मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से,
जीवन नहीं मरा करता है।
(शायद २०१० के किसी ठंडे महीने की सुबह रही होगी. करीब 5 बजे मैं गोपालदास नीरज का इंटरव्यू करने होटल पहुँच गया. नीरज को ७ बजे निकलना था. मैंने उन्हें नींद से उठाया तो वे झल्ला उठे. अखबार वालों को अंट-शंट कह डाला. करीब १० मिनट ख़ामोशी रही. फिर बोले क्या पूछोगे. मैंने पहला सवाल किया. वे बोले दूसरा सवाल बताओ. मैंने बता दिया. तीसरा..चौथा..पांचवां..छठा..फिर नोटबुक ही मांग ली. वह जोरों से हंस पड़े. बोले क्या पीएचडी करनी है मुझ पर ? पीएचडी वाले भी आजकल कहाँ पूछते हैं इतना. पत्रकार ..उन्होंने पत्रकारों के बारे में बहुत बुरा कहा. तुम मुझे बड़े भोले लगते हो, इसलिए मैं तुम्हारे सवालों के जवाब दूंगा. नीरज ने इसके बाद मुझसे करीब 6.४५ तक बात की. अधिकतर सवाल राजनीतिक थे और नीरज के सामाजिक-जीवन से मोहभंग होने की पड़ताल. उनकी आलोचनाएं भी थीं. इस बीच उन्होंने मुझे दो बार चाय पिलाई और एक बार किस किया. दुर्भाग्य से इंटरव्यू अखबार ने नहीं छापा, लेकिन नीरज की मेरे मन में गहरी छाप रह गयी. यह कविता मुझसे ज्यादा, बड़े भाई साहब अविकल थपलियाल को पसंद है.)
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों,
मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से,
जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है नयन सेज पर,
सोई हुई आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों,
जागे कच्ची नींद जवानी।
गीली उमर बनाने वालों,
डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से,
सावन नहीं मरा करता है।
माला बिखर गई तो क्या है,
खुद ही हल हो गई समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो,
समझो पूरी हुई तपस्या।
रूठे दिवस मनाने वालों,
फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से,
आँगन नहीं मरा करता है।
लाखों बार गगरियाँ फ़ूटीं,
शिकन न आई पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर।
तम की उमर बढ़ाने वालों,
लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर,
उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बंद न हुई धूल की।
नफ़रत गले लगाने वालों,
सब पर धूल उड़ाने वालों,
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से,
दर्पण नहीं मरा करता है।
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