Tuesday, July 28, 2015

मजहबी मजनुओं,मजहब के मुताबिक जनाजे के लिए रहें तैयार कि राम नाम सत्य है,सत्य बोलो गत्य है! रहने दें मंकी बातें,देश फिर वही अस्सी का दशक है। कुफ्र बोल रहे हैं हम और खुदा ने यकीनन सच बोला है कि हम चूंकि नपुंसक हैं,हम चूंकि दारुकुट्टा है और हम चूंकि मजनूं हैं ,इसीलिए हम खुदकशी कर रहे हैं।खुदा ही अब खैर करें।डाउ कैमिकल्स के वकील भी वही बोले हैं। फिरभी जनता के बीच जायें तो आखिरी सवाल अब भी उनका यही है कि तो बताओ कि हम इस लोकतंत्र का क्या करें और सारे चोर हैं तो किस काले चोर को अगली दफा हम वोट दें। पलाश विश्वास

मजहबी मजनुओं,मजहब के मुताबिक जनाजे के लिए रहें तैयार कि राम नाम सत्य है,सत्य बोलो गत्य है!

रहने दें मंकी बातें,देश फिर वही अस्सी का दशक है।

कुफ्र बोल रहे हैं हम और खुदा ने यकीनन सच बोला है कि हम चूंकि नपुंसक हैं,हम चूंकि दारुकुट्टा है और हम चूंकि मजनूं हैं ,इसीलिए हम खुदकशी कर रहे हैं।खुदा ही अब खैर करें।डाउ कैमिकल्स के वकील भी वही बोले हैं।

फिरभी जनता के बीच जायें तो आखिरी सवाल अब भी उनका यही है कि तो बताओ कि हम इस लोकतंत्र का क्या करें और सारे चोर हैं तो किस काले चोर को अगली दफा हम वोट दें।

पलाश विश्वास

रहने दें मंकी बातें,देश फिर वही अस्सी का दशक है।

माहौल लेकिन शादी बार बार,हानीमून बार बार।

लेकिन फिजां ऩफरत से लबालब है

और मुहब्बत जहर का प्याला है

हमें तकलीफ है कि फिर पंजाब जलने लगा है

हमें तकलीफ है कि डल झील में फिर दहशत है


घाटियां तमाम मौत की घाटियों में तब्दील है

शिखर भी पिघलने लगे हैं ग्लेशियरों के साथ

और अब हर समुंदर आग है

सरे मैदान जहां भी हैं,वे अब डूब हैं बेइंतहां

रहने दें मंकी बातें,देश फिर वही अस्सी का दशक है।


রোমানার তৃতীয় বিয়ে হলেও, এলিনের দ্বিতীয় বিয়ে এটি..

রোমানার বিয়েতে 'ঢাকাই গয়না'

অভিনেত্রী ও মডেল রোমানা খান অবশেষে তৃতীয়বারের মতো বিয়ে করতে যাচ্ছেন। বর যুক্তরাষ্ট্রপ্রবাসী ব্যবসায়ী এলিন রহমান। ৭ আগস্ট নিউইয়র্কের ওয়ার্ল্ড ফেয়ার মেরিনা হলে বিয়ে করবেন রোমানা ও এলিন। এ প্রসঙ্গে যুক্তরাষ্ট্র থেকে ফেসবুক আলাপে রোমানা বলেন, '৭ আগস্ট আমরা বিয়ে করছি। এর...

PROTHOM-ALO.COM


शादी और तलाक कारोबार उनका और हानीमून भी कारोबार उनका।हमारा मजहब यह नहीं कि महबूब को जहर का प्याला पेश करें हम।


माफ करना हम गदहा बिरादरी से हैं और न रुप है और न रंगत है और मुहब्बत की न हमारी औकात है और न अदब है और न तहजीब है।खामख्वाह हम बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना है और घोडे हमें हमेशा गधा बनाये रखने की तकनीक जाने हैं।


हमें तकलीफ है कि कश्मीर और मणिपुर नहीं सिर्फ,पंजाब और असम नहीं सिर्फ,सिर्फ नहीं दंतेवाडा़ और बस्तर या कि मुजफ्फर नगर सिर्फ, न सिर्फ खैरांजलि  न नागौर,चप्पे चप्पे पर महाभारत है।हर कहीं दंगा है।हर कहीं आगजनी है और सेंसर भी है।


हमारी खास तकलीफ है कि देश का बंटवारा जारी है और हर कोई लड़ रहा है अपने हिस्से के देश के लिए।मुकम्मल वतन किसी का वतन है ही नहीं।फिरभी सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा।


हमारी खास तकलीफ है कि कयामतों का सिलसिला जारी है और खून की नदियां लबालब है और रोज कहीं न कहीं भूकंप है या बाढ़ है या भूस्खलन है या कत्लेआम है या आतंकी हमला है या मुढभेड़ है या आफसा है या सलवाजुडु़म या कर्फ्यू है या खुदकशी है या दुष्काल है या भुखमरी है चूंकि हम आखिर इंसानियत की सेहत की परवाह करै हैं।इसलिए हमीं को तकलीफ है।गदहा जो हुए घोड़े न हुए हम।


क्योंकि इंसानियत के मजहब में बाकी सियासत वाहियात है।


हमारा वास्ता सियासत से नहीं है यकीनन और हमें फर्क नहीं पड़ता कि हुकूमत किस किसकी है।हमें फिक्र है सिर्फ अपने वतन और अपने हमवतन लोगों की,जो खून से लथपथ हैं और खून कहीं दीख नहीं रहा है।न खून का अता पता है और न कातिलों का कोई सुराग।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है तो जनादेश से राज करें कांग्रेस या भाजपा या समाजवादी या बहुजन या ममता या वाम आवाम।जनता की राय सरमाथे।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर राजकाज फासिज्म

का न होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर कत्लेआम का चाकचौबंद इंतजाम न होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर मजहब बिक न रहा होता।अगर रब किराये पर न होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर संविधान भी जिया रहता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर कानून का राज होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर नगाड़े खामोश न होते।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर सूअर बाड़े में जंगली सूअर असली होते और वे हमारे खेत जोत रहे होते।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर अगर चिनार वन सही सलामत होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर सारी आनबंधी नदियां बंधी न होती।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर हमारे गांव बेदखल नहीं होते।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर जंगल जल बेदखल नहीं रहा होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर हमालय पिघल न रहा होता।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर समुंदर को रेडियोएक्टिव सुनामी बनाया नहीं गया होता ।


हमें फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र है अगर महबफरोश वतन फरोश भी न होते।


वरना हम काफिर हैं और काफिर का मजहब इंसानियत के सिवाय़ कुछ नहीं होता और चूंकि अंधियारा हमारा धंधा नहीं है और सियासत हमारा कारोबार।


दो गज जमीन कब्र या चिता के लिए मयस्सर है या नहीं,हम यकीनन नहीं जानते,लेकिन क्या करें जनमजात दो गज लंबी जुबान हमारा वजूद है,जो छुपाये छुपता नहीं है।


खामोशी का योगाभ्यास हम कर नहीं सकते यकीनन और न ललित आसन आजमा सकते हैं।न आयी बला टाल सकते हैं।


लब से बोल निकल ही जाते हैं जो मूक वधिर अंध देश की रघुकुल रीति के खिलाफ हैं,हमें आपका रब माफ करें कि दुआ करें आप।


यकीन मानो कि नपुंसक कहा तो हूं चूंकि किसान का बेटा तो फटाक से खून हो न हो,कुछ न कुछ तो उबला ही होगा भीतर ही भीतर।


जब दोस्तों से चरचा होती है तो वे कहते हैं कि भला हो उनका जिनने  देश को मनी मनी कर दिया चाहे वे हमारी डीएनए से भी हमें बेदखल कर दें!महाजिन्न से विश मंग ले आप भी कोई।


वे हरगिज नहीं समझते कि न हम टाटा हैं,न अंबानी हैं हम जनमजात,न हम अदाणी हैं या फिर जिंदल मित्तल या फिर हिंदुजा या फिर विदेशी निवेशक कोई भी कि हम एफडीआई नहीं हरगिज।हम तो अब भी वहींच गोबर।वहीं च कीचड़ हम।


जिंदगी में डालर वालर न हो तो क्या डीएनए धोकर खायेंगे? सब पूछ रहे हैं कि बाप बड़ा न भइया,मजहब बड़ा न मुल्क बडा़ है न मां को कोई जिगर बड़ा है,और न जमीर बड़ा है किसी का,सबसे बजडा न रुपइया है,सबसे बड़ा डालर है सो सेसेक्स गिरै हैं,गिरै सोना भी।


फिर उनकी वही चुनौती कि जो लोग कुछ कर सकते हैं,वे ही लोग कुछ कर रहे हैं।


तुम्हे मियां,क्या फर्क पड़ रहा है वे कोई तुम्हारी माशुका से मुहब्बत तो नहीं कर रहे हैं!


मजे में हो तो मजे में जिओ।

क्यों परेशां हो वतन या वतन के लोगों के लिए?


उनका कहना है कि बूढ़ापा खराब न करो वरना किसी दिन वे तुम्हे कुछ भी बनाकर लटका देंगे किसी न किसी बहाने!


खौफ खाओ तो बरकतें इसी खौफ में और खौफ खाओ तो उसकी नियामते सदाबहार कि देखते नहीं कि कैसे फासिज्म के राजकाज में जंजीरों में जकड़े लोग सबसे ज्यादा खुशहाल हैं।


खाओ और खाने दो,अब मजहब है कि किसी को खाने मत दो।

फटेहाल हो तो मालामाल होने की खातिर मौका यही है।


फिजां में नफरत यकीनन बहुत है लेकिन माहौल मालामाल लाटरी है और अपना हिस्सा बूझ लो और फिर खामोशी से किनारे हो जाओ।डालर की खनक से खूबसूरत क्या चीज है!महबूब क्या चीज है,गोरा रंग ढल जायेगा।जवानी पिघल जायेगी।बटोर लो मनी मनी।


नेकदिल दोस्तों की कमी नहीं है जहां में जो हमारा किया धरा फिजूल खर्च मानते हैं और सीधे चुनौती देते हैं कि माना कि सारे के सारे चोर हैं,हरामखोर बदनीयत फरेबी जरायम पेशा गिरहकट जेबकतरे हैं और सियासत उन्हीं की जमात है तो तुम्हारा क्या?


नेकदिल दोस्तों की कमी नहीं है जहां में जो हमारा किया धरा फिजूल खर्च मानते हैं और सीधे चुनौती देते हैं कि माना कि सारे के सारे चोर हैं,हरामखोर बदनीयत फरेबी जरायमपेशा गिरहकट जेबकतरे हैं और सियासत उन्हीं की जमात है तो तुम्हारी औकात क्या और तुम किसका क्या उखाड़ लोगे?



नेकदिल दोस्तों की कमी नहीं है जहां में जो हमारा किया धरा फिजूल खर्च मानते हैं और सीधे चुनौती देते हैं कि माना कि सारे के सारे चोर हैं,हरामखोर बदनीयत फरेबी जरायमपेशा गिरहकट जेबकतरे हैं और सियासत उन्हीं की जमात है तो बताओ कि कुल कितने लोग हैं तुम्हारे साथ जो माफिया बिल्डर प्रोमोटर मौत के सौदागरों से पंगा ले रहे हो?


नेकदिल दोस्तों की कमी नहीं है जहां में जो हमारा किया धरा फिजूल खर्च मानते हैं और सीधे चुनौती देते हैं कि माना कि लोग तुम्हारा यकीन कर भी लें तो क्यों आयेंगे वे तुम्हारे साथ जबतक न कि तुम यकीन दिला सको उन्हें कि हालात बदले जायेंगे और कयामत का मंजर यह सिरे से बदल सकते हो तुम्हीं लोग?


गरज यह कि साले,तुम जो अपनी जान की खैरियत चाहते हो,तुम जो बरकतों और नियमतों के आसरे हो,रब से भी डरा करो,रब से दिल लगा लो और दुनिया को भूल जाओ।


बाकी किस्सा रामलीला है या महाभारत।करबला भी है कहीं कहीं।

बाकी सबकुछ मुकम्मल मुहर्रम है।हम चूंकि मुहर्रम मुबारक कह नहीं सकते कि अब्बा हमारे ऐसा सिकाने से बहले मरहूम हो गये।


गरज यह कि साले,तुम न राम हो न कृष्ण न रामकृष्ण, न मसीहा कोई न अवतार, न वली कोई न महाबलि,न सुपरमैन न स्पाइडर मैन और न बजरंगबलि,जमाने की क्या पड़ी है और क्यों सोचते हो?


फिरभी ताज्जुब के हमें गुस्सा आया कि किसी  खुदा ने फतवा दे दिया कि किसान या तो नपुंसक हैं,या दारुकुट्टा हैं या फिर मजनू हैं सिरे से! फिरभी ताज्जुब कि कीसी और को गुस्सा आया कि नहीं , हमें नामालूम कि शायद सारा वतन नपुंसक है इन दिनों।


हमें तकलीफ है कि सूअरबाड़े में कोई हलचल नहीं है क्योंकि वहां असली सूअर भी कोई नहीं है।


हमें तकलीफ हैं कि नगाड़े रंग बिरंगे सारे के सारे खामोश हैंं।


हमें तकलीफ हैं कि सूरज अब पश्चिम से उगता है,पूरब से नहीं।


हमें तकलीफ हैं कि इंद्रधनुष में केसरिया के सिवाय दूजा रंग कोई नहीं है।


हमें तकलीफ है कि इस कयामती बहार में फूल सिर्फ एक है खिलखिलाता कमल और बाकी फूल सिरे से खत्म हैं।


हमें तकलीफ है कि गोमाता के सिवाय वैदिकी हिंसा में हर जीव,हम मनुष्य भी वध्य है ।चूंकि गोमाता की तरह न विशुद्ध हैं हम और न पवित्र हैं हम।सारा मजहब,सारी सियासत हमारे वध के लिए है और प्यारा हमारा वतन एक बेइंतहा आखेटगाह है और हम बेपनाह जानवर हैं जिनका आखेट जायज है।चाहे मुहब्बत हो चाहे जंग।


हमें तकलीफ है कि सारे सांढ़ रेपिस्ट मोड में हरकत में हैं।जगह जगह बलात्कार उत्सव है किसी महजबीं की अस्मत की कोई हिफाजत नहीं है और न हिफाजत में है मुल्क का बचपन।जवानी सावारिश आवारा है।न जमीन आजाद है और न आसमान खुला है और खुल्ला सिर्फ बाजार है।दिलों के दरवज्जे तालाबंद हैं इन दिनों।


हमें तकलीफ है कि सारे खेत,खलिहान,जल, जंगल, पहाड़, मरुस्थल, रण, समुंदर यानि कि सारी कायनात में आग लगी है।


ऐसी आग जो किसी को नजर नहीं आती हमारे दिल में धधकती है वह आग और दिमाग हमारा आलू है या फिर फालुदा।


उसी आग में जिंदा दफन हो रहे हैं हम पल छिन पल छिन।


यकीनन हम ससुरे उल्लू के पट्ठे हैं जो बूढ़ापे में हानीमून पर चले हैं।बूढ़ा गधा बेलगाम।


हालात तो ये हैं कि हम मजनूं मियां से बुरी हालत में हैं।


हकीकत वहींच जो डाउ कैमिकल्स के वकीलसाब कहत रहे कि किसी खुदा ने कोई गलत कहा नहीं कि मजनूं,दारुकुट्टा और  नपुंसकों की जमात खुदकशी पर आमादा है।


हम खामख्वाह ख्वाब में टहल रहे हैं।    


मसलन पहले रेलवे वाले मान नहीं रहे थे कि उनका निजीकरण हो रहा है।अब वे मान रहे हैं कि निजीकरण हो रहा है और उनका जवाब है कि हम मुलाजिम हैं तो आप क्या बताओगे कि हम क्या जल रहे हैं और कैसे कैसे भरतीय रेल किरचों में बिखर रहा है।   

 

मसलन पहले बैंक वाले मान नहीं रहे थे कि उनका निजीकरण हो रहा है। अब वे बताते हैं कि हमें क्या इकोनामिक्स सिखाओगे।हम तो बेहतर इकोनामिक्स जानते हैं और हम जानते हैं कि बैंको का कबाड़ा हो रहा है।


उसीतरह एलआईसी,आयल कंपनियों,बंदरगाहों,एअर इंडिया कि हर महकमे में लोघ हमसे बेहतर जानकार हैं और सख्त खफा हैं कि हम उन्हें जानकारी देने की जहमत उठा रहे हैं।  


और तो और,अपने खास दोस्त,अपने डाक्टर मांधाता सिंह जिनके लगातार लगातार कोंचते रहने की वजह से अंग्रेजी के अलावा हमने हिंदी में नेट पर लिखना सीखा,वे भी परेशां कि इतनी मुहब्बत क्यों दाग रहे हैं,क्यों मुहब्बत का ढिंढोरा पीट रहे हैं!


यानी कि गोआ के चुनांचे कि सबको सबकुछ मालूम है और हम बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना हैं।


सबको सबकुछ मालूम है और सबने खामोशी का तंबू तान लिया है और पांचवें छठें दशक के विविध भारती के गाने बजाने लगे हैं।


कुफ्र बोल रहे हैं हम और खुदा ने यकीनन सच बोला है कि हम चूंकि नपुंसक हैं,हम चूंकि दारुकुट्टा है और हम चूंकि मजनूं हैं ,इसीलिए हम खुदकशी कर रहे हैं।खुदा ही अब खैर करें।


यकीनन वे सच बोले हैं।

हम तो थोथा हैं या फिर थेथर हैं।


थोथा चना जो बाजे घना हैं।

फिर भी दिल है कि नहीं मानता क्योंकि वजूद फिर भी वहीं किसान है। दिल वही गोबर कीचड़।दिमाग भी वहींच गोबर कीचड़।  

फिरभी जनता के बीच जायें तो आखिरी सवाल अब भी उनका यही है कि तो बताओ कि हम इस लोकतंत्र का क्या करें और सारे चोर हैं तो किस काले चोर को अगली दफा हम वोट दें।                                                                                           


No comments:

Post a Comment