. जाहिर है, आयोजकों ने मेरे बारे में यह राय उस प्रस्तावना के आधार पर, जिसे मैंने जेएनयू में एसएफआर द्वारा जारी एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट के पुनर्प्रकाशन के मौके पर लिखा था, और इंटरनेट पर मौजूद कुछ हालिया साक्षात्कारों के आधार पर बनाई है. मैं पिछले 30 बरसों से इन मुद्दों पर लिखता रहा हूं और मेरी राय कार्यकर्ताओं और इस विषय से सरोकार रखने वाले विद्वानों के बीच खासी जानी-पहचानी हुई है. जाहिर है कि आयोजकों ने मेरी किताबें अच्छे से नहीं पढ़ी हैं, जहां मैंने समकालीन जाति प्रश्न पर बात की है और जाति के उन्मूलन की एक रूपरेखा पेश की है. यहां तक कि उन्होंने जिन स्रोतों का हवाला दिया है, उनमें भी ऐसी गलत व्याख्या की गुंजाइश नहीं है और इस तरह मुझे लगा कि उन्होंने जानबूझ कर दूसरों के विचारों के महत्व को कम करना चाहा था. इससे जातीय पूर्वाग्रहों की बू आती थी. इससे भी अधिक, उनमें जॉर्ज बुश जैसी उद्दंडता थी कि 'या तो आप हमारे साथ हैं या हमारे खिलाफ.' पारंपरिक मार्क्सवादी दायरे के भीतर, उत्पीड़ित जनता की बढ़ती हुई संख्या के व्यापक संगठन के निर्माण के प्रति दुश्मनी भरा यह रवैया नया नहीं है. मैंने बस इसको आड़े हाथों लेने का फैसला किया.

इसलिए मेरी पूरी टिप्पणी उनके रवैए के स्तर पर दिखनेवाली नाकामी पर रोशनी डालने तक सीमित थी. उनके पेपर में यह सबसे आपत्तिजनक रूप में निचली जातियों, खास कर दलितों के जाति-विरोधी संघर्षों के खिलाफ पूर्वाग्रह की शक्ल में जाहिर हो रहा था. मैंने उचित तरीके से दर्शकों के सामने इसके संदर्भ और मकसद को साफ किया. मैंने यह दिखाने की कोशिश की कि कैसे यह तोड़ मरोड़ जानबूझ कर और सोचसमझ कर की गई थी और इसलिए उसमें से जातीय पूर्वाग्रहों की बू आती थी. अगर कोई इस संदर्भ को समझ ले, तो मेरी पूरी टिप्पणी को एक उचित नजरिए से समझा जा सकेगा. इसका मार्क्स या अंबेडकर की हिमायत या विरोध से कोई लेना देना नहीं था. इसका उनके दर्शनों और तौर-तरीकों की तुलना से भी कोई लेना देना नहीं था, जो करने से मैं वैसे भी नफरत करता हूं. उनको खारिज करना तो दूर, इसका संबंध इनका या इनके आंदोलनों का विरोध करने से भी नहीं था. मिसाल के लिए, घोषणापत्र के मुद्दे को लेते हैं. उन्होंने मुझ पर यह आरोप लगाया कि मैं बाबासाहेब अंबेडकर के जाति का उन्मूलन को मार्क्स के कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना महत्वपूर्ण मानता हूं. इस तरह का अपरिपक्व लेखन ही विचारधाराओं और आंदोलनों को ऊंच-नीच के क्रम (हाइरार्की) में रखने की उनकी ब्राह्मणवादी सनक को जाहिर कर देता है. जिस तरह कि पूंजीवाद हरेक चीज को बिकाऊ वस्तु में बदल देता है, ब्राह्मणवाद हर चीज को ऊंच-नीच के क्रम में रखता है. मेरे लिए यह सौभाग्य की बात थी, कि सीडीआरओ के असित दास ने, जिन्होंने वहां मुझसे पहले बात रखी थी, मेरे द्वारा लिखा हुआ वह मूल वाक्य पढ़ा था: 'पूंजीवादी दुनिया के लिए जो कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र है वही जातीय भारत के लिए जातियों का उन्मूलन है,' और उन्होंने भी इस बात को उठाया था कि इसे इसी रूप में अप्रोच पेपर में व्यक्त नहीं किया गया था. मेरे लेखन में उनके क्षेत्रों (डोमेन) को पूरी तरह से अलग अलग दिखाया गया था. मेरी चिंता इन घोषणापत्रों के सही होने या किसी और तरह से उनके विश्लेषण की नहीं थी. जहां तक जाति का उन्मूलन की बात है, उन्होंने जिस प्रस्तावना का हवाला दिया था, उसमें खुद भी समकालीन जातियों पर इसके लागू होने के बारे में मेरे संदेहों की झलक मिलती है. घोषणापत्र अपने वक्त और स्थान में संघर्षों की अभिव्यक्ति होते हैं. वे शून्य में पैदा नहीं होते. उनका सटीक होना या उनमें गलती होना अपरिहार्य रूप से उन संघर्षों से जुड़ा होता है, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं. सिर्फ वक्त ही इसके बारे में तय कर सकता है.

दिलचस्प बात यह है कि जबकि सिन्हा ने मेरे बयान का गलत मतलब निकालते हुए उसे अंबेडकर को सही ठहराने वाले बयान के रूप में लिया, तो दूसरी तरफ दलितों के बीच गलत खबरों और निहित स्वार्थों वाले लोगों ने, छद्म अंबेडकरियों ने उन बयानों को अंबेडकर के अपमान के रूप में पेश किया. असल में मैंने इनमें से कोई भी काम नहीं किया है. मेरा बिल्कुल ऐसा कोई मकसद नहीं था. 'अंबेडकरवाद' शब्द के संदर्भ में मैंने अपना पुराना रुख ही बार बार दोहराया कि मैं नहीं मानता कि ऐसी कोई चीज अस्तित्व में है. मैंने अंबेडकर के संघर्षों और बहस-मुबाहिसों के पीछे के दर्शन या पद्धति के संदर्भ में अपने प्रमाण पेश किए. अनेक विद्वानों ने इसके बारे में लिखा है कि बाबासाहेब अंबेडकर कोलंबिया में अपने प्रोफेसर जॉन डिवी से कितनी गहराई से प्रभावित थे. उन्होंने खुद ही 1952 में उनके बौद्धिक एहसानों को कबूल करते हुए कहा था कि अपने पूरे बौद्धिक अस्तित्व के लिए वे जॉन डिवी के एहसानमंद हैं. डिवी जिस प्रगतिशील व्यवहारवाद या उपकरणवाद (इंस्ट्रुमेंटलिज्म) के दर्शन से जुड़े थे, वह मानता था कि ज्ञान अस्थायी है, एक समृद्ध सिद्धांत और प्रबुद्ध व्यवहार तक पहुंचने के क्रम में किसी भी सैद्धांतिक मान्यता की परख व्यवहार में होना जरूरी है. मैंने महज इसका जिक्र किया, जैसा कि डिवी पर लिखने वाले अनेक लोगों ने कहा है, कि इस पद्धति को वैज्ञानिक पद्धति माना जा सकता है, क्योंकि वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में यही करते हैं. सिन्हा ने इसका गलत मतलब निकालते हुए इसे मेरे द्वारा डिवी को जायज ठहराने और इस तरह अंबेडकर की हिमायत के रूप में लिया. कैसी बेवकूफी है! मेरी बातों का मतलब इस दर्शन की सच्चाई पर जोर देना था कि इसे यों ही खारिज नहीं किया जा सकता. मैं किसी को जायज नहीं ठहरा रहा था और न ही किसी का समर्थन या विरोध कर रहा था. इसी क्रम में मैंने दुनिया में आए नए बदलावों की रोशनी में अनेक मार्क्सवादी सूत्रों पर फिर से सोचे जाने की जरूरत बताई थी. मैंने कहा कि मार्क्सवादी तरीके से सोचने के लिए उकसाने वाली बातों की एक लंबी फेहरिश्त मेरे पास है. तो क्या मैं मार्क्स की आलोचना कर रहा था या उन्हें खारिज कर रहा था? केवल बेवकूफ लोग ही ऐसा कहेंगे. मेरा जोर उन लोगों को संवेदनशील बनाना था जो दुनिया की हकीकतों के प्रति खुली सोच रखने के मामले में इस या उस वाद की अंधश्रद्धा से भरे हुए हैं. सिर्फ इसलिए कि आखिरकार क्रांतियां इन्हीं दुनियाओं में होनी हैं न कि उनके दिमागों में या उन किताबों में जिनके प्रति उनमें इतनी श्रद्धा है.

मैंने कहा कि मार्क्स के उलट बाबासाहेब अंबेडकर ने किसी महान सिद्धांत का दावा नहीं किया. बल्कि मार्क्स के प्रति उनका बुनियादी संदेह इस महान सिद्धांत में उनके गहरे अविश्वास से ही पैदा हुआ था. अपने कम संसाधनों के साथ बाबासाहेब ने व्यवहारवादी पद्धति अपनाई और इस क्रम में उन्होंने अक्सर अपनी रणनीतियां और कार्यनीतियां बदलीं. मिसाल के लिए, पहले वे हिंदूवाद में सुधारों में भरोसा करते थे जैसे कि अछूतों की तकलीफें दूर की जा सकती हैं. जल्दी ही उनका यह भरोसा महाड में सवर्ण हिंदुओं द्वारा दिखाई गई दुश्मनी से और पूरे समाज द्वारा इस मुद्दे पर अपनाई गई चुप्पी से बिखर गया, जैसा कि अब भी होता है. इसके बाद उन्होंने उन राजनीतिक मौकों की ओर रुख किया जो सांप्रदायिक राजनीति के साथ सामने आ रहे थे. उन्होंने अछूतों के लिए अलग राजनीतिक पहचान पर जोर देना शुरू किया और जल्दी ही गोलमेज सम्मेलन में गांधी के सख्त विरोध के खिलाफ अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र हासिल कर लिया. लेकिन लागू होने से पहले ही इसका दम घोंट दिया गया. गांधी के मशहूर उपवास ने अंबेडकर को ब्लैकमेल किया और उन्हें इसे छोड़ने और पूना समझौते के तहत आरक्षित सीटों के साथ संयुक्त निर्वाचन क्षेत्रों और दूसरे वादों को मानने पर मजबूर किया. यह पूरी योजना एक चालबाजी साबित हुई और अंबेडकर को महसूस हुआ कि आरक्षित सीटें असल में दलित हितों के ईमानदार प्रतिनिधित्व को खत्म करने के लिए शासक वर्गीय दलों के हाथ में एक औजार हो गई हैं. उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (आईएलपी) के साथ प्रयोग किया और वर्गीय आधार पर राजनीति शुरू की, कम्युनिस्टों के साथ हाथ मिलाने में भी दिलचस्पी ली लेकिन उनके 'ब्राह्मणवाद' से भी परिचित हुए. औपनिवेशिक ताकतें जिस तरह सांप्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दे रही थीं, उनके सामने यह प्रयोग भी बहुत कम दिनों तक चल पाया. फरवरी 1942 की क्रिप्स मिशन रिपोर्ट इसके लिए आखिरी धक्का साबित हुई और उन्होंने आईएलपी को खत्म करके शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की शुरुआत की. इसी समय वे वायसराय की कैबिनेट में मंत्री बने और शुरुआती तरजीही व्यवस्था को आरक्षण के कोटा सिस्टम में बदलने और ढेर सारे श्रम कानूनों को लाने में उन्होंने मुख्य भूमिका निभाई. जब वायसराय की कार्यकारी परिषद भंग की गई तो तीन साल के लंबे अरसे तक सत्ता हस्तांतरण की सारी बहस के दौरान उन्होंने महसूस किया कि उन्हें परे कर दिया गया है. आखिर में उन्हें गांधी की रणनीति के तहत सर्वदलीय कैबिनेट में शामिल किया गया. संविधान सभा बनने के दौर में उन्होंने भारत के भावी संविधान का मसौदा तैयार किया और 'राजकीय समाजवाद' की एक योजना पेश की. बजाहिर रुकावटों के खिलाफ वे संविधान सभा में पहुंचने में कामयाब रहे लेकिन यह कामयाबी बहुत दिनों तक नहीं बनी रह सकती, क्योंकि पूर्वी बंगाल की निशानदेही पाकिस्तान के रूप में कर दी गई, जहां से वे चुने गए थे. गांधी के कहने पर कांग्रेस एक बार फिर उन्हें संविधान सभा में ले आई और उन्हें इसकी सबसे अहम समिति – मसौदा समिति – का अध्यक्ष बनाया. शुरू में उन्होंने संविधान में आस्था जताई थी लेकिन जल्दी ही उनका इससे मोहभंग हो गया और उन्होंने इसे पूरी तरह ठुकरा दिया. अपनी जिंदगी के आखिरी दौर में बौद्ध धर्म के 'रेडिकल' संस्करण में धर्मांतरण करके उन्होंने 1935 की अपनी प्रतिज्ञा को पूरा किया.

अगर कोई इस संक्षिप्त जीवन-चित्र पर वस्तुगत नजर डाले तो पाएगा कि बाबासाहेब अंबेडकर दलितों की मुक्ति के अकेले मकसद के साथ हालात के मुताबिक अपनी रणनीतियां और कार्यनीतियां बदलते रहे. व्यवहारवाद को छोड़ कर उन्होंने कोई दूरगामी सिद्धांत नहीं खोजा और न ही कोई सैद्धांतिक विचार खोजा जो उनका प्रतिनिधित्व कर सके. वे अपनी उदार प्रतिबद्धता, स्थापित छवियों को तोड़ने वाले रवैए, बौद्धिक ईमानदारी, कड़ी मेहनत, सच्चाई और निष्कपटता के लिहाज से एक आदर्श, एक रोल मॉडल हो सकते हैं. लेकिन शायद उन्हें खींच-तान कर भविष्य का सामना करने के लिए खड़ा नहीं किया जा सकता. अगर वे अपनी पूरी जिंदगी विकास कहते रहे और खुद को बदलते रहे, तो कैसे कोई उन्हें भविष्य में विस्तार दे सकता है? बेहद सोच समझ कर किए गए इस अध्ययन के संदर्भ में ही मैं लिखता रहा हूं कि कोई अंबेडकरवाद नहीं हो सकता, जिसे विद्वानों का एक तबका यों ही इस्तेमाल में लाता रहता है और अंबेडकरी दलितों द्वारा जिसको भावनात्मक रूप से प्रतिष्ठित किया गया है. मैंने इन सबका सार-संक्षेप सम्मेलन में रखा. मैंने कहा कि मार्क्सवाद से मेरा खुद का परिचय मेरे बचपन से शुरू हुआ था और प्रतिबद्धता के स्तर पर मैं मार्क्सवादी पद्धति पर चलता हूं लेकिन मैं खुद को अब भी मार्क्सवादी नहीं कहूंगा. क्योंकि सबसे पहले तो मार्क्सवादी लोग जिस तरह की जड़ता दिखाते हैं, उसको मैं कबूल नहीं करता, और दूसरे, मैं शायद मैं इन सभी वादों से दूर रहता हूं क्योंकि वे अनजाने ही अस्मिताओं के रूप में काम करते हैं और आखिरकार लोगों को बांटते हैं. मैंने मार्क्सवाद की अपनी अवधारणा की व्याख्या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के केंद्र के रूप में की, जब तक कि इसे भौतिक विज्ञानों द्वारा खारिज नहीं कर दिया जाता. इसके आगे इस (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के) केंद्र से जन्मे मार्क्सवाद के ज्यादातर हिस्से में गलतियों का होना मुमकिन है और इसलिए उसे खुद को सही साबित करने के लिए तैयार रहना चाहिए. ग्रांड थ्योरी के दावेदारों को बदलती हुई हकीकत के बरअक्स इसकी वैधता के बारे में सचेत रहना होगा. लेकिन बदकिस्मती से, तथाकथित मार्क्सवादियों ने मार्क्सवाद को एक धर्म बना दिया है, इसे आस्था का एक मामला बना लिया है कि मार्क्स ने आखिरी बात कह दी है. इसी रवैए ने मार्क्स को यह कहने पर मजबूर किया था, 'ईश्वर का शुक्रिया कि मैं एक मार्क्सवादी नहीं हूं' और यह मुझे भी इससे मिलती-जुलती बात कहने पर मजबूर करता है.

बाबासाहेब अंबेडकर के जीवन पर एक सरसरी नजर भी यह संकेत देती है कि उन्होंने हर चरण में नाकामियों का सामना किया. उन्होंने जिन चीजों की उम्मीद की थी, वे साकार नहीं हुईं. दलितों के जिस राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने इतनी मशक्कत की थी, वह अभिशाप साबित हुई. वे खुद आरक्षित सीटों पर राजनीतिक रूप से बौने कद के उम्मीदवारों के मुकाबले भी कभी जीत नहीं सके. उन्होंने दलितों के लिए उच्च शिक्षा पर जोर दिया और कॉलेज खोले, लेकिन जल्दी ही इस पर अफसोस जाहिर किया कि पढ़े-लिखे लोगों ने उन्हें धोखा दिया है. उन्होंने जाति के उन्मूलन का मंत्र दिया लेकिन आधुनिक भारत में जातियों को मिलती संवैधानिक वैधता ही उनके हाथ लगी. हम ऐसे अनचाहे अंजामों को गिनाते रह सकते हैं, जो उन्हें पूरी जिंदगी अपनी कोशिशों के नतीजे में हासिल होते रहे. अगर कोई दलितों की मौजूदा दशा पर नजर डाले, तो हमें इससे मिलती-जुलती तस्वीर दिखेगी. जबकि कुछ मुट्ठी भर दलितों ने महत्पवूर्ण तरक्की की है, दलितों की व्यापक बहुसंख्या गैर-दलितों की तुलना में ठहराव का शिकार है या यहां तक नीचे ही गिरी है. व्यापक रूप से कहें तो अछूतपन, हालांकि संविधान में इस पर पाबंदी है, हालिया सर्वेक्षणों द्वारा मिले संकेतों के मुताबिक खुलेआम व्यवहार में लाया जा रहा है. जातियां एक आधुनिक संस्थान के रूप में आक्रामक बनी हुई हैं. यहां तक कि दलित भी, और अजीब विडंबना है कि अंबेडकरी होने का दावा करने वाले दलित भी, जातीय पहचानों पर गर्व से इतराते हैं. उत्पीड़न की घटनाओं के आधार पर मापें तो, जिसे मैं जातिवाद का सबसे बेहतर प्रतिनिधि मानता हूं, तो जातियां यकीनन और भी संगीन हुई हैं. अंबेडकर ने दलितों के लिए जो संस्थान खोले, जैसे कि पीपुल्स एडुकेशनल सोसाइटी, बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, समता सैनिक दल, उन सबमें बेतरतीबी पसरी हुई है. अंबेडकरी राजनीति के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही बेहतर.

अगर इन चीजों का मतलब नाकामी नहीं है तो फिर उन्हें और क्या कहा जा सकता है? यह बात दिन की रोशनी की तरह ही साफ है, लेकिन दलित इसे एक आघात की तरह लेते हैं और नाराज हो जाते हैं. वे नहीं जानते कि अपने व्यवहार से वे अंबेडकर को और नाकाम ही कर रहे हैं. अंबेडकर दलितों से प्रबुद्ध होने की अपेक्षा रखते थे, लेकिन हकीकत को देखने से इन्कार करके वे इतराते हुए खुद को निर्बुद्ध के रूप में पेश करते हैं. क्या वे कभी अपने भीतर झांकते हुए इसे महसूस करेंगे कि अंबेडकर के साथ वफादारी का दावा करनेवाला उनका हर व्यवहार अंबेडकर-विरोधी है और असल में अंबेडकर के लिए अपमानजनक है? अकेले बाबासाहेब अंबेडकर ही नहीं, इतिहास में इंसानी मुक्ति के सार्वभौभिक मकसद का सपना देखने वाले हरेक महान इंसान को महान नाकामियों का सामना करना पड़ा है. लेकिन फिर भी यह तथ्य बना हुआ है कि इंसानियत अपने वजूद के लिए उनकी एहसानमंद रहती है, उनकी कामयाबियों से भी ज्यादा उनकी नाकामियों के प्रति. अपनी जिंदगियों के बेहतर बनाने में उनके योगदानों को हम नकार नहीं सकते. ऐसे तथ्यों का कठोर एहसास दलितों को उनकी, खुद पर थोपी हुई नींद से ही जगाएगा. उनकी नाकामियों को महसूस करने के जरिए ही हम उस दर्द और यात्राओं को महसूस कर पाएंगे, जिनसे होकर बाबासाहेब अंबेडकर गुजरे थे, उनके योगदानों को समझ पाएंगे और उनके सपनों को पूरा करने के लिए कोशिशें करने की अपनी जिम्मेदारी को अपने भीतर उतार पाएंगे. क्या उन्हें उनके जीवन के थकान भरे अंत को याद नहीं करना चाहिए जब पीछे मुड़ कर अपने जीवन का विश्लेषण करते हुए वे अचानक रो पड़े थे और कहा था कि उन्होंने जो भी किया उसने सिर्फ मुट्ठी भर शहरी लोगों को ही फायदा पहुंचाया, वे गांवों में रहनेवाली व्यापक बहुसंख्या के बारे में कुछ भी नहीं कर सके? इस एहसास के कारण ही उन्होंने मिलने के लिए आई हुई मराठवाड़ा की एक एससीएफ टीम में शामिल बी.एस. वाघमारे से जमीन के लिए संघर्ष शुरू करने को कहा था. पूरे इतिहास में दलितों की असली समस्या पर हुआ अकेला महत्वपूर्ण संघर्ष 1964 का देशव्यापी सत्याग्रह था, जिसके बारे में मेरा अंदाजा है कि इस संघर्ष को भी उन्होंने ही अपने आखिरी वर्षों में शुरू किया था. यह बात उन सभी तथाकथित अंबेडकरियों के सामने मामले को साफ कर देती है, जिन्होंने इस मुद्दे पर मेरे खिलाफ झूठी अफवाहें फैलाईं मानो मैं ये बातें पहली बार कह रहा होऊं!

ज्यादातर महान लोगों को एक महान नाकामी के बतौर देखा जा सकता है, क्योंकि उन्होंने अपने लिए जो मकसद तय किए उन्हें वे कभी हासिल नहीं कर पाए. हरेक युग में संघर्षों और अनगिनत महान लोगों की कोशिशों के बावजूद इंसानी मुक्ति का मकसद, जो अलग अलग जुबानों और तरीकों से जाहिर हुआ है, बहुत पुराने जमाने से अभी तक ज्यों का त्यों बना हुआ. बाबासाहेब अंबेडकर का मकसद क्या था? उन्होंने खुद इसे अपने एक आदर्श समाज के चरित्र की अवधारणा के रूप में बताया था 'आजादी, समानता और भाईचारा.' क्या यह पूरा हुआ? यहां तक कि दलितों की मुक्ति का उनका सहायक मकसद तक अधूरा रह गया. मैंने पहले ही उन बातों का जिक्र किया है, जिनको वे हासिल करना चाहते थे लेकिन जिनका उल्टा उन्हें हासिल हुआ. उन्होंने कल्पना की कि वे पूरे भारत को बौद्ध बना देंगे. लेकिन तथ्य ये है कि बौद्ध धर्म दलितों में भी सिर्फ उनकी अपनी जाति के लोगों के बीच सीमित है. बाबासाहेब ने नायक पूजा को नापसंद किया था, लेकिन इसके उलट उन्हें एक असाधारण नायक और पूज्य व्यक्ति बना दिया गया. उन्होंने निर्ममता से देवताओं और देवियों की चीर-फाड़ की, लेकिन दुखद है कि वे खुद किसी भी देवता से बड़े देवता बना दिए गए. उन्होंने अतर्कसंगतता और छल-कपट से नफरत किया, लेकिन अपने अनुयायियों की कृपा से उन्हें इसमें घसीट लिया गया. उन्होंने बौद्धिक बेईमानी से नफरत की, उनके अनुयायियों ने इसे एक गुण ही बना दिया. उन्हें मूर्तिभंजक होने पर गर्व था, उन्हें खुद अब तक की सबसे बड़ी मूर्ति बना दिया गया. उन्होंने अपने अनुयायियों से उम्मीद की थी कि वे प्रबुद्ध बनेंगे और उनके रथ को आगे ले जाएंगे. उनके अनुयायियों ने दुनिया से खुद को काट लिया और उनके अंधभक्त बन गए, एक भक्तिपंथ बन गया. इसकी वजहें चाहे उनके अनुयायी हों या हालात, यह तथ्य बरकरार है कि वे अपने मसकद से बहुत पीछे रह गए.

मेरा दूसरा बिंदू, जो अनकहा रह गया (और जिसने सिन्हा को इसपर खेल जाने का मौका दिया), लेकिन जो ठीक ठीक 'ग्रांड थ्योरी' और 'पुनर्विचार' पर मेरी टिप्पणी के संदर्भ में ही निहित था, वो कॉमरेडों को मार्क्स की नाकामियों के प्रति संवेदनशील बनाने का था, जो इतिहास की दूसरी किसी भी नाकामी से कहीं अधिक नुकसानदेह है. अंबेडकर की नाकामी उनकी पद्धति और प्रगतिशील व्यवहारवाद में निहित थी. सिन्हा द्वारा डिवी के दर्शन पर अपने लंबे व्याख्यान में बेहद विस्तार से की गई व्याख्या, जिसके बारे में मैं कबूल करता हूं कि मैंने उसे पसंद किया और ऐसा अपने दूसरे बयान में कहा भी, गैर जरूरी थी. उसके बारे में मैंने ठीक पहले ही बयान में इशारा किया था. मैंने मार्क्सवादी दर्शकों को यह याद दिलाने की कोशिश की कि मार्क्सवाद एक इतिहास और जड़ बन चुका, जीवाश्म हो चुका दर्शन नहीं है और न ही यह मार्क्स के प्रति वफादारी जताने का कोई काम है. बल्कि यह अपने आस पास की गतिशील हकीकत को समझने की पद्धति है ताकि इंसानियत को बेहतर बनाने के लिए इस हकीकत को बदला जा सके. हम आसानी से इन नाकामियों को गिना सकते हैं जैसा कि मैंने बाबासाहेब अंबेडकर की नाकामियों के संदर्भ में किया या फिर इतिहास के ज्यादातर महान इंसानों की नाकामियों के संदर्भ में होता है, जिसमें मार्क्स भी शामिल हैं. हालांकि मार्क्स की नाकामी ज्यादा विराट बन गई क्योंकि उनका सिद्धांत एक 'ग्रांड थ्योरी' था. अगर हम आस्थाओं को परे कर दें तो मार्क्स के सूत्रीकरण यथार्थ की पुष्टि करने में भी नाकाम रहे, इसमें बदलाव लाने में तो और भी ज्यादा नाकाम रहे. पूंजीवाद, अपने अंतर्निहित संकटों के बावजूद इसे पीछे छोड़ने में सक्षम हुआ और यहां तक कि उसने इसे हाशिए पर धकेल दिया. क्या मार्क्सवादियों को इसके बारे में चिंता नहीं करनी चाहिए? अगर मैं ऐसा कहता हूं तो मैं मार्क्स को बिल्कुल भी नीचा नहीं दिखा रहा हूं. वे मेरे सबसे ज्यादा प्रशंसनीय विचारकों में से एक बने हुए हैं. इसलिए मार्क्सवादियों को अपने आपको भुलावा नहीं देना चाहिए कि मार्क्स ने आखिरी बात कह दी है, और एक तरह से सिद्धांत का अंत हो गया है. उन्होंने अपनी विचारधारा की अशुद्धियों को छुपाने के लिए एक ज्यादा विस्तृत शब्दावली विकसित कर ली है. आजीवन कॉमरेड रहा एक व्यक्ति अचानक एक गद्दार, प्रतिक्रियावादी और जनता के दुश्मन में बदल सकता है!

मैंने दुनिया में सामने आए कुछ नए विकासों को गिनाया, जो मार्क्सवादी व्यवहार में शामिल किए जाने की मांग करते हैं और कहा कि मेरे पास ऐसी चीजों की एक लंबी सूची है. सिन्हा इस तथ्य पर खुशी से झूम उठे कि मैंने कभी मार्क्स की नाकामी का जिक्र नहीं किया है. मैंने एक लिखा हुआ भाषण नहीं दिया था. मैं बिना किसी तैयारी के एक ऐसी भाषा (हिंदी) में बोल रहा था जिसका मैं आदी नहीं था और एक ऐसे समूह के सामने बोल रहा था जो शायद उस बात से अनजान था जो मैं बोल रहा था इसलिए मेरा बयान उतना सुसंगत नहीं भी हो सकता था लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसने मुझे वह बात लोगों तक पहुंचाने में कोई रुकावट डाली, जिसको रिपब्लिकन पैंथर्स ने अपने स्तर से स्वतंत्र रूप से याद किया है. मेरी पूरी दलील का जोर उन्हें इस बात के प्रति संवेदनशील बनाना था कि उन्हें सिर्फ इसलिए उन ऐतिहासिक आंदोलनों और जननायकों को खारिज करते हुए अहंकारी नहीं बनना चाहिए, कि वे उनके कबीले से ताल्लुक नहीं रखते. भारत के मार्क्सवादियों के सामने सबसे बड़ी चुनौती दलितों में मौजूद अलगाव से पार पाना और उनका भरोसा जीतना है.

अंबेडकर मार्क्सवादी नहीं थे. जैसा कि मैंने कहा, उन्होंने डिवी से मार्क्सवाद की आलोचना विरासत में पाई थी. इसे कोई भी बिना खास जहमत के देख सकता है. उन्होंने डिवी से फेबियनवाद भी हासिल किया था, जो तब और मजबूत हो रहा था जब वे लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में दाखिल हुए. यह एक ऐसा संस्थान था जिसे फेबियन सोसाइटी ने स्थापित किया था और जिसमें फेबियनवाद के संस्थापक सिडनी और बियाट्रिस वेब जैसे लोग अब भी पढ़ा रहे थे. फेबियनवाद मार्क्सवाद का विरोध करता था और समाजवाद के बारे में उसका एक घालमेल भरा नजरिया था. फेबियनवादी सोचते थे कि क्रांतिकारी साधनों के बजाए, समाजवाद को धीरे-धीरे और सुधार के रास्ते से लाया जाएगा, और इसे सर्वहारा के बजाए प्रबुद्ध मध्यवर्ग द्वारा हासिल किया जाएगा. बाबासाहेब अंबेडकर में भी इन अवधारणाओं की झलक मिलती है. बाद में जाकर फेबियनों को मजदूरों को संगठित करने की जरूरत महसूस हुई और उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी (आईएलपी) का गठन किया. इसी फेबियन आईएलपी की तर्ज पर अंबेडकर ने अपनी आईएलपी बनाई थी. इस गहरे प्रभाव के बावजूद वे बदहाल जनता के भीतर मार्क्सवाद के प्रति संभावित आकर्षण से अनोखे रूप से अवगत भी थे और हमेशा इन तौर-तरीकों को मार्क्सवादियों के तौर-तरीकों से श्रेष्ठ, शायद अनिवार्य तौर तरीकों के रूप में पेश करते रहे. वे इसके विरोधी नहीं थे जैसा कि उनके मराठी लेखन में रूसी क्रांति और इसके नायकों के अकसर जिक्र के सिलसिले में देखा जा सकता है. सिर्फ बाद में जाकर ही, बंबई के कम्युनिस्टों के साथ कड़वे अनुभवों के साथ, उनमें उनके प्रति एक तरह का विद्वेष पैदा हुआ. मैं उन्हें मार्क्सवाद को एक कसौटी के रूप में इस्तेमाल करते हुए देखता हूं, एक ऐसी चीज के रूप में जो उनकी अपनी पद्धतियों के बाद सबसे बेहतर पद्धति है. 1953 में, उन्होंने अपने प्रतिनिधि दादासाहेब गायकवाड़ को लिखा कि उन्होंने देख लिया है कि उनकी पद्धति काम नहीं कर रही है और इसलिए उनके लोग अगर चाहें तो कम्युनिस्ट बन सकते हैं. इसके बावजूद, अब भी यह कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद की उनकी समझ समुचित होने से दूर थी. उन्होंने कभी भी मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों का हवाला नहीं दिया और न ही उन्हें छुआ. हालांकि एक बार उन्होंने कहा था कि उन्होंने मार्क्सवाद पर सारे मार्क्सवादियों को मिला कर भी ज्यादा किताबें पढ़ी हैं. अगर यह सही भी हो तो उनमें एक भी किताब क्लासिक नहीं रही होगी. कठमांडू में अपने आखिरी व्याख्यान में भी, जहां उन्होंने बौद्ध धर्म और मार्क्सवाद की तुलनात्मक तस्वीर पेश की थी, उन्होंने मार्क्सवाद के बारे में महज ऐसी चीजों का हवाला दिया जिनको मार्क्स का कोई भी समझदार पाठक गंभीरता से नहीं लेगा. ऐसे अनुमानों से अंबेडकरियों तक को भी क्यों अपमानित महसूस करना चाहिए? क्या उनका व्यवहार अतार्किक नहीं है? क्या यह अंबेडकर का सच्चा अनुयायी बनना है?

भारतीय समाज के प्रति अंबेडकर के योगदानों का मूल्यांकन करने में इस बात का बिल्कुल भी कोई महत्व नहीं है कि उन्होंने मार्क्सवाद की परवाह नहीं की. वे निचले से भी निचले तबके के लोगों की चेतना को मानवाधिकारों तक उन्नत करने वाले अकेले व्यक्ति थे. वे जाति के सवाल को राष्ट्रीय स्तर पर प्रमुखता दिलाने वाले और जाति के उन्मूलन का नारा देने वाले पहले व्यक्ति थे. कम्युनिस्टों के योगदानों को कोई भी नकार नहीं सकता और कमोबेश यह सच है कि देहातों में उनके द्वारा चलाए गए वर्ग संघर्षों ने जातियों को कमजोर किया. लेकिन आखिरी तौर पर यह कबूल किया जा सकता है कि अंबेडकर का प्रभाव उन सबके प्रभाव से आगे जाता है. कोई इस चेतना की गुणवत्ता की परख कर सकता है, लेकिन यह एक अलग मामला है. भारत में यह लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया का एक जरूरी कदम के रूप में देखा जा सकता है. इसी अर्थ में मैंने कहा था कि भारत के लोकतंत्रीकरण में उनका योगदान सभी कम्युनिस्टों के योगदानों को आपस में मिला कर भी बड़ा था. यह भाषण के दौरान जान बूझ कर कही गई एक बात थी, क्योंकि मैं चाहता था कि कम्युनिस्ट इस पर सोचें कि उन्होंने कैसे-कैसे मौके छोड़े हैं और उन गलतियों के नतीजे क्या रहे हैं.

मैं भारत के वर्ग विश्लेषण के लिए यूरोपीय सांचों के आयात के लिए शुरुआती मार्क्सवादियों को दोषी ठहराता रहा हूं. लेनिन ने वर्गों की परिभाषा इस तरह दी:
'वर्ग लोगों के वे बड़े समूह हैं जिनके बीच का फर्क ऐतिहासिक रूप से तयशुदा एक सामाजिक उत्पादन व्यवस्था में हासिल उनकी जगह के द्वारा, उत्पादन के साधनों के साथ उनके संबंधों के द्वारा (ज्यादातर मामलों में कानून द्वारा निर्धारित और सूत्रबद्ध), श्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका के द्वारा, और इसके नतीजे में सामाजिक संपदा में उनकी हिस्सेदारी के पहलुओं द्वारा, जिसे वे छोड़ते हैं और उसको अपनाने के उनके तौर तरीकों द्वारा तय होता है 
-(व्लादिमीर आई. लेनिन: 'ए ग्रेट बिगनिंग: हीरोइज्म ऑफ द वर्कर्स इन द रियर: 'कम्युनिस्ट सुब्बोत्निक्स': 'कलेक्टेड वर्क्स' में, अंग्रेजी संस्करण, खंड 29, मॉस्को, 1965, पृ. 421)

मेरा दावा है कि अगर शुरुआती कम्युनिस्टों ने लेनिन की इस परिभाषा को अपने भीतर उतार लिया होता, तो जातियों को बाहर रख कर वर्ग और जाति का बेवकूफी भरा द्वंद्व निर्मित नहीं हुआ होता. यहां तक कि वे आज भी 'आधार और अधिरचना' की मार्क्सवादी उपमा को मजबूती से दोहराते रहते हैं. सिन्हा अब भी मेरे बयान में इस बात को एक बड़ी समस्या के रूप में देखते हैं कि यह उपमा भारतीय क्रांति की राह में सबसे बड़ी बाधा है. किसी दलित मार्क्सवादी से पूछिए और वो इस उपमा को खारिज कर देगा. क्यों? यही भारत और इसके जातीय विभाजन की हकीकत है! अब यह मत कहिए कि केवल गैर-दलितों ने ही 'शुद्ध' मार्क्सवाद को ग्रहण किया है. इस उपमा के इर्द-गिर्द एक खासा विवाद रहा है जिसने सांस्कृतिक मार्क्सवाद के क्षेत्र में सैद्धांतिक विकास की शुरुआत की थी. लेकिन हम इस मामले में दखल नहीं देंगे. समय के साथ भारतीय मार्क्सवादियों ने यह बात समझ ली कि जातियां महज ऊपरी संरचना का पहलू भर नहीं हैं बल्कि उत्पादन आधार तक उनका विस्तार है. 1920 के दशक में जातियां कम से कम व्यापक अर्थों में लोगों के जीवन को परिभाषित करती थीं और इस तरह अगर वे वर्ग विश्लेषण में शामिल कर ली जातीं, तो जाति विरोधी संघर्ष वर्ग संघर्ष का अभिन्न हिस्सा हुआ होता और जिसने अलग जाति विरोधी संघर्षों की जरूरत को खत्म कर दिया होता, जिसे एक दूसरे ही रास्ते पर जाना था जो कि गया भी. मैंने इसे कम्युनिस्टों का सबसे बड़ा पाप कहा है. इस बात पर भी आयोजकों की तरफ से एक भारीभरकम तोड़ मरोड़ किया गया था. बेशक जो 1920 के दशक में मुमकिन था, उसी बात को 2013 में करने की कोशिश नहीं की जा सकती. लेकिन यह बात समझनी चाहिए कि तब एक भारी गलती की गई थी. हैरानी की बात है कि मार्क्सवादियों की तरफ से कभी इसे कबूल भी नहीं किया गया. जाति के सवाल पर उनके द्वारा अचूक दावों के साथ, कि यह पहले वाले से बेहतर है, हर तरह की प्रबुद्धता जाहिर करने के दौरान आप उनके सामने यह आसान सा मुद्दा रखिए और आप देखेंगे कि कैसे वे इस उपमा से ऐसे चिपकते हैं मानो यह मार्क्सवाद की केंद्रीय विषय वस्तु हो.

मैंने अनेक बार कहा है कि जाति का केंद्रीय चरित्र अमीबा की तरह है. यह केवल विभाजित होना जानती है. जातियों को बुनियादी तौर पर ऊंच-नीच के क्रम की जरूरत होती है. ये ऐसी किसी जगह में जीवित नहीं रह सकतीं जहां ऊंच-नीच का क्रम न हो. बाहरी दबाव से इनमें सिकुड़ने का रुझान दिखता है, लेकिन आप यह दबाव हटा दीजिए और वे फिर से विभाजित होने लगेंगी. सभी जाति विरोधी आंदोलनों ने यह अनुभव किया है लेकिन वे जातियों के इस केंद्रीय चरित्र पर गौर करने में नाकाम रहे हैं. बाबासाहेब अंबेडकर ने सभी अछूतों को एक वर्ग के रूप में संगठित करते हुए अपने जाति विरोधी संघर्ष को वर्गीय आधार पर चलाने की कोशिश की. उनमें जातियों की जगह 'वर्ग' का इस्तेमाल करने का झुकाव था. जाति पर अपने पहले ही निबंध में, जब वे कोलंबिया में बस एक छात्र हुआ करते थे, उन्होंने जातियों के चरित्र पर मजबूत अनुमान पेश किए (मैं जानता हूं, सिन्हा और उनके गिरोह के कॉमरेड इससे खुश नहीं होंगे). कहने की जरूरत नहीं है कि वर्ग की उनकी अवधारणा मार्क्सवादी नहीं थी बल्कि वह वेबरवादी अर्थ के ज्यादा नजदीक थी. लेकिन आगे बढ़ने के साथ ही, हालात के आगे बार-बार उन्हें जातियों पर पहुंचना पड़ा. नतीजे में, अनेक लोगों को यह सुनना खराब लगता है कि उनका संघर्ष जाति आधारित संघर्ष नहीं था. उनके आंदोलन से जिस 'दलित' ने आकार हासिल किया और छलावा देते हुए जो व्यावहारिक के रूप में सामने आया, जिसमें सभी उप जातियों को एक साथ बांध दिया गया है, वो आज 60 साल के बाद उप जातियों के उभार के साथ अपने अस्तित्व के खात्मे का सामना कर रहा है. दलितों के लिए इस तर्कसंगत नतीजे को समझना जरूरी है कि जातियां किसी भी क्रांतिकारी बदलाव के लिए किसी संघर्ष को खड़ा करने का आधार नहीं हो सकतीं. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि उन्हें जातीय मुहावरों से बचना होगा और उन्हें वर्गीय आधारों की ओर बढ़ना होगा. यह समझने के लिए हालात आज पहले के किसी भी दौर से ज्यादा अनुकूल हैं क्योंकि हरेक जाति ने अपने भीतर एक वर्ग स्तर बना लिया है, जो बाकियों के साथ पहचाने जाने का दिखावा करता है लेकिन असल में उनका शत्रु है. दलितों के लिए मार्क्सवाद को शुद्ध बनाने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनके द्वारा अंबेडकर के उपयोग की संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई हैं. बाबासाहेब अंबेडकर ने उन्हें जाति के उन्मूलन का सपना दिया था. पूरा करने के लिहाज से यह एक अच्छा सपना है. इसकी राह में आनेवाली हरेक चीज को अंबेडकर-विरोधी कह कर खारिज किया जाना चाहिए. जातियां अकेले दलितों द्वारा नष्ट नहीं की जा सकतीं, इसकी सीधी सी वजह ये है कि दलितों ने इसे नहीं बनाया है. जब तक व्यापक समाज इस काम को अपने हाथ में नहीं लेता, जातियों का उन्मूलन नहीं हो सकेगा. इसलिए दलितों को अपने दोस्तों और दुश्मनों की पहचान 'प्रमाणपत्रों' के आधार पर नहीं बल्कि जीवन अवस्था, यानी वर्ग, में उनकी जगह के आधार पर करनी चाहिए. मैं वामपंथियों को भी इससे एक उल्टी सलाह देता रहा हूं कि उन्हें रूढ़िवाद छोड़ देना चाहिए और जातियों को क्रांति की राह में प्रमुख बाधा के रूप में देखना चाहिए और इसे अपने व्यवहार में दिखाना भी चाहिए. इस जुबानी जमाखर्च से काम नहीं चलेगा कि वे बोलते वक्त बड़ी होशियारी भरी बातें बोलें लेकिन पुरानी उपमाओं पर टिके रहें. उनके सिद्धांत और उनके व्यवहार में यह प्रतिबद्धता दिखनी चाहिए कि वे असल में बदल गए हैं. इन दोनों आंदोलनों, न कि वादों, के इस क्रमिक मेल से ही एक नया क्रांतिकारी आंदोलन जन्मेगा जो भारतीय क्रांति को तेज करेगा. इसी दलील के साथ मैं दोनों पक्षों को बरसों से चेतावनी देता आया हूं: 'बिना क्रांति के दलितों की मुक्ति नहीं होगी और बिना दलितों की भागीदारी के क्रांति नहीं होगी.' क्या इसमें कोई अंबेडकर-विरोधी बात है? या क्या मैं वही बातें बोल रहा हूं जो सिन्हा ने कहीं?

एक और मामला है, जिसको फर्जी अंबेडकरियों ने उठाया और जो आरक्षण नीति के साथ जुड़ा हुआ है. मैंने 'कोटा' आधारित मौजूदा आरक्षण व्यवस्था की उत्पत्ति की तरफ ध्यान दिलाया, जो वायसराय की कार्यकारी परिषद के लेबर मेंबर के नाते बाबासाहेब अंबेडकर द्वारा जारी किए गए एक सीधे-सादे मेमोरेंडम से शुरू हुआ था. यही नीति आजादी के बाद भी जारी रही, बस इसमें आदिवासियों के लिए एक अनुसूची जोड़ दी गई. संविधान में इससे संबद्ध उच्छेद अनुसूचित जाति (एससी), जनजातियों (एसटी) और पिछड़े वर्गों (बीसी) के आरक्षणों के लिए तर्क के रूप में उनके पिछड़ेपन को पेश करता है. भारत जैसे पिछड़े देश में पिछड़ेपन को समानता के एक आम उसूल के अपवाद के रूप में पेश करना एक मजबूत आधार नहीं लगता. इसके पीछे का आधार जाति आधारित बहिष्करण होना चाहिए था. इस बहिष्करण की पीड़ा अकेले अनुसूचित जातियों ने भुगती थी, आदिवासियों ने नहीं जो जातियों के दायरे से बाहर थे और पिछड़े वर्गों ने तो निश्चित तौर पर नहीं. अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण इस उसूल पर होना चाहिए था कि यह उनकी अक्षमता (पिछड़ापन) नहीं है बल्कि यह व्यापक समाज द्वारा समान सदस्यों के रूप में उनसे व्यवहार न कर पाने की अक्षमता है जिससे बराबरी लाने वाली, राज्य की एक ताकत के रूप में आरक्षण की जरूरत पड़ी. अगर अनुसूचित जातियां पिछड़ी नहीं होतीं तब भी समाज ने जातियों की अपनी गहराई तक धंसी धारणा के कारण उन्हें कभी भी उनका हिस्सा नहीं दिया होता. इसमें अगला पहला सुधार इसके प्रभाव के दायरे के संबंध में हुआ होता. यह महज छोटे से सार्वजनिक क्षेत्र तक सीमित नहीं होता बल्कि यह पूरे सामाजिक क्षेत्र को अपने दायरे में लेता: जैसे कि सार्वजनिक, निजी और हरेक चीज को. ऐसे सूत्रीकरण ने मौजूदा अनेक नीतिगत खामियों को दूर कर दिया होता: अपने आप खत्म हो जाने वाली विशेषता का अभाव, व्यापक समाज में स्वीकृति का अभाव, इसका लाभ उठाने वाली आबादी पर इसके मानसिक-सांस्कृतिक प्रभाव के बारे में चिंता का अभाव वगैरह. पिछड़ेपन के उलट अनुसूचित जातियों का जातीय बहिष्करण एक ठोस हकीकत थी न कि विवादास्पद. तब जाति के उन्मूलन की जिम्मेदारी व्यापक समाज पर आ गई होती, जिस पर यह जिम्मेदारी होनी ही चाहिए. व्यापक इस नीति को खत्म करने के क्रम में जाति के उन्मूलन के मकसद को पूरा करता. समाज ने जिस कलंक को जन्म दिया था, उससे ये लाभान्वित लोग बरी हो जाते और उन्हें निचली जाति होने के पारंपरिक तोहमत को भी शायद नहीं उठाना होता. आज अनुसूचित जातियां मानसिक दबाव के रूप में भारी कीमत चुका रही हैं, जो हर कहीं उनके पिछड़ेपन को कायम रखता है. जब मैं यह बात कह रहा हूं तो मैं आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के खिलाफ नहीं हूं. मैं स्वीकार करता हूं कि पिछड़ेपन के आधार पर उनमें भी उतने ही पिछड़े लोग हैं जितने अनुसूचित जातियों में हैं. और उनके बारे में भी राज्य की जिम्मेदारी बनती है. लेकिन आरक्षण एक कड़वी गोली है और इसे किफायत से ही इस्तेमाल में लाया जाना चाहिए. जातियों में फिर से जान डाले बिना लोगों के पिछड़ेपन को दूर करने के और भी दूसरे नीतिगत उपकरण हैं. शासक वर्ग कभी भी इस सुनहरी मुर्गी को हाथ से जाने नहीं देगा लेकिन जनता के पक्ष में खड़े बुद्धिजीवियों को आंख मूंद कर उनकी बातों पर नहीं चलना चाहिए.

अनुसूचित जातियों के इन आरक्षणों को भी सामाजिक हकीकत पर विचार करते हुए सावधानी से लागू किए जाने की जरूरत है. अनुसूचित जाति एक प्रशासनिक श्रेणी है जो अनगिनत जातियों और विभिन्न परिवेशों (ग्रामीण बनाम शहरी) और उनमें रह रहे लोगों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के सामाजिक यथार्थ से मेल नहीं खाती. अपेक्षाकृत बेहतर सामाजिक-आर्थिक स्थितियों वाले शहरों और महानगरों में रहने वाले लोगों की एक छोटी सी संख्या द्वारा बाकी की आबादी के मुकाबले आरक्षण का एक बड़ा हिस्सा हड़प लिया जाना तय है. इससे भी आगे ये आरक्षण उनकी स्थिति को और मजबूत करेंगे और व्यापक बहुसंख्या को नुकसान की तरफ धकेलेंगे. इसलिए, जबकि ऊपर दिए गए तर्कों के आधार पर अछूतों को दिया गया आरक्षण जायज था, लाभ उठाने वाले समूहों के भीतर इसको पारिवारिक ईकाई के आधार पर लागू किया जाना चाहिए था. जो परिवार उन्नत स्थितियों में थे वे आरक्षण के पहले दौर का फायदा उठा लेते लेकिन वे उस आबादी से बाहर हो जाते, जिसे आगे लाभ मिलने वाला था. इस सीधे से उसूल ने दलितों के बीच जातीय मुहावरों को हतोत्साहित किया होता और अनुसूचित जाति की आबादी के भीतर लाभों के समान बंटवारे को सुनिश्चित किया होता. मौजूदा आरक्षण नीति का सबसे साफ दोष भी दूर हो गया होता कि यह फायदा तो एक व्यक्ति को पहुंचाता है लेकिन कीमत पूरी जाति से वसूलता है. मैंने इस योजना का प्रस्ताव बरसों पहले रखा था और अगर किसी को इसके बारे में कोई संदेह हो तो इसे लागू करने में मदद करने की आम पेशकश भी की थी. शासक वर्ग, जिसके लिए आरक्षण की मौजूदा योजना लोगों को बांटने के लिए सबसे कारगर हथियार साबित हुई है, वह यकीनन इसको नजरअंदाज करेगा. लेकिन जाति को निरुत्साहित करने वाली इस योजना ने दलितों के बीच भी किसी प्रतिक्रिया को जन्म नहीं दिया. यह तथ्य कायम है कि हरेक व्यक्ति अपनी जाति से प्यार करता है, आप जितने नीचे जाएंगे उतना ही आप अपनी जाति से प्यार करेंगे. खैर, कॉमरेड सिन्हा, यह आरक्षण पर मेरा स्थायी रुख है. अपने रिकॉर्ड में मेरे शब्दों को मत तलाशिए क्योंकि ऐसी जटिल बातों की व्याख्या उन लोगों के सामने नहीं की जा सकती जो अपनी खुद की आवाज को छोड़ कर किसी और बात को सुनने को तैयार नहीं हों. और नकली अंबेडकरियो, नीति के ऐसे विश्लेषण में क्या कहीं बाबासाहेब का अपमान किया गया है? अगर आपको ऐसा लगता है तो फिर देश जिन बुराइयों का दर्द सब रहा रहा है, आप यकीनन उन सबके लिए बाबासाहेब को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.

आखिर में, 55 पन्नों के इस दस्तावेज के आखिरी दो पन्नों में जिस कार्ययोजना के साथ अप्रोच पेपर खत्म होता है उससे आपको खोदा पहाड़ निकली चुहिया का एहसास होगा. यह अच्छे लगने वाले उन सारे बयानों से भरा हुआ है जो जाति पर किसी भी कम्युनिस्ट दस्तावेज में पाए जा सकते हैं. मैं कहूंगा कि तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में अपने जाति विरोधी मोर्चों के जरिए ठोस जातीय मामलों को उठाते हुए सीपीएम कहीं आगे निकल गई है. यह बात कि जनता के बीच जाति-विरोधी प्रचार करने वाले हजारों प्रचारक हमारे पास होने चाहिए, कि हमें मांगों के आम घोषणा पत्र में दलित मांगों को प्राथमिकता देनी चाहिए, कि जाति आधारित वैवाहिक विज्ञापनों, खाप और दूसरे जाति आधारित संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की मांग करनी चाहिए, कि कम्युनिस्टों को जातियों का पालन नहीं करना चाहिए वगैरह वगैरह. ये सारी बातें मामूली चाहतों की एक फेहरिश्त है और किसी मार्क्सवादी सैद्धांतिक कौशल को जाहिर नहीं करतीं. जाति व्यवस्था के खिलाफ बोलते हुए कोई भी आसानी से ऐसे कदमों के बारे में बात करेगा, चाहे वो मार्क्सवादी हो या गैर मार्क्सवादी. यह किस सैद्धांतिक सूत्रीकरण को पेश करता है? ये सारे उदार बुर्जुआ रुख से ताल्लुक रखते हैं. बहस के लिए ही मैं अंबेडकर की हिमायत नहीं कर रहा हूं. अपनी स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज में 1947 में उन्होंने जिन कदमों को पेश किया है, उन पर गौर कीजिए. क्या वे कदम जातियों का मुकाबला करने के इन घिसे-पिटे नुस्खों से कहीं अधिक क्रांतिकारी नहीं हैं?

अब सुनिए, मैंने अपनी किताब साम्राज्यवाद-विरोध और जातियों का उन्मूलन में जातियों के उन्मूलन का एक तौर-तरीका पेश किया है. यह समुचित सैद्धांतिक विश्लेषण और साइबरनेटिक्स में मेरे अपने शोध पर आधारित है. एक, मैंने पाया कि औपनिवेशिक काल से 1960 के दशक तक पूंजीवादी हमलों में कर्मकांडी जातियां काफी हद तक कमजोर हुईं और इस तरह परंपरागत ऊंच-नीच के अर्थ में जातियों की बात करना बेमतलब है. समकालीन जातियां दलितों और गैर-दलितों में सिमट गई हैं. दो, देहातों में जातीय विरोध धनी किसानों के वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा के बीच सामने आता है, जो ज्यादातर दलितों में से आते हैं. ये विरोध मुख्यत: आर्थिक हितों पर आधारित होते हैं लेकिन वे गैर-आर्थिक (सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक) कारणों पर जोर देते हैं. धनी किसान अपनी जाति के लोगों के साथ जातीय संबंधों का इस्तेमाल करते हुए इसे आसानी से दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच जातीय टकराव में बदल सकते हैं. तीसरे, बेरोकटोक उत्पीड़नों की वजह दलितों की अपनी कमजोरी है (जैसा कि बहुत पहले 1936 में ही अंबेडकर द्वारा इसकी पहचान की गई थी). राज्य और इसके उपकरणों के साथ धनी किसानों का गठजोड़ दलितों और गैर-दलितों के बीत शक्ति असंतुलन को बढ़ाता है. काफी हद तक यह प्रभावशाली कारक है. चौथा, आमतौर पर समाज में तरक्की कर चुके तबकों को राजनीतिक अर्थव्यवस्था के जरिए जाति की बुराई के खिलाफ लोगों को शिक्षित करना चाहिए, न कि एक सांस्कृतिक या नैतिक तरीके से. इसमें अपेक्षा की जाती है कि यह धनी किसानों और उनकी जाति के दूसरे लोगों के बीच जातीय संबंधों को कमजोर करेगा, जो दलितों के खिलाफ हमलों में उनके सहायक होते हैं. पांचवे, इन सबके बाद भी ऐसे तत्व होंगे जो इन चीजों को नहीं समझेंगे और उत्पीड़न में हिस्सा लेंगे. उनके साथ शारीरिक रूप से निबटने की जरूरत है. यहां वामपंथ के लिए दखल देने का मौका और भूमिका सामने आती है. इस प्रक्रिया का नतीजा यह होगा कि वामपंथ दलितों का भरोसा जीत लेगा और इस तरह जातियों का उन्मूलन करने वाली ताकतें उन्नति करते हुए मजबूत होंगी. मैं इसे अपनी रूपरेखा के लिए बनाए गए बारीक ब्योरों (वर्कशीटों) से नहीं भर रहा हूं. आप इतना भर कीजिए और आप खुद को जातियों के उन्मूलन के करीब पाएंगे.

आखिर में, खुद पर ही फिदा मार्क्सवादियों से मैं यह कहना चाहूंगा कि शब्दों के बूते अकड़ना और उनके सार को नजरों से ओझल कर देना बचकानापन है. रिपब्लिकन पैंथर्स को दिया गया आपकापूरा जवाब मेरे दूसरे बयान पर टिका हुआ है कि मैंने आपसे सहमत होते हुए, पहले जो कुछ भी कहा था उसे रद्द कर दिया. गजब! मेरे दूसरे बयान की ठीक पहली लाइन ही यही है कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा है, जिसे खारिज करने के लिए आपने इतनी मेहनत की और आप फिर से बातों को तोड़ने मरोड़ने में लग गए. आपने अपने मन से अंदाजा लगाते हुए किसी ने क्या कहा है और फिर उसकी बातों जोशो-खरोश से खारिज करना मेहनत की बर्बादी करने जैसा है. जब मैंने कहा कि आपने जो कहा था उसमें ज्यादातर से मैं सहमत हूं तो मेरा मतलब आपके अप्रेच पेपर के सार से (मैंने कभी नहीं कहा कि मैं इसे संपूर्णता में नकारता हूं. मैंने कहा कि इसे पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं यह सब पहले भी पढ़ चुका हूं) और साथ ही डिवी के दर्शन पर आपके लंबे वक्तव्य से था (जिसे मैंने सावधानी के साथ सुना). यकीनन 'ज्यादातर' में सारी बातें नहीं आती हैं. मुझे अपने वादे पूरे करने के लिए जालंधर जाना था इसलिए मैं जल्दी में था. मैंने बेचैनी के साथ कुछ कहा (इसका मतलब यह नहीं है कि मैंने जो कहा वो मेरा इरादा नहीं था और अब मैं अपनी बातों से पलट रहा हूं) और वहां से चला आया, जिसे मेरे मुख्य बिंदुओं पर आपके साथ मेरी सहमति के रूप में नहीं देखा जा सकता है. जब मैंने सिन्हा से कहा कि उन्होंने फिर से मेरे बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया है तो उन्होंने कहा, 'ऐसा मुझे ध्वनित हुआ.' जो बात कही नहीं गई हो, उसे सुनना मतिभ्रम कहलाता है और अगर यह बार-बार हो तो एक मार्क्सवादी के लिए काफी गंभीर बात है क्योंकि तब वो हकीकत को नहीं देख सकता. एक वरिष्ठ कार्यकर्ता होने के नाते, घमंड से भरी हुई उस उद्दंडता के खिलाफ मैंने आपको सलाह दी थी, जो आपने उन लोगों के खिलाफ दिखाई जो मेरे साथ आए थे. मेहरबानी करके उस पर गौर करिएगा.

और अब छद्म अंबेडकरियों से. मैं कहूंगा कि आपने यहां-वहां से उठाई गई मेरी पंक्तियों का इस्तेमाल करते हुए, सीधी-सादी दलित जनता के बीच मेरे खिलाफ झूठी अफवाहें फैला कर कि मैंने बाबासाहेब अंबेडकर की तौहीन की है, अपनी विशेष अज्ञानता का ही परिचय दिया है. ऐसा आपने मेरी उस राय के आधार पर किया, जिसे पिछले 30 बरसों से ज्यादा समय से अपने अध्ययन के आधार पर किताबों, लेखों और भाषणों के जरिए कहता आया हूं. यह मैं नहीं बल्कि आप हैं, जिन्होंने एक ऐसे आदमी के खिलाफ उनके लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल करते हुए बाबासाहेब अंबेडकर का अपमान किया, जो उन्हें शासक वर्ग के खेमे से दूर रखने के मकसद से अकेले काम कर रहा है. ये आपलोग हैं जिन्होंने बाबासाहेब का अपमान किया है. न केवल अभी बल्कि पिछले 57 वर्षों में तब तब आपने उनका अपमान किया है, जब आप उन्हें और उनके विचारों को एक जड़ अस्मितापरक मूर्ति में कैद करते हैं, जब व्यवस्थित रूप से दलित जनता को इस मूर्ति के प्रति श्रद्धावान बनाते हैं और उन्हें उनके जीवन और मौत के मुद्दों से भटका देते हैं, जब राजकीय रियायतें, पदों पर नामांकन, चुनावी टिकट हासिल करने, मंत्री बनने के लिए शासक वर्गों की नजर में अच्छा बनने के लिए अंबेडकर की छवि का कारोबार करते हैं, राज्य से ये चीजें और ऐसी ही दूसरी अनेक चीजें आपकी स्वार्थी उपलब्धियों के रूप में आपको मिलती हैं और बदले में आप शासक वर्ग की नीतियों की हिमायत करते हैं जिसने दलित जनता का व्यवस्थित रूप से शोषण किया है. जब आप अंबेडकर की बातों का व्यवस्थित रूप से तोड़ मरोड़ करते हैं ताकि आप अपनी काली करतूतों को जायज ठहरा सकें और जब आप दलित हितों के दलाल बनते हैं, तब आप अंबेडकर का अपमान कर रहे होते हैं. आपने केवल उनका अपमान ही नहीं किया है, उनकी हत्या की है. वह मैं हूं जिसने बाबासाहेब अंबेडकर के प्रति रत्ती भर भी भक्ति जाहिर नहीं की, आपलोगों के गिरोह के उलट, मैंने जो भी किया उसे बेहतर बनाने के लिए उनके आदर्शों का अनुसरण किया, उत्पीड़ित जनता के पक्ष में मजबूती से टिका रहा, उनकी हिमायत में आस पास की दुनिया का विश्लेषण करने की क्षमताओं को अपने भीतर बनाए रखते हुए और अपनी पूरी क्षमता से बाबासाहेब अंबेडकर के 'आजादी, बराबरी और भाईचारे' के सपने को पूरा करने की कोशिश कर रहा है. आपने बाबासाहेब अंबेडकर का अपमान किया, आपने मेरा अपमान किया और आपने उन सबकी पवित्र विरासत का अपमान किया जिन्होंने इंसानी मुक्ति के लिए जद्दोजहद की है.

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