Saturday, July 25, 2015

ऐसी राजनीति पर थूःथूःथूः कि सबसे बड़ा मसला यह कि कौन कंडोम नकली है और कौन असली उस रसगुल्ला क्रांति के बाद वामपक्ष को भी जनता के मुद्दों की पहचान नहीं है पलाश विश्वास

ऐसी राजनीति पर थूःथूःथूः

कि सबसे बड़ा मसला यह कि कौन कंडोम नकली है और कौन असली

उस रसगुल्ला क्रांति के बाद वामपक्ष को भी जनता के मुद्दों की पहचान नहीं है

पलाश विश्वास

बसंतीपुर में हमारे घर में दो चीजों पर सबसे धमाल हुआ करता था।पहला तो रसगुल्ला और दूसरी मिर्चें।चूंकि नदियों से हम बेदखल हो गये थे देश के विभाजन के साथ,इसलिए हिलसा मछलियां तीं नहीं और हिलसा थी नहीं तो मछलियों के लिए कोई हंगामा कभी बरपा नहीं।


मैं खासतौर पर रसगुल्ले का दीवाना रहा।इतना दीवाना कि पूरा बचपन और कैशोर्य रसगुल्ले के हवाले था।


मेरे चाचा के मुंह से रसगुल्ला निकालकर खाया है मैंने।


साझा परिवार था।भाई बहनें बहुत।मैं अपना हिस्सा खत्म करके दूसरों के रसगुल्ले हड़पने के लिए घात लगाकर बैठता था।


खालिस जैशोर फरीदपुर की आखिरी विरासत मिर्ची थी।बिन मिर्ची खाना जूठन जैसा लगता था हमें।हमारे घर में खालिस प्रतियोगिता होती थी हर रोज कि सबसे झाल मिर्च कौन कितने गिन गिनकर खा सकता है।


हमारे ताउजी तो दावत में भी जेबों में मिर्चे भर भरकर ले जाते थे कि काने में मिर्च कम हुआ तो जेब से निकाल लें जो अक्सर होता था।


बंगाल में एक क्रांति रसगुल्ला क्रांति भी हुई थी 1965 में ऐसी क्रांति जो दुनियाबर में शायद कहीं नहीं हुई।यूं कहें कि बंगाल में आधे अधूरे लागू हुए भूमि सुदार की वजह भी वही रसगुल्ला क्रांति हे ,तो शायद गलत न होगा।


यूं तो तब भी तेभागा जारी था और भीतर ही भीतर कृषि विद्रोह की आग सुलग रही थी और समां खाद्य आंदोलन का था,असल गलती गांधीवादी तब के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्रे सेन ने यह कर दी कि बंगाल में खाद्य संकट से निबटने के लिए उनने आव देखा न ताव,फौरन छेने की मिठाइयों पर रोक लगा दी,जिसमें सबसे खास रसगुल्ला हुआ करै है।फिर तो बंगाल में ऐसा भूचाल आया कि हाशिये पर खड़े वाम पंथी सत्ता में ऐेसे आये कि करीब 35 साल तक उनका शासन रहा बंगाल में।


भारतभर में इतने अधिक अलोकप्रिय मुख्यमंत्री कोई दूसरा हो।उनके साथ उतने ही अलोकप्रिय रहे हैं अतुल्य घोष।इसमें भी खास बात यह है कि इन दोनों से ईमानदार राजनेता बंगाल में शायद कोई तीसरा हों।


दोनों पक्के गांधीवादी रहे हैं।सादगी से जीने वाले।न उनके खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप था और न अपने अपने को रेवड़ियां बांटने का कोई सवाल था और न वे तानाशाह थे।


फिरभी हालात उनके खिलाफ थे और बंगाल तब दाने दाने को मोहताज था।


इससे भी बड़ी बात यह कि बंगाल के कामरेडों ने सही मुद्दों और सही मसलो को उठाने और जनता के साथ खड़े होने,जनता के बीच लगातार लगातार सक्रिय रहकर जनता को सत्ता के खिलाफ लामबंद करने में कोई कोताही न की।


नेता भी कैसे थे कामरेड ज्योति बसु,कामरेड मुजफ्फर अहमद,कामरेड सोमनाथ चटर्जी,कामरेड हरिकृष्ण कोनार,कामरेड प्रमोद दासगुप्त,कामरेड विनय चौधरी,कामरेड शैलेन दासगुप्त,कामरेड जतीन चक्रवर्ती,कामरेड गीता,कामरेड अशोक घोष वगैरह वगैरह।जाहिर है कि नेतृत्व का कोई संकट भी नहीं था।


वरना आज के मुकाबले तब वामपंथ के लिए कांग्रेस को बेदखल करके सत्ता में आना बहुत मुश्किल था।


बंगाली सबसे ज्यादा मछलियों,मिष्टि दही,रसगुल्ला समेत तमाम रसदार छेने की मिठाई के दीवाने रहे हैं हमेशा से।बंगाल में किसी भी शहरी इलाके के किसी भी मोहल्ले में और किसी भी गांव में मिठाई की दुकान में चले जाये जो इफरात हैं हर कहीं और कमसकम मिठाई की दुकान से घाटा हो जाने का अंदेशा कभी हो ही नहीं सकता।


अब जबकि मधुमेह की महामारी है जो साठ के दशक में रही नहीं है।


फिरभी शाम को कभी फुरसत मिलती है तो अपने मोहल्ले के किसी भी मिठाई की दुकान में बड़े बड़े गमलों में रसगुल्ले,गुलाब जामुन,चमचम छेने की जलेबियां और छेने की दूसरी मिठाइयां बनते देखकर हमेशा हैरत में होता हूं कि इतनी मिठाइयां,इतनी दुकानें और मधुमेह के इतने मरीज और दस रुपये से कम नहीं कोई अच्छी मिठाई,तो खाता कौन होगा।


शाम चार बजे से रात के दस बजे तक मिठाइयां बनती है।बासी मिठाइयां अनबिकी बहुत बेदर्दी के साथ रात को दुकान बंद होते न होते कचरे में फेंक दी जाती है।सवाल किया कोई इस सिलसिले में,बेवकूफ माने जायेंगे।


रसगुल्ला और मिछाइयों कि ऐसी महिमा अपरंपार जिसपर लगे प्रतिबंध की वजह से प्रफुल्ल चंद्र सेन और अतुल्य घोष जैसे लोग भी बेहद अलोकप्रिय हो गये।


जबकि हकीकत यह है कि खासतौर पर प्रफुल्ल चंद्र सेन  को इस बात की ज्यादा फिक्र थी कि छेने की मिठाइयों की वजह से दूध की किल्लत हो रही थी और वे मिठाइयों पर पाबंदी लगाकर दूध बच्चों और उनकी माताओं के लिए बचाने की जुगत में थे।


अब उनकी क्या कहें जो जनता के खान पान पर पाबंदी लगाकर धर्म की राजनीति के जरिये धर्मोन्माद फैला रहे हैं।


उससे बी बड़ा मसला है कि मौजूदा राजनीति की जड़ें जनता के बीच कहीं नहीं हैं और जनता के मुद्दों से राजनीति का कोई सरोकार नहीं है।


संसद का मानसून सत्र जारी है और हर मिनट ढाई लाख का खर्च है।

जनता के किसी मुद्दे की गूंज लेकिन कहीं नहीं है।


राजनीति अब सत्ता समीकरण के सिवाय कुछ भी नहीं है।

नगाड़े खामोश हैं और नौटंकियां चालू है कुल किस्सा यही है।


वामपक्ष को भी उस रसगुल्ला क्रांति के बाद मुद्दों की कोई पहचान नहीं है।


हाल में धर्मस्थलों पर कंडोम की किल्लत सुर्खी बनकर अखबारों और टीवी पर छा गयी थी और अब सबसे बड़ा मसला यह है कि हम कैसे कंडोम का इस्तेमाल करें और कैसे कंडोम का इस्तेमाल न करें।


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