गंगा से
जुग बीते
दजला से इक भटकी हुई लहर
जब तेरे पवित्र चश्मों को छूने आई तो
तेरी ममता ने फैला दीं अपनी बाहें
और तेरे हरे किनारों पर तब
आम और कटहल के दरख्तों से घिरे हुए
खपरैलों वाले घरों के आँगन में
किलकारियाँ गूँजीं
मेरे पुरुखों की खेती शादाब हुई
और शगुन के तेल ने
दिए की लौ को ऊँचा किया
फिर देखते-देखते
पीले फूलों और सुनहरे दियों की जोत
तेरे फूलों वाले पुल की
कोख से होती हुई
मेहरान तक पहुँच गई
मैं उसी जोत की नन्हीं किरण
फूलों का थाल लिए
तेरे कदमों में फिर आ बैठी हूँ
और अब तुझसे
बस एक दिए की तालिब हूँ
यूँ अंत समय तक तेरी जवानी हँसती रहे
लेकिन ये शादाब हँसी
कभी तेरे किनारों के लब से
इतनी न छलक जाए
कि मेरी बस्तियाँ डूबने लग जाएँ
गंगा प्यारी
मेरी रुपहली रावी
और भूरे मेहरान की मुट्ठी में
मेरी माँ की जान छुपी है
मेरी माँ की जान न लेना
मुझसे मेरा मान न लेना
ओ गंगा प्यारी !
परवीन शाकिर, पाकिस्तानी शायर
http://www.nainitalsamachar.in/ganga-a-poem-by-parveen-shakir/
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