पर्यावरणीय असंतुलन मुनाफे की देन
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
प्रकाश चौधरी
"यह रिपोर्ट मानव जनसंख्या और उसके उपभोग का इस ग्रह पर पडऩे वाले प्रभाव एक आलोकन है… इस आशा के साथ कि यह रिपोर्ट, रॉयल सोसायटी की इस विषय पर पहली मूल रिपोर्ट, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सरकारों, वैज्ञानिक संस्थानों, गैर-सरकारी संगठनों, मीडिया और अन्य के बीच बहस और क्रियान्वयन के लिए एक आधार प्रस्तुत करेगी।"
- पाल नर्स, अध्यक्ष, रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन
रॉयल सोसायटी ऑफ लंदन विज्ञान की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित संस्थाओं में से एक है। वर्ष 2011 में प्रकाशित'पीपुल एंड द प्लैनेट' रिपोर्ट कहती है कि पर्यावरणीय संकट अत्यंत गंभीर हो चला है और यह ऐसे सामाजिक आर्थिक तंत्र, प्रतिष्ठानों के विकास की मांग करता है जो वर्तमान में जारी 'भौतिक उत्पादन वृद्धि' पर निर्भर न हों। पृथ्वी के स्रोतों की अंधाधुंध दोहन दर सभी तरह के ऊर्जा संसाधनों के दुरुपयोग और पृथ्वी पर प्रदूषण के लिए वस्तुत: पूंजीवाद जिम्मेदार है।
'पृथ्वी पर सतत् जीवन' का प्रश्न पिछले कुछ दशकों से पर्यावरणीय समस्याओं का केंद्र बना हुआ है। वर्ष 2009 में कोपेनहेगन विश्व सम्मेलन में यह मानक प्रस्तुत किया गया कि पृथ्वी पर औसत भूमंडलीय ताप वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) को दो डिग्री सेंटीग्रेट से नीचे रख पर्यावरणीय संकट से पृथ्वी को सुरक्षित समझा जा सकता है। दिसंबर 2011 में लाइफ सांइसेज पत्रिका के वरिष्ठ लेखक वाइन पैरी ने लिखा, "नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेश स्टडीज के निदेशक एंव जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हैन्सन के अनुसार भूमंडलीय ताप वृद्धि के संदर्भ में राष्ट्रों द्वारा तय की गई अधिकतम औसत दो डिग्री सेंटीग्रेट की सीमा- भूमंडलीय ताप वृद्धि के विनाशकारी प्रभावों को नहीं रोक पाएगी।' केविन एंडरसन और एलिस बोज के अनुसार पूंजीवादी अर्थतंत्रों के प्रभाव में पर्यावरणीय स्थितियों का सही आकलन नहीं किया जा रहा है। जलवायु विज्ञान पर अर्थशास्त्र (पूंजी) का शिकंजा कसा हुआ है। किसी भी कीमत पर आर्थिक वृद्धि को जारी रखने की कोशिश में- राष्ट्रीय सीमाओं से परे, उत्पन्न पर्यावरणीय संकट अत्यंत गहरा और गंभीर है जो वर्तमान समाज के निर्माण, उसके मूल्य और संरचनाओं पर प्रश्न उठाता है और इसके बदलाव की मांग करता है।
पर्यावरण का प्रश्न मूल रूप से मनुष्य और मनुष्य और मनुष्य के अपने वातावरण से अंतरसंबंधों का जटिल व्याकरण है। अत्यंत खतरनाक मौसम परिवर्तनों से बचने का एकमात्र रास्ता है- लगातार बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को न्यूनतम करना, पर पूंजीवादी व्यापार में यह होना असंभव है। यह निश्चित ही सामाजिक, आर्थिक तंत्र में आमूल बदलाव की मांग करता है, जिसे सिर्फ वैज्ञानिकों की पहल पर हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए संभवत: इतिहास के सबसे बड़े वैश्विक जन आंदोलन की जरूरत है।
नवंबर 2012 में बिल मककिबन के 'डू द मैथ' अभियान को अमेरिका के 21 बड़े शहरों में अपार सफलता मिली। इनका गणित बड़ा सरल है- हम कार्बनडाई ऑक्साइड का ज्यादा से ज्यादा 565 गीगा टन का उपयोग, दो डिग्री सेंटीग्रेट औसत तापमान की सीमा में, और कर सकते हैं। इससे ज्यादा उपयोग धरती को तबाही की ओर धकेल देगा। तब समस्या क्या है? जैविक ईंधन कॉरपोरेशंस ने अब तक 2795 गीगा टन जैविक ईधन प्रयोग के लिए सुरक्षित कर रखा है जो अधिकतम सीमा का पांच गुना है। और वे इसे प्रयोग करना चाहते हैं – यदि हम उन्हें ऐसा करने से नहीं रोकते। वे अपनी वेबसाइट और कार्यक्रमों में घोषित करते हैं – यह आसान नहीं होगा। हम इतिहास के सबसे अधिक फायदेमंद, ताकतवर और भयावह उद्योग के खिलाफ हैं- लेकिन हमारे पास हमारी अपनी संपत्ति है : रचनात्मकता, साहस और जरूरत पड़े तो हमारे शरीर।
पूंजीवाद का एकमात्र उद्देश्य पूंजी का अंतहीन संचय है। लगातार मुनाफे की मांग की कीमत सामान्य जनसंख्या और पर्यावरण को चुकानी होती है। पूंजीवादी अर्थशास्त्री इसे उत्पादन की 'एक्सटरनैलिटिज' कहते हैं पर वास्तव में ये पूंजीवादी उत्पादन के ऋणात्मक सामाजिक और पर्यावरणीय दुष्प्रभाव हैं। प्राकृतिक संसाधनों और इसके समृद्ध क्षेत्रों पर आधिपत्य के लिए विश्व कई बार कई युद्धों का सामना कर चुका है। पूंजीवाद के भूमंडलीय नारे ने 'मांग' और 'आपूर्ति' के प्रारूपिक अर्थशास्त्रीय नियम को अपनी जरूरतों के अनुसार ढाल लिया है। फिर भी वृद्धि/मुनाफे में कमी आते ही तंत्र संकट में आ जाता है और इसके साथ ही आम लोगों की मुसीबतें, बेरोजगारी और भी बढ़ जाती है। अर्थतंत्र संकट से उबरने के लिए नए उत्पाद और पुराने उत्पादों के नए संस्करण बाजार में उतारता है तथा इन्हें अति आवश्यक ठहरा कर संजीवनी ग्रहण करता है, और पुन: मुनाफे के लिए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और प्रदूषण को बढ़ाता है। इस तरह कृत्रिम रूप से पैदा की गई जरूरत गरीबों को भी शामिल करती है- जो टेलीविजन, फिल्मों में दिखाई जा रही मध्यवर्गीय जीवन शैली की कामना करते हैं। इस दुष्चक्र से पूंजीवाद अपने सामान्य क्रियान्वयन में जनसंख्या के एक प्रतिशत के लिए शानदार धन दौलत का अंबार लगा देता है और दस प्रतिशत को अमीर बना देता है। पर साथ ही जनसंख्या के अधिकांश हिस्से को उनकी मूल जरूरतों से भी वंचित रखता है।
पर्यावरणीय समस्याओं का ठीकरा अक्सर अविकसित, गरीब जनता और जनसंख्या पर फोड़ा जाता है। वास्तव में पर्यावरण समस्या को जनसंख्या आंकड़ों में केंद्रित करने के अपने राजनीतिक लाभ हैं। यह सामान्य बात है कि किसी व्यक्ति या परिवार के पास अधिक उत्पाद होने पर वह अधिक उपयोग करेगा और इसीलिए वह अधिक प्रदूषण उत्पन्न करेगा। विश्व बैंक (2008 , विश्व विकास इंडेक्स,4, http://data. worldbank.org) के अनुसार लगभग 70 करोड़ धनाढ्य लोग जो विश्व आबादी का दस प्रतिशत हैं वही सबसे ज्यादा उपभोग करते हैं। दरअसल यही समस्या का मुख्य केंद्र हैं। ये धनाढ्य सिर्फ धनी देशों तक सीमित नहीं हैं बल्कि ये सभी देशों में रहते हैं- विश्व में सबसे धनी व्यक्ति मैक्सिको वासी है- और उत्तरी अमेरीकियों से ज्यादा धनी संख्या एशियाइयों की है, जिनके पास लगभग दस करोड़ डॉलर हैं। दुनिया के सबसे गरीब 40 प्रतिशत लोग विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का पांच प्रतिशत से भी कम प्रयोग करते हैं। सबसे गरीब 20 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों का दो प्रतिशत से भी कम उपयोग कर पाते हैं। यदि किसी तरह ये लोग गायब हो जाएं तो प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग और प्रदूषण पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, जबकि 70 करोड़ धनाढ्य औसत जीवन स्तर पर आ जाएं तो संसाधन उपयोग और प्रदूषण आधा रह जाएगा। इस तरह बहुत सारे लोग नहीं बल्कि बहुत सारे धनी लोगों द्वारा किया उपभोग संसाधनों की कमी और प्रदूषण के लिए जिम्मेदार है।
रॉयल सोसायटी द्वारा जारी रिपोर्ट में नौ संस्तुतियां की गई हैं। जो विश्व में असमान आर्थिक वितरण के साथ-साथ पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया को घेरे में ला खड़ा करती हैं। इस पर टिप्पणी करते हुए फ्रैड मेक्डॉफ ने मंथली रिव्यू (जनवरी 2013) मे अपने लेख में कहा है कि पूंजी के शासन के खिलाफ एक सम्यक युद्ध की आवश्यकता है। पूंजी के एकत्रीकरण के तंत्र को जाना ही चाहिए। इसके स्थान पर लोगों को ऐसा सामाजिक आर्थिक तंत्र विकसित करना चाहिए जो प्रत्येक मनुष्य की आधारभूत भौतिक, अभौतिक जरूरतों को पूरा कर सके। जो वास्तव में स्वस्थ स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक पर्यावरण तंत्र को शामिल करे। यह युद्ध एक दीर्घकालिक भविष्य के साथ, मौलिक समानता के लिए वैश्विक संघर्ष करते हुए जीता जा सकता है, जो समाजवाद का ऐतिहासिक लक्ष्य है।
यह लेख मंथली रिव्यू में प्रकाशित सामग्री पर आधारित है।
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