Friday, September 21, 2012

पुलिस और सांप्रदायिक दंगे डाॅ. असगर अली इंजीनियर

डाॅ. असगर अली इंजीनियर

पुलिस और सांप्रदायिक दंगे


प्रथम दृष्टया, यह अत्यंत घिसापिटा विषय लगता है। सांप्रदायिक फसादों के दौरान और उनके बाद व पहले, पुलिस की भूमिका के बारे में पूर्व से ही हम सब बहुत-कुछ जानते हैं। हाल में, राज्यों के पुलिस महानिदेशकों और महानिरीक्षकों के दिल्ली में आयोजित सम्मेलन में अपने उद्घाटन भाषण में, प्रधानमंत्री ने देश में सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाओं पर गहरी चिंता जाहिर की थी। इस सम्मेलन में गुप्तचर सेवाओं के अधिकारियों ने भी भाग लिया था। स्पष्टतः, जब देश के प्रधानमंत्री किसी समस्या पर चिंता व्यक्त करते हैं तब उसे हम सभी को गंभीरता से लेना चाहिए।
इस वर्ष के पहले चार महीनों के दौरान देश में साम्प्रदायिक हिंसा की कोई वारदात नहीं हुई और मुझे लगने लगा कि दंगा-मुक्त वर्ष का मेरा सपना पूरा होने जा रहा है। परंतु मेरा यह स्वप्न जल्दी ही टूट गया। उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों में दंगे भड़क उठे। देश के अन्य हिस्सों में भी सांप्रदायिक हिंसा हुई। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के सत्ता में आने के बाद से वहाँ सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में वृद्धि हुई है। इससे एक बार फिर यह जाहिर हुआ है कि दंगों के पीछे राजनैतिक मंतव्य होते हैं और धर्म का इनसे कोई लेनादेना नहीं होता। राजनैतिक उद्देश्यों से धार्मिक पूर्वाग्रह फैलाए जाते हैं।
दंगो के मामलों में पुलिस की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पुलिस को गुप्तचर सूचनाएं इकट्ठा करनी होती हैं, शरारती तत्वों की पहचान कर उन्हें पहले से गिरफ्तार करना होता है, हिंसा शुरू हो जाने की स्थिति में उसे रोकना होता है और दंगे समाप्त हो जाने के बाद, दंगाईयांे को कानूनी तंत्र के जरिए ऐसी सजा दिलवानी होती है ताकि वे आगे से हिंसा करने की हिम्मत न कर सकें। पुलिस की दंगो के दौरान भूमिका के मेरे कई दशकों के अनुभव के आधार पर मैं यह कह सकता हूँ कि इस वर्ष हुए दंगों में भी पुलिस के व्यवहार में तनिक भी परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ।
यह आश्चर्यजनक है कि उत्तरप्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बावजूद, उत्तरप्रदेश पुलिस के व्यवहार में जरा-सा भी बदलाव नहीं आया है। हम सबको अपेक्षा थी कि मुलायम सिंह, जो कि मुख्यतः मुसलमानो के समर्थन से सत्ता में आए हैं, पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार लावेंगे। परंतु हम सबको निराशा ही हाथ लगी। अगर मुलायम सिंह ने पुलिस की कार्यप्रणाली में कोई बदलाव लाने की कोशिश की भी है तो पुलिस पर उसका कोई असर नहीं दिखलाई पड़ रहा है। पुलिस ने खुलकर दंगाईयों का साथ दिया। ऐसा लग रहा था मानों सत्ता में आने के तुरंत बाद, मुलायम सिंह सरकार को बदनाम करने का षडयंत्र अंजाम दिया जा रहा हो।
मैं इस निष्कर्ष पर भी पहुँचा कि शासन चाहे किसी भी पार्टी का क्यों न हो, पुलिस का व्यवहार एक सा ही बना रहता है। पुलिसकर्मियों के दिमागों मंे इतना जहर भर दिया गया है कि तुलनात्मक रूप से अधिक धर्मनिरपेक्ष सरकार के अधीन भी वे वैसा ही व्यवहार करते रहते हैं। परन्तु फिर, हमारे सामने बिहार और पश्चिम बंगाल के उदाहरण भी हैं, जहां लालू प्रसाद यादव और ज्योति बसु व बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व वाली सरकारों के कार्यकाल में, क्रमशः 15 और 30 वर्षों तक कोई बड़ा साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। बिहार और पश्चिम बंगाल में क्रमशः नितिश कुमार और ममता बेनर्जी के नेतृत्व मंे भी साम्प्रदायिक अमन कायम है।
शायद मुलायम सिंह यादव का व्यक्तित्व उतना मजबूत और चमत्कारिक नही है जितना कि बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों का। यह साफ है कि किसी भी निश्चित नतीजे पर पहुंचने के लिए अत्यन्त गहराई से अध्ययन किये जाने की जरूरत है। प्राथमिक तौर पर हम केवल यही कह सकते हैं कि पुलिस उन मुख्यमंत्रियों की सुनती हैं जो शक्तिशाली होते है और पुलिस का इस्तेमाल अपने राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए नही करते। इन मुख्यमंत्रियों के कम से कम कुछ सिद्धांत होते हैं और वे पुलिस तक सही संदेश पहुंचाने में सफल होते हंै।
यह समझना भी महत्वपूर्ण है कि क्या संपूर्ण पुलिस तंत्र का सांप्रदायिकीकरण हो गया है  या केवल निचले और मध्यम श्रेणी के पुलिस अधिकारी इस रोग से ग्रस्त हैं। एक बार, हैदराबाद की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में एक संगोष्ठी के दौरान, मैने यह मत व्यक्त किया कि पुलिस के उच्च अधिकारी, निचले और मध्यम स्तर के अधिकारियों की तुलना में कम साम्प्रदायिक और जातिवादी हैं। एक वरिष्ठ आई.पी.एस अधिकारी, जो कि मेरी ही तरह अकादमी में व्याख्यान देने आये थे, ने मुझसे असहमती जताते हुए कहा कि वरिष्ठ अधिकारी तो अपने मातहतों से कहीं ज्यादा फिरकापरस्त और जातिवादी हैं। मैने इस पर सिर्फ यही कहा कि आई.पी.एस. अधिकारी होने के नाते वे शायद मुझसे बेहतर जानते हैं।
मेरा स्वयं का अनुभव यह है कि पुलिस के उच्च अधिकारी वर्ग में दोनो तरह के लोग होते हैं- कुछ घोर साम्प्रदायिक तो कुछ पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष। गुजरात इन दोनो तरह के अधिकारियों का अच्छा उदाहरण है। वहां ऐसे आईपीएस अधिकारी थे जिन्होंने मुख्यमंत्री के आगे घुटने टेक दिये और उनके सभी जायज-नाजायज आदेशों को शिरोधार्य किया। कुछ अधिकारी ऐसे भी थे जो नहीं झुके, जिन्होंने अवैधानिक आदेश मानने से इंकार कर दिया और जबरदस्त दबाव के बाद भी जो अपने मत पर दृढ़ रहे। मैने इनमें से दूसरी श्रेणी के अधिकारियों के साथ कई बार कार्यक्रमों में शिरकत की है।
ऐसा भी नही हैं कि वे सब अधिकारी दलित थे। उनमें से कुछ ब्राम्हण सहित अन्य उच्च जातियों के भी थे और कुछ निचली जातियांे के। मंै ऐसे दो आईपीएस अधिकारियों को जानता हूँ जो भाई-भाई हैं, एक ऊँची जाति से आते हैं, पुलिस महानिदेशक के दर्जे के हैं और  जिनकी धर्मनिरपेक्षता किसी भी संदेह के परे हैं। वे अपने पूरे कार्यकाल के दौरान अपने सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध बने रहे और उन्होंने बड़े साहस से साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं का मुकाबला किया।
यह कहा जा सकता है कि इस प्रकार के अधिकारी एक अपवाद हंै और मेरे पास इस तर्क का कोई जवाब भी नही है। परन्तु मैंने ऐसे कई अन्य अधिकारी भी देखे हैं। हैदराबाद की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में आयोजित एक कार्यशाला में पूरे देश से आये प्रोबेशनर आईपीएस अधिकारियों को साम्प्रदायिक दंगो और उन्हें रोकने में पुलिस की भूमिका पर केस स्टडी प्रस्तुत करनी थी। इस कार्यशाला में प्रोफेसर राम पुनियानी और मैं निर्णायक मंडल में थे। कई आईपीएस अधिकारियों का प्रस्तुतिकरण इतना अच्छा था कि मैंने प्रोफेसर पुनियानी से मजाक में कहा कि अब हम लोगों को इस क्षेत्र से सन्यास ले लेना चाहिए क्योंकि युवा पुलिस अधिकारी पहले से ही धर्मनिरपेक्षता के प्रति इतने प्रतिबद्ध है कि उन्हें किसी प्रकार के प्रशिक्षण की आवश्यकता नही है।
यद्यपि यह सच है परन्तु पूरा सच नही। और शायद आने वाले लम्बे समय तक यह पूरा सच नही बन सकेगा। हर धर्मनिरपेक्ष अधिकारी के पीछे विभिन्न स्तरों के अनेक साम्प्रदायिक अधिकारी होते हैं। उनकी जातिवादी और साम्प्रदायिक सोच साफ झलकती है। मैंने बम्बई (1992-93), मेरठ (1987), गुजरात (1985, 2002) व भिवन्डी (1984) दंगो में पुलिस की इस पुर्वाग्रहपूर्ण सोच का अनुभव किया है।
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पूर्वाग्रहग्रस्त अधिकांश अधिकारी निचले दर्जे के थे परन्तु शीर्ष स्तर पर भी, कुछ अपवादों को छोड़ कर, हालात बहुत भिन्न नही थे। मुम्बई में निचले स्तर के अधिकांश पुलिसकर्मी मराठी सामना पढ़ते हैं और मुसलमानों के बारे में सामना की ही भाषा में बात करते हैं। फिर भला हम उनसे कैसे यह उम्मीद करें कि वे उत्तेजना फैलाने वाले लेखन के लिए सामना के विरूद्ध कार्यवाही करेंगे। मुम्बई दंगो के समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री नायक का रवैया देखिए। जब मुम्बई के गणमान्य नागरिकों का एक
प्रतिनिधिमंडल उनसे मिला और दंगों को रोकने का आग्रह किया तो उनका जवाब था कि "आप लोग बाल ठाकरे से मिल लंे क्यों कि वे ही दंगा भड़का रहे हैं"। साफ तौर पर श्री नायक ने अपने अधिकार, ठाकरे के पास गिरवी रख दिये थे। इतने कमजोर मुख्यमंत्री से हम कैसे यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वह दंगों को रोकेगा। यह शर्मनाक है कि महाराष्ट्र सहित कई अन्य स्थानों पर जो पुलिस अधिकारी दंगों पर नियंत्रण पाने में असफल रहे और जिनकी दंगा जांच आयोगो ने कड़ी निंदा की, उन्हें सजा मिलना तो दूर, उनकी पदोन्नति कर दी गई।
उदाहरणार्थ, सन् 1970 के भिवन्डी-जलगाँव दंगों की जांच के लिए नियुक्त मादोन आयोग ने अपनी रपट में तत्कालीन पुलिस अधीक्षक की जमकर खिंचाई करते हुए कहा था कि उन्होंने निर्दाेषांे को गिरफ्तार किया और दोषियों को बख्शा। परन्तु इसके बाद भी उन्हें एक के बाद एक पदोन्नतियां मिलती गईं और अंततः वे महाराष्ट्र के पुलिस महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुये। एक अन्य उदाहरण मुम्बई पुलिस के एक संयुक्त आयुक्त का है जिन्होेंने आठ मदरसा छात्रों को दंगाई बताकर गोली मार दी थी। श्रीकृष्ण आयोग ने अपनी जांच रपट में इस अधिकारी की इस भूल की कड़े शब्दों में निंदा की थी परन्तु उन्हें शिवसेना सरकार के कार्यकाल मंे मुम्बई का पुलिस आयुक्त बना दिया गया। उनकी सेवानिवृति के बाद, एक अदालत ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया परन्तु वे दिल का दौरा पड़ने का बहाना लेकर एक अस्पताल में भर्ती हो गए और वहीं रहते हुए उन्होंने एक अदालत से जमानत ले ली। इस प्रकार वे एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए।
इस तरह के तो कई उदाहरण हैं। परन्तु हाल में मुम्बई में ही इसका ठीक विपरीत उदाहरण सामने आया। मुम्बई के पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक ने हिंसा पर उतारू भीड़ को नियंत्रित करने में अनुकरणीय साहस और योग्यता दिखाई। वे पचास हजार लोगो की उत्तेजित भीड़ को चुपचाप अपने घर जाने के लिए प्रेरित कर सके। इसके लिए वे ईनाम के हकदार थे परन्तु इसके उलट राज ठाकरे के दबाव में महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर.आर. पाटील ने उनका तबादला सड़क परिवहन के महानिदेशक के पद पर कर दिया। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने पटनायक के खिलाफ कार्यवाही की मांग करते हुए लगभग 45 हजार लोगों का जुलूस निकाला था।
राज ठाकरे अब तक मुसलमानों के खिलाफ चुप्पी बनाए हुए थे और यहां तक कि कुछ मामलों में वे मुसलमानों का समर्थन भी कर रहे थे। परन्तु अब शायद सन् 2014 के चुनाव के परिपेक्ष्य में उनका दृष्टिकोण बदल गया है और वे हिन्दुत्व कार्ड खेलने पर आमादा हैं। पटनायक को हटाने की मांग को लेकर विशाल रैली निकालने के पीछे उनका उद्देश्य एक पत्थर से दो पक्षियों का शिकार करना था। पहला यह कि इससे वे शिवसेना के नजदीक आ गये और शिवसेना के साथ सन् 2014 के चुनाव में उनकी पार्टी के गठबंधन की संभावना बढ़ गई। दूसरे, उन्होेंने महाराष्ट्र की राजनीति में अपना दबदबा कायम किया। परन्तु इस राजनैतिक खेल में एक अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की बली चढ़ गई, जिन्होंने एक गम्भीर स्थिति से सफलतापूर्वक मुकाबला किया था।
शायद यही कारण है कि कार्यशालाओं के दौरान कई पुलिस अधिकारी मुझसे कहते हैं कि वे इस मामले मंे कुछ खास नहीं कर सकते क्योंकि वे तो राजनीतिज्ञों के मोहरे भर है। इस बात में दम है। गुजरात मंे कई पुलिस अधिकारियों ने राजनैतिक दबाव का मुकाबला करने की कोशिश की परन्तु असफल रहे। अलबत्ता, हमेशा ऐसा नहीं होता। पुलिस अधिकारियों की सोच में पूर्वाग्रह बिल्कुल साफ नजर आते हैं। इस सोच को खत्म करने के लिए स्कूली पाठ्यक्रमों से लेकर पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों तक के पाठ्यक्रमों में आमूलचूल परिवर्तन लाने होगें। हमे हमारे पुलिसकर्मियों को धर्मनिरपेक्ष बनाना होगा।
यह भी जरूरी है कि अहमदाबाद के नरोदा पाटिया मामले में जिस तरह का निर्णय आया है वैसे ही निर्णय आगे भी सुनाए जाते रहंे। एक पूर्व मंत्री को दंगे भड़काने के आरोप में 28 साल के कारावास की सजा से वे राजनेता हतोत्साहित होंगे जो अपने मतदाताओं के साम्प्रदायिक तबके का इस्तेमाल अपने हितों के लिए करते हैं। इस मामले मंे न्यायाधीश ज्योत्सना याज्ञनिक बधाई की पात्र हैं।

डॉ. असगर अली इंजीनियर (लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं और कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। बकौल असगर साहब- "I was told by my father who was a priest that it was the basic duty of a Muslim to establish peace on earth. … I soon came to the conclusion that it was not religion but misuse of religion and politicising of religion, which was the main cause of communal violence.")

( मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण: अमरीष हरदेनिया। लेखक मुंबई स्थित सेंटर फाॅर स्टडी आॅफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। )


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