कुछ भी करो,हमारे इंसानियत वतन बचाने की कोई जुगत करो।
कहीं किसी को खबर है नहीं।खबरनवीस भी कोई नहीं।
चौबीसों घंटे खबरों का जो फतवा है,नफरत का जो तूफां है खड़ा,वह केसरिया मीडिया का आंखों देखा हाल है।मुल्क बंट रहा है किसी को न खबर है और न परवाह है।
सूअरबाडा़ खामोश है तो रंग बिरंगे नगाड़े खामोश हैं।सूअर बाडा़ में हांका कोई लगायें,ऐसा कोई शख्स कहीं नहीं है।नौटंकी चालू आहे।
पलाश विश्वास
आज जिस शख्स को सबसे ज्यादा नापसंद करता रहा हूं और जिसके मुखातिब होने से हमेशा बचता रहा हूं,उसकी विदाई पर लिखना था।
उससे पहले एक किस्सा।किस्सा यूं कि सिर्फ मोबाइल या गैस कनेक्शन के लिए नहीं,अब मोहल्ला का दशकों पुराना धोबी भी कपड़ा लौटाने के लिए आधार, पैन, वोटरकार्ड का जिराक्स मांग रहा है।
मजाक नहीं यह।
इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबारों के कलाकार हमारे सहकर्मी सुमित गुहा के साथ ऐसा हादसा हुआ है।
सिर्फ उस बेचारे धोबी का नाम दे नहीं रहा हूं।
वह भी आखिर मजलूम ही ठैरा।
घर आकर सविता को कह सुनाया कि किस्सा यूं है तो उनने पूछा,जूते मारे हैं कि नहीं।
महतरमा को क्या बतायें कि हर किसी को जूता मारने या हर किसी को फांसी पर लटकाने से मुल्क के सारे मसले हल नहीं हो जाते जबकि मुहब्बत और नफरत के दरम्यान सिर्फ दो इंच का फासला है।
हर दिलोदिमाग में जहर जलजला है तो इंसानियत को बचाने का मसला सबसे बड़ा है।
नागरिकता इतनी संदिग्ध है।
निजता बेमतलब है कि सरेआम हर जरुरी गैरजरुरी चीज के वास्ते हमें सरेआम नंगा हो जाना है।
बिररंची बाबा हैं चारों तरफ टाइटेनिक राजकाज में।
हमने अस्सी के दशक में जलते भुनते हुए मेरठ में मजहब की पहचान के लिए नंगा परेड देखा है और गाय पट्टी का मजहबी जंग देखी है और यूं कहिये कि मजहबी जंग की पैदाइश हैं हम पुश्त दर पुश्त।
इसीलिए मेरा कोई मजहब नहीं।
इसीलिए मेरी कोई सियासत नहीं।
बहरहाल मजहब और सियासत दोनों फिलहाल दरअसल इंसानियत के खिलाफ है।
बहरहाल दरअसल मजहब भी वही,जो सियासत है।
बाकी कानून का राज है और जलवा उसका भी रतजगा खूब देख रहे हम।
ओम थानवी एक्सप्रेस समूह से विदा हो रहे हैं और जाते जाते हम पर एक अहसान कर गये कि हमारे मत्थे एक और संघी बिठा नहीं गये।उनका आभार।
उनका आभार कि हम पर केसरिया मजबूरी सर चढ़कर बोल नहीं सकी अभी तलक।
वरना इस कारपोरेट मीडिया और भारतीय वैदिकी सांस्कृतिक परिदृश्य में संघियों के अलावा कोई काम नहीं है।
खासतौर पर हर शाख पर संघी बैठा है मीडिया जहां में।
हम यहां बेमतलब हैं पेट की खातिर।
गरज यह कि इस मीडिया को हम जैसे कमबख्त की कोई जरुरत नहीं है और न हमें ऐसे धतकरम से कोई वास्ता होना चाहिए।
थानवी जी के बाद हमें चंद महीने यहां गुजारने हैं और फिर सारा जहां हमारा है।
थानवी जी के बारे में पहले ही खूब लिखकर दोस्तों को नाराज कर चुका हूं। अब और लिखने की जरुरत है नहीं।
मौजूदा मीडिया परिदृश्य के संघी कारोबार में अपने सबसे नापसंद संपादक को भूलना फिरभी मुश्किल है वैसे ही जैसे अपने जानी दुश्मन अपने प्रिय कवि त्रिलोचन शास्त्री के बेटे अमित प्रकाश सिंह को भूलना मुश्किल है।
अमित प्रकाश से मेरी कभी पटी नहीं है,सारी दुनिया जानती है।
सारी दुनिया जानती है कि आपसी मारकाट में हम दोनों कैसे तबाह हो गये,वह दास्तां भी।
इस लड़ाई का अंजाम यह कि मीडिया को एक बेहतरीन संपादक का जलवा देखने को ही नहीं मिला।
अमित प्रकाश सिंह मुझे जितना जानते थे,उतना कोई और जानता नहीं।शायद मैं भी उनको जितना जानता हूं ,कोई और जान नहीं सकता।
अमित प्रकाश सिंह से बेहतर खबरों और मुद्दों की तमीज और किसी में देखी नहीं है।
अमितजी भी उतने ही बेअदब ठैरे जितना बदतमीज मैं हूं और जितना अड़ियल थानवी रहे हैं।हम तीनों,और जो हों लेकिन संघी नहीं हो सकते।
मजा यह कि हम तीनों में आपस में बनी नहीं और संघियों में अजब गजब भाईचारा है।
हम लोग लड़ते रहे और मीडिया केसरिया हो गया।
सूअरबाडा़ खामोश है तो रंग बिरंगे नगाड़े भी खामोश हैं।सूअर बाडा़ में हांका कोई लगाये,ऐसा कोई शख्स कहीं नहीं है।
नौटंकी चालू आहे।
पूरब से पश्चिम,उत्तर से दक्किन कयामतों का मूसलाधार है और हम सिरे से दक्खिन हैं।
मुल्क तबाह है और मीडिया मुल्क को बांट रहा है।
पहला बंटवारा तो सियासत ने किया है,कोई शक नहीं।मीडिया कामयाब है फिर उसी बंटवारे को दोहराने में,शक नहीं है।
अब जो मुल्क किरचों में बिखर रहा है,वह सारा मीडिया का किया धरा।
गुजरात और महाराष्ट्र में जलजला है और भीगी भीगी गायपट्टी में सबकुछ गुड़गोबर है।
पंजाब,कश्मीर,मणिपुर और असम समेत पूर्वोत्तर और मध्यभारत में ज्वालामुखी के मुहाने खुलने लगे हैं और समुंदरों से सुनामियों का सिलसिला है कि हिमालय ढहने लगा है।
कहीं किसी को खबर है नहीं।खबरनवीस भी कोई नहीं।
चौबीसों घंटे खबरों का जो फतवा है,नफरत का जो तूफां है खड़ा,वह केसरिया मीडिया का आंखो देखा हाल है।मुल्क बंट रहा है किसी को न खबर है और न परवाह है।
मुझे जो जानते हैं ,बेहतर जानते होंगे कि मैं उधार न खाता हूं और न हरामजदगी बर्दाश्त होती है मुझसे ,न हराम हमारी कमाई है।मुनाफावसूली धंधा भी नहीं है।
मेरे दादे परदादे गरम मिजाज के थे और वे बोलते न थे।उनकी लाठियां बोलती थीं।हमारी पुश्त दर पुश्त सबसे पहले बोलने वाले मेरे पिता पुलिन बाबू थे।
पुश्त दर पुश्त पहले कलमची हुआ मैं।मेरे बाद मेरा भाई सुभाष।अब तो कारवां है।
नगद भुगतान में मेरा यकीन है और तत्काल भुगतान करता हूं। मुझसे जिनका वास्ता या राफ्ता हुआ है ,वे बेहत जानते हैं कि मुझे खौफ कयामत का भी नहीं है।
फिरभी मैं खौफजदा हूं इन दिनों।
मैंने मुल्क का बंटवारा भले देखा न हो,अब तक सांस सांस बंटवारा जिया है और अपने तमाम लोगों को खून से लथपथ मैंने पल छिन पल छिन देखा है।
सीमाओं के आर पार।हिंदुस्तान की सरजमीं मेरे लिए इंसानियत की सरजमीं है और मेरे लिए न पाकिस्तान है,न श्रीलंका है ,न बांग्लादेश है और न कोई नेपाल है।
सारा भूगोल सारा सारा इतिहास तबाह तबाह है,जो असल में साझा चूल्हा है।तबाह तबाह।
मुझे डर है उस महाभारत का जिसमें धनुष उठाओ तो सिर्फ अपने ही मारे जाते हैं।
मुझे डर है उस कुरुक्षेत्र का जहां वध्य सारे निमित्त मात्र हैं और गिद्ध इंसानियत नोंचते खाते हैं और बेटे,पति,पिता के शोक में दुनियाभर की औरतें रोती हैं।
अब वह महाभारत मेरा मुल्क है।
यह महाभारत सियासत ने जितना रचा,उससे कहीं ज्यादा मीडिया ने गढ़ा है।
हम सिर्फ तमाशबीन हैं।
हम सिर्फ तालिबान हैं मजहबी।
हमारी कोई महजबीं कहीं नहीं है।
मेरा मुल्क इंसानियत का मुल्क है।
मेरा मुल्क मजहब से बड़ा है।
मेरा मुल्क बडा़ है सियासत से भी।
मेरा मुल्क मेरी मां का जिगर है।
मेरा मुल्क मेरे मरहूम बाप का जमीर है।
मेरा मुल्क मेरा गांव बसंतीपुर है तो सारा हिमालय और सारा समुंदर और इंसानियता का सारा भूगोल मेरा मुल्क है।
वह मुल्क किरचों में बिखर रहा है।
मेरा खौफ वह बिखराव है।
मेरे सियसती,मजहबी दोस्तों, होश में आओ कि मेरा मुल्क आपका भी मुल्क है जो टूट भी रहा है और बिखर भी रहा है।
इससे बड़ा हादसा कुछ भी नहीं है यारों।
इससे बड़ा मसला भी कुछ नहीं है यारों।
इससे बड़ी कयामत भी कोई नहीं यारों।
मुझ पर यकीन करें कि हमने पुश्त दर पुश्त वह बंटवारा जिया है।
मुझ पर यकीन करें कि हम पुश्त दर पुश्त लहूलुहान हैं।
कुछ भी करो,हमारे इंसानियत वतन बचाने की कोई जुगत करो।
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