Friday, May 31, 2013

हिंदी समय में इस हफ्ते

मित्रवर

पिछले कुछ कई दशकों में बाबर की एक आक्रांता की इकहरी छवि लगातार गढ़ी जाती रही है। वह भारत आक्रमणकारी की हैसियत से आया था इसमें भी शायद ही किसी को संदेह हो। पर वह समय ही दूसरा था जब चीजें आज के अर्थों और तर्कों से नहीं चलती थीं। बहरहाल जो भी हो पर बाबर के व्यक्तित्व में बहुतेरे आयाम समाहित थे जिन्हें बाबर की आत्मकथा बाबरनामा में बखूबी देखा जा सकता है। यहाँ पर देवेंद्रनाथ शर्मा के एकांकी बाबर की ममता में वह एक ममतालु पिता की भूमिका में उपस्थित है जहाँ वह अपने पुत्र हुमायूँ के जीवन की रक्षा के लिए अपना जीवन कुर्बान कर देता है। हिंदीसमय (www.hindisamay.com) पर इस भूले-बिसरे एकांकी को पेश करते हुए हमें विशेष खुशी महसूस हो रही है।

 

इस बार हम यहाँ हिंदी के तीन विशिष्ट कथाकारों की कहानियाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। कहानियाँ हैं भगवती प्रसाद वाजपेयी की कहानी मिठाईवाला, राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह की कहानी कानों में कँगना और दूधनाथ सिंह की दो नई कहानियाँ अम्माएँ और सरहपाद का निर्गमन। दूधनाथ जी इन दिनों हमारे विश्वविद्यालय में अतिथि लेखक के रूप में मौजूद हैं और ये दोनों कहानियाँ उन्होंने यहाँ आने के बाद लिखी हैं। हमें यह बताते हुए खुशी हो रही है कि ये कहानियाँ सर्वप्रथम हिंदी समय पर ही प्रकाशित हो रही हैं।

 

जीवन भर तरह तरह की कट्टरताओं से लोहा लेने वाले असगर अली इंजीनियर पिछले दिनों हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया।                     मेरे पिता की विरासत शीर्षक से यहाँ उनका स्मरण कर रहे हैं उनके योग्य सुपुत्र इरफान इंजीनियर। विशेष के अंतर्गत प्रस्तुत हैं वर्जिनिया वूल्फ के कुछ विचार।

 

इस बार यश मालवीय के गीत भी हमारी विशेष प्रस्तुति हैं।

     

हमने आपसे बताया था कि हम अलिफ लैला की कहानियों को नियमित रूप से आपके सामने पेश करते रहेंगे सो पाँच कहानियाँ पेश हैं - किस्सा तीसरे फकीर का,  किस्सा जुबैदा का, किस्सा अमीना का, किस्सा सिंदबाज जहाजी का और सिंदबाद जहाजी की पहली यात्रा

 

हम उम्मीद करते हैं कि हमारा यह प्रयास आपको हमेशा की तरह पसंद आएगा।

 

अगले हफ्ते फिर मिलते हैं।

सादर,

राजकिशोर

संपादक

हिंदी समय     

Friday, May 24, 2013

हिंदीसमय में इस हफ्ते

मित्रवर,

दो स्त्रियों की आत्मकथाओं का अध्ययन करते हुए गरिमा श्रीवास्तव कहती हैं कि  'आमार जीबन' और 'आत्मचरितमु' ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दो पड़ावों, समाज और स्त्री मन पर पड़े प्रभावों की पड़ताल करने के लिए विशिष्ट पाठ की भूमिका निभा सकते हैं। राससुंदरी ने 1868 में और सत्यवती ने 1934 में अपनी आत्मकथा लिखी। दोनों में लगभग सत्तर वर्ष का अंतराल है। सात दशकों के इस अंतर को भारतीय स्त्री की मनुष्य के रूप में पहचान और अंतर्विरोधों के बावजूद हाशिए की आवाज को केंद्र में ले जाने की पुरजोर कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। गरिमा श्रीवास्तव द्वारा अथ सवर्ण स्त्री प्रति-आख्यान शीर्षक से किया गया यह रोचक तुलनात्मक अध्ययन, हमारी दृष्टि में, हिंदी समय (www.hindisamay.com) की एक खास उपलब्धि है।

 

सियारामशरण गुप्त सिर्फ सुकवि ही नहीं, बल्कि श्रेष्ठ गद्यकार भी थे। उनकी बहुचर्चित कहानी काकी हम आपके सामने पेश कर रहे हैं। इस बार की दूसरी कथाकार  इला प्रसाद भी हिंदी कहानी का एक जाना-पहचाना नाम हैं। वे प्रवासियों द्वारा लिखी जा रही कहानियों की सामर्थ्य को भी नए सिरे से रेखांकित करती हैं। यहाँ पेश हैं उनकी  दस कहानियाँ - उस स्त्री का नाम, मेज, बैसाखियाँ, समुद्र : एक प्रेमकथा, हीरो, गुड़िया का ब्याह, तूफान की डायरी, खिड़की, सेल और एक अधूरी प्रेमकथा

 

व्यंग्य है बेढब बनारसी का चिकित्सा का चक्कर और कविताएँ हैं प्रखर युवा कवि रविकांत की।   

 

हमने बताया था कि हम अलिफ लैला की कहानियों को नियमित रूप से आपके सामने पेश करते रहेंगे। इस बार की कहानियाँ हैं - किस्सा तीन राजकुमारों और पाँच सुंदरियों का, मजदूर का संक्षिप्त वृत्तांत, किस्सा पहले फकीर का, किस्सा दूसरे फकीर का, किस्सा भले आदमी और ईर्ष्यालु पुरुष का

 

हम उम्मीद करते हैं कि हमारा यह प्रयास आपको हमेशा की तरह पसंद आएगा।

 

अगले हफ्ते फिर मिलते हैं।

सादर,

राजकिशोर

संपादक

हिंदी समय    

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 














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राजकिशोर
53, इंडियन एक्सप्रेस अपार्टमेंट्स
मयूर कुंज
दिल्ली - 110096
फोन : 09650101266

Friday, May 17, 2013

सुपुर्दे खाक होने लगा आम निवेशकों का हित!

सुपुर्दे खाक होने लगा आम निवेशकों का हित!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


एक दफा फिर सुपुर्दे खाक होने लगा आम निवेशकों का हित!जैसे संचयिता और ओवरलैंड को लोग भूल गये, टीक उसी तरह शारदा फर्जीवाड़े को भी लोग भूलने वाले हैं और इसका पुख्ता इंतजाम हो गया है।जांच पड़ताल ठप है और मीडिया का ध्यान भी अब भटकने लगा है। कोयला घोटाला तक आईपीएल घोटाले के भंडाफोड़ से हाशिये पर चला गया है। सुदीप्त ने जो हलफनामा हाईकोर्ट में जारी किया है, वह संकेत हैं कि उसके बचाव के पक्के इंतजाम हो गया है।


अब सीबीआई जांच पर सुनवाई ५ जून से पहले होने की संभावना नहीं है। छह अप्रैल से लेकर पांच जून, पूरे दो महीने हो जायेंगे। कोई एफआईआर नहीं, कोई संपत्ति जब्त नहीं, महज आरोप प्रत्यारोप, धरना , प्रदर्शन और आत्महत्याओं से आर्थिक अपराधों की जांच होने का कोई नजीर इस देश में नहीं है।


फिर राजनीति भी किसी एक मद्दे पर ठहर नहीं जाती। पंचायत चुनावों की हलचल में जुलाई महीना पार हो जायेगा। फिर बचेगी अदालती ​​कार्रवाई। बाकी कुछ नहीं।


सुदीप्त की सेहत पर इस बीच चिंता जताई है विपक्ष ने। सुदीप्त को कुछ हो गया तो इस मामले का वही हाल होगा जो संचयिता का हुआ।


देवयानी और सुदीप्त की पुलिस हिरासत की अऴधि कितनी दफा और बढ़ायी जायेगी, देवयानी अंततः कब सरकारी गवाह बनेगी, सुदीप्त को असम पुलिस के हवाले किया जायेगा या नहीं, सीबीआई  टीम गुवाहाटी और अगरतला होकर कोलकाता पहुंचेगी या नहीं, इन्हां पहेलियों में उलझकर सुर्खियां बनती बिगड़ती रहेंगी। विशेष जांच टीम को कोई अधिकार नहीं है। केंद्रीय एजंसियों के की जांच वैसे भी राजनीतिप्रेरित होती हैं , जो सीआईडी जांच भी है।


सेबी ने बंगाल सरकार पर आरोप लगाया है कि उसकी सलाह के मुताबिक बंगाल सरकार ने संदिग्ध चिटपंड कंपनियों के खिलाप एफआईआर तक दर्ज नहीं की।


बाकी बचा श्यमल सेन आयोग , उसकी जो रफ्तार है, कई युग लगेंगे शिकायतों को सहेजने में, फिर सुनवाई होगी और जांच का जिम्मा तो उसके मत्थे है ही नहीं।इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्यामल कुमार सेन की अध्यक्षता वाले पांच सदस्यीय आयोग ने शारदा ग्रुप चिटफंड घोटाले की जांच शुरू कर दी है। आयोग अपनी रिपोर्ट छह महीने में सौंपेगा।छह महीने बाद तक जनता की याददाश्त बनी रहेगी, कहना मुश्किल है।


हिंदी समय में इस हफ्ते

प्रिय मित्र,

हिंदीसमय (www.hindisamay.com) हमेशा इस कोशिश में रहता है कि आपके सामने वह साहित्य के विविध रूपों को लेकर आए। हम साहित्य की सभी विधाओं को आपके सामने पहले भी रखते रहे हैं। इसी क्रम में इस बार पेश है कुमार रवींद्र की काव्य-नाटिका : कहियत भिन्न न भिन्न।  आजकल राम कठघरे में हैं और उनके कृतत्व को ले कर गंभीर और खुराफाती, दोनों तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। फिर भी, राम के व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है, जो कथाकारों, कवियों और नाटककारों को नई-नई रचनाएँ देने के लिए प्रेरित करता रहा है। इस काव्य-नाटिका में रचनाकार राम के जीवन के तमाम असुविधाजनक सवालों से टकराता है। यह अनायास नहीं है कि यहाँ राम ज्यादातर समय खुद से संवाद करते नजर आते हैं।

       हरिशंकर परसाई हिंदी साहित्य ही नहीं, वरन विश्व साहित्य की विरल उपलब्धि हैं। उनकी अनेक रचनाएँ आप पहले भी हिंदी समय पर पढ़ चुके हैं। इस बार आपके सामने हैं उनकी कुछ लघुकथाएँ : चंदे का डर, अपना-पराया, दानी, रसोई घर और पाखाना, सुधार और समझौता

       जनसत्ता के कार्यकारी संपादक ओम थानवी खुद भी विवाद पैदा करते रहे हैं और विवादों के केंद्र में भी बने रहते हैं। यहाँ हाजिर है हिंदी में प्रचलित किसिम-किसिम के अज्ञानों, गलतियों और दुराग्रहों पर उनका विचारोत्तेजक लेख चिंदी-चिंदी हिंदी। ओम जी की इस बात से कौन असहमत हो सकता है कि भाषा बहता नीर है, बहता नाला नहीं है।

व्यंग्य है  कामता प्रसाद सिंह‍ 'काम' का मेरी जेब। कामता प्रसाद जी उस पीढ़ी के लेखक हैं, जो हिंदी  के विस्मृति-गह्वर में फेंक दी गई हैं।

       इस बार हम आपके सामने दो गजलकारों को लेकर आए हैं। हंसराज रहबर की गजल है - तबीयत में न जाने ख़ाम ऐसी कौन सी शै है और रमेश तैलंग की तीन गजलें हैं - किसी को ज़िंदगी में जानना आसाँ नहीं होता, जहाँ उम्मीद थी ज़्यादा वहीं से खाली हाथ आए और मेरे जज़्बात में जब भी कभी थोड़ा उबाल आया

       हमने आपसे बताया था कि हम अलिफ लैला की कहानियों को नियमित रूप से आपके सामने पेश करते रहेंगे। इस बार की पाँच कहानियाँ हैं - किस्सा मछुवारे का, किस्सा गरीक बादशाह और हकीम दूबाँ का, किस्सा भद्र पुरुष और उसके तोते का, किस्सा वजीर का, किस्सा काले द्वीपों के बादशाह का

आप की टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार बना रहता है, यह आप के ध्यान में होगा।

अगले हफ्ते फिर मिलते हैं।

सादर,

राजकिशोर

संपादक

हिंदी समय    

 


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तकनीकी सहायक
हिंदीसमयडॉटकॉम 

भड़ास के पांच साल पूरे

भड़ास के पांच साल पूरे होने पर आज हम आप सभी दिल्ली में आईटीओ के करीब दीनदयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित राजेंद्र भवन में इकट्ठा हो रहे हैं. दोपहर बाद ठीक दो बजे से कार्यक्रम शुरू होगा. व्याख्यान, सूफी संगीत और सम्मान समारोह में आप सादर आमंत्रित हैं. न्योता यहां पर है... क्लिक करें- www.nyota.html  याद रखें, कार्यक्रम ठीक दो बजे से शुरू हो जाएगा, इसलिए देर न करें, समय से पहुंचें और अपनी सीट ग्रहण करें. आपका आना भड़ास को नैतिक समर्थन साबित होगा. इसलिए, खुद आएं और अपने साथियों-दोस्तों को भी लाएं. आज मिलते हैं ठीक दो बजे, राजेंद्र भवन में. -यशवंत, एडिटर, भड़ास4मीडिया

राजनीति का जांबी कारोबार। मुर्दों के लिए सारां जहां, जिंदो को दो गज जमीन नहीं!

राजनीति का जांबी कारोबार। मुर्दों के लिए सारां जहां, जिंदो को दो गज जमीन नहीं!हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं।


पलाश विश्वास


अभी अभी सैफ अली खान की एक फिल्म `गो गोवा गान' की खूब चर्चा हो रही है और इसे भारत में पहली जांबी संस्कृति की फिल्म बतायी जा रही है। जांबी संस्कृति पश्चमी बतायी जा रही है। 'गो गोवा गॉन' एक जांबी विधा की फिल्म है जो ज्यादातर हॉलीवुड में बनती रही है। जांबी दरअसल न भूत न है पिशाच, न वैंपायर न मृतात्माएं। लेकिन अभी अभी कई राज्य सरकारों के दो साल के कार्यकाल के पूरे होने पर देश भर में सरकारी खर्च पर मुख्यमंत्रियों के बड़े बड़े पोस्टर समेत जो विज्ञापनों की बहार आयी है, वह क्या है? हम व्यक्ति पूजा में इतने तल्लीन और अभ्यस्त हैं कि अपने नेताओं और पुरखों को जांबी में तब्दील करने में पश्चिम से कहीं बहुत आगे हैं। राजघाट पर मत्था सारे लोग टेकते हैं, पर गांधी की विचारधारा की इस मुक्त बाजार में क्या प्रासंगिकता रहने दी हमने? अंबेडकर की तस्वीर के बिना इस देश की बहुसंख्य जनता को अपना वजूद अधूरा लगता है।पर उनकी विचाऱधारा, समता और सामाजिक न्याय के एजंडा, जाति उन्मूलन के कार्यक्रम, बहुजनों की मुक्ति के आंदोलन का क्या हश्र हुआ है?


'गो गोवा गॉन' फिल्म अपने विषय के अलावा अपने गानों की वजह से भी चर्चा में आ रही है।इस फिल्म का एक गाना "खून चूस ले तू मेरा खून चूस ले" युवाओं के ‌बीच लोकप्रिय हो रहा है। खासतौर पर युवा प्रोफेशनल्स इसे अपनी जिंदगी से जोड़कर देख रहे हैं।फिल्‍म का निर्देशन कृष्‍णा डी के और राज निधिमोरू ने किया है। फिल्‍म के ट्रेलर को यू ट्यूब पर काफी पसंद किया जा रहा है। इसे तीन दिन में एक मिलियन लोगों ने देखा है। फिल्‍म में सैफ अली खान ने एक रूस के माफिया का किरदार निभाया है जो कि खुद को जांबी हन्‍टर कहता है। फिल्म में तड़कते-भड़कते गाने और बेहतरीन डायलॉग्स हैं।



गांधी और अंबेडकर के स्मारक तो फिर भी समझ में आते हैं, लिकिन जिनका इस देश के इतिहास भूगोल में कोई योगदान नहीं है, उनके नाम पर भी तमाम स्मारकों का प्रतिनियत कर्मकांड हैं। ऐसे महापुरुष आयातित भी हैं। उनकी विचारधारा और उनके आंदोलनों से किसी को कोई लेना देना नहीं। सारे लोग पक्के अनुयायी होने का दावा करते हुए सड़क किनारे शनिदेवता , शिव काली  शीतला संतोषीमाता मंदिर और अनगिनत धर्मस्थलों की तर्ज पर स्मारकों के जांबी कारोबार में करोड़ों अरबों की बेहिसाब अकूत संपत्ति जमा कर रहे हैं। उन मृत महानों, महियषियों को जांबी बनाकर उनकी सड़ती गलती देह विचारधारा, विरासत और अंग  प्रत्यंग आंदोलन  के हालत में , उन्हें जीवित रहने को मजबूर कर रहे हैं ताकि वे हमारे निहित स्वार्थ पूरा करने के काम आ सकें।भारतीय राजनीति के इस जांबी कारोबार के मद्देनजर इस फिल्म को देखें, तो कामेडी की हवा निकल जायेगी, भारतीय लोक गणराज्य की त्रासदियां बेनकाब हो जायेंगी। यह हालत हमें दहशत में नहीं डालती क्योंकि हम लोग भी मुर्दाफरोश हैं!


सन् 1974 की बात है। तब मैं दिनेशपुर हाईस्कूल से दसवीं पास करने के बाद जीआईसी नेनीताल का छात्र बनने के बाद सालभर नैनीताल में गुजार चुका था। ग्यारहवीं की परीक्षा दे चुका था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से चरचा के बाद पिताश्री शरणार्थी नेता पुलिनबाबू देशभर के शरणार्थियों की हालत का मौके पर जांच करके प्रधानमंत्री कार्यालय को रपट देने वाले थे। वे उत्तर से दक्षिण पूरब से पश्चिम के दौरे पर थे। नैनीताल में तार आया कि वे दिल्ली पहुंचने वाले हैं, मैं नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ दिल्ली पहुंच जाऊं ताकि उस रपट को लिखने के काम को अंजाम दिया जा सकें। शरणार्थी नेता हिंदी में लिख नहीं सकते थे। मेरी मदद की उन्हें सख्त जरुरत थी। मैं दिल्ली कभी नहीं गया था। पिताजी के लिए दिल्ली लखनऊ की तो डेली पैसेंजरी थी। यह मौका चुकना न था। ग्यारहवीं की परीक्षा खत्म होते ही मैं दिनेशपुर आया। कुमुद रंजन मल्लिक और विवेक विश्वास की अगुवाई में नैनीताल के शरणार्थी नेताओं के साथ मैं दिल्ली कूच कर गया।


जून का महीना था। दिल्ली में आग बरस  रही थी। चांदनी चौक के धर्मशाला की छत पर एक कमरे में जहां आराम से वे मछलियां पका और खा सके धर्मशाला की मनाही के बावजूद, हम लोग ठहरे। मेरा दिल्ली दर्शन शुरु हुआ। तब कृष्ण चंद्र पंत इंदिरा मंत्रिमंडल में ऊर्जा राज्यमंत्री थे और नैनीताल से सांसद थे। तीनमूर्ति मार्ग में उनका बंगला था।


पिताजी की वापसी पर बाकी लोग तो शुरुआती दो तीन दिन में सलाह मशविरा के बाद घर लौट गये, रपट लिखने और टाइप करवाने फिर प्रधानमंत्री कार्यालय में जमा करवाने के कातिर मैं दिल्ली ठहर गया। इस बीच पिता के साथ दिल्ली दर्शन शुरु हो गया। शुरुआत जाहिर है कि राजघाट से हुआ। पिताजी कनाट प्लेस तक चांदनीचौक से पैदल घूमने के आदी । नई दिल्ली के तमाम मंत्रालयों में हम पैदल ही घूम रहे थे। सबसे ज्यादा तकलीफ मुझे दिल्ली में पेयजल संकट से हुई। हम लोगों को तराई या नैनीताल में पानी खरीदने की अभिज्ञता न थी। पहाड़ में भारी जलकष्ट के बावजूद पानी बेचने का धंधा चालू न हुआ था। पर धर्मशाला से नीचे उतरते ही सर्वत्र पानी खरीदकर पीने की मजबूरी ने राजधानी के प्रति मेरे मन में वितृष्णा पैदा कर दी। फिर मंत्रालयों में राजनेताओं, अफसरों और मंत्रियों के काम काज और लालफीताशाही से जल्दी ही राजधानी से मेरा मन उचाट हो गया। उन दिनों में रात को लोग दिल्ली में चांदनी चौक जैसे इलाके में खुल्ले में चारपाई डाल कर सोते थे। सुरक्षा इंतजाम मंत्रालयों में भी नदारद था। यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय में पीसी अलेक्जेंडर के कक्ष में हम आराम से बैठकर बतिया सकते थे।


मालूम हो कि हमने लगभग पंद्रह दिनों की मेहनत से वह रपट तैयार की , टाइप करवाया और प्रधानमंत्री कार्यालय को जमा करने के बाद डाक से तमाम मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राष्ट्रपति को भी भैजा। इस रपट के साथ भारतीय रेलवे की दुर्दशा पर भी पिताजी के अनुभवों की एक लंबी दास्तां लिखी गयी थी। जिसे भी संबंधित मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक को सौपा गया।पावती पर धन्यवाद के औपचारिक पत्रों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं हुआ। और तभी मैंने पिताजी से साफ साफ कह दिया कि इस तरह मैं मंत्रालयों का चक्कर काट नहीं सकता। सत्ता दलों की कोई दिलचस्पी शरणार्थी समस्या हल करने में नहीं है। तभी से पिताजी के खास मित्रों नारायण दत्त तिवारी और केसी पंत समेत तमाम नेताओं से मेरी दूरी हजारों योजन की हो गयी।


बहरहाल इसी दौड़ भाग के मध्य पिताजीने दिल्ली दर्शन की मेरी आकांक्षा पूरी करने में कोई कोताही नहीं की। पिताजी ने सबसे पहले मुझे राजघाट ले गये। फिर शांतिवन और फिर विजय घाट। फिर नंबर लगा तीन मूर्ति भवन का। उसके बाद 30 जनवरी रोड पर स्थित गांधी स्मारक भवन का। चूंकि जीआईसी में ताराजंद्र त्रिपाठी के कब्जे में मैं पहले ही आ चुका था और बांग्ला के बदले हिंदी में लिखना शुरु कर चुका था। कविताएं छपने लगी थीं और कहानियां बी लिखने लगा था। चारों तरफ नजर रखने और चीजों को बारीकी से देखने की आदत हो गयी थी। गांधी स्मारक में दोपहर के वक्त रिसेपशनिस्ट  कन्या से  मिलने आये उनके पुरुष मित्र की बातचीत में किशोरसुलभ दिलचस्पी कुछ ज्यादा ही थी। खासकर, हम जिस माहौल में थे, लड़के और लड़कियों में सहज वार्तालाप या मुलाकात की कोई संभावना नहीं थी।लड़कियां स्कूलों और कालेजों में झुंड में रहती थीं, उनके साथ एकांत की कल्पना की जा सकती थी, हकीकत में ऐसा बहुत कम हो पाता था।जो बहुत मन को भा जाती थीं और जिसके बिना जीना मुश्किल होता था, उससे बतियाने का कोई जुगाड़ बन ही नहीं पाता था।


लेकिन इस जोड़ी ने गांधी स्मारक में बैठे स्मारकों और समाधियों के खिलाफ जो चर्चा की , उसने उस वक्त हमारे मन में तमाम सवाल खड़े कर दिये थे।मसलन वे कह रहे थे कि दिल्ली में जिंदा लोगों को दो गज जमीन मयस्सर नहीं, पर स्मारकों और समाधियों के लिए इतना तमाम तामझाम और हजारों एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा!


दिल्ली में महात्मा गांधी के समाधि स्थल राजघाट, जवाहरलाल नेहरू के समाधि स्थल शान्तिवन , लालबहादुर शास्त्री के समाधि स्थल विजय ,इंदिरा गांधी के समाधिस्थल शक्तिस्थलसे लेकर चरणसिंह के समाधिस्थल किसान घाट और जगजीवनराम के समाधिस्थल समतास्थल जैसे अति महत्वपूर्ण स्मारक स्थल हैं।दिल्ली तो है दिल वालों की। दिल्ली के इतिहास में सम्पूर्ण भारत की झलक सदैव मौजूद रही है। अमीर ख़ुसरो और ग़ालिब की रचनाओं को गुनगुनाती हुई दिल्ली नादिरशाह की लूट की चीख़ों से सहम भी जाती है। चाँदनी चौक-जामा मस्जिद की सकरी गलियों से गुज़रकर चौड़े राजपथ पर 26 जनवरी की परेड को निहारती हुई दिल्ली 30 जनवरी को उन तीन गोलियों की आवाज़ को नहीं भुला पाती जो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के सीने में धँस गयी थी।दिल्ली भारत की राजधानी एवं महानगरीय क्षेत्र है। इसमें नई दिल्ली सम्मिलित है जो कि ऐतिहासिक पुरानी दिल्ली के बाद बसी थी। महान ऐतिहासिक महत्त्व वाला यह महानगरीय क्षेत्र महत्त्वपूर्ण व्यापारिक, परिवहन एवं सांस्कृतिक हलचलों से भरा है। दिल्ली देश के उत्तरी मध्य भाग में गंगा की एक प्रमुख सहायक नदी यमुना के दोनों तरफ़ बसी है। दिल्ली, भारत का तीसरा बड़ा शहर है।


आज करीब चालीस साल बाद वह जोड़ा कहां और किस हाल में होगी, एक साथ या अलग अलग, उनका नाम भी हमें नहीं मालूम, पर उनकी कहीं बातें सिलसिलेवार ढंग से याद आ रही है। क्योंकि अंततः भारत सरकार ने एक सकारात्मक फैसला किया है कि अब किसी भी राष्ट्रीय नेता के निधन पर  राजधानी में कोई समाधि नहीं बनेगी।अब राष्ट्रपतियों, उपराष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों, पूर्व राष्ट्रपतियों,  आदि के अंतिम संस्कार राष्ट्रीय स्मृति समाधिस्थल पर किये जायेंगे।


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई कैबिनेट की बैठक में यह फैसला किया गया कि अब किसी भी नेता के मरने पर उसकी अलग से समाधि नहीं बनाई जाएगी। सिद्धांत रूप में यह फैसला 2000 में ही कर लिया गया था। सरकार का मानना है कि राजघाट के पास कुछ समाधि स्थल बनाए जाने से काफी जगह घिर गई है। जगह की कमी को देखते हुए यह फैसला करना पड़ा कि समाधि परिसर को राष्ट्रीय स्मृति के रूप में विकसित किया जाएगा। यहां दाह संस्कार के लिए जगह बनाने के साथ ही लोगों के लिए भी पर्याप्त जगह छोड़ी जाएगी। यह जगह एकता स्थल के पास होगी।


गौरतलब है कि इसी स्मृति स्थल में हाल में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल का पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। इस मौके पर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी मौजूद थे। प्रार्थना सभा और 21 बंदूकों की सलामी के साथ उनके पार्थिव शरीर का यमुना किनारे स्मृति स्थल में दाह संस्कार किया गया जहां उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी भी मौजूद थी। स्मृति स्थल देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समाधि स्थल 'शांति वन' और लाल बहादुर शास्त्री के समाधि स्थल 'विजय घाट' के बीच स्थित है।


मजे की बात तो यह है कि इसके बावजूद इस क्रांतिकारी फैसले के साथ ही कैबिनेट ने महात्मा गांधी से जुड़े स्थानों को विकसित करने के लिए गांधी धरोहर मिशन शुरू करने का फैसला किया है। इसके लिए 39 मुख्य स्थानों को चुना गया है। इससे पहले पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल व महात्मा गांधी के प्रपौत्र गोपाल कृष्ण गांधी की अध्यक्षता में बना पैनल  स्थानों को चिह्नित कर चुका है।अगर गांधी के नाम पर स्मारकों का कारोबार जारी रहता है, तो अंबेडकर और दूसरों के नाम पर क्यों नहीं?


इस फैसले से केंद्र सरकार की मंशा समझ में आने लगी है।जगजीवनराम और चरण सिंह के निधन के बाद समाधिस्थल को लेकर जो बवाल मचा था, उसके मद्देनजर भविष्य में ऐसी ही घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकना ही असल मकसद है।और कुछ नहीं। इसके साथ ही पहले से बने हुए समाधिस्थल और स्मारक समाधियों और स्मारकों की भीड़ में कहीं गायब न हो जाये, इसे रोकने का भी पुख्ता इंतजाम हो गया है।


आखिर यह भी एक तरह का स्थाई आरक्षण ही हुआ।अतिक्रमण रोकने के लिए चहारदीवार बना दी गयी!


इसी संदर्भ में केंद्र सरकार की मंशा साफ करने लायक एक और फैसला हुआ जो क्रिमीलेयर की सीमा तय करने से संबंधित है, सत्ता वर्ग के क्रिमी लेयर के हित साधने के बाद  कैबिनेट ने ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सालाना आय सीमा साढ़े चार लाख से बढ़ा कर छह लाख रुपए कर दी है।मौजूदा हालत में यह सीमा कम से कम बारह लाख करने की मांग की जा रही थी।पर सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण के दायरे में अब सालाना छह लाख रूपए तक की आय वाले लोगों को शामिल करने का फैसला किया है। देश भर में क्रीमी लेयर की सीमा लागू करने के लिए अब तक आय सीमा साढ़े चार लाख रुपए सालाना थी। नई आय पात्रता छह लाख रुपए सालाना होगी यानी छह लाख रूपए सालाना से अधिक आय वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।


क्रीमी लेयर को बाहर रखने के इरादे से की गई आय सीमा में यह बढोतरी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में बढोतरी को देखते हुए की गई है। इससे अन्य पिछड़ा वर्ग के अधिक से अधिक लोग सरकारी सेवाओं और केंद्रीय शैक्षिक संस्थानों में मिल रही आरक्षण सुविधा का फायदा उठा सकेंगे। सरकार का मानना है कि इससे समाज में समानता और समावेशीकरण बढ़ेगा।


Thursday, May 16, 2013

कोयला की कमी दिखाकर निजी कंपनियों को बिजली दरें बढ़ाने की छूट! आयातित कोयले की कीमत का बोझ भी उपभोक्ताओं पर!

कोयला की कमी दिखाकर निजी कंपनियों को बिजली दरें बढ़ाने की छूट! आयातित कोयले की कीमत का बोझ भी उपभोक्ताओं पर!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


कोयला आपूर्ति में व्यवधान के कारण एनटीपीसी और निजी कंपनियों के कुल 37680 मेगावाट क्षमता की परियोजनाओं को घाटा हो सकता है और इसकी भरपाई उस परियोजना क्षेत्र में बिजली दरें बढ़ाकर करने का केंद्र सरकार ने फैसला किया है। देश भर के सभी थर्मल पावर प्लांटों को बिजली पैदा करने वाली टरबाइनें चलाने के लिए जरूरत भर कोयला उपलब्ध नहीं हो पा रहा है।अगर पिछले साल की तरह इस साल भी कोयले का संकट गहराया तो स्थिति और खराब हो सकती है। जाहिर है कि कोयला की कमी दिखाकर निजी कंपनियों को बिजली दरें बढ़ाने की छूट दी जी रही है।कोल इंडिया की समस्याओं का समाधान किये बिना निजी कंपनियों को अबाधित कोयला आपूर्ति करने के लिए पहले से लगातार बाध्य किया जा रहा है। घटिया कोयला आपूर्ति के बहाने इन बिजली कंपनियों को कोयला आयात करने की सहूलियत भी दी गयी है। ऊपर से कोलइंडिया को भी बिजली कंपनियों को आपूरर्ति के लिए कोयला कम पड़ने की हालत में कोयला आमदनी के लिए कहा जा रहा है। आयातित कोयले की कीमत का बोझ भी उपभोक्ताओं पर डाला जा रहा है।जबकि केंद्रीय बिजली मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कहा है कि बिजली वितरण कंपनियों की वित्तीय हालत में सुधार के लिए बिजली दरों में बढ़ौतरी आखिरी उपाय होना चाहिए। उनका सुझाव है कि बिजली दर बढ़ाने से पहले राज्यों को बिजली चोरी तथा वितरण और संप्रेषण में हानि रोकने पर ध्यान देना चाहिए। सिंधिया ने कहा कि केंद्रीय बिजली मंत्री के तौर पर मुझे लगता है कि शुल्क में बढ़ौतरी आखिरी उपाय होना चाहिए।लेकिन पिछले दरवाजे से निजी कंपनियों की मर्जी मुताबिक कोयला का बहाना बनाकर बिजली दरें बढ़ाने की पूरी तैयारी है। देश के 8 राज्यों में पहले ही एक बार फिर बिजली के दाम बढ़ा दिए गए हैं। ये राज्य हैं आंध्र प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, ओडिशा, मेघालय, नागालैंड, बिहार और गुजरात। इन राज्यों में पावर टैरिफ 3-24 फीसदी तक बढ़ाए गए हैं।


केंद्रीय विद्युत मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देशभर में अब भी लगभग 10 फीसदी बिजली की कमी है और अब ईंधन की कमी के चलते प्लांटों का उत्पादन घट जाने से बिजली संकट बढ़ता जा रहा है।गैस आधारित सभी 53 प्लांट गैस की कमी से जूझ रहे हैं। गैस आधारित प्लांटों को सालाना 86.07 एमएमएससीएमडी गैस की जरूरत होती है।देश के कोयला आधारित संयंत्रों की क्षमता में काफी इजाफा किया गया लेकिन निजी क्षेत्र के परिचालक उन्हें चलाने के इच्छुक नहीं हैं क्योंकि कोयला अब काफी महंगा हो चुका है। इस बीच इस अनुमान के साथ गैस आधारित संयंत्र बनाए गए कि कृष्णा-गोदावरी (केजी) बेसिन से भारी मात्रा में सस्ती गैस की आपूर्ति मिलेगी, खासतौर पर केजी-डी6 में स्थित रिलायंस इंडस्ट्रीज के गैस कुओं से।हर मामले में सरकार निजी क्षेत्र को संतुष्टï करने का रुख अपनाया। सुझाव दिया गया कि आयातित कोयले और घरेलू कोयले की कीमतों की पूलिंग की जाए ताकि निजी क्षेत्र के उन संयंत्रों को भी सस्ते घरेलू कोयले का लाभ मिल सके जिन्हें इस अनुमान के आधार पर बोली से बाहर रखा गया था कि वे विदेशी कोयले का इस्तेमाल करेंगे। ऐसा इसलिए था क्योंकि इस बीच विदेशी कोयला महंगा हो गया था। इस बीच प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष सी रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने ने गैस मूल्य निर्धारण के सवाल पर सुझाव दिया कि सरकार को रिलायंस को गैस के लिए किए जाने वाले भुगतान की कीमत 4.2 डॉलर प्रति मिलियन मीट्रिक ब्रिटिश थर्मल यूनिट्स से बढ़ाकर करीब 8.8 डॉलर प्रति इकाई कर देनी चाहिए।इस बीच कोयले की पूलिंग पर सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड का रुख लगातार हमलावर रहा।कोयला संसाधन से समृद्घ अन्य राज्यों ने भी इसका विरोध किया क्योंकि उनको इस पूलिंग से नुकसान उठाना पड़ेगा।  


कोयला ब्लाकों के आबंटन से कम बड़ा घोटाला नही है यह। अब जब आईपीएल स्पाट फिक्सिंग की वजह से कोयला घोटाले से ही फोकस हटने जा रहा है। इस गड़बड़झाले पर लोगों की नजर कम पड़ने की संभावना कम है। पर कोयला और बिजली कीमतों की दोहरी मार से बच नहीं पायेंगे हम।पिछले वित्त वर्ष में 23 राज्यों और 5 केंद्र शासित प्रदेशों ने बिजली की दरें बढ़ाई थी। दरअसल राज्य के बिजली बोर्डों की आर्थिक स्थिति काफी कमजोर है और इन पर 2 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का कर्ज है। बिजली की दरें बढ़ाए जाने से कंपनियों की आर्थिक हालत में कुछ सुधार होगा।हाल ही में कुछ प्राइवेट बिजली डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों ने सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी कमीशन (सीईआरसी) से बिजली दरें बढ़ाने की मंजूरी मांगी थी। जिसके बाद सीईआरसी ने टाटा पावर और अदानी पावर को दरें बढ़ाने की मंजूरी दे दी थी। रिलायंस पावर ने भी सीईआरसी से बिजली दरें बढ़ाने की मंजूरी देने की अपील की है।



भारत में विश्व का पांचवां सबसे बड़ा कोयला भंडार है, लेकिन स्थानीय इकाइयां इसके इसके आयात पर निर्भर रहती हैं, क्योंकि यहां कोयला खनन परियोजनाएं लाल फीताशाही और भ्रष्टाचार में उलझी हुई हैं। हकीकत यह भी है कि वेस्ट बंगाल पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के विभिन्न बिजली घरों पर कोयले का 1200 करोड़ बकाया है।ईसीएल प्रबंधन का कहना है कि यह कंपनी बीआईएफआर के अधीन है। फिर भी करोड़ों रुपये बकाये होने के बावजूद बिजली की स्थिति को देखते हुए कोयला आपूर्ति जारी रखी गयी है। इसी तरह की परिस्थिति के चलते पिछले वर्ष के दौरान ईसीएल के वेस्ट बंगाल पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के बिजली घरों-संयंत्रों को कोयला देना बंद कर दिया था, पर राज्य शासन के प्रतिनिधि ने उच्चस्तरीय बैठक बुलाकर आश्वस्त किया था कि ईसीएल की बकाया रकम का भुगतान शीघ्र कर दिया जाएगा। इसके बावजूद अभी तक बकाए राशि का भुगतान नहीं किया गया है।


सरकार उन चालू परियोजनाओं से उत्पन्न बिजली की नयी दरें  तय करेगी, जहां कोल इंडिया की कोयला आपूर्ति कम पड़ने के कारण लागत बढ़ गई है। बिजली की नयी दरें  तय करने के लिए जल्द ही ढांचा तय किया जाएगा। परियोजना शुरू करते वक्त सरकार ने यह आश्वासन दिया था। बिजली मंत्रालय ने सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी पावर कमीशन (सीईआरसी) को इस बारे में पत्र लिखा है। इस पत्र में सीईआरसी से सलाह मांगी गई है कि ईंधन की कमी झेल रहे पहले से चालू उन परियोजनाओं से किस तरह निपटा जाए, जिन्होंने वितरण कंपनियों से दीर्घावधि आपूर्ति समझौता कर रखा है।नतीजतन, थर्मल प्लांटों का बिजली उत्पादन 30 फीसदी तक घट गया है। इससे अब भीषण गरमी के मौसम में बिजली गुल होने का खतरा बढ़ सकता है। केंद्र सरकार भी मानती है कि यदि ये सभी कोल ब्लॉक तय समय के अनुसार कोयला उत्पादन करने लगते तो बिजली क्षेत्र का ईंधन संकट काफी हद तक दूर हो सकता था।वर्ष 2003 में इलेक्ट्रिसिटी एक्ट में संशोधन के बाद बिजली उत्पादन क्षेत्र में निजी कंपनियों के लिए दरवाजे खोल दिए गए, लेकिन बिजली के लिए सबसे जरूरी चीज कोयला के उत्पादन में उस अनुपात में व्यवस्था नहीं की गई। बिजली उत्पादन में कोयला आधारित प्लांट का सबसे अधिक 56 फीसदी का योगदान है। दूसरी तरफ कोयला उत्पादन के क्षेत्र में कोल इंडिया का एकाधिकार है। देश का लगभग 80\' कोयला कोल इंडिया उत्पादन करती है। इस क्षेत्र में निजी कंपनियों को मौका नहीं मिलने से कोयला आपूर्ति के लिए कोल इंडिया पर ही पूरी निर्भरता बनी हुई है। परंतु कोल इंडिया के उत्पादन में वित्त वर्ष 2012-13 से पहले के तीन साल में कोई बढ़ोतरी दर्ज नहीं की गई या नाममात्र की बढ़ोतरी रही। वित्त वर्ष 2012-13 में कोल इंडिया 4640 लाख टन के उत्पादन लक्ष्य के मुकाबले 4512 लाख टन ही उत्पादन कर पाई। कोल इंडिया इस बात को साफ कर चुकी है 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बिजली मंत्रालय की तरफ से तैयार की गई 60,000 मेगावाट परियोजना वाले पावर प्लांट की सूची से बाहर रह गए पावर प्लांट को वह कोयला आपूर्ति करने की स्थिति में नहीं है। ऐसे में अगले तीन-चार साल तक नए पावर प्लांट के साथ कोल इंडिया कोई एफएसए नहीं करने जा रही है या उन पावर प्लांट को कोई लिंकेज नहीं मिलने वाला है। लिंकेज नहीं मिलने से उन परियोजनाओं को कोई बैंक लोन नहीं देगा और लोन के अभाव में उस परियोजना पर काम नहीं होगा। जिन परियोजनाओं ने कोल लिंकेज के बगैर अपना काम शुरू कर दिया है उन्हें बिजली उत्पादन शुरू करने के लिए सालों इंतजार करना पड़ सकता है। इससे उनकी लागत काफी बढ़ जाएगी और उनकी परियोजनाएं अव्यावहारिक हो जाएंगी।


कोयला मंत्रालय ने 218 ब्लॉक में से 178 कोल ब्लॉक आवंटित किये थे। लेकिन ज्यादातर ने समय पर उत्पादन शुरू तक नहीं किया। घोटाला उजागर होने पर अब कई का आवंटन भी रद्द हो चुका है।साल 1973 में भारत सरकार ने कोयले के खनन को अपने हाथों में ले लिया था। सरकारी कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड दुनिया की सबसे बड़ी कोयला उत्पादक कंपनी है और भारत में कोयला बेचने की एकमात्र एजेंसी भी। लेकिन साल 1976 में लोहे और इस्पात के निजी उत्पादकों को अपने आंतरिक इस्तेमाल के लिए कोयले की खदान दी जाने लगीं। ऐसी खदानों को 'कैप्टिव खदान' कहते हैं और इनका इस्तेमाल केवल और केवल उन्हीं कारखानों के लिए किया जा सकता है जिनके लिए इन्हें आवंटित किया गया हो। साल 2006 से 2009 के बीच निजी कंपनियों को 75 और सरकारी कंपनियों को 70 कोल ब्लॉक आवंटित किए गए। ये आवंटन कोयला मंत्रालय ने किए। इस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के पास था और प्रधानमंत्री थे मनमोहन सिंह।


पि छले साल निजी बिजली उत्पादक कंपनियों ने पावर प्लांट के फ्यूल संकट को दूर करने के लिए प्रधानमंत्री से गुहार लगाई थी। प्रधानमंत्री ने उनकी गुजारिश को गंभीरता से लिया और इस मामले के निपटारे के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव पुलक चटर्जी की अध्यक्षता में एक सचिव स्तरीय कमेटी बनाई गई। कमेटी को बिजली क्षेत्र से जुड़े संकट को दूर करने के लिए रोड मैप तैयार करने की जिम्मेदारी मिली। कमेटी ने तत्काल कार्रवाई करते हुए कोल इंडिया को अप्रैल 2009 से दिसंबर, 2011 तक स्थापित होने वाले पावर प्लांट के साथ ईंधन आपूर्ति समझौता करने का निर्देश दिया। इन परियोजनाओं के साथ कोल इंडिया को एफएसए 31 मार्च 2012 तक ही करना था। लेकिन कमेटी की बात को गंभीरता से नहीं लेने पर इस मामले में पिछले 3 अप्रैल 2012 को राष्ट्रपति की तरफ से निर्देश भी जारी किया गया। पिछले साल कोल इंडिया को 2015 तक स्थापित होने वाले पावर प्लांट के लिए भी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था। लेकिन स्थिति यह है कि एक साल गुजरने के बाद भी एफएसए का मामला अब तक नहीं सुलट पाया है। कोल इंडिया इसके लिए बिजली कंपनियों को जिम्मेदार ठहराती है तो बिजली कंपनियां कोल इंडिया को।  


हरियाणा ने अदाणी पावर लिमिटेड को दरें बढ़ाने की अनुमति देने के केंद्रीय बिजली नियामक आयोग (सीईआरसी) के फैसले को एक न्यायालय में चुनौती दी है। इसे पहले से नुकसान और ईंधन की कमी का सामना कर रहे बिजली क्षेत्र की हालत और बिगड़ सकती है। राज्य के बिजली मंत्री अजय यादव ने बताया कि केंद्रीय बिजली नियामक आयोग के उस फैसले को चुनौती दी है जिसमें इसने अदाणी पावर को राज्य से सब्सिडी प्राप्त करने वाली बिजली वितरण कंपनियों को बिजली अधिक दरों पर बेचने की अनुमति दी थी।सीईआरसी ने टाटा पावर को भी इसी तरह की अनुमति दी है। हालांकि अभी यह तत्काल स्पष्टï नहीं है कि राज्य इस फैसले को भी चुनौती देगा या नहीं। सीईआरसी एक अन्य फैसले पर विचार कर रहा है, जिससे रिलायंस पावर को लाभ मिल सकता है।


केंद्रीय बिजली मंत्रालय के रिकार्ड गवाह हैं कि पिछले साल बिजली क्षेत्र के लिए 5.94 करोड़ टन कोयले का इंतजाम नहीं हो पाया।कोयला मंत्रालय ने बिजली क्षेत्र को 40.32 करोड़ टन कोयला उपलब्ध कराना था। लेकिन 2.77 करोड़ टन कोयला आयात करने पर भी मात्र 34.38 करोड़ टन कोयला ही मुहैया हो पाया। स्थिति अब और भी खराब हो चली है।केंद्र सरकार के उपक्रम एनटीपीसी के एक अफसर ने माना कि प्लांटों के लिए कोयले की भारी कमी चल रही है और इससे बिजली उत्पादन घटा है।


इसी बीच बिजली उत्पादक सरकारी कंपनी एनटीपीसी की 13वीं योजना के आखिर तक 37,000 मेगावाट जोडऩे की योजना और इसकी आपूर्ति 1 अक्टूबर 2010 से 5 जनवरी 2011 के बीच 37 लाभार्थियों के साथ हुए बिजली खरीद समझौते के तहत इसकी आपूर्ति को बल मिला है क्योंकि केंद्रीय बिजली नियामक आयोग ने इस बाबत बिजली उत्पादक संघ की याचिका खारिज कर दी है। अपने फैसले में सीईआरसी ने कहा है कि एनटीपीसी के व्यवहार को अपनी स्थिति का गलत फायदा उठाने वाला या गैर-प्रतिस्पर्धी नहीं कहा जा सकता। सीईआरसी ने यह भी कहा है कि याचिकाकर्ता का यह आरोप कि एनटीपीसी की तरफ से वसूली जाने वाली दरों के मामले में नियामकीय नियंत्रण नहीं है या इसे नजरअंदाज किया जा रहा है, स्वीकार नहीं किया जा सकता। सीईआरसी ने पाया कि, एनटीपीसी की तरफ से पीपीए पर हुए हस्ताक्षार ढांचे के दायरे में हैं और टैरिफ नीति के तहत दिया गया समय भी। ऐसे में बिजली अधिनियम 2003 के सेक्शन 60 के तहत कोई निर्देश देने की दरकार नहीं है।


बिजली उत्पादक संघ ने तर्क दिया कि एनटीपीसी की तरफ से पीपीए पर हस्ताक्षर वाला कदम स्पष्ट तौर पर प्रतिस्पर्धी बोली को दरकिनार करने वाला संकेत है। इसके अलावा याचिकाकर्ता ने कहा कि बिजली आपूर्ति के लिए लागत (प्लस) टैरिफ का एनटीपीसी का प्रस्ताव उपभोक्ता के हितों के लिहाज से हानिकारक होगा।


बारहवीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के दौरान स्थापित होने वाले 23,400 मेगावाट की बिजली परियोजनाओं का भविष्य कोयले के अभाव में अधर में लटक सकता है।कोयला लिंकेज की मंजूरी देने वाली स्टैंडिंग लिंकेज कमेटी ने इन परियोजनाओं को कोयले की उपलब्धता के आधार पर कोयला देने का भरोसा दिया है। लेकिन इन परियोजनाओं को फिलहाल कोयला लिंकेज देने के मामले पर कोई विचार नहीं किया गया।23,400 मेगावाट की ये परियोजनाएं 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कोयला आपूर्ति के लिए तैयार की गई सूची में शामिल नहीं है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान 60,000 मेगावाट की परियोजनाओं को कोयला आपूर्ति करने के लिए केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) और बिजली मंत्रालय ने सूची तैयार की थी।स्टैंडिंग लिंकेज कमेटी के मुताबिक 12,635 मेगावाट की ऐसी परियोजनाएं है जिन्हें लेटर आफ एश्योरेंस (एलओए) भी जारी किया जा चुका है और ये सभी परियोजनाएं ईंधन आपूर्ति समझौता (एफएसए) के लिए जरूरी सभी शर्तों को भी पूरा कर रही हैं।10,765 मेगावाट की परियोजनाओं को कोयले की उपलब्धता के लिए शार्ट टर्म लिंकेज (धीरे-धीरे कम होने वाला) दिया गया है। बिजली मंत्रालय के मुताबिक दोनों ही श्रेणी की परियोजनाएं 31 मार्च, 2015 तक स्थापित हो जाएंगी और ये सभी परियोजनाएं कोयला आपूर्ति के लिए योग्य पात्र है।


स्टैंडिंग लिंकेज कमेटी ने कहा है कि इनमें से जिन परियोजनाओं के पास एलओए है और वे पावर परचेज एग्रीमेंट (पीपीए) भी कर चुकी है, उन्हें उपलब्धता के आधार पर कोयला आपूर्ति पर विचार किया जा सकता है। लिंकेज कमेटी ने एलओए हासिल कर कोयला आपूर्ति की योग्यता रखने वाली सभी परियोजनाओं की सूची सीईए व कोल इंडिया को तैयार करने की भी सिफारिश की है।कोयला मंत्रालय के मुताबिक 60,000 मेगावाट की सूची से बाहर इन परियोजनाओं की एलओए की अवधि को एक साल के लिए विस्तार देने का भी फैसला किया गया है ताकि मौका मिलने व कोयले की उपलब्धता होने पर कोयला लिंकेज के मामले में उन पर विचार किया जा सके।


आइये, धर्म संकट में हैं और हम किसी अवतार का इंतजार करें! भविष्यवाणियों में आस्था रखें!


पलाश विश्वास


हम भारतीय अब जाने अनजाने चियारिन संस्कृति के धारक वाहक हो गये हैं। कुछ हुआ नहीं कि चियारने लगे! टांगें उठा उठाकर जंपिंग झपांग के साथ उपयुक्त नृत्य निर्देशन में चियारना ​​अब तमाम समस्याओं का समाधान हो गया है।


काहे मनवा दुःख को रोवे, जिये वही जो मुंह मा खैनी दबाइके सोवे!


अब हम आर्थिक सुधारों के दूसरे चरण में हैं। पहले हम भारत उदय का जश्न मना रहे थे और अब भारत निर्माण कर रहे हैं।बहुसंख्य बहुजन जनता तो हजारों हजार साल से अछूत हैं। उनका क्या जीना और क्या मरना! आदिवासी तो मुख्यधारा के अलगाव के शिकार हैं। दमन उत्पीड़न के लिए नियतिबद्ध। प्रतिरोध में आखेट के लिए सर्वथा उपयुक्त और इसीलिए वधस्थल है यह भारत वर्ष, जिसे हम मृत्यु उपत्यका कभी नहीं कह​​ सकते!नस्ली भेदभाव का शिकार जो भूगोल है, वहां `महासेन' की मार पड़े या  ग्लेशियर पिघलने से महाप्रलय हो जाये या समुद्रतट​​ रेडिएशन सुनामी के पर्यटनस्थल बन जाये, भूकंप हो या भूस्खलन, बेदखली हो या मनवाधिकार हनन , यह सब तो उसी मनुस्मृति​​ व्यवस्था और धर्मग्रंथों का जन्मजन्मांतर का जंजाल है, ईश्वर का अटल विधान है। आस्था अविचल होनी चाहिये क्योंकि हम एकमुश्त धर्मराष्ट्र और मुक्त बाजार के विश्व नागरिक हैं। जहां एकमात्र जन समस्या है पूंजी का अबाध प्रवाह, वह ठीक है तो हरि के गुण गाओ!


रोटी मिले तो खाओ वरना खाली पेट जश्न मनाओ। आखिर आईपीएल किस मर्ज की दवा है?


कर्मफल ही सामाजिक न्याय और समता का आधार है। इनक्लुसिव ग्रोथ है।वर्ण अकाट्य है।


विकासगाथा के इस स्वर्णिम युग में बस, बहुत हुआ, अब तमाम घोटालों, सेक्स कारोबार, फिक्सिंग, लाबिइंग, कालाधन वगैरह वगैरह पर चर्चा बंद हो ही जानी चाहिए।


सोशल नेटवर्किंग के शरारती तत्वों को बांग्लादेशी ब्लागरों की तरह सबक सिखा देना चाहिए ताकि वे पर्दाफास करते रहने की बुरी लतत से बाज आये! सबकुछ कारपोरेट मीडिया, टीवी चैनलों और चिटफंड माफिया अंडरव्र्ल्ड प्रायोजित सिनेमा की तरह भव्य होना चाहिए।असुंदर जो है, उसे काटकर निकाल फेंकना चाहिए। यह रंगभेद नहीं है, सौंदर्यशास्त्र है। जिनका सौंदर्यबोध बीमार है, उन्हें इस उदित भारत से फौरन देशनिकाला दे दिया जाये!


जो चीजें मुक्त बाजार की अनिवार्यताएं हैं, उन्हें लेकर हंगामा बरपा है। लेकिन  जनता तो मुक्त बाजार से खुश है। अपने खेत होने​​ के बावजूद कहीं और पेड़ पर निवेश कर देते हैं। जमा पूंजी बाजार के हवाले करने में कोताही नहीं करते। उपभोग और भोग के लिए सर्वत्र ​​कतारबद्ध हैं। इतनी शांति है लेकिन जो लोग गृहयुद्ध पर आमादाहैं, वे ही जनसमस्याओं का दिनप्रतिदिन सृजन करते रहते हैं। सत्तर के दशक को निपटा  दिया जब समूची युवा पीढ़ी बगावत पर थी। अब तो सर्वत्र जोंबो, जिंदा लाशों का नागिरक समाज है, जिसके मानवाधिकार या नागरिक अधिकारों से कोई सरोकार हैं ही नहीं। बायोमेट्रिक नागरिकता की यह रोबोटिक पीढ़ी है, जिसे अपनी सहूलियतों को छोड़ किसी की कोई परवाह नहीं।


विचारधाराएं तक कारपोरेट हो गयी। लोकतंत्र कारपोरेट हो गया। इस कारपोरेट के जो गुण अवगुण हैं , उन्हें हमने मान लिया है। राष्ट्रपति भवन हो या संसद ​​विधानसभा या राजनीति या शिक्षा या समाज या धर्म सर्वत्र कारपोरेट वर्चस्व है।


तो फिर क्यों खुजली है?


कानून तो बनते रहते हैं। संविधान भी कुछ होता है। पर कानून का राज कहां है? मौज मस्ती से कौन रोक रहा है? सारे जन माध्यम रंगीन ​​कंडोम हो गये हैं। चाबी तोड़कर शुरु हो जाइये! कहीं भी! कौन रोकता है? कानून है तो रक्षा कवच भी हैं!


समरथ को दोष नाहीं गुसाई!


ढोल गवार शूद्र पशु औ नारी सब ताड़न के अधिकारी।


रामचरित मानस बांच ले मन की अग्न शांत हो जायेगी।


होइहिं वही जो राम रचि राखा।


कोयला घोटालों को लेकर सारा देश प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांग रहा है। तो एक रेलमंत्री और एक कानून मंत्री की बलि चढ़ा दी। अब क्या ​​चाहते हो? राजा को शंबुक बना दिया? फिर क्या चाहिए?


राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग चलाओगे क्योंकि सारे घोटालों के तार देश के प्रधान धर्माधिकारी के रक्षाकवच से टकराकर सिरे से गुम हो ​​रहे हैं?


वित्तमंत्री को भगा दोगे जो हर रंग में अल्पमत सरकारों के बावजूद आपके लिए १९९१ से खुले बाजार में देश को तब्दील करने के लिए खून पसीना एक कर रहे हैं?दुनियाभर में घूम घूमकर देश बेच रहे हैं!


इंदिरा जमाने से लेकर मनमोहन जमाने तक नरसंहार संस्कृति की जयजयकार है। हत्यारे राष्ट्रनेता हैं और आप ​​उनकी पैदल सेना। राजनीति के रंग बदलते हैं पर हालात नहीं बदलते । नीतियों की निरंतरता जारी रहती है। निजीकरण की धूम है।​​ विनिवेश जारी है। उत्पादन ठप हैं तो सेवाओं की बहार है।कंप्यूटर का जमाना भी लद गया, रोबोट के लिए जगह खाली नहीं करोगे? क्या आंकड़ों और विज्ञापनों में भरोसा नहीं है? तो इस उपभोक्ता जीवन का मतलब क्या है, भाई?


आयातित विचारधारा के दम पर जो क्रांति कर रहे थे, उनमें से ज्यादा व्यवस्था में सध गये हैं। घोटालों में सराबोर हैं। करोड़पति से लेकर ​​अरबपति हैं।


आपको अपनी किस्मत आजमाने से कौन रोकता है?


जनता को ठगने के लिए कौन विदेशी पूंजी चाहिए जनता की जो पूंजी है, वहीं लुटकर ही तो विदेशी पूंजी बनकर फिर फिर लौट आती है। पोंजी किसलिए है?


फिर बिना पूंजी कारपोरेट फंडिंग का अद्भुत प्रावधान है। चमत्कार कीजिये। लोगों को बुरबक बनाने की , अपनों की पीठ पर छुरा मारने की​​ कला सीख लीजिये। देवों और देवियों की अनंत सिलसिला है , किसी का भी भक्त बनकर अपना मठ चालू कर दीजिये।प्रवचन से पूंजी का अंबार लग जायेगा।


सुबह से टीवी देख देखकर माथा खराब है, कुछ आयं बायं लिखा हो तो माफ करना!


आजादी के बाद तमाम रंग बिरंगे घोटाला, सेक्स कारोबा, फिक्सिंग, हत्या, नरसंहार, दंगा, फिक्सिंग, स्टिंग, पर्दाफाश, लाबिइंग पर बवंडर से कुछ बदला है?


बदला सिर्फ राजनीति का रंग है, बाकी जस का तस , फिर भी हम परिवर्तन उत्सव में सराबोर है। मुद्रास्फीति के आंकड़ों से भुखमरी का हिसाब बनाते हैं। गरीबी की परिभाषा से देश की सेहत बदल देते हैं।आंकड़ों में विकास हो जाता है। लोग खुदकशी करते हैं या स्वेच्छा मृत्यु का आवेदन या फिर जल सत्याग्रह! पर कहीं कुछ भी नहीं  टूटता।​

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​अपने मनमोहन बाबू के लिए शुभ ही शुभ है। असम से नामांकन होते न होते कोयला घोटाला हाशिये पर चला गया। आईपीएल अब सचमुच आईपीएल हो गया।


और तो और , यहा कोलकाता में टीवी चैनलों को दीदी मां यानी दीदी और मां माटी की सरकार से फुरसत मिल गयी! चैनलो पर खेल खत्म होने  के बाद भी आईपीएल है। पैनलों में आईपीएल है।


कोई ललित मोदी फरार हैं वर्षों से, उनकी कोई खोज खबर है? कोच्चिं की टीम भले बंद हो गयी, पर शशि थरुर फिर मंत्री बन ही गये!


बलात्कारकांड के प्रसारण में पहले भी तमाम मुद्दे और संसदीय अधिवेशन निष्णात होते रहे हैं। राष्ट्रमंडल खेलों का घोटाला याद है कोबरा पोस्ट ने जो निजी बैंकों के स्विस बैंकों में तब्दील हो जाने का खुलासा किया, उसका क्या?


अंधे अगर नहीं हैं, तो शारदा प्रमुख सुदीप्त सेन और उनकी खासमखास को देख लीजिये। उनके जलवे पर खैर मनाइये! कहां तो सीबीआई​​ को लंबा चौड़ा पत्र लिखकर गायब हुए थे तमाम महान से लेकर महामहिम तक को कटघरे पर खड़ा कर रहे थे! अब बाकायदा हाईकोर्ट में हलफनामा दाखिल करके सीबीआईजांच का विरोध कर रहे हैं। सुनवाई टल गयी ५ जून तक।जांच ठप है। न एफआईआर हुआ और संपत्ति जब्त हुई। बंगाल और बाकी देश में हजारों चिटफंड कंपनियां बेखौफ तमाम केंद्रीय एजंसियों की सक्रियता और  राज्यों में राजनीतिक बवंडर, कानूनी न्यायिक कवायद , आत्महत्याओं के बीच धंधा चालू रखे ​​हुए हैं।


पैसा कहां से निकालेंगे? हवाला है। आईपीएल है। तमाम राष्ट्रविरोधी संगठन और उनके देशव्यापी संगठन हैं। राजनीति के छोटे बड़े ​​आका हैं।अंडरवर्ल्ड है। कोयला माफिया है।सुदीप्त और देवयानी का खिला खिला चेहरा आईपीएलहै।


एक घोटाले का पर्दाफाश का मतलब कुछ और​​ बलिदान। बाकी गिरोहबंदी जारी। सट्टा जारी। आईपीएल जारी। दूसरे घोटालों पर फोकस का स्वथानांतरण। पुराना मामला रफा दफा।​​ सबूत गायब। अभियुक्ता छुट्टा सांड़ राष्ट्र नेता!


गंगास्नान के बाद पाप धुल जाता है। कुंब महाकुंभ तो पापियों के उद्धार के लिए है।​​ रस्म अदायगी है  तमाम खबरें। जब तक आत्मरति में निष्णात जोंबों और कंबंधों में प्राण न फूंक दिया जायेगा!


आइये, धर्म संकट में हैं और हम किसी अवतार का इंतजार करें! भविष्यवाणियों में आस्था रखें!


दिलोदिमाग पर बोझ ज्यादा लगता है तो किसी ज्योतिषी की शरण में जाकर कुंडली दिखा लें या फिर प्लरगतिशील वामपंथी परिवर्तनपंथी बंगालियों की तर्ज पर दसों उंगलियों में ग्रहों को शांत करने वाले रत्न धारण कर लें। कवच कुंडल जिनके पास हैं ,उनका क्या कहना?


वक्तव्य जारी करने वाले, आंदोलित होने वाले अब तक क्या छील रहे थे?


सबकुछ शारदासमूह की तरह पूर्व नियोजित। योजनाबद्ध। शल्यक्रिया की तरह निर्भूल। हम सिर्प चियारिनों की टांगउछालू नृत्य की चकाचौंध में असली खेल देख ही नहीं पाते।



Asghar Ali Engineer Struggle for Preservation of Plural Ethos

Asghar Ali Engineer Struggle for Preservation of Plural Ethos

Sad loss to human rights movement

{The demise of Dr. Asghar Ali Enginner has been a sad loss to human rights movement, scholarship of Islam, Bohra reforms and Minority rights. Working very closely with him in the area of communal harmony, minority rights, Dr. Ram Puniyani did learn a lot from him and can feel the great void in the area of our work. Here is an articles which he (Dr. Ram Puniyani) wrote on his life and work earlier.}

 

 Uniting the Nation: Asghar Ali Engineer's Struggle for Preservation of Plural Ethos

 Ram Puniyani

 The events of last over two decades have shown us, more than before that the efforts of dividing the nation by communal forces have been a major obstacle to social peace and process of development. In India while the communal violence began with the Jabalpur riot of 1961, it is from last couple of decades especially from 1980s that the divisive politics has tried to drive a wedge between different communities along religious lines. The regret is that it is only few social workers and scholars who took this issue in all its seriousness and Asghar Ali Engineer can be counted amongst those few. He also spent major part of his social efforts to fight against the ideology and machinations which led to communal violence and the victimization of minorities, time and over again, year after year.

Engineer was a student when Jabalpur riots took place. It clearly left a deep mark on him. The imprint of this tragedy got reflected in his social engagement with the issues related to communal violence and communal politics all through. His talks and articles reflect about the impact of Jabalpur violence, its impact on nation and its influence on the conscience keeper of the nation, Pundit Jawaharlal Nehru. Engineer's work on the issue of communal violence, communal ideology and communalization of society spans on a vast canvass and will easily fill volumes.

His work, to be referred below, shows that he took a serious interest in understanding the  dynamics of communal violence, he must have spent days in and days out, investigating the communal riots, their aftermath and their impact on the social and political affairs. He can easily be credited with being the major scholar-activist who pioneered this area of investigation. He spent enormous energy to investigate and analyse the communal violence in India. He can also be regarded as the foremost scholar-activist who not only commented on the issues related to communalism, but also gave his forthright opinion on the range of those, against the heavy odds. He has been criticized by the communalists of both the religions for his opposition to the politics of violence in the name of religion.

This article takes an overview of his work in the area of communal violence investigation and his contribution to campaigns for promotion of secular values. It is based on understanding his work from the vantage point of a close working relationship with him as a friend and associate. I have also tried to take the overview of his massive contribution from the point of someone who not only witnessed his work from close quarters, with awe admiration and some criticism, but also tried to learn from him to give direction to my own work.

 Communal Violence

 

ASgar Ali Engineer, असगर अली इंजीनियर

असगर अली इंजीनियर

The communal violence of Jabalpur (1961) shook Engineer very deeply; the very concept of violence in the name of religions was anathema to him as he was steeped in the spirituality of Islam right from his childhood. He was taught that Islam does not preach violence, and no religion teaches violence, so why this violence in the name of religion. This is the point when he decided to devote his life to promote communal harmony. It was an event which was to shape the course of life and work. He not only intervened after the events of communal violence to douse the fire of the violence but made it a central part of his initial life as an activist to investigate the acts of violence in depth. Starting from Bihar Sharif riots to Gujarat carnage, he spent time in unravelling the truth of the violence mostly by field studies. His reports on these events are a landmark in the area of riot investigation, in understanding the underlying machinations of this phenomenon. Bihar Sharif was a stronghold of CPI due to its following amongst the Bidi workers. Dr Engineer could unravel that RSS in order to spread it hold in the area, used the dispute between Yadavs and Muslims over the land for cemetery, to instigate the violence (1981).

Godhra witnessed riots on and off during 1980-81. Engineer investigated these riots as a part of a team. The conflict here was mainly between Sindhis and Ghanchi Muslims. While Sindhi immigrants were looked down by other Hindus, for various reasons but those Hindu groups supported them against Muslims. The material reasons of poverty of Ghanchi Muslims and growing demands of Sindhis for facilities was the root cause of the trouble which assumed religious colour. The report pointed out that rumours played a lot of role in this violence.

Engineer also studied the Ahmedabad violence of 1982. Extensive field investigation was done for this. In this case the poor Muslim locality of Kalupr and Daryaganj face the brunt of the violence. An incident over kite flying turned into stone throwing and violence. Just prior to this VHP had started its work in these areas and prepared the ground for the skirmishes. VHP virulently talked against the conversions of Harijans to Islam. The communal forces resorted to heavy propaganda, especially through distribution of leaflets in the area. These leaflets used a communal version of history, demonization of Muslim kings, and emphasis on singing Vande matram, and opposing those who kill cow. Some people drew the attention of Gujarat government to this virulent propaganda, but there was no response to those appeals.

Pune and Sholapur were in the grip of violence in 1981-82. These were precipitated in the aftermath of Ahmedabad violence and VHP as usual had been at the forefront of spreading the communal venom. It was a period when VHP had launched a Jan Jagaran (People's Awakening) campaign all over India. This campaign was based on demonization of Muslims as foreigners, beef eaters, etc. This was also a riot which took place in the aftermath of Meenkshipuram conversion of dalits to Islam in 1981. Dr. Engineer makes a very pertinent point while relating the communal violence to the core issue of atrocities on dalits. He points out, "VHP is raising the hue and cry of conversions of Harijans in Meenakshipuram so that people do not pay attention to the screams of dalits burning in the pyre of discrimination." (Communal Riots in Post-Independence India, P 265)

The aggressive campaign of VHP intimidated the Muslims. VHP took out a procession with portraits of Golwalkar and Manusmiriti, along with those of Gandhi and Ambedkar. The procession tore down the hoardings with Muslim names, including the one of Maulana Abul Kalam Azad and shouted anti-Muslim slogans. The procession changed its permitted route and entered Muslim locality, attacked Muslim hotels and shops were stoned.

In Sholapur also situation was similar. Here they propagated the myth of rising Muslim population to provoke the people. Here also trouble began with VHP procession on 15th Feb. 1982. The procession when it came near Punjab Talim Mosque, it started giving anti-Muslim provocative slogans. There was attack on small shops owned by Muslims after which Muslims were attacked.

Meerut riots have also been a big sore on our polity. Meerut a city with great syncretic traditions also suffered the violence. Here the main goal was to co-opt the dalits, to give them liquor etc. and to use them for violence against Muslims. Here the riot had more political reasons than economic ones. The riot was instigated on the issue of some piau (where one gets water to drink). One Muslim advocate and another trust were involved. Tension mounted in April 1982 and the provocative propaganda was stepped up. Biased attitude of police and communal slant of newspapers added to fuel to the fire. Similarly Vadodara Hyderabad and Assam riots were also studied by him.

His major observations have been that a small incident is taken advantage of by communal forces, the rumours add havoc to the situation and communalized state apparatus, police in particular, plays a partisan role, worsening the plight of minorities.

Apart from these riots of Mumbai 1992-93 (Report of EKTA Samiti, 1993) Gujarat carnage has also been studied by him (Sowing Hate and Reaping Violence, CSSS 2003). The studies by him have been used as a base by many a scholars to make interpretations and conclusions about the phenomenon of communal violence. He does interpret every riot on its ground and the specificities of the particular violence are well reflected in his studies and reports.  Another aspect which emerges from his studies and reports is that gradually the intensity of communal violence is worsening, and it did peak in Gujarat violence. He has vividly presented the failure and complicity of police machinery in this violence. It seems that the deeper process of communalization has been going up in last three decades. And now even the other minority Christians have also been brought under the chopping block of communal forces.

He also draws our attention to the fact that these episodes are not sporadic or spontaneous. There is a deeper motive behind these. There is a good deal of planning in such episodes. His other studies-reports show that popular perceptions about minorities lay the base for violence, the propagation of myths and biases against Muslims and Christians make the job of the communal group easier. What is undeniable is that communal forces take advantage of every conceivable opportunity to strengthen them, first by instigating the violence, then perpetuating it and in the process they increase their political power.

Apart from his own book-reports on the violence he has edited several volumes on the issue Communal Violence in Post-Independence India, Communal Violence after Independence, Bhivandi Riots, and Communalism and Communal violence to name the few. He continues to chronicle the communal riots on regular basis and these are published as Issues in Secular Perspective, the January issue of this periodical carries his compilation and analysis of Communal Riots of the year past. (Also posted on CSSS-ISLA. COM)

Communalism-Secularism

Activist's scholars in India have faced a challenging task of understanding, defining and intervening in the situations related to communal violence. How does one understand the phenomenon of communalism in Indian society? Why India is plagued with this problem? These must have been the issues dogging his mind when he began his parallel study of Indian history and analysis of contemporary issues.

While unravelling the Indian history, the communal interpretation of which is major component of communalization of social thinking, he focused on overcoming the communal interpretation of history and presented the view of looking as history of kings as battles for power and wealth. He understands lives of people as an on-going journey of interaction, some frictions and major synthesizing tendencies resulting in syncretic traditions. His major book on this, Communalism in India (Vikas, 1995) gives a good reflection of his thinking on the issue. He tried to evolve his workshops with different sections of society on these lines. Later he came out with many articles and books on this issue. (List appended)

In his work the medieval history is presented not as a battle between Hindu and Muslim kings but as battles between kings for power and wealth. He draws heavily from original sources and from the works of national Historians. The issue of temple destructions, Jijia, policies of Muslim kings, spread of Islam and other aspect of social life during that period gives a good reflection of those times and is an effective tool in breaking the myths and misconceptions in peoples mind about it. The traditions of Sufis, Bhakti saints and their emphasis on values of love and amity is brought out effectively. The mixed traditions of society do convey that Hindus and Muslims were good companions and religion was not the cause of discord, the social interests were, and sometime surely these interests did come in the garb of religion. But communalism as a political phenomenon was introduced here after the coming of British rule.

He takes up the vexed issue of role of Muslim leadership in freedom movement and the role of communalists, Muslims and Hindus both in aggravating the communal violence even in pre-independence India. He handles the issue of partition of the country very delicately to focus that the main responsibility of partition lies on the head of British, while Congress leadership and Jinnah's obstinate nature added to the issue. He seems to agree more with Maulana Abul Kalam Azad on this point that partition could have been prevented had Maulana's suggestion of sticking to Cripps Mission proposals been accepted.

As a part of dispelling myths about Muslim minorities he has written on the 'Role of Muslims in Freedom struggle'. Fascinated by the approach of Gandhi in politically uniting different communities and emphasizing on non-violence and peace he has also compiled volume on Gandhi and communal harmony. His fascination for Gandhian approach to communal problems is seen in his work all through. His sense of Gender justice is very strong and he has shown how Islam gives equality to women, and highlights how women are the worst victims of communal violence. The list of his contributions and web site gives and ample insight into his concerns and how he has handled them in a humane manner. His regular publication, Secular Perspective has a good circulation and is reproduced in many a websites and newspapers across the globe.

Secular Intervention:

It is difficult to decide as to which aspect of Engineer's work is more important than other. There is a deeper integration in different facets of the work and one can see the deeper connection between different facets of his work.

His intervention in social issues began with his concern for communal harmony. His urge to study and understand the communal problem began with the tragedy of Jabalpur violence, later his study led him to intervene and undertake the campaigns and awareness work to promote communal harmony work. In Mumbai from late sixties he brought together like minded friends in to groups, Awaz-e-Biradaran. This group started talking about communal problem and raising the awareness about need for harmony through taks in schools and colleges. As Engineer had deep interest in Urdu literature also, he did come in contact with prominent writers who also got involved in helping in the harmony work. With outbreak of Bhivandi riots, 1970, he camped in Bhivandi, along with Balraj Sahni the renowned actor, for two weeks, going to villages and talking to the victims and helping them. His group also involved prominent writers to issue the message of peace through All India Radio.

In Mumbai he also became part of Indo Pak friendship movement. At the same time he came in contact with the Sampradayikta Virodhi Committee (Committee against Communalism) in which doyens like Subhadra Joshi and D.R. Goyal were associated and Engineer started contributing to their work.

The response of Muslim leadership to the issue of Ramjanmbhumi disturbed him immensely, he held that Muslim leadership should be in the background, and the issue should primarily be tackled by secular activists and scholars. He also brought to the notice of Muslim leadership that it is important to agitate on the issues of Muslim poverty and backwardness. The Gopal Singh Committee report, which was lying in the cold storage, needs to be implemented. He himself involved many secular activists to issue appeals for peace.

He took initiative to form EKTA Committee in the wake of Meerut riots in 1987. This became the platform for trade unions and other progressive people of Mumbai to campaign for peace and to oppose the rising tide of communalism.

I witnessed his work directly mainly from 1992-93. During the Mumbai riots he undertook many a peace marches in troubled areas. The lasting impression in my mind is that of a sincere, honest and committed scholar activist. During the Mumbai violence, his office became a natural place for all the activists to meet and during those meetings over hundred activists used to throng to his office, standing in different corners of the small office, even balcony of the office used to be full to the brim. He used to sit in the middle, on the floor and used to conduct the meeting and make the plans for action. Most of the planning's were peace marches and community work. Behrampada, an area near Bandra was given special attention for work, peace marches. Peace marches were also organized in different part of the city.

These marches had important effect on the psyche of society and these gave lot of hope to the victims. As a peak of these efforts on 26th January 1993, in the thick of communal violence looming on the horizon, he organized a Peace march into the main areas of Mumbai. These activities were supplemented by the investigation into the Mumbai riots and the report brought out by EKTA Committee was remarkable for its in-depth work. This brought him face to face with the reality that police; the arm of the state to control the violence itself is much communalized. He decided to approach the police authorities for conducting workshops for communal harmony. It will be impossible to count the number of these workshops scattered in different parts of Mumbai, Maharashtra and all over the country. He was faced with the challenging questions based on the biases against Muslims, their food habits, violence nature, Muslim Kings destroying temples, polygamy and what not. To his credit he has been conducting this difficult workshop with dignity and modesty coupled with deep scholarship of the issues.

 Centre for Study of Society and Secularism

Meanwhile he took up the task of formalizing the awareness programs and was instrumental in laying the foundation of Centre for Study of Society and Secularism, which has emerged as the premier centre for spreading awareness about secular issues. The CSSS, as we refer to it in brief, has also undertaken research on the contemporary issues relating to the National Integration. On awareness front CSSS began experimenting with various modules for different sections of community. Its workshops ranged from half a day affair to seven day in depth workshops for serious activists and teachers. These workshops cover the theme starting from History to the contemporary issues, terrorism, Islam and peace, values of freedom movement. I can guess that thousands of activists and others must have benefited from these workshops. CSSS has also set up Institute of Peace Studies and Conflict Resolution to f

राम पुनियानी


Ram Puniyani was a professor in biomedical engineering at the Indian Institute of Technology Bombay, and took voluntary retirement in December 2004 to work full time for communal harmony in India. He is involved with human rights activities from last two decades.He is associated with various secular and democratic initiatives like All India Secular Forum, Center for Study of Society and Secularism and ANHAD.

ormalize the training of activists into secular values. Plans are also foot to initiate the longer training for activists, teachers and students.

His own engagement with multiple lectures and accepting infinite invitations from all over the country and globe are another facet of his work. What needs a mention here is his membership of National Integration Council during the UPA regime (2004-2009). He forthrightly raised the issues related to harassment of minorities in the name of terrorism amongst other issues. His interventions, along with the similar ones from other important members and the efforts of tribunal on the issue, did affect the Government policy. With these interventions the routine pursed by Police authorities to arrest large number of innocent Muslims youth in the wake of blasts anywhere, came to halt.

He has also been a major part of the process to bring together all the activists working for the cause of secularism. Groups working for communal harmony all over the country have come together as a platform from last few years, All India Secular Forum.

Touching Moments

While one is talking on the social contribution of a person of high stature, there are some anecdotes which have been very touching at personal levels. I have shared lot of meetings and travels together along the course of our work. The interaction during these periods has been learning and sharing experience for me. One is privy to sharing his thoughts and ideas on most of the issues.

I cannot help but recount an anecdote, which has left a deep impression on me. One of the mornings we were standing in the Mumbai University campus hall. The seminar was to begin in another 10-15 minutes or so. As we were waiting one of the speakers came in a taxi and we welcomed him. As we were talking to the speaker, the taxi driver got down, did a respectful Namaste (greeting) to Engineer and said, Sir please continue your work,  your writing, it is a source of peace for the society. I am sure there must be innumerable persons around the globe with similar sentiments.