Monday, December 6, 2010

क्या अपराध साबित होने तक राडिया टेप न सुनें

क्या अपराध साबित होने तक राडिया टेप न सुनें?

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पुण्य प्रसून बाजपेयीएक रुका हुआ फैसला : दो साल पहले गृह सचिव, आयकर निदेशालय और सीबीआई को इसका एहसास तक नहीं था कि जिस नीरा राडिया का वह टेलिफोन टैप करने जा रहे हैं, उस टेलिफोन पर लोकतंत्र का जनाजा हर दिन निकलता हुआ सुनायी देगा। मामला भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराध के तहत हवाला और एफडीआई का था । यानी फोन कॉल्स एक ऐसे आरोपी के टैप किये जा रहे थे, जो कई मंत्रालयो के जरिये देश के राजस्व को चूना लगा रहा था और आयकर महानिदेशालय पता यही लगाना चाहता था कि नीरा राडिया के तार कहां-कहां किस-किस से जुड़े हुये हैं।

लेकिन जब 5851 फोन कॉल्स को आठ हजार पन्नों में समेटा गया तो पहला सवाल हर के सामने यही् आया क्या जिन्होंने नीरा राडिया से फोन पर बातचीत की वह सभी देश को चूना लगाने में लगे थे-इसे माना जाये या नहीं। क्योंकि हर बात करने वाले का अपना अपना लाभ उसके अपने घेरे में था। लेकिन लोकतांत्रिक देश में विकास के यह चेहरे नीरा राडिया से कुछ निजी और बहुत सारी सार्वजनिक बातें जिस तर्ज पर कर रहे थे, उसमें यह सवाल उठना जायज ही था कि निजी संवाद को सार्वजनिक क्यों किया जाये और सार्वजनिक संवाद को क्यों छुपाया जाये । लेकिन सीबीआई,आईडी,एन्कम टैक्स अगर किसी को आरोपी मान रहा है तो फिर निजपन क्या हो सकता है। और लोकतंत्र के जो चेहरे अपराधी से निजपन रखते हैं, उनको किस रुप में देखा जाये।

क्या नीरा राडिया के अपराधी करार देने तक टेप पर पांबदी लग जाये और अपराधी साबित होने के बाद हर बातचीत करने वालों को भी देशद्रोही मानें। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे अंडरवर्ल्ड डॉन दाउद इब्राहिम का फोन टैप करने पर उनसे बात करने वालों के खिलाफ सरकार क्या कदम उठाये। हाल में चिदंबरम ने इसके संकेत भी दिये कि आंतकवादियों से बात करने वाले पत्रकारों के खिलाफ भी कार्रवाई होगी। मीडिया में भी इसकी सहमति बनी और भाजपा ने तो इसका खुला समर्थन किया कि चिदंबरम कुछ गलत नहीं सोच रहे। अब सवाल है कि अगर दाउद से कोई उद्योगपति या संपादक बात करता है या फिर दाउद से किसी मंत्री के रिश्ते की बात सामने आती है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई होगी या सरकार खामोशी ओढ लेगी। ठीक इसी तरह अगर हवाला या अन्य माध्यमों से देश को राजस्व का चूना बकायदा मंत्रालयों के नौकरशाहो और मंत्रियों के जरीये लगाया जा रहा है और इसमें मीडिया के कुछ नामचीन चेहरे भी अपने अपने राजनीतिक प्यादों का खेल खेल रहे हों, तब कार्रवाई होगी या नहीं। इतना ही नहीं दाउद से बातचीत के टेप कोई पत्रकार सामने ले आये तो उसकी वाहवाही समूचा देश या सरकार या गृहमंत्री चिदबरंम या फिर देश का कारपोरेट जगत भी कैसे करेंगे, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है । और उस वक्त क्या कोई उघोगपति,संपादक या मंत्री जिसने दाउद से बाचतीच की हो यह कहने की हिम्मत भी रखेगा कि बातचीत तो निजी थी उसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिये।

इस आइने में अगर सबसे पहले रतन टाटा और राडिया की बातचीत के सामने आने के बाद टाटा के उठाये सवाल पर गौर करें तो उन्होंने बातचीत को निहायत निजी माना। और यह भी कहा कि बातचीत के टेप लीक करने वालो के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिये। अब सवाल है कि अगर मीडिया इस तरह के दस्तावेजों को सामने ना लाये या फिर कोई भी अधिकारी इस डर से हर उस सच को छुपा लें जो देश के लिये खतरनाक हो तो फिर लोकतंत्र का पैमाना क्या होगा। क्योकि एक तरफ आरटीआई के जरीये पारदर्शिता की बात सरकार कर रही है तो दूसरी तरफ मीडिया पर लगातार यह आरोप लग रहे हैं कि वह सरकार के साथ ही जा खड़ी हुई है। फिर मीडिया भी जब कारपोरेट सेक्टर में तब्दिल हो रही है तो किसी मीडिया संस्थान से यह उम्मीद कैसे रखी जा सकती है कि वह पत्रकारिता के आचरण में एथिक्स की बात करें।

असल में राडिया के फोन टैप से सामने आये सच ने पहली बार बडा सवाल यही खड़ा किया है कि अपराध का पैमाना देश में होना क्या चाहिये। लोकतंत्र का चौथा खम्भा, जिसकी पहचान ही ईमानदारी और भरोसे पर टिकी है उसके एथिक्स क्या बदल चुके हैं। या फिर विकास की जो अर्थव्यवस्था कल तक करोड़ों का सवाल खड़ा करती थी अगर अब वह सूचना तकनालाजी , खनन या स्पेक्ट्रम के जरीये अरबो-खरबो का खेल सिर्फ एक कागज के एनओसी के जरीये हो जाता है तो क्या लाईसेंस से आगे महालाइसेंस का यह दौर है। लेकिन इन सबसे बड़ा सवाल यही है कि इस तमाम सवालो पर फैसला लेगा कौन। लोकतंत्र के आइने में यह कहा जा सकता है कि न्यायपालिका और संसद दोनो को मिलकर कर यह फैसला लेना होगा। लेकिन इसी दौर में जरा भ्रष्टाचार के सवाल पर न्यायापालिका और संसद की स्थिति देखें। देश के सीवीसी पर सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि भ्रष्टाचार का कोई आरोपी भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले पद सीवीसी पर कैसे नियुक्त हो सकता है।

तब एटार्नी जनरल का जबाव यही आया कि ऐसे में तो न्यायधिशो की नियुक्ति पर भी सवाल उठ सकते हैं। क्योकि ऐसे किसी को खोजना मुश्किल है जिसका दामन पूरी तरह पाक-साफ हो। वही संसद में 198 सांसद ऐसे हैं, जिनपर भ्रष्टाचार के आरोप बकायदा दर्ज हैं और देश के विधानसभाओ में 2198 विधायक ऐसे हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी हैं। जबकि छह राज्यो के मुख्यमंत्री और तीन प्रमुख पार्टियो के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और मायावती ऐसी हैं, जिन पर आय से ज्यादा संपत्ति का मामला चल रहा है। वहीं लोकतंत्र के आईने में इन सब पर फैसला लेने में मदद एक भूमिका मीडिया की भी है। लेकिन मीडिया निगरानी की जगह अगर सत्ता और कारपोरेट के बीच फिक्सर की भूमिका में आ जाये या फिर अपनी अपनी जरुरत के मुताबिक अपना अपना लाभ बनाने में लग जाये तो सवाल खड़ा कहां होगा कि निगरानी भी कही सौदेबाजी के दायरे में नहीं आ गई। यानी लोकतंत्र के खम्भे ही अपनी भूमिका की सौदेबाजी करने में जुट जाये और इस सौदेबाजी को ही मुख्यधारा मान लिया जाये तो क्या होगा। असल में सबसे बड़ा सच इस दौर का यही है कि देश के लिये जिसे आरोपियों का कटघरा माना जाता है, उसी कटघरे में खड़े आरोपी ही देश का भविष्य बना सकते हैं यही माना जा रहा है । यानी देश में मान्यता उसी तबके की है जो सौदेबाजी के जरीये लोकतंत्र का जनाजा नीरा राडिया से फोन पर हर वक्त निकालता रहा। इसलिये मुश्किल यह है कारपोरेट ने नीरा राडिया को आगे रखा। नीरा राडिया ने मीडिया को । मीडिया ने राजनीति को। राजनति ने पीएम को और पीएम कारपोरेट को देश का सर्वोसर्वा बनाने पर तुले हैं। तो इस गोलचक्कर में रास्ता कहां से निकलेगा।

नीरा राडिया एक ऐसे औजार के तौर पर इस दौर में सत्ता के सामने आयीं, जब देश में लाईसेंस राज के बदले महालाईसेंस का दौर शुरु हो चुका है। और खेल अब करोड़ों का नही अरबो-खरबो का होता हैं। खासकर खनन और सूचना तकनीक ऐसे क्षेत्र हैं, जहां सिर्फ कागज पर एक नो ऑब्जेकशन सर्टीफिकेट या एनओसी के लाइसेंस का मतलब ही होता है अरबो के मुनाफे का खेल। और कोई भी नेता जो जनता के रास्ते संसद तक पहुंचता है, मंत्री बनने के बाद उसे भी नीरा राडिया सरीखे फिक्सर की जरुरत अपने मंत्रालय की बोली लगाने के लिये बडे कैनवास में झाकने की जरुरत होती है। वहीं कारपोरेट जगत का रास्ता देश के बाहर के बाजार की कीमत से शुरु होता है जो देश में मंत्रियो को मुनाफे में साझीदार बनाने के लिये उस मीडिया को घेरते हैं, जिनके आसरे संसदीय लोकतंत्र की पताका फहराती रहती है। और मीडिया की इमारत भी अब विश्वनियता या ईमानदारी की जगह पूंजी के ऐसे ढांचे तले खडी हो रही है, जहां से आम आदमी की भूख की जगह उसका मनोरंजन और सत्ता-कारपोरेट की लूट की जगह विकास का रेड कारपेट ही मुनाफा देता नजर आता है। इसलिये पत्रकार अब जनता की राजनीति के लिये नहीं मुनाफे वाले कारपोरेट के लिये काम करना चाहते हैं और कारपोरेट नीरा राडिया के टेप से भी अपना निज बचाना चाहता है। इसलिये यह फैसला रुका है कि अपराधी सिर्फ दाउद है या घोटालेबाज और देश को अरबों के राजस्व का चूना लगाने वाले भी।

लेखक पुण्य प्रसून बाजपेयी वरिष्ठ मशहूर टीवी जर्नलिस्ट / एंकर हैं. वे इन दिनों जी न्यूज से जुड़े हुए हैं. उनका यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.

Comments (4)Add Comment
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written by Amit Singh Virat, December 04, 2010
Prasoon ji aapne lekh likhne ke liye apna samay barbaad kiya iske liye shukriya, lekin aap jaise desh dhurandhar patrakaron ko aisi baat shobha nahin deti. kya aapko nahin mallom ki desh ki patrakarita ka kya haan aapne kyon nahin likha patrakarita ko kalankit karne wale un patrakaron ke baare mein jo desh ki janta ko kai saal se moorkh bana rahe hain. ghuma fira kar likhne ke bajay saaf shabdon mein likhne se aap kyon bach rahe hain.
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written by madan kumar tiwary, December 04, 2010
निजता की एक अपनी सीमा रेखा है । जब निजता देशहित के आडे आ जाय तो उसे सीमा रेखा का उ्ल्लंघन मानेंगें। रह गई न्यायालय के रोक की बात । शaायददद रोक न लगे । अगर लगी तो मेरे जैसे लोग उसका उल्लंघन करेंगें और बातचीत के टेप को प्रकाशित करेंगें । टाटा को अगर किसी टेप के कुछ अंश से आप्पति है तो वह सिर्फ़ उस टेप के अंश विशेष को न प्रकाशित करने का आग्रह कर सकते है। सभी टेपों पर रोक लगानेकी बात भुल जाय आपात काल नही लागू हुआ है और होगा भी नही , २ जी के घोटाले में मुकेश की बात कोई नही कर रहा है। रिलायंस – आर एन आर एल विवाद में सरकार का मुकेश के पक्ष में आना भी जांच का मुद्दा है। अभी एक मौका मिला है कारपोरेट घरानो की काली करतूतों को उजागर करने का । मुकेश – अनिल गैस विवाद कम बडा मुद्दा नही है। मैं ्चाहता हूं की गैस विवाद में जो कुछ हुआ वह भी सामने आये। सरकार से लेकर ऐसे ऐसे लोगों की काली करतूतें सामने आयेंगी जो भुकंप पैदा कर देंगीं और उसके बाद शायद कोई सुधार का रास्ता नजर आये। मैने बार-बार लिखा है गैस विवाद पर और उच्चतम पद से सेवा निवर्त होने के बाद तुरंत अन्य उच्चतम पद पर काबिज होने वाले शख्स के बारे में। आप सब गैस विवाद की भी जांच की मांग करें।
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written by antra tiwari, December 04, 2010
sahi kaha prason ji aapne,jab loktantra ka chautha stanbh hi daagdaar ho jaye to sach ki ummeed kisase kare.jab media hi dalal ho gaya hai to aise me samaj ke samne vahi sach aayega jo ye satta ke dalal chahege.
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written by manish, December 04, 2010
इसे कहते हैं सांप मरने के बाद लाठी साबुत बचा लेना.... वाजपेयी जी बेहद शातिर और दोहरे चरित्र वाले पत्रकार हैं... सरकार और कार्पोरेट-कार्पोरेट तो चिल्ला रहे हैं, बेशर्म पत्रकारों का नाम लेना मुनासिब नहीं समझा... आखिर क्यों??? शायद इसीलिये न कि मुश्किल वक़्त में पता नहीं कौन साथ दे जाए... सब लीप पोत के बराबर कर दिया. वैसे भी गोल-मोल बातें करना इनकी आदत है या ये कहिए कि खुद को बचा लेने का हुनर.... 21वीं सदी के ये महान पत्रकार अगर पत्रकारिता को अपना सर्वस्व समझते हैं और आप इस देश और समाज के लिए सचमुच चिंतित हैं तो मोटी चमड़ी वाले एक भी दलाल पत्रकार का नाम क्यों नहीं लिया??? क्यों इन बेशर्मों के खिलाफ कुछ भी लिखने या बोलने का काम एक अलोक तोमर के ही जिम्मे है??? ज़रा सोचिए..
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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