Saturday, December 28, 2013

धर्मोन्माद का एनजीओकरण भी हो गया आज

धर्मोन्माद का एनजीओकरण भी हो गया आज

धर्मोन्माद का एनजीओकरण भी हो गया आज

पलाश विश्वास

HASTAKSHEP

(अति प्रिय रचनाकार उदय प्रकाश जी, तमाम समर्थ प्रतिबद्ध रचनाकारों और खासतौर पर उन कवि मित्रों ने, जिन्होंने "अमेरिका से सावधान के" दौर में संवाद में हमेशा हमारे साथ थे, उनके लिए)

देशका विभाजन कोई 1947 में ही नहीं हुआ है। रोज-रोज हम देश का विभाजन कर रहे हैं। उस विभाजन के चाहे जो जिम्मेवार रहे हों, इस विभाजन की जिम्मेवारी और जवाबदेही स‌े हममें स‌े कोई बच ही नहीं स‌कता। आज "आप" की रामलीला भी देख ली। धर्मोन्माद का राजनीतिकरण हुआ है बहुत पहले। कारपोरेटीकरण भी हो गया है बाइस स‌ाल पहले। आज एनजीओकरण भी हो गया। इस मायने में आज का दिन ऎतिहासिक है। इसलिए स‌ामाजिक बदलाव की हलचल जिस गायपट्टी में स‌बसे ज्यादा है, वहाँ फर्जी मुद्दों, फर्जी आंदोलन और फर्जी विमर्श स‌े रोज नये- नये मोर्चे के स‌ाथ जो गृहयुद्ध का एनजीओ करिश्मा है, उसके नतीजे बाबरी विध्वंस, गुजरात नरसंहार, भोपाल गैस‌ त्रासदी और स‌िख स‌ंहार जैसी कारपोरेटीकरण की चार बड़ी घटनाओं स‌े ज्यादा भयंकर होगा, ऐसा हम मानते हैं।

माननीय गोपाल कृष्ण गांधी ने स‌ही स‌ही चित्र उकेरा है। समाज अगर इस तरह बँटा है तो इस देश को टूटने स‌े कैसे और कौन बचा स‌कता है। लेकिन प्रश्न यह है कि भाषिक कौशल और शिल्पी चमत्कारों में  ही रचनाधर्मिता का उत्कर्ष है क्या। अगर स‌ामाजिक यथार्थ को स‌म्बोधित करने की पहल हम नहीं करते तो मिलियन टकिया लेखन भारत देश के लिये और भारतीय जनगण के लिये कूड़े के अलावा कुछ भी नहीं है। होंगे आप नोबेल जयी किसी दिन, लेकिन हमारे लिये आपकी प्रासंगिकता तभी है जब आप जैसे तमाम स‌मर्थ कुशल भाषावित रचनाकार जनपक्षधरता को एक स‌ूत्र में पिरोने के लिये कलम उठायें।

वैसेअब भारत रत्न भी बाजार का सर्वश्रेष्ठ मॉडल है और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का जहर जनता को पिला रहे हैं। उनके रन और रिकॉर्ड होंगे अरबी अमूल्य, लेकिन वे हमारे लिए जनसंहार अश्वमेध के महारथी के अलावा और कुछ भी नहीं है। हम जो रचनाकार, पत्रकार बनकर फूले नहीं समाते और अपने को हमेशा देश की जमीन से हवा हवाई समझते हैं,  हमारी औकात असल में क्या है, अब सीधे तौर पर यह सवाल पूछने का वक्त है। जाहिर है कि कोई संपादक, आलोचक और खेमामुखिया ऐसा बेहूदा सवाल करेगा नहीं। लेकिन हम कर रहे हैं। आपमें से जो भी चाहे बशौक मुझे अपनी मित्र मंडली से बाहर फेंक दें। लेकिन अब मैं यह सवाल बार-बार करता रहूँगा और आप जब तक मेरी पहुँच में हैं तब तक आपकी नींद में खलल डालता रहूँगा, जब तक न कि आपकी कलम मोर्चाबंद न हो जाये।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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