30 जून-झारखंड़ में संथाल हूल की 158वीं वर्षगांठ पर विशेष
झारखंड़ में बिरसा मुंड़ा के जन्म से कई वर्षों पहले संथाल परगना के भगनाडीह गांव में चुनका मुर्मू के घर चार भाईयों यथा, सिद्धू, कान्हू, चांद एवं भैरव तथा दो बहनें फूलो एवं झानो ने जन्म लिया. सिद्धू अपने चार भाईयों में सबसे बड़े थे तथा कान्हू के साथ मिलकर सन् 1853 से 1856 ई. तक संथाल हूल अर्थात संथाल विप्लव , जो अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ लड़ा गया, का नेतृत्व किया.
इतिहासकारों ने संथाल विप्लव को मुक्ति आंदोलन का दर्जा दिया है. संथाल हूल या विप्लव कई अर्थों में समाजवाद के लिए पहली लड़ाई थी जिसमें न सिर्फ संथाल जनजाति के लोग अपितू समाज के हर शोषित वर्ग के लोग सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में आगे आए. इस मुक्ति आंदोलन में बच्चे, बुढ़े, मर्द, औरतें सभी ने बराबरी का हिस्सा लिया. चारों भाईयों की दो बहनें फूलो और झानो घोड़े पर बैठकर साल पत्ता लेकर गांव-गांव जाकर हूल का निमंत्रण देती थी और मौका मिलने पर आंग्रेज सिपाहियों को उठाकर ले आती थी और उनका कत्ल कर देती थी. आज भी इस मुक्ति आंदोलन की अमरगाथा झारखंड़ के जंगलों, पहाड़ों, कंदराओं में तथा जन-जन के ह्दय में व्याप्त है.
सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में चलाया गया यह मुक्ति आंदोलन 30 जून 1855 से सितम्बर 1856 तक अविराम गति से संथाल परगना के भगनडीहा ग्राम से बंगाल स्थित मुर्षिदाबाद के छोर तक चलता रहा जिसमें अत्याचारी जमींदारों एवं महाजनों, अंग्रेज अफसरों एवं अंग्रेजों का साथ देने वाले भारतीय अफसरों, जमींदारों, राजा एवं रानी को कुचलते हुए इन लोगों के धन-सम्पदा पर कब्जा किया गया तथा सिद्धू एवं कान्हू द्वारा सारे धन को गरीबों में बांटा जाता रहा.
भगनाडीह ग्राम में 30 जून 1855 को सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में एक आमसभा बुलाई गयी जिसमें भगनाडीह ग्राम के जंगल तराई के लोग तो शामिल हुए ही थे, दुमका, देवघर, गोड्डा, पाकुड़ जामताड़ा, महेषपूर, कहलगांव, हजारीबाग, मानभू, वर्धमान, भागलपूर, पूर्णिया, सागरभांगा, उपरबांध आदि के करीब दस हजार सभी समुदायों के लोगों ने भाग लिया और सभी ने एकमत से जमींदारों, ठीकेदारों, महाजनों एवं अत्याचारी अंग्रेजों एवं भारतीय प्रषासकों के खिलाफ लड़ने तथा उनके सभी अत्याचारों से छुटकारा पाने के लिए दृढ़ संकल्प हुए तथा सर्वसम्मति से सिद्धू एवं कान्हू का अपना सर्वमान्य नेता चुना. अपने दोनों भाईयों को सहयोग देने के लिए सिद्धू एवं कान्हू के दो अन्य भाई चांद और भैरव भी इस जनसंघर्ष में कन्धे से कंधा मिलाकर लड़ा एवं अपना सर्वस्व न्योछावर किया. इस आम सभा में अनुषासन और नियम तय किए गए. अलग-अलग समूहों को अलग-अलग जिम्मेवारियां सौंपी गयी. भारत में पांव जमाती अंग्रेज व्यापारिचयों को उखाड़ फेंकने का इस आम सभा में उपस्थित दस हजार लोगों पर उन्माद सा छा गया था. 30 जून 1855 में अंग्रेज अत्याचारियों के खिलाफ संघर्ष के जुनून का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस वर्ष खेती नहीं करने का फैसला किया गया, ऐसा फैसला लेना मामूली बात नहीं थी. सिद्धू और कान्हू का यह फैसला इस मकसद से लिया गया था कि आदिवासी लोग तो कंद-मूल खाकर रहे लेंगे पर अंग्रेज और उनके मातहत रहने वाले बाबू क्या खायेंगे, जब खेती होगी ही नहीं. गौरतलब है कि अनाज खोते तो सभी थे पर उपजाते सिर्फ आदिवासी थे. यद्यपि ऐसा फैसला गरीब आदिवासियों को मरने का रास्ता दिखाया था परंतु जिन्दगी के लिए लड़ने का वह उन्माद उन लोगों पर ऐसा छाया था कि यह फैसला भी सर्वसम्मति से आमसभा में पारित हो गया और खेती बंद कर दी गयी.
इतिहास गवाह है कि 1767 ई. के मार्च में बढ़ती बंदूकधारी अंग्रेज फौजियों को रोकने के लिए धालमूमगढ़ के आदिवासी लोग अपने-अपने घरों में आग लगाकर फूंक दिया और तीर-धनुष व गौरिल्ला हमलो के बल पर सन् 1767 से 1800 तक अंग्रेजों को अपने क्षेत्रों में घुसने नहीं दिया और रोक रखा. 30 जून सन् 1855 को भगनाडीह ग्राम में आहूत आमसभा में लिया गया खेतीनहीं करने का निर्णय अपना घर फूंकने जैसा ही था.
अंग्रेज सरकार का कलकत्ता से संथाल परगना के लोहा पहाड़ तक रेलवे लाइन बिछाने का फैसला सन् 1855 के संथाल विप्लव के आग में घी का काम किया. रेल लाइन को बिछाने के क्रम में संथालों के बाप-दादाओं की भूखंड़ों को बिना मुआवजा दिए दखल कर लिया गया. हजारों एकड़ उपजाउ भूमि संथालों से छीन ली गयी. रेलवे लाइनों में गरीबों को बेगार मजदूरी करवायी गयी तथा उन्हें जबरन कलकत्ता भेज दिया गया. इतिहास में टामस और हेनस नामक ठीकेदारों का जिक्र आता है जिन्होंने आदिवासी लोगों पर अमानुषिक अत्याचार किए. बच्चे, बुढ़े तथा औरतों को भी नहीं बख्शा गया. अब सहन करना मुष्किल हो गया था. समुदाय के स्वाभिमान का प्रष्न आ खड़ा हुआ था. 30 जून 1855 को सभी एकमत थे कि अब और नहीं सहेंगे और उन्होंने तय किया कि इस साल धान नहीं अत्याचारी अंग्रेजों और उनके समर्थकों के गर्दनों की फसल काटेंगे.
हूल अर्थात विप्लव शुरू हुआ. संथाल परगना की धरती लाशों से बिछ गयी, खून की नदियां बहने लगी. तोपों और बंदूक की गूंज से संथाल परगना और उसके आसपास के इलाके कांप उठे. संथाल विपल्व की भयानकता और सफलता इस बात से लगायी जा सकती है कि अंग्रेजों के करीबन दो सौ साल के शासनकाल में केवल इसी आंदोलन को दबाने के लिए मार्शल लाॅ लागू किया गया था जिसके तहत अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों एवं उनके समस्त सहयोगियों को कुचलने के लिए अमानुषिक अत्याचार किए जिसका जिक्र इतिहास के पन्नों में पूर्ण रूप से नहीं मिलता है परंतु अमानुषिक अत्याचारों की झलक संथाली परम्पराओं, गीतों,कहानियों में आज भी झारखंड़ में जीवित है.
संथाल विप्लव विश्व का पहला आंदोलन था जिसमें औरतों ने भी अपनी समान भागीदारी निभाई थी. 30 जून 1855 के बाद से लेकर अक्टूबर माह के अंत तक आंदेालन पूरे क्षेत्रों में फैले करीबन सभी गांवों पर आंदोलनकारियों का अधिकार हो चुका था परंतु महेशपूर के सम्मुख भिडंत में सिद्धू, कान्हू तथा भैरव घायल हो गए जिसमें सिद्धू के जख्म गंभीर थे. कान्हू और भैरव जड़ी-बूटी के पारम्परिक उपचार से ठीक होकर पुनः आंदोलन में कूद पड़े. सिद्धू को ठीक होने में कुछ ज्यादा वक्त लगा परंतु इसी बीच एक विश्वासघाती ने अंगे्रजों को सूचना दे दिया और सिद्धू को पकड़वा दिया. यह संथाल विप्लव को पहला झटका था. दूसरा झटका जामताड़ा में लगा जब उपरबांधा के सरदार घटवाल ने धोखे से कान्हू को जनवरी सन् 1856 में अंग्रेजी सेना के हवाले कर दिया. सिद्धू को अंग्रेज पहले ही फांसी दे चुके थे. आनन-फानन में एक झूठा मुकदमा चलवाकर कान्हू को भी फांसी पर लटका दिया गया. यद्यपि सिद्धू और कान्हू व उनके दो अन्य भाई चांद और भैरव इस संथाल विप्लव में शहीद हुए परंतु अंग्रेज इस आंदोलन को पूर्णत कुचल नही पाए. भारत का यह दूसरा महान विपल्व था. सन् 1831 ई. का कोल विपल्व भारत का प्रथम महान विपल्व था तथा
सन् 1857 का सैनिक विद्रोह भारत का तीसरा महान विपल्व था.
सन् 1855 ई. के संथाल विपल्व में अंतर्निहित शक्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने विपल्व की शक्ति कम करने के लिए बिना मांगें भारत का सबसे पहला आदिवासी नाम का प्रमंडल 'संथाल परगना' का निर्माण किया तथा संथाल परगना काष्तकारी अधिनियम बनाया. इसमें कोई दो मत नहीं कि भारत का प्रथम राष्द्रीय आंदोलन कहा जाने वाला सन् 1857 का सैनिक विद्रोह बहुत कुछ संथाल विपल्व के चरण चिन्हों पर चला और आगे इसी तरह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि प्रज्वलित करता रहा.
संथाल हूल का महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालिन चिंतक कार्ल माक्र्स ने अपनी पुस्तक 'नोटस आॅफ इंडियन हिस्द्री' में जून 1855 के संथाल हूल को जनक्रांति की संज्ञा दी है. परंतु भारतीय इतिहासकारों ने आदिवासियों की उपेक्षा करते हुए इतिहास में इनको हषिये में डाल दिया परिणामस्वरूप् आज सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव व इनकी दो सगी बहनें फूलो एवं झानो के योगदान को इतिहास के पन्नों में नहीं पढ़ा जा सकता है. झारखंड़ के बच्चों को उपरोक्त महानायकों एवं नायिकाओं के संबंध में पढ़ाया ही नहीं जाता है हूल विपल्व आज भी प्रसांगिक है क्योंकि जिस उद्ेष्य से सिद्धू और कान्हू ने विपल्व की शुरूआत की थी वह आज 158 वर्षों के बाद भी झारखंड़ के आदिवासियों को हासिल नहीं हो पाया है. झारखंड़ राज्य के गठन के बाद आज तक मुख्यमंत्री व कई मंत्री आदिवासी रहे परंतु आदिवासियों का शोषण निरंतर जारी है. राज्य में जहां अबुआ दिशोम का नारा भी हशिये में चला गया वहीं दूसरी ओर राजनीतिक व वैचारिक शून्यता के कारण जल, जंगल, जमीन को लेकर आज भी राज्य के आदिवासी संघर्षरत है.
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