दिल्ली मेल : काफी हाउस में राजेन्द्र यादव और होली
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
दिल्ली के काफी हाउस में लगभग दो दशक से साहित्यकारों द्वारा होली मिलन मनाया जाता है। पहले यह विष्णु प्रभाकर की सरपरस्ती में हुआ करता था। इधर चार-पांच वर्षों से राजेन्द्र यादव ने उनकी जगह ले ली है। इस में शंका नहीं है कि राजेन्द्र यादव अपने व्यवहार में अत्यंत मिलनसार हैं और किसी भी तरह के नकचढ़ेपन से मुक्त हैं। यह राजेन्द्र यादव की जीवंतता, खुलेपन, और कामरेडरी का प्रमाण है कि वह इतनी बड़ी उम्र व शारीरिक सीमाओं के बावजूद मोहन सिंह प्लेस की तीसरी मंजिल पर स्थित कॉफी हाउस पहुंच जाते हैं। वह भी ऐसे अवसर पर जब कि वहां कवियों का और खराब कविताओं का राज रहता है। यह बतलाना जरूरी है कि इस आयोजन का श्रेय जिस व्यक्ति द्वारा किया जाता है उनका नाम है रमेश सक्सेना। वह पेशे से होमियोपैथिक डाक्टर हैं। उनका साहित्य प्रेम अपनी ही तरह का है। यह आयोजन उनकी जेबी संस्था 'कला कलम' के झंडे तले होता है। इस वर्ष का मिलन समारोह विगत वर्षों से अगर किसी मायने में भिन्न था तो राजेन्द्र यादव के वक्तव्य के कारण। अन्यथा हास्य-व्यंग्य का स्तर पुरानी दिल्ली, जहां के सक्सेना हैं, की ठिठोली के अंदाज से, ऊपर नहीं उठ पाता है।
यादव जी को इधर उत्तर प्रदेश सरकार का 11 लाख का यश भारती पुरस्कार मिला है। इत्तफाक से यह आयोजन पुरस्कार मिलने से एक दिन पहले हो रहा था। इसलिए लोगों का उन्हें अतिरिक्त बधाई देना स्वाभाविक था। उन पर व्यंग्य भी खूब हुए, विशेष कर महिला प्रेम को लेकर। पर यह कोई नई बात नहीं है और इसका वह पूरा आनंद भी उठाते हैं। पर इस बार कुछ व्यंग्य पुरस्कार को लेकर भी रहे।
अध्यक्षीय वक्तव्य में एक अमेरिकी कहानी सुनाने के बाद, जिसका आशय था कि एक व्यक्ति का बाहर तो गुणगान किया जा रहा है पर अंदर उसे पीटा जा रहा है – यानी वह व्यंग्यों से आहत थे – वह असली बात पर आए। उन्होंने कहा अगर कल को रमेश सक्सेना वीरेन सक्सेना का उनके साहित्यिक योगदान के लिए सम्मान करते हैं तो क्या यह जातिवाद होगा? क्या वीरेन सक्सेना इसके लायक नहीं हैं? इसी तरह अगर मुझे उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सम्मान दिया जा रहा है तो क्या मैं इसके लायक नहीं हूं? क्या यह मात्र इसलिए दिया जा रहा है कि मैं यादव हूं और उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री भी यादव है?
राजेन्द्र जी के प्रश्न, जितने दिखते हैं, उतने आसान नहीं हैं। ऊपरी तौर पर यह सही है कि राजेन्द्र यादव इसके सर्वथा योग्य हैं और किसी भी सरकार को उन्हें सम्मानित करना चाहिए। पर सवाल है कि क्या जिस व्यवस्था में हम हैं वहां सदा उसी व्यक्ति को सम्मान मिलता है जो उसके लायक है? वैसे यह तो वह भी मानेंगे कि उनके अलावा भी इस समय कई ऐसे हिंदी लेखक हैं जो इस पुरस्कार के लायक हैं। फिर इस वर्ष के पुरस्कारों की लंबी फेहरिश्त में वह अकेले 'साहित्यकार' नहीं थे जिन्हें पुरस्कृत किया गया हो। यह बात और है कि सत्ता के साहित्यकार मापने के अपने मापदंड थे। जो भी हो यह संदर्भ उस राजनीतिक संकीर्णता, भाई-भतीजावाद, जातीय भेदभाव और क्षेत्रीयतावाद की ओर भी इशारा करता है जो हमारे समाज में सर्वव्याप्त हो चुका है। इस सब से भी महत्त्वपूर्ण संभवत: यह तथ्य है कि आज हिंदी में बड़े से बड़ा लेखक अपने लेखन पर निर्भर नहीं रह सकता। राजेन्द्र जी ने कभी नौकरी नहीं की। उनकी लिखी और संपादित सैकड़ों पुस्तकें बाजार में हैं, उन्हें इतनी रॉयल्टी शायद ही मिलती होगी कि वह ठीक-ठाक जिंदगी बिता सकें। दूसरे शब्दों में पुरस्कार और सरकारी संरक्षण हिंदी लेखक की नियति बन चुका है और स्वतंत्र रह कर लेखन करने तथा उसी पर निर्भर रहने की सारी सद्इच्छाएं दुखद तरीके से सामने आ रही हैं। इसका पिछला त्रासद उदाहरण शैलेश मटियानी थे।
तब, जब इस नियति से सारा हिंदी संसार भली-भांति परिचित है, आखिर ऐसा क्यों होता है कि राजेन्द्र जी को जब भी कोई पुरस्कार मिलता है,व्यंग्य और विवाद पैदा हो जाता है। पर हमें भूलना नहीं चाहिए कि अपने बेबाक स्टैंडों – विशेषकर सांप्रदायिकता, दलित और स्त्रीवादी मामलों में – के कारण वह युवाओं के आदर्श रहे हैं। इसलिए जब भी वह अपने घोषित स्टैंडों से विचलित होते हैं या लगते हैं, लोग बेचैन हो जाते हैं।
जैसे 1997 में जब उन्हें बिहार सरकार का पुरस्कार मिला तो बिहार में लोगों ने उनके खिलाफ प्रदर्शन किया। इसका कारण यह था कि यह पुरस्कार ऐन बथानी टोला हत्याकांड (1996) के बाद दिया जा रहा था जिसमें तत्कालीन राज्य सरकार की मिलीभगत का आरोप था। तब भी इत्तफाक था कि वहां का मुख्यमंत्री एक यादव था। अब यह नहीं कहा जा सकता कि राजेंद्र यादव तब भी पुरस्कार के लायक नहीं थे। पर मसला दूसरा था: वह था प्रतिबद्धता का और सार्वजनिक मर्यादा का। सब जानते हैं कि राजेन्द्र यादव अपनी पत्रिका हंस के माध्यम से दलितों और पिछड़ों के प्रति अन्याय के खिलाफ बोलते रहे हैं। उन्होंने ऐसी छवि बनाई है कि वह सदा क्रांतिकारी और परिवर्तनशील ताकतों के साथ हैं।
इससे भी ज्यादा हैरान करनेवाली बात यह थी कि वह बिहार सरकार की ओर से मिलनेवाले एक लाख के पुरस्कार से पहले तक यह कहते रहे थे कि वह कोई पुरस्कार नहीं लेंगे। एक मामले में उनकी पुरस्कार लेने की शुरुआत लालू यादव सरकार द्वारा दिए गए पुरस्कार से शुरू हुई। क्या इसका अर्थ यह नहीं लगता कि उन्होंने तत्कालीन बिहार सरकार को शर्मिंदगी से बचाया? इसके बाद उन्होंने दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी का शलाका पुरस्कार लिया। यहां भी उनका तर्क था कि पुरस्कार उन्हें नहीं हंस को दिया जाए और शायद चेक हंस के नाम मिला भी। पर अकादमी ने अपने रिकार्डों में राजेन्द्र यादव का ही नाम दर्ज किया हुआ है।
वैसे भी उन्हें ये दोनों ही पुरस्कार उनके संपादन के लिए नहीं मिले थे। न ही ये हंस को कोई अनुदान था, फिर नाटक का क्या औचित्य हो सकता है? गोकि उनका तर्क था कि वह पुरस्कार हंस के कारण ले रहे हैं। आप या उस तरह से कोई भी, अगर कोई पत्रिका निकाल रहा है तो वह इसलिए नहीं कि जनता या सरकार की ओर से मांग की गई थी कि भाई साहब, आइये और पत्रिका निकालिए। यह आपका चुनाव है और आप जानें। सब जानते हैं कि एक आध लाख से इतनी भारी पत्रिका नहीं निकलती। और लोग अब तक यह भी जान चुके हैं कि हिंदी की अधिसंख्य साहित्यिक पत्रिकाएं किस तरह से निकलती हैं। कुल मिला कर पत्रिका निकालना एक व्यवसाय है या बहुत हुआ तो शौक, जो आप को अपनी प्रतिबद्धता या विचारों (आइडिया) को सार्वजनिक करने और अपनी सामाजिक स्थिति को बनाने में मददगार साबित होता है।
इस बार उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती पुरस्कार मिला है, जिसे छह साल बाद फिर शुरू किया गया है। निश्चय ही जिस तरह के लोगों को राज्य सरकार ने सम्मानित किया है उनमें सबसे ज्यादा योग्य और ज्ञानी वही हैं। कहा नहीं जा सकता कि पुरस्कार लेने का इस बार उनका तर्क क्या है। उसके लिए हंस के अगले अंक का इंतजार करना होगा।
पर कुछ सवाल हैं जो उभर कर सामने आते हैं। जैसे वह सम्मानित किस चीज के लिए हो रहे हैं? या कहना चाहिए किस रूप में हो रहे हैं? यह सम्मान उन्हें उत्तर प्रदेश के हिंदी संस्थान द्वारा नहीं दिया गया है यानी किसी साहित्यिक संस्था की ओर से न होकर सीधे सरकार की ओर से सत्ता द्वारा उन्हें राज्य का महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होने के नाते दिया गया है। दूसरा सवाल यह है जिन 14 और लोगों को उनके साथ सम्मानित किया गया है उस सूची में उनकी टक्कर का एक भी और नाम क्यों नहीं है? क्या इतने बड़े प्रदेश में इतना बड़ा उजाड़ है? हम जानते हैं उत्तर प्रदेश हिंदी के जन्म के साथ से ही हिंदी साहित्य का गढ़ रहा है। तीसरी बात यह भी है कि क्या यह महज इत्तफाक है कि राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव हैं? क्या यह वही सज्जन हैं नहीं हैं जिनके मुख्यमंत्री बनने को पिछले वर्ष हंस के अपने स्तंभ में राजेन्द्र जी ने लगातार कई अंकों में 'सेलिब्रेट' किया था?
हम मानते हैं जातिवाद खराब है तब क्या सिर्फ दूसरों का? हमारी जातीय प्रतिबद्धताओं का क्या होगा? संभवत: दूसरों के जातिवाद के बहाने अपने जातिवाद को सही ठहराना जाति जैसी कुप्रथा के खिलाफ एक विकृत तर्क है।
असल में दर्शक दीर्घा के लिए एक खास छवि बनाना आसान है पर उसे मंच के बाद भी बनाए रखना कठिन हो जाता है। बड़ी बातें अच्छी लगती हैं। हम उनसे वाहवाही लूटते हैं पर उन्हें व्यवहार में उतारना आसान नहीं होता। वे त्याग मांगती हैं। एक आध लाख (या ग्यारह लाख) रुपए छोडऩा ही नहीं जाति-धर्म के मोह से भी साफ बाहर नजर आना पड़ता है। और भी छोटे-छोटे लालचों और कमजोरियों से ऊपर पहुंचना होता है। आप अपनी अराजकता या मन-मानी को 19वीं और 20वीं सदी के योरोपीय लेखकों की जीवन शैली के प्रमाणों की आड़ से जायज नहीं ठहरा सकते। हमारी स्थितियां और समस्याएं अपनी ही तरह की हैं। इसलिए हमारे लेखकों को भी स्वयं को उन्हीं हालातों के हिसाब से बनाना जरूरी है।
दो नावों में पैर रखने के अपने खतरे हैं। रेडिकल छवि भी बनाए रखें और सत्ता व संस्थानों से भी जुड़े रहें। इसका उदाहरण यह भी है कि राजेन्द्र जी के किसी भी परिचय में यह कहीं नहीं बतलाया जाता कि उन्हें कौन-कौन से पुरस्कार मिल चुके हैं जबकि उनका परिचय साहित्य अकादेमी की राइटर्स हूज हू से लेकर 'विक्की पीडिया' और स्वयं हंस की वेब साइट पर पूरे विस्तार के साथ होता है। आखिर ऐसा क्यों है? इसका कारण संभवत: यह है कि नई कहानी के दौर के प्रमुख लेखकों ने अपनी 'लार्जर दैन लाइफ' छवि बहुत संभाल कर बनाई थी। छवि जब टूटती है तो उसकी किरीचें दूर तक फैलती हैं।
यश भारती पुरस्कार
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इस वर्ष राममनोहर लोहिया के जन्म दिन पर 23 मार्च को जिन 15 "यशस्वी लोगों" को 'यश भारती' पुरस्कार प्रदान किए उनमें राजेन्द्र यादव के अलावा, मस्तराम कपूर, सत्यदेव दुबे, रामकृष्ण राजपूत, सरिता शर्मा और वसीम बरेलवी को साहित्यकार बतलाया गया है। (सरकार जब कह रही है तो किसी को मानने में क्या आपत्ति हो सकती है!)
अन्यों में तीन पहलवान हैं – मेघालाल यादव, नरसिंह यादव और अंशु तोमर। एक हाकी (विवेक गुप्त) और एक क्रिकेट खिलाड़ी (सुरेश कुमार रैना) भी सूची में हैं। शास्त्रीय गायक हैं छन्नू लाल मिश्र और पार्श्व गायक यानी फिल्मों के हैं अभिजीत भट्टाचार्य और जावेद अली। रंगकर्मी हैं आमिर रजा हुसैन।
इन पुरस्कारों की शुरुआत 1994 में की गई थी और पहला पुरस्कार हरिवंश राय बच्चन को मुलायम सिंह यादव ने स्वयं मुंबई जाकर दिया था। उन दिनों बच्चन जी इतने अस्वस्थ हो चुके थे कि होशो-हवास में नहीं थे। बाद में यह पुरस्कार अभिताभ बच्चन और उनके बेटे अभिषेक बच्चन को भी मुलायम सिंह यादव ने अपने पैतृक गांव सैफई में बुला कर दिया था। जया बच्चन समाजवादी पार्टी की ही राज्यसभा सदस्य हैं। मायावती ने अपने शासनकाल में इसे बंद कर दिया था।
सत्ता के खिलाड़ी, साहित्य के खेल
यह सुन कर कुछ लोगों को धक्का लग सकता है कि दिल्ली सरकार ने हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष फिर से हास्य कवि अशोक चक्रधर को बना दिया है। हिंदी के लेखकों द्वारा उनके उपाध्यक्ष बनाए जाने का तीन वर्ष पहले जबर्दस्त विरोध किया गया था। विरोध किस दर्जे का था इसका उदाहरण यह है कि वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह ने अकादमी का शलाका पुरस्कार लेने तक से इंकार कर दिया था। इसके बाद अधिकांश नामी-गिरामी लेखकों ने हिंदी अकादमी से दूरी बना ली थी। गो कि सरकार ने तत्काल चक्रधर को नहीं बदला था (हमारी सरकारें शरीफों की भाषा सुनने-समझने की आदी वैसे भी नहीं हैं) इस पर भी यह माना जाने लगा था कि इसी विरोध के कारण चक्रधर को अगले कार्यकाल के लिए उपाध्यक्ष नहीं बनाया गया। हिंदी अकादमी का अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है।
अंतत: जून, 20012 में जिस व्यक्ति विमलेश कांति वर्मा को उपाध्यक्ष बनाया गया वह इस पद पर एक साल भी नहीं रहे। वर्मा कुल मिला कर एक अध्यापक थे और विदेशों में हिंदी के नाम पर जरूर कुछ लिखते-पढ़ते थे। वैसे अक्सर 'विदेशों में हिंदी' प्रेमी टाइप के लोगों का उद्देश्य कुल मिला कर अपने संबंधों का अंतरराष्ट्रीयकरण करना होता है। लेखकों ने इसे भी राहत के तौर पर लिया। इसका फायदा भी अकादमी को हुआ और पिछले कुछ समय से हर तरह के लेखकों का हिंदी अकादमी से संपर्क बढ़ा था।
पर सवाल है वर्मा का चुनाव क्यों और कैसे हुआ? दिल्ली में इतने सारे और इतने बड़े-बड़े लेखक सक्रिय हैं पर सरकार को एक भी नजर नहीं आया? क्या यह किसी योजना के तहत हुआ? सच यह है कि वर्मा पिछले कई वर्षों से हिंदुस्तान में बहुत ही कम रहते हैं। यह स्थिति तब भी थी जब कि उन्हें हिंदी अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया था। सवाल उठता है तब उन्हें उपाध्यक्ष क्यों और किसकी सलाह पर बनाया गया? क्या यह तब तक के लिए अंतरिम प्रबंध था जब तक कि दिल्ली का लेखक समुदाय शांत न हो जाए? जो तथ्य सामने हैं वे बतलाते हैं कि यह बात काफी हद तक सही है। यह सत्ता के खिलाडिय़ों का खेल था जो बिना पदों के जी नहीं सकते। वैसे यह किसी से छिपा भी नहीं है कि कांग्रेस का खड़ाऊं परंपरा में विश्वास बढ़ता जा रहा है। अगर वह दिल्ली की हिंदी अकादमी में छोटे स्तर पर हुआ तो आश्चर्य कैसा! पर लगता है सरकार फिर गलती पर है। यह कदम शीला दीक्षित की प्रतिष्ठा को लेखक समुदाय की नजर में और बिगाडऩे का ही काम करेगा। आम जनता की स्मृति कमजोर हो सकती है, लेखकों की इतनी कमजोर नहीं होती। इसलिए देखने लायक होगा कि कितने लेखक नए सिरे से हिंदी अकादमी से जुड़ते हैं।
जो भी हो, है यह पूरा मामला मजेदार। इसलिए भी कि यह इस बात को नए सिरे से रेखांकित करता है कि दिल्ली सरकार की निगाह में हिंदी लेखक क्या चीज है। सिर्फ हंसानेवाला विदूषक। सरकार जनता का करोड़ों रुपया साहित्य और संस्कृति के नाम पर खर्च करती है पर उसमें साहित्यकारों की भूमिका नहीं के बराबर होती है। असल में यह सारा पैसा कुल मिला कर सत्ता में बैठे नेताओं की छवि को चमकाने के लिए होता है और ऐसे मौकों पर उभर कर सामने आता है जब कोई लेखक मर रहा होता है या फिर मर गया होता है। ऐसे अवसर अचूक अवसर होते हैं जब राजनीतिक अपनी उदारता और दयादृष्टि का उत्सव मना सकते हैं।
स्वाभाविक तौर पर इसका सबक है कि लेखक सरकारी साहित्यिक संस्थाओं से जितना दूर रहें, उतना ही बेहतर है। पर यह कहना आसान है।
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