लेख : समाजवाद नए समाज की मांग करता है
Author: समयांतर डैस्क Edition : February 2013
रणधीर सिंह
'भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत के अगले दिन लाहौर सेंट्रल जेल के सामने मानवता का उभरता हुआ एक समुद्र, हर आंख में आंसू, पर गर्व से तने चेहरे; हर जगह शहीदों के पोस्टर और कभी समाप्त न होने वाले नारे – इंकलाब जिंदाबाद… उस सुबह एक सपने का उदय हुआ जो मेरा विश्वास है कि किसी न किसी रूप में हमेशा मेरे साथ रहा।"
ये शब्द हमारे समय के सबसे मौलिक मार्क्सवादी और भारतीय राजनीति के सिद्धांतकार प्रोफेसर रणधीर सिंह के हैं।
रणधीर सिंह 1939 में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े और लाहौर, पंजाब में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। देश के विभाजन के बाद वे दिल्ली आ गए। दिल्ली में पंजाब यूनिवर्सिटी द्वारा रिफ्यूजी छात्रों और अध्यापकों के लिए बनाए कैंप कॉलेज में वह शिक्षक हो गए। दिल्ली से वह कम्युनिस्ट पार्टी के पंजाबी के मुखपत्र 'साडा जंग' का तब तक संपादन करते रहे, जब तक कि बी टी रणदिवे की माओ की आलोचना प्रकाशित करने से इनकार करने और कम्युनिस्ट घोषणापत्र तथा मार्क्स की रचनाओं को पंजाबी में प्रकाशित करने के लिए उन्हें 'व्यक्तिवाद' और 'बौद्धिक आक्रामकता' का दोषी ठहराकर हटा नहीं दिया गया। बाद में वह कुछ समय के लिए मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी रहे। 1972 में कुछ समय के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाने के बाद वह दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हो गए। मार्क्सवाद का यह मौलिक चिंतक अपने अध्यापन के दौरान देश, दुनिया, समाज की बेहतरी की हर लोकतांत्रिक पहलकदमी में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता रहा। समाजवाद के लिए संघर्ष का जज्बा उनमें आज भी उतने ही जोश के साथ बरकरार है जैसा 1930 के दशक में रहा होगा। बस उन्हें अफसोस सिर्फ उन छात्रों और शिक्षकों के लिए है जिन्हें यदा-कदा उनके साथ संबंध रखने की वजह से मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इस लोकप्रिय प्राध्यापक की कक्षाओं में लगभग सभी छात्र (कॉमर्स और बिजनेस मैनेजमेंट को छोड़कर) अक्सर शामिल होते थे। आजकल प्रोफेसर सिंह पटियाला विश्वविद्याय के सीनियर फैलो हैं। उनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं क्राइसिस ऑफ सोशलिज्म, नोट्स इन डिफेंस ऑफ अ कमिटमेंट ; मार्क्सिज्म, सोशलिज्म, इंडियन पॉलिटिक्स : अ व्यू फ्रॉम द लेफ्ट ; रीजन, रिवोल्युशन एंड पॉलिटिकल थ्योरी ; फाइव लेक्चर्स इन माक्र्सिस्ट मोड एंड ऑफ मार्क्सिज्म एंड इंडियन पॉलिटिक्स। अमेरिकी वाम विचारधारा की प्रसिद्ध पत्रिका 'मंथली रिव्यू के संपादक हैरी मैगडोफ ने रणधीर सिंह के लेखन पर कहा था, "मैं आपके ठोस विश्लेषण और प्रतिबद्धता की दृढ़ता का प्रशंसक हूं।
रणधीर सिंह के बचपन का ज्यादातर समय अकेलेपन और किताबों के साथ बीता। उनके पिता ब्रिटिश राज में पंजाब के गुजरात जिले में मेडिकल सुपरिटेंडेंट थे। पिता की व्यापक समझ, चारित्रिक खूबियां और लोकतांत्रिक व्यवहार उनकी स्मृतियों में विशेष महत्त्व के साथ दर्ज है।
इस वर्ष जनवरी में 92 वर्ष में प्रवेश कर चुके रणधीर सिंह दिल्ली में रहते हैं। उम्र के इस पड़ाव में भी समाजवादी जज्बे को उसी शिद्दत से सहेजे प्रोफेसर सिंह ने कंधे में फ्रैक्चर और कड़ाके की सर्दी के बावजूद 'समयांतर के इस विशेषांक के लिए अपना समय दिया। वामपंथी राजनीति से करीब से जुड़े रहे और भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक प्रकाश चौधरी ने उन से दो सत्रों में विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के आधार पर यह लेख।]
हिंदुस्तान में मौलिक मार्क्सवादी चिंतन (थिकिंग) बहुत कम हुआ है। यहां मौलिक काम तो कोई हुआ ही नहीं। और जब यह लहर उभरी तो उस वक्त हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई बुनियादी तौर पर अपने निर्णायक दौर में प्रवेश कर चुकी थी, सब उसमें व्यस्त रहे। विक्टर कैरनन (ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य, जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए कम्युनिस्ट इंटरनेशनल का एक दस्तावेज लेकर कैंब्रिज से 1938 में भारत आए और एथिसन कॉलेज, लाहौर में अध्यापक हो गए। वह रणधीर सिंह के अध्यापक और पथ प्रदर्शक रहे।) ने मुझे लिखा कि "उन दिनों कोई सिद्धांतों (थ्योरी) की बात ही नहीं करता था – मुझे बहस करने के लिए कोई मिलता नहीं था – फुर्सत ही नहीं थी लोगों को।" इसलिए यह बुनियादी कमजोरी तो बिल्कुल साफ है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने मुल्क को समझने की कोशिश नहीं की। यहां रूस से जो समझ आई या ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टी की जो समझ थी – इसके संस्थापकों में ब्रिटिश नॉमिनी थे – फिलिप स्पर्ट, बेंजामिन फ्रांसिस ब्रेडले (कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की ब्रिटिश शाखा के सदस्य) वही इनको राजनीति के बारे में समझ देते थे। मुझे यह भी याद है कि दिसंबर के पहले हफ्ते में लाहौर में हमने युद्ध की भर्सना करते हुए कांफ्रेंस की और सारे अखबारों में हमारी तस्वीर और भाषण प्रकाशित हुए। दिसंबर के अंत तक पार्टी लाइन बदल गई। हमारे लिए बड़ा मुश्किल था यह समझना कि जनयुद्ध (पीपुल्स वार) छिड़ गया है। कैंब्रिज से सीधे आए अरुण बोस पार्टी के छात्र मोर्चे के इंचार्ज थे। सन् 1941 में, पटना में ऑल इंडिया कांफ्रेंस होने जा रही थी। मैं और सतपाल डांग पार्टी के पंजाब डेलिगेशन के नेता-प्रतिनिधि थे। अरुण बोस दो घंटे तक हमें दिल्ली में इंडिया गेट के लॉन में बैठ के समझाते रहे कि यह जनयुद्ध हो रहा है। हमने कहा कि हम सहमत नहीं हैं – इस पर उनका कहा था कि यह पार्टी लाइन है। तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। … नीचे कह कतरों में 'कुछ और' समझ थी, जब कि ऊपरी स्तर पर पार्टी नेतृत्व कुछ और फैसले करता था। जनयुद्ध (पीपुल्स वार) और पाकिस्तान के प्रस्ताव (रिजोल्युशन) पर कोई बहस नहीं हुई। कहने को जनयुद्ध का दौर था, पर क्या सौदेबाजी आप कर रहे हो, नीचे की कतारों में क्या चल रहा है उसमें बड़ा गैप था। लेकिन पार्टी नेताओं का दबदबा (कल्ट ऑफ पार्टी लीडरशिप) ऐसा जबर्दस्त था कि पार्टी के लीडर ने जो कह दिया- वही अंतिम होता था। जब मैं जेल में था (सन् 1943 में रणधीर सिंह को अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश युद्ध के प्रयासों में रुकावट डालने के आरोप में लाहौर सेंट्रल जेल के आतंकवादी सेल में डाल दिया गया था) तो मेरे ऊपर बड़ा दबाव था – जेलर का भी और मजिस्ट्रेट का भी- कि तुम एम एन रॉय की पोजीशन (फासीवाद के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के युद्ध का पूर्ण समर्थन) मान लो, हम तुम्हें छोड़ देंगे। तो मैंने कहा, यह मुझे स्वीकार नहीं है।
उस समय दो किताबें थीं जिन्हें सब पढ़ते थे। एक थी रजनी पामदत्त की इंडिया टुडे, और दूसरी थी हिस्ट्री ऑफ सोवियत यूनियन – जो लेनिन की विचारधारा का स्तालिनवादी सार था। इन किताबों पर बड़ा जोर था। निश्चय ही दोनों किताबें अच्छी हैं, लेकिन पामदत्त की किताब में हिंदुस्तान की हकीकत बिल्कुल जाहिर नहीं है। राष्ट्रीय आंदोलन पर ज्यादा जोर है। जाति का मसला है, धर्म का मसला है, असंतुलित विकास है, सब तरह के उत्पादन के जरिए इस मुल्क में हैं – इन सब के बारे में कोई जिक्र नहीं है। यह इस किताब की बड़ी बुनियादी कमजोरी थी। उन्होंने इंग्लैंड में बैठे-बैठे ही यह किताब लिख दी थी। वह हिंदुस्तान में एक बार भी नहीं आए। हां, आजादी के बाद एक बार जरूर आए। कुल मिलाकर हिंदुस्तान में मौलिक मार्क्सवाद का कोई काम हुआ ही नहीं। यही कारण है कि किसानी के मामले में माओ की जैसी रिपोर्ट नहीं बनी।
एक बात पर मैं बहुत जोर देकर लिखता रहा हूं कि मार्क्स की सभी रचनाओं का स्तर एक सा नहीं है। मार्क्स ने जो कहा, वह सब खुदा की देन है, यह मानना धार्मिक दृष्टिकोण है। उस वक्त दो मौजूदा किताबें लैटर्स ऑन इंडिया और एंटी ड्यूहरिंग थीं। हम सोचते थे कि लैटर्स ऑन इंडिया मार्क्स ने लिखी है तो इसका सच (स्तर) भी वैसा ही होगा जिस तरह का सच कैपिटल (पूंजी) में है, लेकिन बाद में पता लगा कि मार्क्स ने इसे आर्थिक तंगी के चलते कुछ डॉलर के लिए लिखा था। मार्क्स ने बड़ी फिजूल-सी कविताएं भी लिखी हैं…। कम्युनिस्ट जब भी अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस करते हैं तो उसमें घोषित करते हैं कि मार्क्सवाद अजेय है। इस तरह कि फिकरेबाजी गलत है। अगर इस तरह की बात सच होती तो समाजवाद का यह संकट न बना होता। मार्क्स को कैसे समझना चाहिए इस बारे में मैं जोर देता रहा हूं।
उस जमाने में पीसी जोशी की अपनी खूबियां थीं। उन्होंने पार्टी के दायरे को विस्तृत किया था और एक बड़े हिस्से को साथ लेकर चले थे। उनके नेतृत्व में पार्टी जन आंदोलन (मास मूवमेंट)बनी। पर पीसी जोशी के साथ जिस तरह का व्यवहार किया गया वह बहुत बुरा था। लेकिन वे सब स्टालिनवादी थे। पार्टी कल्चर (संस्कृति) बड़ा नॉन इंटलैक्चुअल था (गैर बुद्धिजीवी)। और हमें याद है कि पार्टी का जो भी नेता आता था भौतिक द्वंदवाद के लेक्चर देकर चला जाता था। हमें कुछ समझ नहीं आता था। हम समझते थे कि इसके पास कोई मंत्र है, जो भगवान ने इनको दिया है। मतलब यह कि ब्राह्मणवादी किस्म की संस्कृति थी। पार्टी के तीन बड़े नेता थे- अधिकारी, जोशी और रणदिवे। विक्टर कैरनन ने लिखा है कि संभवत "अधिकारी पार्टी का विचारक था।" पार्टी के दस्तावेज के संबंध में अधिकारी ने विक्टर कैरनन से कहा कि जो कोई बात मार्क्स के खिलाफ जाती है उसका अनुवाद मत करना। तो इस तरह की सोच जिसे मैं राष्ट्रीय विचलन कहता हूं वह पीसी जोशी में बहुत थी। रणदिवे तो चरमपंथी थे। उन्होंने यह कौल दी थी कि जहां भी हो टक्कर ले लो। जेल में भी हो तो फसाद करो, ताकि इससे इंकलाब आगे बढ़े। यह दुस्साहसी कदम था, जो बिल्कुल गलत था। पार्टी को नए तरीके से सोचने की जरूरत थी।
सोवियत रूस, समाजवाद और मार्क्सवाद
जब आप समाजवाद की बात करते हो तो रूस का मामला सामने आ जाता है। जिसकी सबसे बड़ी कमजोरी अगर आप कहें तो वह थी – अथॉरिटोरियन सोशलिज्म (अधिनायकवादी समाजवाद)। डेमोक्रेसी गायब हो गई थी। शुरू में बोल्शेविक पार्टी के अंदर बहसें थीं। कई बार लेनिन अल्पमत में आ जाते थे, लेकिन बहस करके वह फिर आगे आ जाते थे। मैंने एक जगह लिखा है कि अर्थनीति के बारे में बोल्शेविक पार्टी में बहुत बहसें हुईं – जैसे कि जर्मन के साथ शांति की जाए या नहीं, 'वॉर कम्युनिज्म' को छोड़ा जाए कि 'न्यू पॉलिसी' को – लेकिन लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) के बारे में कभी बहस नहीं हुई। मेरा अपना तजुर्बा यह है कि वे सारे प्रश्नों को राजनीतिक तरीकों के बजाय सांगठनिक तरीकों से हल करना चाहते थे। लेकिन रूस में मेरा तो यह कहना है कि जो मार्क्स ने कहा था मार्क्स, "सर्वहारा की तानाशाही" वह तो थी ही नहीं। वहां पूंजीवाद की जो पुनस्र्थापना हुई, वह भी लोकतंत्र के नाम पर ही हुई। रूस की आलोचना करने की हालत में कोई (कम्युनिस्ट पार्टी) नहीं है, क्योंकि रूस के दुश्मनों और समर्थकों, दोनों की समझ में एक बात थी कि 'रूस में समाजवाद' है। तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों लिए समस्या बन गई कि स्टालिन को कैसे समझें। मेरी राय यह है कि रूस में जो हुआ उसे समझने की जरूरत है। लेनिन ने सोवियत को समस्त शक्ति देने की शुरुआत की, लेकिन सोवियत जल्द ही समाप्त हो गया। लेनिन का सोचना यह था कि पार्टी के अंदर लोकतंत्र बहाल हो जाएगा, लेकिन मैं समझता हूं कि अगर रूस मार्केट (बाजार) के फेर में न पड़ता और समाजवाद की तरफ बढ़ता तो हम यह कह सकते थे कि यह समय एक संक्रमण का काल था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सोवियत रूस बाजार की तरफ बढ़ा और सारा तंत्र ढह गया।
मूल समस्या – आप कह सकते हैं कि 'असंभव समस्या' यह है कि उत्पादन को कैसे विकसित किया जाए। ऐतिहासिक तौर पर यह कार्य बाजार द्वारा किया गया, लेकिन आपको यह काम समाजवादी तरीके से करना है। माओ के समाजवाद को गरीबों का समाजवाद कहा गया और मैं उसके पक्ष में हूं। चीन के बारे में हालांकि मुझे कोई समझ नहीं थी – विस्तार में नहीं थी – पर मेरा मानना है कि चीन, का मसला यह है कि वहां की कम्युनिस्ट पार्टी उत्पादन की शक्तियों को विकसित करने के नाम पर पूंजीवाद का निर्माण कर रही है। पर चुनौती यह है कि – विकास की ऐसी शक्ति को विकसित करना जो समाजवादी लाइन के अनुरूप हो। लातिन अमेरिकी देशों के बारे में भी मेरी शंकाएं हैं: कि वे कामयाब हो पाएंगे या असफल साबित होंगे, फिलहाल कुछ नहीं कह सकते। मैं यह कहना जरूरी समझता हूं कि जो आपकी समस्याएं हैं, वे आपकी ही समस्याएं हैं।
मुझसे पूछें कि आजकल की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है, तो मैं कहूंगा कि आजकल पूंजीवाद का बोलबाला है, तो उसका एक कारण यह है, कारण भी है, हकीकत भी है कि पूंजीवाद का अब कोई नाम ही नहीं लेता। सभी या तो ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण) का नाम लेते हैं या मार्केट सोसायटी का या फिर नव उदारवाद का। हिंदुस्तान में सारी पार्टियां नव उदारवाद की आलोचना करती हैं, लेकिन उसका विकल्प क्या होगा इसका कोई जिक्र नहीं है। तो यह बड़ी बुनियादी कमजोरी है कि पूंजीवाद को बहस से हटा दो तो समाजवाद का स्वयं ही सफाया-सा हो जाता है। पूंजीवाद का जवाब तो समाजवाद ही हो सकता है। मेरी समझ के हिसाब से नव उदारवाद कोई नया फिकरा नहीं है। उदारतावाद के बारे में एक बहस थी। गुंटर ग्रास और फ्रांस के मशहूर समाजवादी चिंतक पियरे बुर्दू के बीच बड़ी बहस थी कि चिंतन में गिरावट हो रही है और इस गिरावट को प्रगति की तरह पेश किया जा रहा है। मेरी समझ के हिसाब से नव उदारवाद पूंजीवाद की कोई एडवांस भूमिका नहीं है, बल्कि पूंजीवाद का एक रूप है। सोवियत संघ के पतन से पहले पूंजीवाद का एक महत्त्वपूर्ण तर्क कल्याणकारी राज्य रहा। सोवियत रूस के पतन के बाद पूंजीवाद पर अब किसी तरह का दबाव नहीं है। समाजवाद हार गया है। इसलिए वे लोग जो उम्मीद करते हैं कि पूंजीवादी कल्याणकारी राज्य फिर आएगा, वह नहीं होने वाला। मैं तो यही समझता हूं कि समाजवाद के बारे में मेरे वर्ग की सोच अलग है। आम लोग, जो गरीब हैं वह अब भी समझते हैं कि समाजवाद हमारे लिए अच्छी चीज है। इसलिए समाजवाद का एजेंडे में आना जरूरी है। ये जो सारा नक्सलवादी वामपंथ है इनको ये बात समझ नहीं आ रही है। क्योंकि ये नहीं कहते कि हम सोशलिस्ट हैं। ये बीमारी सीपीआई और सीपीएम को भी है। वे भी समाजवाद का नाम नहीं लेते हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों का जो संकट है वह रूस के गिरने के बाद और गहरा हो गया है। उनकी समझ है कि रूस में समाजवाद था और वह फेल हो गया। और जो मेरी समझ है वह यह है कि अगर रूस मुड़कर समाजवाद की तरफ बढ़ जाता तो हम स्टालिन को एक और तरह से देखते, लेकिन अब स्टालिन को आलोचनात्मक (क्रिटिकली) देखना जरूरी हो गया है, पर आज ये पार्टियां ऐसा नहीं कर सकतीं। क्योंकि इनके पंथ में स्टालिन की खास जगह है।
मार्क्सवाद की एक बुनियादी चीज है – जो सबसे मजलूम हैं, वही लड़ेंगे। पंजाब में जो सबसे मजलूम थे वे अनुसूचित जाति से थे, जो पंजाब की आबादी का एक बड़ा हिस्सा थे। गांव में पार्टी का आधार मध्यवर्गीय किसान थे। मैं पार्टी का पूर्णकालिक सदस्य था, वहां मैं रात बिताता और सुबह लेक्चर देने के लिए दलितों की बस्तियों में जाता था। उनके अंतर्विरोध मध्यवर्गीय, उच्चवर्गीय किसानों के साथ थे जिनके यहां वो काम करते थे। पंजाब में जाति सिर्फ एक अर्थशास्त्रीय सत्य सामाजिक सत्य ही नहीं है बल्कि एक विचारधारात्मक सत्य है। जबकि केरल में पार्टी ने इन तबकों के बीच में आधार बना लिया था। लेकिन पंजाब में ऐसा नहीं हुआ। इसलिए हिंदुस्तान की जो वास्तविकता थी वह हमसे दूर भागती रही, हमने उसको समझने की कोशिश नहीं की।
यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टियों का रवैया सामाजिक आंदोलनों के बारे में बड़ी दुश्मनी का रहा है। क्योंकि ये सब आंदोलन कम्युनिस्ट पार्टी के बाहर से पैदा हुए हैं। जैसे कि ये इंकलाब के नाम पर कुछ करना चाह रहे हैं – इंकलाब का ठेका तो हमने लिया ही हुआ है! ये जो मसले हैं – मानवाधिकार, पर्यावरण आदि के ये महत्वपूर्ण हैं। वर्ग एक बुनियादी चीज है, ठीक है। लेकिन इतना बुनियादी नहीं कि उसके अलावा कुछ किया ही न जाए। उससे पहले भी समाज में और कई किस्म के शोषण हैं, उनको लेकर जो संघर्ष चल रहे हैं उनकी तरफ दोस्ती का रवैया होना चाहिए। लेकिन यह नहीं हो रहा है।
मैं यह कहता हूं कि मार्क्स तक कई तरीकों से पहुंचा जा सकता है, पढ़ा जा सकता है। एक तो अकादमिक मार्क्सवाद है। आप स्टालिन के जरिए मार्क्स तक पहुंच सकते हैं। आप ट्रॉटस्की के जरिए पहुंच सकते हैं। लेनिन के जरिए पहुंच सकते हैं। आप माओ के जरिए पहुंच सकते हैं। लेकिन सबसे अच्छा तरीका है कि मार्क्स के पास ही सीधे पहुंचा जाए, उसे समझने की कोशिश की जाए। मार्क्स से पहले के सभी विचारकों ने कहा कि जो कुछ वे कह रहे हैं वही सच है। यहां मार्क्स पहली बार यह कहते हैं कि जो सच हम दे रहे हैं वह पुराने से ज्यादा अच्छा है और हमारे बाद जो लोग आएंगे वे इससे भी ज्यादा सयानी बातें करेंगे। मार्क्स के शब्द हैं कि वे हमें भविष्य में सही ठहराएंगे। मार्क्सवाद कोई बंद सिस्टम नहीं है, यह खुला सिस्टम है। मार्क्स के बारे में एंगेल्स ने एक बड़ा अच्छा फिकरा इस्तेमाल किया है- मार्क्सवादी वो नहीं है, जो मार्क्स को उद्धृत करता है या मुझे उद्धृत करता है, असली मार्क्सवाद उसका है- जो मार्क्स ने आपकी जगह पर सोचा होता। मैं बार-बार कहता हूं कि जो मार्क्स ने आपकी जगह पर सोचा होता वही मार्क्सवाद है, तो कोशिश तो करो।
वामपंथ, भगत सिंह और गांधी
स्कूली दिनों में भगत सिंह का मेरे ऊपर बड़ा असर रहा। भगत सिंह अपने जीवन के अंतिम वर्ष में, जब उन्हें फांसी लगने वाली थी, लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। उनके ऊपर रूसी क्रांति का बहुत असर था। लेकिन कम्युनिस्ट नेताओं ने भगत सिंह को अपना नहीं माना – कि जो भी नायक समझे जाएंगे उनकी स्वीकृति (अपरूवल) कॉमिंगटर्न से आएगी – इस तरह की सोच थी, इसलिए भगत सिंह को अपनाया नहीं गया। भगत सिंह उन दिनों के पंजाबी और उर्दू अखबारों में छपते रहते थे। उनका कीर्ति पार्टी से बड़ा संबंध था। कीर्ति पार्टी, गदर पार्टी वाले बाद में कम्युनिस्ट हो गए। चंद्रशेखर आजाद की पार्टी के नाम में 'सोशलिस्ट' शब्द भगत सिंह की वजह से रखा गया था। भगत सिंह का ध्यान सोशलिज्म की तरफ जा रहा था। यदि वह नेता बन जाते तो शायद पंजाब, हिंदुस्तान में और तरह की लहर चलती, क्योंकि उनमें काफी काबिलियत थी। भगत सिंह में समाज के अंतर्विरोधों को समझने की कोशिश दिखाई देती है। मूल चिंतन का जज्बा उनमें दिखाई देता है। भगत सिंह अपने आप में एक बड़े विचारक हो सकते थे। अगर आज आप भगत सिंह को अपनाना चाहते हो तो उन्हें भारतीय लोगों के लिए विकल्प की राजनीति के नेता के बतौर, एक क्रांतिकारी राजनीति के नेता के बतौर देखो। हमने देखा था कि दो ही नाम गांव में चलते थे- एक गांधी का और एक भगत सिंह का। गांधी के बारे में मैं समझता हूं कि उन्हें हिंदुस्तान के लोगों से बहुत प्यार था। गांधी का हिंदुस्तानी लोगों के बारे में प्यार, पिता के प्यार की तरह था कि लड़के को छूट दी तो गलत रास्ते पर चला जाएगा। गांधी हमेशा सोचते थे कि हिंदुस्तान के लोग गलत रास्ते पर न चले जाएं। फिर भी मैं सोचता हूं कि हिंदुस्तानी लोगों के लिए उनका प्यार गांधी की एक विशेषता थी। व्यापक आम जनता के बीच गांधी की पहुंच गांधी की उपलब्धि है। वह अपने तरीके से हिंदुस्तान को समझते थे। वह लेनिन की कुर्बानी को सम्मान देते थे, लेकिन उन्होंने मार्क्स को बिल्कुल भी नहीं पढ़ा था। कई नक्सलवादी मुझसे नाराज भी हैं कि मैंने गांधी के बारे में यह लिखा था कि गांधी को अपने आंदोलन का हिस्सा बनाओ।
व्यवहारिक बनिए, असंभव को हासिल करने का जोखिम उठाइए
आजकल समाज में संकट बढऩे के साथ-साथ वामपंथी दलों का संकट भी बढ़ता जा रहा है। आजकल लोकतंत्र की धज्जियां उड़ रही हैं। कोई लोकतंत्र के हक में बात नहीं करता। लेनिन ने एक बार कहा था कि यह (पूंजीवादी लोकतंत्र) पिग स्टाइल डेमोक्रेसी है। आज साठ सालों की आजादी का अर्थ कोई स्वतंत्रता नहीं है और लोकतंत्र लोगों के साथ एक धोखा है। ये मसले मार्क्सवाद की भाषा में आने चाहिए थे। जब लोकतंत्र इतनी गिरावट पर है तो यह बहस छिडऩी चाहिए कि यह लोकतंत्र हमें कहां ले जाएगा। हमारे वक्त में समझा जाता था कि लोकतंत्र समाजवाद में ही संभव है। लेकिन अब टेलीविजन चैनलों पर देखता हूं कि कोई यह नहीं कहता कि तुम दोनों (कांग्रेस और भाजपा) गलत हो, हमारा तीसरा रास्ता है, लेकिन अब वह मौका भी (लेफ्ट) गंवा चुका है। एक जमाना था कि कम्युनिस्ट लब्ज की बड़ी इज्जत थी, वह भी अब मखौल का विषय बन गया है। पूंजीवाद सामंतवाद के भीतर पनप सकता है, लेकिन समाजवाद ऐसा नहीं कर सकता। यह एक नए समाज की मांग करता है। यह बड़ी मूल समस्या है। चे-ग्वेरा ने इसकी तरफ इशारा करते हुए कहा, "समाजवाद युवा है…रास्ता लंबा है और अनजाना भी…कम्युनिज्म के निर्माण के लिए आर्थिक आधारों के साथ-साथ एक नए आदमी का भी निर्माण किया जाना आवश्यक है। हम समझते थे कि रूस में एक नया आदमी पैदा हो रहा है, पर वह नहीं हुआ। एक जुमला था जो पूंजीवाद ने दिया था, "यहां कोई विकल्प नहीं है।" मारक्यूज ने एक जगह लिखा था, "एक तंत्र की सफलता यह है कि यह विकल्प को अकल्पनीय बना देता है।" यह आजकल हो रहा है कि यही (पूंजीवाद) एक रास्ता है और कोई रास्ता नहीं है। इसलिए दूसरे रास्ते की बात करना बहुत मुश्किल हो गया है।
मैंने हमेशा उम्मीद की है कि मुख्य पार्टिर्यां सीपीआई, सीपीएम ठीक रास्ते पर आ जाएं। मैं इनको बार-बार चेतावनी देता रहा हूं कि बंगाल में तुम्हारा गलत काम चल रहा है, लेकिन उन्होंने नहीं सुना। अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि कम्युनिस्ट आंदोलन का कोई भविष्य है तो वह अल्ट्रा लेफ्ट (अतिवादी वामपंथ) में है।
मार्क्स के लिए समाजवाद केवल एक मानवीय अर्थशास्त्र की व्यवस्था नहीं थी, उसके लिए समाजवाद मानव मुक्ति का जरिया था। तभी उसने समाजवादी शासन व्यवस्था के लिए विस्तार से लिखने की कोशिश नहीं की। मैंने नागी रेड्डी मेमोरियल व्याख्यान (नवंबर 2008) के आखिर में कहा है कि इकट्ठे हो जाओ। सबसे ज्यादा वाम की बिखरी हुई पार्टियों और संगठनों को समाजवादोन्मुख राजनीति के एक मंच पर लामबंद करने की आवश्यकता है, जिसमें मुख्य जोर इतर संसदीय संघर्षों पर होना चाहिए। एकजुट होने की इस कोशिश में सभी संगठनों और पार्टियों को ईमानदारी के साथ आत्मालोचक बनना होगा। उन्हें एक-दूसरे के प्रति भाईचारा रखना होगा और संघर्ष की युक्ति, तरकीब या रूपों को लेकर विभेदों को स्थान देना होगा। उनके विमर्श में वर्ग-शब्दावली कम हो, सिद्धांत की बातें ज्यादा हों। …परिवर्तन के लिए उन्हें एक- दूसरे से, न कि एक दूसरे के बारे में बातचीत करनी चाहिए… इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि क्रांतिकारी वाम की राजनीति के सैद्धांतिक नवीकरण और इसमें आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है।)
अल्ट्रा लेफ्ट की समस्या है – सशस्त्र संघर्ष की समस्या। कोई रिविजनिस्ट (। सुधारवादी) बनने को तैयार नहीं है। एक लिबरेशन वाले रिविजनिस्ट बनने को तैयार हैं, पर सभवत: सबसे प्रमुख समस्या है कि पूंजीवादी तंत्र के अंदर तुम इंकलाब की बातें कैसे चला सकते हो, यह तजुर्बा कहीं नहीं हुआ। यह संभव नहीं है। जिसके बारे में मैंने लिखा है कि हम तो चाहते हैं कि सत्ता परिवर्तन शांतिपूर्ण हो, आपने कभी होने दिया है? मैं वामपंथ को यह कहता हूं कि आप कहो कि हम शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन चाहते हैं, पर तुम (सत्ता) होने दोगे? उनसे पूछो। फ्रांस के छात्रों ने अपने नारे दिए थे, उनमें एक जुमला था- 'बी प्रैक्टिकल, डू द इम्पॉसिबल।' इस तरह की स्थिति हिंदुस्तान में बनी हुई है। मेरे लिए यह लिखना आसान है, लेकिन करना बड़ा मुश्किल है। … तो मैं यह समझता हूं कि इस वक्त मुल्क में माओवादियों के लिए सहानुभूति बढ़ी है और सहानुभूति को शासक वर्ग भी समझता है तथा उनकी नीति यह लगती है कि उनमें से चुन-चुन के जो तुम्हारे बहुत अच्छे कैडर हैं उन्हें मार दें या जेल में भर दें। मैं उनसे (माओवादियों) कहता हूं— 'शिफ्ट यॉर एंफसिस फ्रॉम वॉयलेंस टू पॉलिटिक्स' (अपना ध्यान हिंसा की जगह राजनीति की ओर करो)। मेरे पास सभी तरह के समाजवादी लोग आते रहते हैं। जिनको मैं दो हिस्सों में बांट देता हूं। एक सोशलिस्ट और एक नॉन (गैर) एनडीए सोशलिस्ट। गैर एनडीए सोशलिस्ट से मैं कहता हूं- तुम्हारी विरासत मार्क्सवाद थी तुमने ये कम्युनिस्टों के ऊपर छोड़ दी और लोहिया के थर्ड ग्रेड सोच को अपनाकर बैठे हो। यह बड़ी गलती है। नेपाल से भी समाजवादी लोग मुझसे मिलने आए थे। उन्होंने मेरी राय पूछी तो मैंने कहा कि तुम बड़ी गलती करोगे, पर गलतियां गलतियां होती हैं, उन्हें थ्योराइज (सिद्धांतीकरण) मत करना – जस्टीफाई (सही) मत करना। दूसरा यह कि तुम्हारे नेतृत्व में बड़े मतभेद होंगे पर उनका हल स्टालिन के तरीके से – सांगठनिक तरीकों से न करके राजनीतिक तरीकों से ही करना। कम्युनिस्ट पार्टियों को मतभेदों को दूर करने के लिए सांगठनिक तरीकों का इस्तेमाल – इसे निकाल दो, इसको रिविजनिस्ट कह दो – करने की बड़ी पुरानी आदत है।
मेरी पीढ़ी के लोग इंकलाब में आए थे तो हमने सोचा था जैसे-जैसे कांग्रेस का असर घटेगा हम ऊपर आते जाएंगे, पर यह नहीं हुआ। मैं पुराना कम्युनिस्ट हूं। मुझे अच्छा लगता है जब कोई पुराने कम्युनिज्म की बातें करता है। पुराने कम्युनिस्ट कुछ सपने लेकर इंकलाब में आए थे। उन दिनों पार्टी के बहुत सारे सदस्य अच्छे घरों से आए थे। सीपीआई के जो कम्युनिस्ट थे वो सीपीएम के कम्युनिस्टों से बेहतर थे, क्योंकि सीपीएम के ज्यादा कैडर तब बने जब सीपीएम सत्ता में थी। सीपीआई के कैडर कुछ सपने लेकर आए थे और उनमें ये सपने अब भी कायम हैं। जो नए रैंक बन रहे हैं उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता वह नहीं है जो पुराने कॉमरेड्स में थी। हमारी पीढ़ी में कम्युनिस्ट बनना आसान था पर अबकी पीढ़ी में यह बड़ा मुश्किल है। आजकल जो नक्सल मूवमेंट से निकले लोग हैं – वही आदर्शवाद का स्रोत बन सकते हैं।
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