यह सच है कि 'वंदे मातरम' नफरत की कोख से जन्मा गीत है
♦ ओमैर अनस
राष्ट्र की कल्पना, जिसमें उसमें रहने वाले सभी वर्गों के इमेजिनेशन को शामिल न किया जाए, तो वो कल्पना किसी दूसरे वर्ग के लिए एक इमेजिनरी कैदखाना बन जाता है। वो भारतीय इतिहास जिसमें दलितों को गर्व करने के लिए कुछ न हो, वो उनको राष्ट्र की वही कल्पना नहीं दे सकता जो गैर दलितों को मिलेगा। इसलिए आजादी से पहले ब्रिटिश, मुगल, मौर्या, कुषाण, गुप्ता और अन्य सम्राज्यवाद, समेत सभी किस्म की कल्पनाएं जिसमें किसी एक वर्ग का इमेजिनेशन हो रद्द कर दिया जाना चाहिए था, जो नहीं हुआ, और एक नयी कल्पना गढ़नी थी जो सबके लिए समान हो।
देखा जाए तो मनुस्मृति में भी दो चार बातें सत्य वचन, सफाई, प्रेम आदि जैसे मूल्यों पर होंगी, इसके बावजूद उन श्लोकों को राष्ट्र की परिकल्पना के लिए मिट्टी गारे के लिए प्रयोग नहीं कर सकते, और यदि ऐसा हुआ तो वर्ण व्यवस्था के पीड़ित लोग उसे कभी नहीं मानेंगे। दस अछूत बंधुओं से ये पूछ कर बताएं कि क्या वो मनुस्मृति के वो श्लोक जो वर्ण व्यवस्था से संबंधित न हों, क्या वो उन श्लोकों का जाप करने को तैयार हैं?
इसी तरह 'वंदे मातरम' भी है, जो एक विवादित पुस्तक और विवादित व्यक्ति के दिमाग से निकली है, जो मुस्लिम नफरत पर आधारित है। इसलिए इस गीत को बढ़ावा देना दरअसल उस नफरत को बढ़ावा देना है। ये आप भली भांति जानते हैं कि इतिहास कभी पीछा नहीं छोड़ता। 'वंदे मातरम' एक नफरत की कोख से जन्मा गीत है। इस बात से किसी तरह से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता।
देखिए आनंद मठ से कुछ मुसलमानों के लिए नफरत भरी मिसालें…
कुछ लोग कह रहे हैं कि 'वंदे मातरम' को आनंद मठ से अलग करके देखा जाना चाहिए। इतिहास में भटकने के बजाय खुले मन से आगे की ओर बढ़ना चाहिए। और ये कि वंदे मातरम (आधुनिक) में किसी तबके के खिलाफ कोई तकलीफदेह बात नहीं है… और ये कि समाज तेजी से बदल रहा है।
पिछले पांच हजार साल में वर्ण व्यवस्था पर आधारित हमारी सामाजिक सरंचना में क्या बदलाव आया है। भारतीय संविधान द्वारा उसे रद्द किये जाने के बाद भी ये एक सच्चाई बनी हुई है। अमूमन समाज में बदलाव संरचनात्मक नहीं आता है बल्कि सिर्फ ऊपर ऊपर आता है। जब सत्ता और पावर का समीकरण बदलता है, तो फिर व्यापक बदलाव आता है… वो भी जरा धीरे धीरे…
भारत का इतिहास आपसी लड़ाई, संघर्ष, शोषण से भरा पड़ा है, जिसमें कोई एक वर्ग हमेशा पीड़ित रहा है। आज के सेकुलर और लोकतांत्रिक भारत ने सभी वर्गों को पहली बार ये मौका दिया है कि वो समान रूप से समान अधिकारों और जिम्मेदारियों के साथ रहें और ये तजुर्बा अभी बस 60 साल का हुआ है। मुसलमान अभी इतना दिमाग खोलने को तैयार नहीं होगा, वो भी उस वक्त जब वो देख रहा है कि गुजरात में उसको कत्ल करने वाला, बाबरी मस्जिद पर चढ़ कर तांडव करने वाला, हर जगह वंदे मातरम का नारा लगाता है।
जब कोई वंदे मातरम जोर से गाता है, मुस्लिम मन डरने लगता है। जैसे फिर कुछ होने वाला है। जय श्री राम और वंदे मातरम पर उग्रवादी हिंदू राष्ट्रवाद ने कब्जा कर लिया है, जिससे इस बात का मौका ख़त्म हो गया है कि वंदे मातरम को आनंद मठ से अलग कर के देखा जाए। (बगल की तस्वीर में देखिए गुजरात दंगों में जयश्री राम और वंदे मातरम का एक डरावना प्रयोग…)
दरअसल बच्चे को उसकी मां से अलग नहीं किया जा सकता। वंदे मातरम बंकिम चंद्र चटर्जी की बौद्धिक संतान है और रहेगा। और समाज में उसको सम्मान उसी रूप से ही मिलेगा। मुसलमान इसी बात से विचलित हैं कि वंदे मातरम दरअसल उस पुरानी नफरत भरी कहानी को दुबारा स्थपित करने की कोशिश है।
आजादी के संघर्ष के समय संघ परिवार के विचारकों ने इस गीत को आगे बढ़ाया। उस जमाने में मुसलमानों ने उस पर इसलिए कोहराम नहीं मचाया, क्योंकि अंग्रेजी सम्राज्यवाद का चैलेंज बहुत बड़ा था। लेकिन आजादी के बाद इस गीत को उनके ऊपर थोप कर जैसे धोखा कर दिया गया हो।
मैं मानता हूं कि आज का भारत मुगल काल के भारत से या फिर उससे पहले के भारत से लाख गुना बेहतर है। लेकिन उसे कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ वापस ले जाने का संघ का आंदोलन आज के बदलते भारत का रास्ता बार-बार रोक रहा है। भारत को कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ ले जाने की संघ परिवार की विचारधारा एक तबके में बहुत मजबूत हो गयी है, जिसके समीकरण वोट की राजनीति से फिट बैठ रहे हैं। इसलिए हिंदू राष्ट्र का सपना मात्र सपना नहीं बल्कि एक सचमुच में चल रहे संगठित और समर्पित विचारधारा है।
इस विचारधारा में मुसलमानों की देशभक्ति को हमेशा शक के दायरे में रखना एक बहुत बड़ी राजनीतिक जरूरत है, जिससे बहुसंख्यक वोट संगठित होता है। इसके लिए इतिहास में मुसलमानों द्वारा किये गये कथित अपराधों की सजा आज दी जाएगी। हर वो चीज जो मुसलमानों से संबंधित हो वो या तो विवादित हो जाए, या शक के दायरे में हो या देशद्रोह की बू देने लगे, वंदे मातरम का विवाद इसी सिलसिले का समय-समय पर आने वाला दृश्य है।
मेरी समझ ये कहती है कि हमें वंदे मातरम पर इस मतभेद को स्वीकार करके एक दूसरे पर भरोसा करना होगा और मुसलमानों पर उसे थोपने के बजाय इकबाल का सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा को भी एक संवैधानिक दर्जा देकर दोनों गीतों को मान्यता देनी चाहिए। वक्त गुजरने दें, अगर हम आगे को बढ़ते रहें तो आप की बात सही साबित हो जाएगी कि वंदे मातरम को आनंद मठ से हटा कर देखा जा सकता है और अगर संघ परिवार ने मुल्क को पीछे की ओर कथित गौरवशाली इतिहास की तरफ ले जाने की कोशिश की तो फिर संघर्ष गहरा होगा और ये खतरा गुजरात नरसंहार के बाद लगातार बढ़ता जा रहा है।
इसलिए एक सेकुलर डेमोक्रटिक भारत की जरूरत देश के हर वर्ग की है। इसलिए एक नये भारत का निर्माण एक नये इतिहास से ही संभव है। ये मान लेना बहुत जरूरी हो गया है कि भारत का आजादी पूर्व इतिहास तमाम तरह की समस्याओं से भरा पड़ा है। इतिहास हमारे आज के भारत को हांकने की कोशिश न करे।
कोई वंदे मातरम आनंद मठ से अलग होकर गाये तो गाये। उसके देश प्रेम में शक करने की कोई वजह नहीं है, लेकिन जिन्हें मतभेद है तो उनके देश प्रेम पर सवाल न खड़े किये जाएं। देश के लोगों से और देश प्रेम को किसी गीत के तराजू में तौलेंगे तो बड़ी भारी भूल होगी। उठाइए गद्दारों की और शहीदों की लिस्ट, जो वंदे मातरम नहीं गाते हैं। उनके नाम देश के लिए कुरबानी में हर जगह नजर आएंगे। और आगे भी, और जो वंदे मातरम गाते थे उनके प्रमुख नाम गद्दारों की लिस्ट में अग्रेजों से समझौता करने वालों में ये नाम नजर आएंगे, वंदे मातरम गाना या नहीं गाना किसी तरह से देश प्रेम का सवाल नहीं है।
मतभेद को स्वीकार करके भी आगे की ओर सफर जारी रह सकता है। ये मुल्क एक बागीचा है, जहां हर तरह के फूल के रहने से ही सुंदरता है। उसे नर्सरी या एक फूल वाली क्यारी मत बनाओ। मुसलमान मन भी खुद को मुगल काल के सपनों से बाहर कर ले। और हिंदू राष्ट्र का सपना देखने वाले रामराज्य के बजाय "काम काज्य" बनाने पर ध्यान दें। वंदे मातरम मुल्क को पीछे की तरफ धकेलने वाले हिंदू राष्ट्र के सपने का एक हिस्सा है, जिसका नुकसान सिर्फ मुसलमानों को नहीं बल्कि पूरी हिंदुस्तानी कौम को उठाना होगा।
(ओमैर अनस। अन्नामलाई और लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ने के बाद फिलहाल जेएनयू के अंतर्राष्ट्रीय अध्यन केंद्र में शोधार्थी। फ्री यूनिवर्सिटी ऑफ बर्लिन के विजिटिंग स्कॉलर भी रहे। उनसे omairanas@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
http://mohallalive.com/2013/05/10/vande-mataram-is-negative-for-the-imagination-of-nationalism/
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