Articles in the मीडिया मंडी Category
आमुख, मीडिया मंडी »
डेस्क ♦ अब तक के प्रसारण के आधार पर यही कहा जा सकता है कि ये सामाजिक न्याय के मुद्दे पर भ्रम फैलानेवाला धारावाहिक है, जिसमें भारतीय संविधान के मूल्यों को भी ब्राह्मणवादी कुतर्कों से तार-तार किया जा रहा है।
नज़रिया, मीडिया मंडी, स्मृति »
मार्क टुली ♦ 6 दिसंबर 1992 के बाद ही मार्च, 1993 में मुंबई में बम धमाके हुए, जिसमें 200 से भी ज्यादा लोग मारे गये और करीब एक हजार लोग घायल हुए थे। फिर गोधरा कांड हुआ, जिसमें साबरमती एक्सप्रेस में पहले आग लगायी गयी, जिसमें अयोध्या से लौट रहे करीब 50 हिंदू मारे गये और उसके बाद भड़की हिंसा में भी 3,000 लोग मार दिये गये। इनमें अधिकांश मुस्लिम लोग थे। ज्यादातर हिंदू मानते हैं कि विवादित ढांचा भगवान राम की जन्मभूमि है। दूसरी ओर मुसलमानों का मानना है कि यह उनकी जमीन है, क्योंकि यहां 1528 से बाबरी मस्जिद है। देश में बीते 20 वर्षों के दौरान धार्मिक कट्टरता बढ़ी है। हिंदुत्व राष्ट्रवाद के साथ-साथ इस्लामिक कट्टरता भी बढ़ी है।
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डेस्क ♦ पत्रकारिता और नीरा राडिया कांड पर चर्चा करने के लिए दिल्ली प्रेस क्लब में शुक्रवार की सुबह हुई बैठक में बहुत कुछ कहा गया, लेकिन सहमति के बिंदु कम थे। एक छोर पर सीएनएन आईबीएन के मालिको में एक राजदीप सरदेसाई थे, तो दूसरे छोर पर आउटलुक के संपादक विनोद मेहता। एक और छोर उन पत्रकारों का था, जो पत्रकारिता के कथित महारथियों के नंगे होने को लेकर आहत थे और अपनी साख को लेकर चिंतित थे। उस साख को लेकर, जिसे तार-तार करने का काम पत्रकारिता के शिखर पर बैठे लोगों ने किया था। बीच में कहीं मृणाल पांडे जैसी शख्सियतें भी थीं, जो ब्लॉग की वजह से हुए निजी कष्ट को जाहिर करने के लिए इस मंच का इस्तेमाल कर रही थीं और कुलदीप नैयर जैसे लोग भी, जो अपने स्वर्णिम दौर को याद करके समस्या का समाधान वहीं कही ढूंढने की कोशिश कर रहे थे।
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डेस्क ♦ दिलचस्प है कि इन दिनों खुलेआम मीडिया एथिक्स को लेकर री-ऑर्गनाइज होने की बात करने वाले चैनल "इन दिनों भी" अपने मसाला मिजाज से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। सबसे तेज चैनल के एक प्रोग्राम का किस्सा है, जिसमें एंकर कहती हैं – आश्चर्य है कि तीन करोड़ मिलने के बाद भी प्रियंका ने ठुमके लगाने से मना दिया। मतलब ये कि इतनी रकम इन एंकर को मिल जाए तो ये कुछ भी करने को राजी हो जाएंगी। हमने ऊपर इस पूरी घटना को दिलचस्प कहा, अब हम इस शब्द की जगह शर्मनाक लिखना चाहते हैं। मीडिया के एक मुन्ना ने हमारे पास पूरे कार्यक्रम की एक समीक्षा भेजी है।
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विनीत कुमार ♦ एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष और सीएनएन आईबीएन के एडिटर इन चीफ राजदीप सरदेसाई ने नब्बे के दशक में दूरदर्शन पर लगभग दहाड़ते हुए कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। राजदीप ने निजी मीडिया की मार्केटिंग इसी तरह से की और निजी चैनलों को दूरदर्शन के विपक्ष के तौर पर खड़ा करने की कोशिश की कि वो सरकार से पूरी तरह मुक्त है और दूरदर्शन से अलग सबसे मजबूत और स्वतंत्र माध्यम है। आज वही राजदीप सरदेसाई, जिन्हें कि सरकार से कुछ भी लेना-देना नहीं था, पूरी तरह आजाद थे, कॉरपोरेट की गोद में गिरते हैं और बनावटी तौर पर ही सही, बिलबिलाने और मजबूर होने का नाटक करते हैं। निष्कर्ष ये है कि न तब मीडिया आजाद और मुक्त था और न आज है।
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विनीत कुमार ♦ चैनलों पर जिस तरह से पंचायती दौर शुरू हुआ है, उससे ऐसा लग रहा है कि चैनल पर आकर कुछ लोग जो तय कर देंगे, वही इन मीडियाकर्मियों के लिए अंतिम फैसला होगा। ये मुझे यूनिवर्सिटी कैंपस में पांच साल रहते हुए उसी तरह का मामला लग रहा है कि दबंग टाइप के ग्रुप कमजोर को दमभर मारते और फिर आपसी सुलह कर लेने के नाम पर पूरे मामले को दबा दिया जाता। ये मामला सिर्फ नैतिक नहीं है और जब तक पूरा फैसला आ नहीं जाता, अपराध के घेरे में ही आता है। इसलिए इस पर सिर्फ और सिर्फ नैतिक आधार पर बात करने का मतलब है पूरे मामले से ऑडिएंस की नजर को भटकाना और केस को कमजोर करना।
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♦ बरखा ने कई बार कहा कि नीरा राडिया उनके लिए खबर का एक सोर्स थीं। इस पर मनु ने कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया सोर्स नहीं बल्कि सबसे बड़ी खबर थीं। बरखा को नीरा की मंशा समझने की कोशिश करनी चाहिए थी। जवाब में बरखा ने मनु से पूछा कि जिस सोर्स ने आप तक नीरा राडिया की बातचीत के कुछ टेप पहुंचाये हैं, क्या आपने उसका मोटिव समझने की कोशिश की है? मतलब कहीं ऐसा तो नहीं कि ओपन और आउटलुक भी किसी कॉरपोरेट वॉर में महज एक टूल बन कर रह गये हैं? ये सवाल बहुत बड़ा सवाल है और इसका जवाब न केवल मनु जोसफ बल्कि विनोद मेहता को भी देना चाहिए। जिस नैतिकता के आधार पर वो पूरी मीडिया को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं, उसी नैतिकता के आधार पर उन्हें अपना पक्ष भी साफ करना चाहिए।
मीडिया मंडी, मोहल्ला भोपाल »
डेस्क ♦ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के दो पत्रकारों ने विद्यार्थियों से अपने अनुभव बांटे। ये पत्रकार थे बंगला पत्रिका 'लेट्स गो' एवं 'साइबर युग' के प्रधान संपादक जयंतो खान एवं प्रवक्ता डॉट काम के संपादक संजीव सिन्हा। संजीव सिन्हा ने वेब पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अपने अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि जो तेजी इस माध्यम में है, वह मीडिया की अभी अन्य किसी विधा में नहीं है। यही तेजी इस माध्यम के लिए वरदान है। उन्होंने कहा कि वेब मीडिया अपने आप में एक अनूठा माध्यम है, जिसमें मीडिया के तीनों प्रमुख माध्यम प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन की विशेषताएं समाहित है।
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विनीत कुमार ♦ मनु जोसेफ का यह सवाल धरा का धरा ही रह गया कि यदि ये एरर ऑफ जजमेंट था, तो फिर 2010 में भी ये स्टोरी क्यों नहीं चली? मनु जोसेफ ने साफ कहा कि सॉरी, मैं आपके जवाब से खुश नहीं हूं। बरखा दत्त के पास इस बात का भी साफ-साफ जवाब नहीं था, जिसे कि दिलीप पडगांवकर ने उठाया कि एक पत्रकार की सीमा रेखा कहां जाकर ब्लर हो जाती है। ये एक जेनरल पर्सेप्शन बना है कि ऐसा हुआ है। सवाल ये भी है कि एक पीआर और एक एडिटर के बात करने के तरीके में कोई फर्क नहीं होगा क्या? इसके साथ ही वो एक पीआर को ये क्यों बता रही हैं कि मेरे जर्नलिस्ट क्या कहते हैं?
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डेस्क ♦ आज अपने ही शो में एनडीटीवी की प्रबंध संपादक बरखा दत्त कठघरे में खड़ी होंगी। 2G स्पेक्ट्रम मामले में नीरा राडिया से रिश्तों के आरोपों से घिरी बरखा दत्त ने हालांकि अपने जवाब भी एनडीटीवी की साइट पर दिये, लेकिन उनके जवाब आलोचकों का मुंह बंद करने में नाकाम रहे। उधर इस मसले के उछलने के बाद एनडीटीवी का शेयर प्रभावित होने से हताश प्रबंधन ने ये फैसला लिया कि इस मामले में मीडिया के उन दिग्गजों से सीधे बातचीत की जाए और बरखा दत्त को उनके हमलों के सामने लाइव खड़ा कर दिया जाए। यह एक बोल्ड स्टेप माना जाएगा। जिन मीडिया दिग्गजों को बरखा दत्त से सवाल करने के लिए बुलाया गया है, वे हैं – संजय बारू, स्वपन दासगुप्ता, दिलीप पडगांवकर और मनु जोसेफ।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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