Wednesday, September 12, 2012

Fwd: [New post] बांध : विकास नहीं विनाश का पर्याय



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From: Samyantar <donotreply@wordpress.com>
Date: 2012/9/12
Subject: [New post] बांध : विकास नहीं विनाश का पर्याय
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समयांतर डैस्क posted: "हिमालय के स्वभाव में समाहित भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप के खतरों को पनबिजली परियोजनाओं ने बहुगुणित कर "

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बांध : विकास नहीं विनाश का पर्याय

by समयांतर डैस्क

landslideहिमालय के स्वभाव में समाहित भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप के खतरों को पनबिजली परियोजनाओं ने बहुगुणित कर दिया है। उत्तराखंडवासी सोचते थे कि टिहरी बांध के निर्माण, 1991 तथा 1998 के भूकंपों के बाद शायद इन त्रासदी भरे सपनों का अन्त होगा। लेकिन छोटे राज्य के छोटी सोच के अधिसंख्य नेता और तमाम निहित स्वार्थ उत्तराखंड के विकास का आधार सिर्फ पनबिजली परियोजनाओं में देख रहे हैं। यह बहुत से आधारों में एक जरूर हो सकता है।

विकास के बारे में भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। राजनैतिक दलों की सोच बहुत सारे मामलों में आज चाहे एक जैसा हो गया हो, पर विभिन्न समुदायों ने अभी अपनी तरह से सोचना नहीं छोड़ा है। नदियों के पानी के इस्तेमाल के बाबत भी एकाधिक दृष्टिकोण हैं। समाज तथा सरकार के पास सर्वहितकारी दृष्टिकोण को समझने-स्वीकारने का विकल्प रहता है। लोकतंत्र में मनमाना निर्णय स्वीकार्य नहीं है। शायद समाधान का सही रास्ता भी यही है।

उत्तराखंड में छोटी सी खेती की जमीन (जो व्यक्तिगत मिल्कियत में है) और कुछ संजायती संसाधनों (पनघट, गोचर, वन पंचायत क्षेत्र आदि, जो सामाजिक मिल्कियत में हैं) को छोड़कर जंगल, जल और जमीन का बड़ा हिस्सा राज्य (सरकार) के पास है। खेती की जमीन कुल 13 प्रतिशत है। पहाड़ी क्षेत्र, जो उत्तराखंड का 85 प्रतिशत है, में यह प्रतिशत 7 या इससे भी कम है और सीमांत तहसीलों में मात्र 3 प्रतिशत। जंगलात के अन्तर्गत लगभग 65 प्रतिशत क्षेत्र है। यह औपनिवेशिक व्यवस्था आजाद भारत में और 10 साल से अधिक उम्र के हो गए राज्य में प्रचलित है। सरकारें प्राकृतिक संसाधनों को ग्राम समाज को सौंपने के बदले उन्हें बेचने या उनमें समुदायों के अधिकार समेटने पर उतारू हैं। यहां अभी 'अनुसूचित जनजाति और परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) विधेयक 2006' तक लागू नहीं हो सका है। जंगल, जल और जमीन पर तरह तरह के दबाव हैं। निजीकरण और कारपोरेटीकरण के दौर में जनता तथा उसके संसाधनों के रक्षक घटते जा रहे हैं। जिन प्रतिनिधियों को जनता प्रकृति प्रदत्त संसाधनों की हिफाजत के लिए चुनती है, वे इनको बेचने में दिलचस्पी लेने लगे हैं।

हिमालय के स्वभाव में समाहित भूस्खलन, बाढ़ और भूकंप के खतरों को पनबिजली परियोजनाओं ने बहुगुणित कर दिया है। लेकिन छोटे राज्य के छोटी सोच के अधिसंख्य नेता और तमाम निहित स्वार्थ उत्तराखंड के विकास का आधार सिर्फ पनबिजली परियोजनाओं में देख रहे हैं। पनबिजली परियोजनाओं से पहाड़ों में हो रही और मैदानों में होने वाली पारिस्थितिक और सामाजिक क्षति को छिपाया नहीं जा सकता है। इसी तरह पानी और बिजली के रूप में मिलने वाला लाभ भी नहीं छिप सकता है।

इधर के दशकों में नदियां सबसे ज्यादा मनुष्य की ज्यादतियों का शिकार हुई हैं। नहरों ने नदियों पर जो कहर ढाया वह सिंचाई जनित संपन्नता से छिप गया, पर पनबिजली परियोजनाओं से पहाड़ों में हो रही और मैदानों में होने वाली पारिस्थितिक और सामाजिक क्षति को छिपाया नहीं जा सकता है। इसी तरह पानी और बिजली के रूप में मिलने वाला लाभ भी नहीं छिप सकता है। उसका आकर्षण समाज और सरकार की आंखों में गढ़ा रहता है।

एक सदी से अधिक समय से हिमालय में पन-बिजली बन रही है। पन-चक्की की कहानी तो हजार साल से अधिक पुरानी है। इससे पहले पारंपरिक सिंचाई (गूल) व्यवस्था ने पहाड़ों में खेती के एक छोटे हिस्से को सिंचित कर दिया था (इस व्यवस्था का सबसे यादगार उदाहरण 'मलेथा की कूल' है, जिसके पास स्थित लछमोली में 22 जून 12 को झुनझुनवाला दम्पति पर हमला किया गया था)। छोटी योजनाओं में खतरे कम, विस्थापन नहीं और विशाल पूंजी की जरूरत नहीं थी। दार्जिलिंग, शिमला और नैनीताल के बिजली घर बहुत कम पानी से चलते थे और छोटी सी जनसंख्या की जरूरतों को पूरा करते थे। तब हिमालय के अन्तर्वर्ती इलाकों को बिजली या पानी देने का विचार कहीं नहीं था।

आजादी के बाद भाखड़ा-नंगल, पौंग बांध के बाद काली (शारदा) तथा टौन्स/यमुना में बनी परियोजनाओं में विस्थापन तथा अन्य खतरे कम थे। भाबर-तराई के बैराज-बांध या अपर गंगा नहर भी इसी तरह के प्रयोग थे। फिर उत्तराखंड में मनेरी-भाली जैसी मध्यम आकार की परियोजना आई। इसके लिए बैराज बना, टनैल बनी और उत्तरकाशी की बेहतरीन खेती की सिंचित जमीन को बिजलीघर हेतु जबरन लिया गया। ग्रामीणों ने जबर्दस्त प्रतिकार किया, पर सरकार ने नहीं माना। इस परियोजना की सीमा का भान 1978 की भागीरथी बाढ़ तथा 1991 के भूकंप में हो सका, जब गाद से टनैल और बिजलीघर भर गया और टनैल के उपर स्थित जामक गांव में सभी मकान ध्वस्त हो गए और 76 ग्रामीण तथा सभी पशु कालकवलित हो गए। पर सीखना तो जैसे हमें आता ही नहीं। इसके बाद ही मनेरी भाली का दूसरा चरण बना और मनेरी से उपर भैरोघाटी, लोहारीनाग-पाला तथा पाला-मनेरी परियोजनाएं बनने लगी। उत्तरकाशी से भाली तक भागीरथी फिर टनल में डाल दी गई। इससे कुछ आगे तो टिहरी बांध की 60 कि.मी. लंबी विशाल झील है।

विवादास्पद टिहरी बांध निर्माण के साथ सिंधु, सतलज, भागीरथी, अलकनंदा से तीस्ता-सुवर्णसिरी तक हर नदी गिरफ्त में आ गई। इसी क्रम में इन बांधों के विरोध में जन आंदोलन भी शुरू हुए। चिपको आंदोलन के वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर विष्णु प्रयाग परियोजना को बंद किया गया। टिहरी बांध सतत विरोध के बाद भी बना। प्रचार में कहा गया कि यह परियोजना 2400 मेगावाट बिजली बनाएगी और दिल्ली को पानी देगी। अन्तत: 2005 में यह 1000 मेगावाट की बनी, पर इसमें बिजली 300 मेगावाट के लगभग ही बन रही है। अब अति वर्षा में इसे संभालना मुश्किल हो जाता है। कम वर्षा में उत्पादन कम और टिहरी से देव प्रयाग तक भागीरथी गुम हो जाती है। एक लाख (वर्षों तक यह आकड़ा स्थिर रहा जबकि टिहरी परियोजना के आंशिक रूप से पूरा होने में भी 25-30 साल लग गए) से अधिक लोग अपनी मिट्टी से उखड़े, बेहतरीन खेती की जमीन डूबी, एक बड़े क्षेत्र में आने जाने के लिए दूरियां बढ़ गई और रोजगार का आकड़ा ऐसा दमदार नहीं है कि सरकार बता सके।

टौन्स, भागीरथी, भिलंगना, मंदाकिनी, पिन्डर, विष्णु गंगा, धौली (पश्चिमी), सरयू, गोरी, धौली (पूर्वी) में से कोई नदी योजनाओं की गिरफ्त से नहीं बची हैं। एक सूचना के अनुसार उत्तराखंड में कुल 500 से अधिक पनबिजली परियोजनाओं पर कार्य करने की सोची जा रही है। अब 400 मेगावाट की निजी क्षेत्र की विष्णु प्रयाग तो पुन: बन गई, साथ ही धौली और ऋषि गंगा तक (ऋषि गंगा, तपोवन-विष्णुगाड आदि) परियोजनाओं का निर्माण होने लगा। रैणी के जिस जंगल को गौरा देवी और उनकी बहिनों-बेटियों ने 1974 में कटने से बचा लिया था, आज उसके नीचे की पूरी घाटी खुदी-खरौंची पड़ी है। ऋषि गंगा परियोजना नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क से सटी है। अभी फलिंडा (भिलंगना), फाटा-द्यूंग, सिंगोली-भटवाड़ी तथा काली गंगा 1-3 (मंदाकिनी-कालीगंगा), देवसारी (पिंडर), लोहारखेत (सरयू), तथा रुप्सिया बगड़-खसियाबाड़ा (गोरी) परियोजनाएं कम चलने, जन विरोध होने या पर्यावरण विभाग द्वारा रोक लगने के कारण चर्चा में हैं।

अनेक किलोमीटरों तक नदियों को टनलों में डाला जा चुका है और डालने की तैयारी हो रही है। उत्तराखंड के पर्यावरणविद् और आंदोलनकारी बहुत दिनों तक 'रन ऑफ द रीवर' की गलत समझ को पाल रहे थे। 'रन ऑफ द रीवर' तो सिर्फ सुरिंगगाड़ (मुनस्यारी), रामगाड़ (नैनीताल), तिलबाड़ा (रुद्रप्रयाग), कर्मी (बागेश्वर), बदियाकोट (बागेश्वर), आदि परियोजनाओं को ही माना जा सकता है। या टनलों में नदियों के जाने के बावजूद तब माना जा सकता है जब नदी की मूल घारा में वांछित प्रवाह बना रहे। इससे नदी का स्वभाव बदलता है और नदी की खुली गत्यात्मकता रुक जाती है। कहा जा रहा है कि टिहरी बांध से भागीरथी के पानी की मूल गुणवत्ता में असर पड़ा है।

इस प्रकार इन योजनाओं से एक अखिल हिमालयी संकट खड़ा हो गया है। पूर्वोत्तर भारत के 8 प्रांतों में 157 पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण की तैयारी हो रही है। इनमें राज्य सरकारों द्वारा संचालित 30, केंद्र सरकार द्वारा संचालित 13 के मुकाबले निजी क्षेत्र की 114 परियोजनाएं हैं (हिंदू: 2 जून 2012)। यही स्थिति उत्तराखंड में भी है। इससे मुनाफे के आकर्षण और निजी कंपनियों के राजनीति से संबंधों का अनुमान लगाया जा सकता है। पूर्वोत्तर में भी बांधों के विरोध में लगातार आंदोलन हो रहे हैं। सिक्किम में तो वहां के मुख्य मंत्री ने तीस्ता नदी के कुछ बांध रोक दिए हैं। काली नदी पर पंचेश्वर बांध इसलिए रुका पड़ा है क्योंकि अभी नेपाल में राजनैतिक स्थिरता आनी शेष है।

hydro-power-projects-in-uttarakhandइनमें से किसी परियोजना पर स्थानीय जनता की कभी राय नहीं ली गई। उत्तराखंड में विरोध करना कठिन होता गया। फिर भी गोरी, सरयू, पिंडर, धौली, मंदाकिनी तथा भिलंगना घाटियों में इन पनबिजली परियोजनाओं का जनता द्वारा विरोध किया जाता रहा। इस विरोध को सिर्फ मामूली और खंडित नहीं कहा जा सकता है। फलिंडा, फाटा, सिंगोली, देवसारी, लोहारखेत आदि में दमन और गिरफ्तारियां होती रही हैं। जन सुनवाइयां हुई और जांच कमेटियां भी बैठी। कभी कभी न्यायालय भी जनता और प्रकृति के पक्ष में आए। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने दरअसल 56 परियोजनाओं को रोक दिया और स्पष्ट कहा कि बिना पूरी पारिस्थितिक पड़ताल के परियोजना की स्वीकृति नहीं दी जा सकती है। पर हिमालय की नदियों के इस्तेमाल के बाबत कोई स्पष्ट राष्ट्रीय नीति विकसित करने का प्रयास ही नहीं हुआ।

पिछले दो-तीन सालों से प्रो. जी. डी. अग्रवाल आदि तथा विभिन्न संत-शंकराचार्यों ने गंगा की निर्मलता और अविरलता को कायम रखने की मांग की। भूख हड़ताल/अनशनों/तपस्या का क्रम चला। 1985 में स्थापित 'केंद्रीय गंगा प्राधिकरण' तथा 1986 से प्रारम्भ 'गंगा कार्य योजना' (फरवरी 2009 में लोक सभा चुनाव के समय इसे 'राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण' बनाया गया) के माध्यम से गंगा को बचाने का प्रयास शुरू हुआ। 1979 से यह काम केंद्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कर रहा था। 'गंगा कार्य योजना' के पहले चरण के लिए 350 करोड़ रुपए का बजट रखा गया। यह चरण 2000 में पूरा होना था, पर 2008 तक बढ़ाया गया। 'गंगा कार्य योजना' के दूसरे चरण के लिए 615 करोड़ रुपए की स्वीकृति हुई। 5 राज्यों में गंगा की सफाई तथा सुव्यवस्था हेतु कुल 270 परियोजनाएं बनी। 'गंगा कार्य योजना' भ्रष्टाचार, सरकारी ढील और जनता को न जोड़ पाने के कारण पूरी तरह असफल रही। पर यह योजना पूरे भारतीय गंगा बेसिन के लिए थी। उत्तराखंड में हरिद्वार से उपर तो इसके अन्तर्गत कुछ हुआ ही नहीं।

पुन: 'राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण' में यह मामला उठा। इतने व्यय और बरबादी के बाद भागीरथी घाटी की तीन परियोजनाएं (भैरोघाटी, लोहारीनाग-पाला तथा पाला-मनेरी) समेट ली गई। हाल ही में श्रीनगर परियोजना को रोकने का निर्णय आया। निजी हाथों की 300 मेगावाट की यह योजना तब चर्चा में आई जब दो बार काफर बांध टूट गया और बांध की उंचाई को बिना पर्यावरण मंत्रालय की स्वीकृति के कंपनी द्वारा बढ़ा दिया गया था। तब वन सलाहकार समिति तथा भारतीय वन्य जीव संस्थान ने इस परियोजना के निर्माण के विरुद्ध निर्णय दिया। इसी तरह रुप्सिया बगड़-खसियाबाड़ा (गोरी) को भी फिलहाल रोका गया है।

पूछा जा रहा है कि जिन परियोजनाओं का काम इतना आगे बढ़ गया था, उन्हें बंद करने का क्या तुक था। यदि बंद की जानी थीं तो वे शुरू ही क्यों की गई थीं? क्या टिहरी बांध बनाने के बाद इतना भी नहीं सीखा जा सका? यानी उनको शुरू ही नहीं किया जाना चाहिए था। पर अधिकतम पारिस्थितिक विनाश के बाद उन्हें बंद किया गया। भिलंगना, मंदाकिनी, धौली, पिंडर, सरयू तथा गोरी आदि नदियों में नई परियोजनाओं को रोका जा सकता था। पर कुछ सीखने के बदले अब भागीरथी घाटी से अलकनंदा, इसकी सहायक तथा अन्य नदियों की तरफ रुख हुआ। इस बीच योजनाओं के प्रत्यक्ष और मूक समर्थक भी उभर आए थे। तरह तरह के आर्थिक स्वार्थ अब तक विकसित हो चुके थे। नए राज्य ने रोजगार के अवसर तो नहीं बढ़ाए पर रोजगार की आकांक्षा जरूर बढ़ा दी। आर्थिक स्वार्थ से बड़ा न सांस्कृतिक स्वार्थ होता है और न ही आध्यात्मिक स्वार्थ। फिर, राजनैतिक स्वार्थ सर्वोपरि और निर्णायक सिद्ध हुए।

राजनैतिक पार्टियों और नेताओं का सघन स्वार्थ इन परियोजनाओं से जुड़ा रहा। उत्तराखंड की हर सरकार और हर मुख्यमंत्री (उत्तराखंड में इन 10 सालों में 6 मुख्यमंत्री रहे) की इन परियोजनाओं पर एक सी राय रही है। भाजपा के कुछ लोग और कतिपय संत गंगा की पवित्रता तथा उसके भारतीय जीवन में स्थान की चर्चा करते थे। गंगा को 'राष्ट्रीय नदी' घोषित करने की मांग के बावजूद भ्रम कायम रहा। उमा भारती ने भी दो तरह के वक्तव्य दिए। केंद्र सरकार ने दबाव में कुछ कठिन निर्णय लिए, जिनका विरोध कर प्रदेश सरकार ने एक ओर 56 पनबिजली परियोजनाओं का ठेका दे दिया, जिसे उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश के कारण स्थगित करना पड़ा, दूसरी ओर लाखों रुपए (कुछ लोग यह राशि एक करोड़ रुपया मानते हैं) अपनी पार्टी की नेत्री हेमा मालिनी को देकर उन्हें 'स्पर्श गंगा अभियान' का दूत बनाया। कुंभ नेताओं और नौकरशाहों के लिए धन तथा भक्तों के लिए पुण्य कमाने का मौका था, गंगा की हिफाजत का नहीं!

बांध समर्थक अपने विरोधियों से सदा कुतर्क आधारित युद्ध करते रहे। सरकारी विज्ञान आधारित ये निर्णय सदा अस्थिरता के शिकार रहे। एक तरफ गंगा की पवित्रता और भारतीय संस्कृति में उसकी केंद्रीयता की चर्चा होती, दूसरी तरफ गंगा के किनारों पर हो रहे नगरीकरण और विकृत औद्योगीकरण की चर्चा नहीं होती। गंगा के समग्र जलागम और उसके जनसंख्यात्मक परिदृश्य पर भी नजर नहीं डाली जाती, जो चार एशियाई देशों और ग्यारह भारतीय प्रांतों में फैला है। कुछ लोग अभी भी भागीरथी को गंगा समझते हैं। कुछ लोग उसमें अलकनंदा तथा उसकी बहिनों को जोड़ देते हैं। कुछ और लोग सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र के जलागम को छोड़ शेष उत्तरी भारत में गंगा का बेसिन देखते हैं। इस तरह इसमें शिमला के पूर्वी ढाल से कंचनजंगा के पश्चिमी ढाल (वरुण नदी का जलागम) तक और विन्घ्य पर्वत के उत्तरी ढाल (शिप्रा/उज्जैन) से चोमोलंगमा (एवरेस्ट) के उत्तरी ढाल तक (नेपाल की अरुण तथा विभिन्न कोसी नदियां) का भौगोलिक विस्तार आता है। इनमें से करनाली और कोसी नदियां तो तीन राष्ट्रों -चीन (तिब्बत), नेपाल और भारत-में बहती हैं।

गंगा जहां दुनिया की पवित्रतम नदी है, वहीं सर्वाधिक प्रदूषित दस नदियों में से एक है। इसका बेसिन भारत के क्षेत्रफल के 26 प्रतिशत में फैला है और यह देश के कुल पानी का 25 प्रतिशत देती है (यह प्रतिशत सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र के साथ क्रमश: 9.8/7.8 तथा 4.28/33.71 प्रतिशत है)। गंगा का जलागम भारत में 861404 वर्ग कि.मी. (समस्त गंगा जलागम का 79 प्रतिशत) में फैला हुआ है और इसके बेसिन में आज कम से कम 52 करोड़ लोग 100 से अधिक नगर-कस्बों तथा हजारों गांवों में निवास करते हैं। सरकारी अध्ययन यह बताते हैं कि गंगा बेसिन मेें रोज 12000 मिलियन (1200 करोड़) लीटर मल पैदा होता है, पर इसमें से मात्र 4000 मिलियन (400 करोड़) लीटर का शोधन हो पाता है। 3000 मिलियन (300 करोड़) लीटर मल सीधे गंगा में जाता है। कुल प्रदूषण का 20 प्रतिशत उद्योगों से आता है, जो मुख्यत: मैदानी क्षेत्र में हैं। नरौरा परमाणु संयंत्र भी यहीं स्थित है, जिसके लिए आधी गंगा यानी 300 क्यूसेक पानी लिया जाता है और फिर उसे गंगा में ही वापस कर दिया जाता है।

1986 में राजीव गांधी ने बहुत उत्साह से 'गंगा कार्य योजना' लागू की, पर यह नाकाफी और बेमानी सिद्ध हुई क्योंकि यह किसी स्पष्ट समझदारी से नहीं बनायी गई थी और इसके कार्यान्वयन का स्पष्ट खाका विकसित नहीं हुआ था। सिर्फ पैसे से नदियों की हिफाजत नहीं की जा सकती है। दृष्टि के अभाव, बीमारी की पूरी पड़ताल और तीमारदारी की ईमानदार कोशिश न होने से करोड़ों रुपया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। बाद में जानकार-समझदार-भावना भरे लोग भी इस नए बोर्ड में लिए गए थे, पर शोभा के वास्ते। इसमें प्रभुत्व तो नेताओं का ही था।

दूसरी ओर इन परियोजनाओं ने दो तरह के मुंहों में खून लगाया। एक स्थानीय ठेकेदारों और नेताओं के, दूसरे राष्ट्रीय ठेकेदारों और नेताओं तथा उनकी पार्टियों के। स्थानीय समाज के एक हिस्से के स्वार्थ भी इनसे जुड़ते गए। इनके मुकाबले जन आंदोलन सिमटे तथा सहमे थे। यदि आंदोलन जरा प्रकट हुए तो प्रशासन, न्याय व्यवस्था और मीडिया का अधिकांश इन्हें अपने पैरों पर खड़ा होने ही नहीं देता था। दमन, गिरफ्तारी, जेल तथा जुर्माने के बीच बिखरी जनसंख्या वाले विभाजित तथा दलालग्रस्त समाज में आंदोलन को आगे ले जाना कठिन होता गया। भिलंगना घाटी में दर्जनों ग्रामीणों की गिरफ्तारियों के बाद मंदाकिनी घाटी में सुशीला भंडारी, जगमोहन झिंक्वाण तथा गंगाधर नौटियाल की गिरफ्तारी अभी सबकी स्मृति में हैं। पिंडर तथा सरयू घाटियों का संघर्ष भी कम यादगार नहीं रहा।

प्रशासन का समर्थन तो बांध निर्माताओं को निरंतर मिलता है और निर्माण कंपनियों के एजेंट और मजदूर बांध समर्थक आयोजनों में देखे गए हैं। दूसरी ओर हर घाटी में यदि ठेकों, रोजगार और निहित स्वार्थों के कारण बांध समर्थक हैं, तो वहां बांध या परियोजना के विरोधी भी हैं। ये कम संगठित हो सकते हैं, पर इन्हीं से बार बार नई लड़ाइयां विकसित हुई हैं। ऐसा नहीं है कि यह विरोध अखबारों, इलेक्ट्रानिक मीडिया और ई-मेलों में जी.डी. अग्रवाल, राजेंद्र सिंह; कतिपय संत-शंकराचार्य या उमा भारती जैसे लोगों के मार्फत ही आ रहा हो। अपनी जमीन, जंगल, जल और जैविक आधार को न छोडऩे का संकल्प लिए ये साधारण लोग दमन, जेल, अनेक धाराओं में फंसाए जाने और पास पड़ोस के लोगों के विरोध की असाधारण स्थिति के बावजूद भी डिगे नहीं हैं। ये किसी नेता, संस्था या एन.जी.ओ. द्वारा संचालित नहीं, बल्कि अपनी जमीन से न उखडऩे का संकल्प लिए लोग हैं। मुश्किल यह है कि कार्यपालिका, विधायिका और कुछेक बार न्यायपालिका मेें भी उत्तराखंड के साधारण लोगों को अपने और उचित पक्ष के समर्थक नहीं मिल पा रहे हैं।

दूसरी ओर जी.डी. अग्रवाल, संत-शंकराचार्य और उमा भारती जैसे लोग गंगा और अन्य नदियों को लेकर विवेक सम्मत दृष्टि विकसित नहीं कर सके हैं। उनमें आपसी मतभेद बहुत थे और हैं। हरिद्वार से चार धामों के बीच तथा हरिद्वार से गंगा सागर तक इन संतों तथा उनके मठों की अपार संपत्ति हैं और लाखों की संख्या में उनके भक्त हैं। उनमें से बहुत से संत कांग्रेस तथा भाजपा के बीच बंटे हैं। और तो और शंकराचार्य भी दोनों खेमों में हैं। एक श्ंाकराचार्य बांधों के विरोध में प्रधानमंत्री से मिल रहे है और दूसरे शंकराचार्य बंाधों के पक्ष में खड़े हैं। गंगा के आसपास खनन के खिलाफ स्वामी निगमानंद ने हरिद्वार में अपने प्राण दे दिए, पर स्वामी रामदेव सहित कोई बड़बोला संत इससे चिंतित नजर नहीं आया। खनन उन्हीं पार्टियों के नेता या उनके चेले कर रहे हैं, जिनसे कतिपय और संत जुड़े हुए हैं।

गंगा का मुद्दा राजनैतिक, धार्मिक और अध्यात्मिक तो बन गया पर नैतिक, पारिस्थितिक और राष्ट्रीय नहीं बन सका। इसे भावनात्मक तो बनाया जा रहा है, पर तार्किक नहीं। सीमित हिंदू नजर से गंगा को देखने वालों को कैसे बताया जाए कि गंगा राही मासूम रजा या कृष्णनाथ जैसे करोड़ों मुसलमानों और बौद्धों की मां भी है। हमारा सामाजिक विकास ऐसा हुआ है कि 2012 में गंगा आरती में उत्तराखंड के राज्यपाल शामिल नहीं हो सकते हैं क्योंकि वे मुस्लिम हैं। आम लोगों के न जुडऩे का बड़ा कारण था कि संत-शंकराचार्य समूह मानव अस्तित्व के मुकाबले आस्था को ऊपर रख रहे हैं। उन्हें गंगा के बेसिन में या अपने भक्तों मेें गरीबी, जलालत या पिछड़ापन नजर नहीं आता है।

जी.डी. अग्रवाल, राजेंद्र सिंह आदि ऐसा लगता है कि जनता के बदले संतों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाना चाहते हैं या उनको जनता तक नहीं जाने दिया जा रहा है? गंगा को 'राष्ट्रीय नदी' घोषित करने मात्र से क्या संकट का समाधान हो जाएगा? जब तक आम लोगों के संसाधनों, खेती, रोजगार, शिक्षा, पलायन तथा चिकित्सा की दिक्कतों को नहीं समझा जाता आप उनसे और वे आपसे नहीं जुड़ सकते हैं। इस एक दशक में उत्तराखंड में खेती की जमीन घटी है। वनाधिकारों में इजाफा नहीं हुआ है। बांधों से तो अलग रहा उद्योगों से भी अधिक रोजगार सृजन नहीं हो सका है। यदि 20 लाख शिक्षित बेरोजगार उत्तराखंड में हैं, तो उत्तराखंडी मूल के 40 लाख से अधिक लोग उत्तराखंड से बाहर हैं। यह डेढ़ सदी से अधिक समय से चल रहे आर्थिक इतिहास से जनित परिणाम है। एक व्यापक और समझदारी युक्त जन आंदोलन से कम में यह प्रभावी हो ही नहीं सकता है। गंगा और इस बेसिन के समाज के लिए मरने की नहीं, सुसंगठित तरीके से जीने की और लडऩे की जरूरत है। इसलिए न संत छोड़े जाने हैं और न समाज ही।

प्रो. अग्रवाल तथा साथियों द्वारा जनित दबाव को बिना कम माने गंगा/भागीरथी की अत्यन्त चुनिंदा पवित्रता (गोमुख से उत्तरकाशी तक 135 कि.मी.) के उनके सिद्धांत से सहमत नहीं हुआ जा सकता है। पवित्रता से वैसे भी पेट नहीं भरता है। पर पेट भरने के जो रास्ते हैं उनमें भी पवित्रता इससे नहीं आती है। उनसे पहले विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने टिहरी बांध के खिलाफ लगातार जूझते रहे। सुंदर लाल बहुगुणा तथा साथियों को दिया धोखा किसी से छिपा नहीं है। उन्हें तभी लग गया था कि 'गंगा नदी' का मामला 'राम' की तरह तात्कालिक रूप से भी लाभकारी नहीं हो सकता है। अत: वे संघर्ष को जल्दी ही छोड़ गए। अब उमा भारती लौटी हैं तो गंगा सागर से गोमुख जाएंगी क्योंकि उन्हें फुरसत है। शायद उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में उनकी अधिक राजनैतिक जरूरत फिलहाल नहीं है।

उत्तराखंड के नए-पुराने आंदोलनकारियों, नदी बचाओ आंदोलन से जुड़े लोगों ने स्पष्ट कहा है कि नदियों की हिफाजत सबसे पहला काम है। फिर उनका सदुपयोग हो। मनमाने तरीके से नदियों की नीलामी किसी को स्वीकार्य नहीं है। 'रन ऑफ द रीवर' योजनाओं की स्वीकृति दी जा सकती है, पर समाज की सहमति तथा संतोषजनक विस्थापन के बाद। इसमें भी नदी में बहने वाला पानी निश्चित हो। साथ ही हर परियोजना में स्थानीय समाज को हिस्सेदार की हैसियत देना जरूरी है। इसीलिए छोटी और मध्यम दर्जे की योजनाओं को मान्यता देना स्वीकार किया गया। नदियां निजी कंपनियों को न बेची जाए। ग्राम समाज अपनी परियोजनाएं बनाए।

गंगा के मामले में विज्ञान तथा धर्म-संस्कृति के लोगों की राय निर्विवाद नहीं हो सकी। हमारा ज्यादातर विज्ञान 'बड़े' का समर्थक है, जिनसे 'जन विज्ञान' पर काम करने की उम्मीद थी वे अपने को स्थापित करने में रम गए। उन्होंने यहां के भूगोल को गहराई से जानने की कोशिश नहीं की। वे 15, 000 गांवों (जिनमें आधे से अधिक गांव पानी की किल्लत झेल रहे हैं) वाले उत्तराखंड में 60 हजार से ज्यादा घराट बताते रहे हैं। गैर बरफानी नदियों में पानी का घटना उन्हें नहीं नजर आता है। उन्हें याद दिलानी पड़ती है कि हरिद्वार से टनकपुर तक उत्तराखंड में कोई बरफ ानी नदी नहीं बहती है।

भरत झुनझुनवाला ने अवश्य बौद्धिक, वैज्ञानिक और विधि के जानकार की हैसियत से बांधों के विरोध को तमाम आयामों में प्रस्तुत किया। कुछ ही साल पहले तक वह स्वयं बांध समर्थक थे (उस दौर में जी.डी. अग्रवाल बांधों के विरोध में जोर से बोले भी हों, तो ऐसा आम लोगों को पता नहीं है) पर गहराई में जाने पर उनकी आंखें खुली। झुनझुनवाला ने उत्तराखंड में बसने का निर्णय लिया। कदाचित किताबों से जमीन पर आने के बाद वे बड़े बांधों के खतरों को समझ सके हों। वे एक स्वतंत्र विद्वान के रूप में उत्तराखंड के समाज को मिले। पर वे आंदोलन के सहयोगी ही हो सकते हैं, पूर्ण आंदोलनकारी नहीं। आंदोलनकारी तो उन्हीं गांवों से उगने चाहिए, जो उजाड़े जा रहे हैं। निश्चय ही यह कठिन सपना है।

भारत सरकार ने 'टालो और राज करो' के तहत श्री बी.के. चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक कमेटी बिठा दी है, पर हिमालय से निकलने वाली नदियों के जलोपयोग पर कोई सार्थक नीति विकसित होने की उम्मीद नहीं है। आज की ऊर्जा जरूरतों तथा इसकी कमी से सभी सुपरिचित हैं। अत: प्रदेश सरकार ग्रीन बोनस की मांग करे। प्रदेश सरकार कहे कि अपनी मिट्टी, पानी और जंगलों के माध्यम से यह क्षेत्र पूरे उत्तरी भारत को जो दे रहा है उसके बदले में राज्य को आर्थिक पैकेज दिया जाए। जब उत्तर प्रदेश और बंगाल को राजनैतिक ब्लैकमेलिंग पर इतने बड़े आर्थिक पैकेज दिए जा सकते हैं, तो उत्तराखंड को सबसे बड़े पारिस्थितिक तथा संास्कृतिक तर्क पर आर्थिक पैकेज क्यों नहीं दिया जा सकता है!

लेकिन यह भी ऊर्जा का विकल्प नहीं है। अत: असली अर्थों में 'रन ऑफ द रीवर' योजनाओं को स्वीकृति भी दी जानी चाहिए, जिनमें मूल नदी में निश्चित प्रवाह बनाए रख कर और बांध तथा टनल के बिना ऊर्जा उत्पादन हो सकता हो, जैसा पहले की परियोजनाओं में था। बेशक ये योजनाएं छोटी होंगी और अधिक संख्या में होंगी। सौर ऊर्जा को और अधिकतम महत्त्व दिया जाए। उत्तराखंड में 250 से अधिक 'सूर्य दिवस' मिलने का अनुमान है। जब अनेक कारणों से जल विद्युत तथा परमाणु ऊर्जा पर विस्थापन तथा सुरक्षा संबंधी शंकाएं की जा रहीं हैं; मानसून विलंबित-विखंडित हो रहा है तथा जलवायु परिवर्तन के नकारात्मक असर देखे जा रहे हैं, तो ऊर्जा के राष्ट्रीय बजट का बड़ा हिस्सा सौर ऊर्जा तथा अन्य ऊर्जा अनुसंधानों में लगे।

अति उपभोग के खिलाफ भी वैज्ञानिक, बुद्धिजीवी, संत और नेता सबको बोलना चाहिए। नीतियां तथा कानून स्पष्ट हों। अमेरिका की तरह 'वाइल्ड एंड सिनिक रीवर एक्ट' बने और लागू हो ताकि किसी नदी के बहने का प्राकृतिक अधिकार कायम रहे। छत-आंगन, चाल-खाल-ताल हर जगह वर्षा के पानी को रोका जाए ताकि सभी स्रोतों और नदियों को पानी और प्रवाह मिले। पानी के इस्तेमाल में किफायत भी बरती जाए। बहु राष्ट्रीय (पूरे गंगा बेसिन के संदर्भ में) तथा बहु प्रांतीय नदियों के प्रबन्ध तथा जलोपयोग पर गंभीर बहस हो और सर्व सम्मत राय बनाई जाए।

पारिस्थितिकी और विकास के अन्य आयामों पर नजर डाली जाए। क्या आज गंगा तथा अन्य नदियों में मुर्दे बहाने और जलाने का औचित्य है? क्या हमें कहीं से भी नदियों में मल, कूढ़ा, रसायन या कुछ भी प्रदूषित करने का अधिकार है? क्या करोड़ों लोगों को एक साथ हरिद्वार या इलाहाबाद आने की जरूरत है? क्या हिमालय या उत्तराखंड में विकेंद्रीकृत जन पर्यटन विकसित नहीं होना चाहिए? इन मुद्दों को कोई धर्माचार्य, नेता, वैज्ञानिक तथा सामाजिक कार्यकर्ता उठायें तो अच्छा होगा। ऐसे ही पूरे बेसिन में पॉलीथीन प्रतिबंधित हो। नाजुक हिमालयी इलाकों में जाना प्रतिबंधित/नियंत्रित हो। गांवों तक मोटर जानी चाहिए पर तीर्थों-बुग्यालों तक नहीं। कुछ नाजुक बसासतों तक सुरक्षित पैदल सड़क जा सकती है। पूर्वोत्तर की तरह हमारे भोटांतिकों में रियायती हेलीकाप्टर सेवा उपलब्ध कराई जाए। जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पक्षों के साथ ग्लेशियरों तथा मानसून की प्रवृत्ति बदलाव का लगातार गहन अध्ययन हो ताकि कोई एकाएक न कह सके कि 2035 तक हिमालय तथा तिब्बत के ग्लेशियर पिघल कर बह जाएंगे। अगर ऐसा होता है तो हिमालय में मनुष्य की हिफाजत कैसे हो?

हिमालय के तमाम पक्षों पर गहन अध्ययन-विश्लेषण के साथ दुनिया भर में हो रहे हिमालय संबंधी अध्ययनों का सदुपयोग हो और गतिशील, नाजुक तथा युवा हिमालय के मिजाज के मुताबिक विकास तथा पारिस्थितिकी का संतुलन किया जाए। प्राकृतिक संसाधनों की हिफाजत की जाए और उनका तथा विज्ञान-तकनीक का जन और प्रकृति हित में उपयोग हो।

आज कुछ संत टिहरी बांध तोडऩे को तत्पर हैं, कुछ और संत गंगा के लिए प्राण देने को तैयार हैं। दूसरी तरफ व्यापारी, उद्योगपति, माफिया, नेता (कुछ सांसद इसका विरोध भी कर रहे हैं) और इन्जीनियर बांधों को बनाने के लिए हुंकार भर रहे हैं। सोच रहे हैं कि सिर्फ पूंजी से सब कुछ खरीदा जा सकता है। दलाल लोग दोनों तरफ नजर रखे हैं। आंदोलनकारी तथा जन विज्ञान से जुड़े लोग विज्ञान सम्मत तथा व्यवहारिक नीति चाहते हैं। आम जनता इन सबका मध्यमान चाहती है। गंगा रहे, गंगा के जलागम की बर्फ रहे, बुग्याल और जंगल रहें और समाज रहे। सावधानी से ऊर्जा उत्पादन हो। वह जानती है कि नदियां हमारे अस्तित्व को संभव बनाती हैं। यदि अस्तित्व है, तो आस्था भी रह सकती है।

निंदनीय

22 जून 2012 को श्रीनगर (गढ़वाल) में जी.डी. अग्रवाल, राजेंद्र सिंह तथा भरत झुनझुनवाला तथा श्रीमती झुनझुनवाला के साथ जो नियोजित तरीके से बदसलूकी की गई और हिंसक हमला किया गया वह सर्वथा निंदनीय है। यह शर्मनाक है कि झुनझुनवाला दम्पति को स्थाई रूप से उत्तराखंड में निवास करने के बावजूद कोई सुरक्षा नहीं मिल सकी। उक्त सभी गंगा तथा सहायक नदियों में बांध बनाने का विरोध करते रहे हैं। उन्हें अपनी बात कहने का उतना ही हक है, जितना किसी को बांधों का समर्थन करने का। इस हेतु उक्त निंदनीय, अलोकतांत्रिक तथा असंवैधानिक कार्य की जरूरत नहीं थी।

इस बीच बांधों के कुछ नए समर्थक उभर आए। इनमें ठेकेदार और रोजगार के नाम पर छले गए युवाओं के अलावा निर्माण कंपनियों के आदमी और एजेंट थे। पर उत्तराखंड में सबसे आश्चर्यजनक था एक एन.जी.ओ. प्रमुख, एक कवि और एक पत्रकार का संयुक्त रूप से बांधों को समर्थन देना। मुख्यमंत्री और इनकी एक सी भाषा भृकुटि थी। ये लोग अपने 'पद्मश्री' सम्मान छोडऩे और भूख हड़ताल पर बैठने की घोषणा भी कर चुके हैं (कुछ लोग यह भी पूछने लगे हैं कि इन प्रतिष्ठितों ने उत्तराखंड आंदोलन में 43 से अधिक लोगों के मारे जाने और मुजफ्फर नगर के बलात्कारों के बाद या उत्तरकाशी की तीन परियोजनाओं को रोके जाने के बाद 'पद्मश्री' क्यों नहीं छोड़ी होगी!)।

सबसे शर्मनाक यह बात रही कि उन्होंने उन चार व्यक्तियों को सम्मानित किया, जो भरत झुनझुनवाला के साथ मारपीट के आरोपी हैं। इनके साथ अपने गांवों और अपनी जड़ों से कटे कतिपय नेता, कुछ वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी जुट गए। सत्तारूढ़ दल के एक मंत्री ने राज्य के बांध अधिकारों की सुरक्षा के लिए दिल्ली में अनशन किया है। कुछ लोग अब धारी देवी मंदिर या पंच प्रयागों को दांव में लगाने को तैयार हैं। इस माहौल को बनाने में कुछ संतों और उनके सहयोगियों का भी योगदान रहा क्योंकि उन्होंने ठगे से रह गए पर्वतवासियों के प्रश्नों को जानने-समझने की कभी कोशिश नहीं की।

दूसरी ओर सबसे दुखद पहलू यह है कि बांध समर्थक भद्रजन सिर्फ इन पनबिजली परियोजनाओं में ही पर्वतीय विकास देख रहे हैं। उन्हें जमीन, जंगल, पर्यटन, पलायन-प्रवास, बेरोजगारी, खनन, अपराध और नशे का फैलता तंत्र, भ्रष्टाचार, नेता-नौकरशाह-माफिया गठजोड़ जैसे पक्ष नहीं दिखाई देते हैं। कल वे लोग मसूरी में खनन की मांग कर सकते हैं। परसों पहाड़ की जमीन को बिना किसी दिक्कत के बेचने का कानून बनवा सकते हैं। फिर जंगलों को कारपारेट की दुनिया वालों को लीज पर देने हेतु भूख हड़ताल पर जा सकते हैं। वे एक मनचले विधायक की तरह पर्वतवासियों के तराई-भाबर में उतरने से वहां के संतुलन के गड़बड़ाने की बात भी कर सकते हैं। एक नेता ऐसा ही मुम्बई में कर रहा है।

बांध समर्थक भद्रजनों ने हिमाचल, सिक्किम और पूर्वोत्तर भारत में चल रहे बांध विरोधी आंदोलनों को नजरअंदाज किया है और विभिन्न सरकारों द्वारा जन दबाव के तहत बांधों को हटाने बाबत लिए गए निर्णयों को भी। दलाल तो इस देश में सर्वत्र हैं, पर राजधानियों में इनकी संख्या अधिक होने लगी है। कई अनुभवी लोग कहते हैं कि जितने दलाल देहरादून में हैं, उतने लखनऊ में नहीं थे। अनेक बार ये लोग रंग बदलने के साथ जनभावनाओं का प्रतीक भी अपने को बताने लगते हैं।

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