Wednesday, May 15, 2013

डा. असगर अली इंजीनियर का देहावसान एक मूर्धन्य विद्वान, निर्भीक मैदानी कार्यकर्ता और संवेदनशील चिंतक का चला जाना -एल. एस. हरदेनिया

१५ मई, २०१३



डा. असगर अली इंजीनियर का देहावसान


एक मूर्धन्य विद्वान, निर्भीक मैदानी कार्यकर्ता और संवेदनशील चिंतक का चला जाना



-एल. एस. हरदेनिया


अभी कुछ समय पहले, डा. असगर अली इंजीनियर की आत्मकथा प्रकाशित हुई थी। आत्मकथा का शीर्षक है ''आस्था और विश्वास से भरपूर जीवन:  शांति, समरसता और सामाजिक परिवर्तन की तलाश' ।

आत्मकथा का यह शीर्षक असगर अली इंजीनियर की जिंदगी का निचोड़ हमारे सामने प्रस्तुत करता है।

मैं असगर अली को कम से कम पिछले 40 वर्षों से जानता हूं। मैंने उनके साथ कई गतिविधियों में भाग लिया है और अनेक यात्राएं की हैं। देश के दर्जनों शहरों में मैंने उनके साथ सेमीनारों, कार्यशालाओं, सभाओं और पत्रकारवार्ताओं में भाग लिया है। उनकी वक्तृव्य कला अद्भुत थी। जिस भी विषय पर वे बोलते थे, उस पर उनकी जबरदस्त पकड़ रहती थी। मेरी राय में यदि वे शिक्षक होते तो डा. राधाकृष्णन की बराबरी कर लेते। उनके व्याख्यानों के बाद जो प्रश्न होते थे, उनका उत्तर देने में उन्हें महारथ हासिल था। अनेक स्थानों पर श्रोता भड़काने वाले सवाल पूछते थे परंतु उनका उत्तर वे बिना आपा खोये  देते थे। वे अपने गंभीर, सौम्य एवं शांत स्वभाव से अपने तीखे से तीखे आलोचक का मन जीत लेते थे।

असगर अली की आत्मकथा पढ़कर वाशिंगटन के प्राध्यपक पॉल आर. ब्रास ने लिखा "यह एक ऐसे जीवन का विवरण है जो पूरा का पूरा समानता और मानवाधिकारों की रक्षा में बीता है। यह ग्रन्थ उनके जीवन का ऐसा सारांश है जिससे हम सब एक प्रेरणास्पद सबक सीख सकते हैं"।

प्रसिद्ध शिक्षाविद् और नेशनल आरकाईव्स ऑफ इंडिया के महानिदेशक मुशीरुल हसन लिखते हैं ''यह एक हिम्मती और बहादुर व्यक्ति की जीवन गाथा है। इसके साथ ही, यह समकालीन दुविधाओं का सूक्ष्म विश्लेषण भी है''।

असगर अली का स्वास्थ्य पिछले कई महीनों से ठीक नहीं था। वे मधुमेह के पुराने मरीज थे और उन्हें दिन में दो बार इन्सुलिन लेना पड़ता था। एक-दो बार तो वे यात्राओं के दौरान बेहोश होकर गिर पड़े थे। इसके बावजूद उन्होंने यात्राएं करना जारी रखा। उन्होनें दुनिया के अनेक देशों की यात्राएं कीं। उनकी यात्राओं का उद्देश्य सैर-सपाटा करना नहीं वरन् बौद्धिक होता था। सारी दुनिया में उनकी ख्याति इस्लाम के एक महान अध्येता के रूप में थी। उन्होंने इतिहास का अध्ययन भी बड़ी बारीकी से किया था। उनकी मान्यता थी कि इतिहास से सकारात्मक सबक सीखने चाहिए। सामन्ती युग की जितनी गहन व्याख्या वे करते थे उतनी कम ही विद्वान कर पाते हैं।

अकबर इलाहबादी का एक प्रसिद्ध शेर है "कौम के गम में खाते है डिनर हुक्काम के साथ, दर्द लीडर को बहुत है, मगर आराम के साथ"। असगर अली ऐसे लोगों में नहीं थे। वे विचारक एवं चिंतक होने के साथ-साथ एक मैदानी कार्यकर्ता भी थे। उन्होंने अनेक साम्प्रदायिक दंगों के दौरान फायर ब्रिगेड की भूमिका अदा की थी। आजादी के बाद के अनेक दंगों का उन्होंने बहुत ही बारीकी से अध्ययन किया है। वे उन स्थानों पर स्वयं जाते थे जहां दंगों के दौरान निर्दोषों का खून बहा हो। वे इन दंगों की पृष्ठभूमि को पैनी नजर से देखते थे। वे उनसे सबक सीखते थे और दूसरों को भी सिखाते थे। वे हर माह में दो बार अर्थात पाक्षिक लेख लिखते थे जो 'सेक्युलर पर्सपेक्टिव' नामक बुलेटिन के रूप में प्रकाशित होता था। पहले यह बुलेटिन केवल अंग्रेजी में छपता था परंतु बाद में मेरे सुझाव पर उनके अंग्रेजी के इन लेखों का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया जाने लगा। इसके बाद उनके ये लेख हिन्दी के अनेक दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे। कई लोग तो उनके लेखों की इतनी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे कि यदि उन्हें समय पर 'सेक्युलर पर्सपेक्टिव' नहीं मिलता था तो मेरे पास उनके टेलीफोन आने लगते थे। पिछले दो वर्षों से 'सेक्युलर पर्सपेक्टिव' का उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित होने लगा था। उर्दू अनुवाद का जिम्मा भोपाल की ही विदुषी महिला डाक्टर नुसरत बानो रूही ने अपने हाथ में लिया।

असगर अली ने अनेक मौलिक ग्रन्थ लिखे। उनका एक ग्रन्थ ''21वीं सदी और इस्लाम'' अत्यंत लोकप्रिय हुआ। अभी हाल में उनके लेखों का संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुआ है। वे चाहे कहीं भी हों, देश में या विदेश में, समय पर सेक्युलर पर्सपेक्टिव लिखना नहीं चूकते थे।

समाज सुधारक के रूप में उनकी भूमिका

असगर अली का जन्म 10 मार्च 1939 को राजस्थान के एक कस्बे में एक धार्मिक बोहरा परिवार में हुआ था। उनके पिता बोहरा उलेमा थे। उनका ज्यादातर बचपन मध्यप्रदेष में बीता और यहीं उनकी शिक्षा हुए। उन्होंने इंदौर के प्रसिद्ध जीएसटीआईएस से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और उसके बाद मुंबई (तब बंबई) नगरनिगम में सिविल इंजीनियर के रूप में नौकरी प्रारंभ की। उनमें बचपन से ही बोहरा समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रति गहन आक्रोश था। शनैः-शनैः इस आक्रोश ने विद्रोह का रूप ले लिया। असगर अली के अनुरोध पर जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने बोहरा समाज में व्याप्त कुरीतियों की जांच के लिए एक आयोग गठित किया। इस आयोग में जस्टिस तिवेतिया और प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैयर थे। इस आयोग के सामने मैंने भी बयान दिए थे। आयोग की जांच-पड़ताल के नतीजे दिल दहला देने वाले थे। आयोग ने पाया कि बोहरा समाज में एक प्रकार की तानाशाही व्याप्त थी। इस तानाशाही का मुकाबला करने के लिए असगर अली ने सुधारवादी बोहराओं का संगठन बनाया। इस संगठन में सबसे सशक्त थी उदयपुर की सुधारवादी जमात। उदयपुर में आयोजित अनेक सम्मेलनों में मुझे भी भाग लेने का अवसर मिला। बोहरा सुधारवादियों में डाक्टर इंजीनियर अत्यंत लोकप्रिय थे। हर मायने में वे उनके हीरो थे।

दुनिया का अनुभव बताता है कि आप एक राष्ट्र के स्तर पर क्रांतिकारी हो सकते हैं पर अपने समाज और अपने परिवार में क्रांति का परचम लहराना बहुत मुश्किल होता है। जो ऐसा करता है उसे इसकी बहुत भारी कीमत अदा करनी पड़ती है। असगर अली को भी अपने विद्रोही तेवरों की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। उन पर अनेक बार हिंसक हमले हुए। एक बार तो उनपर मिस्त्र की राजधानी काहिरा में हमला हुआ। एक दिन वे एक कार्यक्रम में भाग लेने भोपाल आए थे। भोपाल से लौटते समय उनपर इंदौर से मुंबई की हवाई यात्रा के दौरान हमला हुआ। जिस समय उनपर हवाई जहाज में हमला हो रहा था, लगभग उसी समय कुछ असामाजिक तत्व उनके मुंबई स्थित आवास पर आए और वहां सब कुछ तहसनहस कर दिया। वे उनके पुत्र और पुत्रवधु पर हमला करने से भी बाज नहीं आए

असगर अली को जीवन भर उनके प्रशंसकों, सहयोगियों और अनुयायियों का भरपूर प्यार और सम्मान मिला। उन्हें देश-विदेश के अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उन्हें एक ऐसा सम्मान भी हासिल हुआ जिसे आलटरनेट नोबल प्राईज अर्थात नोबल पुरस्कार के समकक्ष माना जाता है। इस एवार्ड का नाम है ''राईट लाइविलीहुड अवार्ड'। यह कहा जाता है कि नोबल पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जो यथास्थितिवादी होते हैं और कहीं न कहीं सत्ता-राजनीति-आर्थिक गठजोड़ द्वारा किए जा रहे शोषण से जुड़े रहते हैं। राईट लाइविलीहुड अवार्ड उन हस्तियों को दिया जाता है जो यथास्थिति को बदलना चाहते हैं और सत्ता में बैठे लोगों से टक्कर लेते हैं।

उन्होंने ५० से भी अधिक किताबें लिखीं और चार विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि दी।

मुबई में १5 मई को उन्हें उसी कब्रिस्तान में दफनाया गया जहाँ उनके अभिन्न मित्रों कैफी आज़मी व अली सरदार जाफरी को दफनाया गया था।

असगर अली की मृत्यु से देश ने एक सच्चा धर्मनिरपेक्ष, मूर्धन्य विद्धान और निर्भीक मैदानी कायकर्ता खो दिया है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं)   

संपादक महोदय,

           कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।


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