सांप्रदायिकता : श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट का क्या होगा?
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
खान
मुंबई बम विस्फोटों के पूरे बीस साल बाद आखिरकार इसके आरोपियों को उनके खतरनाक अपराध की सजा मिल ही गई। लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में जो फैसला दिया, उससे एक बार फिर साबित हो गया कि इंसाफ कुछ समय के लिए टल भले ही जाए, लेकिन होगा सही। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने टाडा अदालत से मौत की सजा पाने वाले इस अपराध के मुख्य आरोपी याकूब अब्दुल रजाक मेमन की मौत की सजा को जहां बरकरार रखा, तो वहीं उम्र कैद की सजा पाने वाले 18 में से 16 मुजरिमों की आजीवन कैद की सजा को भी ज्यों का त्यों रखा। न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति डॉ. बलबीर सिंह चौहान की दो सदस्यीय खंडपीठ ने अलबत्ता 10 मुजरिमों पर नरमी बरतते हुए उनकी फांसी की सजा, उम्र कैद में बदल दी। गौरतलब है कि मुंबई बम धमाके के 179 आरोपियों ने टाडा अदालत द्वारा उन्हें सुनाई सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी। इसी अपराध से जुड़े एक अन्य मामले में अदालत ने फिल्म अभिनेता संजय दत्त को भी अवैध रूप से एके-56 रखने के आरोप में पांच साल की सजा सुनाई।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस हमले के लिए पड़ोसी देश पाकिस्तान, उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई और कुख्यात अपराधी दाऊद इब्राहिम को दोषी करार देते हुए कहा कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने गुनहगारों को ट्रेनिंग मुहैया करवाई, जिसका नतीजा मुंबई धमाका था। अदालत का कहना था कि भारत की व्यावसायिक राजधानी को निशाना बनाने की साजिश दाउद इब्राहिम ने टाईगर मेमन के साथ मिलकर तैयार की और इसे पाकिस्तानी अधिकारियों की मदद से अंजाम दिया गया। आरोपियों को पाकिस्तान ने ग्रीन चैनेल की सुविधाएं मुहैया करवाई। अदालत ने अपने फैसले में इस अपराध के लिए न सिर्फ पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी को जिम्मेदार ठहराया, बल्कि हमारी पुलिस व कस्टम व्यवस्था पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि पुलिस व कस्टम विभाग देश में हथियारों की तस्करी को रोकने में पूरी तरह से नाकाम रहे। यदि कस्टम और पुलिस अधिकारियों ने ठीक ढंग से अपनी जिम्मेदारी निभाई होती, तो न तो मुंबई में आरडीएक्स पहुंच पाता और न ही दूसरे घातक हथियार।
12 मार्च, 1993 हमारे देश के लिए वह काला दिन था, जब मुंबई में एक के बाद एक सिलेसिलेवार हुए 12 बम धमाकों में 257 लोगों की मौत हो गई और 713 लोग घायल हुए। इन भयानक धमाकों से उस वक्त 27 करोड़ रुपए की संपत्ति को नुकसान पहुंचा था। बहरहाल, इन बम विस्फोटों के कुछ आरोपी जल्द ही कानून की गिरफ्त में आ गए। मुंबई सीरियल बम धमाकों की सुनवाई देश के इतिहास में सबसे लंबे समय तक यानी कुल 12 साल चली। मामले का ट्रायल 30 जून 1995 को शुरू हुआ था। घटना के करीब तेरह साल बाद 2006 में टाडा, यानी आतंकवादी और विध्वंसक गतिविधि (निरोधक) अधिनियम के तहत गठित अदालत ने बम धमाकों में लिप्त लगभग सौ लोगों को दोषी माना और सजा सुनाई। जिनमें बारह को फांसी, बीस को उम्रकैद और सड़सठ को तीन से चौदह साल तक कैद की सजा दी गई थी। टाडा अदालत के इस फैसले पर कमोबेश सुप्रीम कोर्ट ने भी अब अपनी मुहर लगा दी है।
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कहा जा सकता है कि देर से ही सही, हमारी न्याय-व्यवस्था ने अपना काम पूरा कर दिया। बावजूद इसके कड़वी सच्चाई यह है कि पुलिस और हमारी जांच एजेंसियों के हाथ आज भी उस त्रासद घटना के असली साजिशकर्ताओं तक नहीं पहुंच पाए हैं। इस कांड के मुख्य सूत्रधार टाइगर मेमन और अंडरवल्र्ड डॉन दाऊद इब्राहिम दोनों पर कानून का शिकंजा कसा जाना बाकी है। एक तरह से देखें तो पीडि़तों या उनके परिवारों को अभी आंशिक न्याय ही मिल पाया है। पूरा न्याय तभी मिलेगा, जब ये दोनों मुजरिम कानून की गिरफ्त में होंगे।
मुंबई के इतिहास में एक और बड़ी घटना जिसे हमने और हमारी सरकारों ने पूरी तरह से बिसरा दिया, वह है 1992-93 के सांप्रदायिक दंगे। बम विस्फोटों के तीन महीने पहले पूरी मुंबई में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जिसमें हजारों लोग मारे गए थे। जहां बम विस्फोट की घटना के बाद विशेष टाडा अदालत में इसकी सुनवाई हुई, वहीं उन दंगों के मामले में सरकार ने वैसी कोई सक्रियता नहीं दिखाई। अब जबकि मुंबई बम विस्फोटों पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आ गया है। सभी आरोपियों को अदालत ने सजा सुना दी है, तब एक बार फिर मुंबई दंगा पीडि़तों ने श्रीकृष्णा कमीशन की रिपोर्ट पर महाराष्ट्र सरकार से अमलदारी करने की मांग तेज कर दी है। मुंबई बम विस्फोटों पर मुस्तैदी से कार्रवाई और श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट जो कि 1998 में ही आ गई थी, उस पर सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं करना, क्या साबित करता है? रिपोर्ट को सरकारों द्वारा 15 साल से ठंडे बस्ते में डाल आखिर इंसाफ और कानून के किन तकाजों को पूरा किया जा रहा है? समझ से परे है। ऐसा लगता है मानो हमारे देश में दो कानून हैं जो आम लोगों के लिए अलग और फिरकापरस्तों के लिए बिल्कुल अलग हैं। दिसंबर 92 और जनवरी 93 में मुंबई में हुए भयानक दंगों के दागियों पर अभी तक कोई मुकदमा नहीं चलाया गया है। जबकि जस्टिस श्रीकृष्णा ने अपनी रिपोर्ट में सभी दोषियों को साफ-साफ तौर पर चिह्नित किया था। जांच के दौरान दंगों में उनकी संलिप्तता के ठोस सबूत हासिल हुए, फिर भी महाराष्ट्र सरकार अभी तक इस रिपोर्ट पर कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई है। दोषियों को सजा दिलाने के लिए जो राजनीतिक इच्छाशक्ति होना चाहिए, वह सरकार में कहीं नजर नहीं आती।
गौरतलब है कि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई में मुसलमानों ने इस घटना का विरोध दर्ज करने के लिए एक रैली निकाली थी। शांतिपूर्ण ढंग से रैली निकाल रही जनता पर पुलिस ने अचानक फायरिंग कर दी। इस फायरिंग में डेढ़ दर्जन लोग मारे गए। घटना की प्रतिक्रिया में मुंबई में दंगे फैल गए। दंगों की कमान शिवसेना ने थाम ली और फिर राज्य में मार-काट का जो सिलसिला शुरू हुआ, यह तभी जाकर थमा जब मार्च में सीरियल बम विस्फोट हुए। बम विस्फोटों से सरकार की तंद्रा टूटती, तब तक दंगों में 2000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे। हजारों लोग जख्मी हुए और करोड़ों की जायदाद लूटकर तबाह कर दी गई। हजारों लोग इन दंगों में बेघर-बेरोजगार हो गए। दंगों की आग थमने के बाद जैसा कि सरकारें पहले भी करती आई हैं, दंगों की जांच के लिए पूर्व न्यायधीश जस्टिस बीएन श्रीकृष्णा की अगुआई में एक जांच कमीशन बैठा दिया। जस्टिस श्रीकृष्णा ने कड़ी मेहनत और जांच के बाद अपनी रिपोर्ट 16 फरवरी 1998 को सौंप दी। राज्य में उस समय शिव सेना-भाजपा गठबंधन सरकार थी। मुख्यमंत्री मनोहर जोशी ने रिपोर्ट पर कोई कार्यवाही करना तो दूर, उसे हिंदू विरोधी बतलाकर ठंडे बस्ते में डाल दिया। इंसानियत विरोधी जोशी की इस करतूत से हालांकि उस समय पूरे देश में हंगामा तो हुआ, पर रिपोर्ट न तो सार्वजनिक हुई और न ही इस पर कोई कार्यवाही हुई। आखिरकार शिव सेना-बीजेपी सरकार के इस गैर जिम्मेदाराना रवैये के खिलाफ एक सामाजिक कार्यकर्ता आरिफ नसीम खान और मुंबई शहर के हजारों लोगों ने मिलकर 'श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट इंप्लीमेंटेशन एक्शन कमेटी' बनाई और हाईकोर्ट में एक याचिका दायर कर अपील की, श्रीकृष्णा कमीशन रिपोर्ट में जो लिखा गया है, उसे जनता को बताने की हिदायत सरकार को दी जाए। बहरहाल, हाईकोर्ट के आदेश पर ही यह रिपोर्ट सार्वजनिक हो पाई।
इसके बाद आरिफ नसीम खान और कमेटी इस रिपोर्ट पर अमल कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गए। अदालत ने याचिका की सुनवाई करते हुए महाराष्ट्र सरकार से श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट पर अभी तक क्या कार्यवाही हुई? इसका हलफनामा और जवाब दाखिल करने की हिदायत दी। महाराष्ट्र सरकार ने हलफनामा दाखिल करने में भी हीलाहवाली दिखलाई। जैसे-तैसे अदालत में यह हलफनामा दाखिल हुआ, तो उसमें भी सरकार ने जो दलील दी, वह बेहद गैरजिम्मेदाराना थी। तत्कालीन कांग्रेस, एनसीपी गठबंधन सरकार ने बड़ी बेहयाई से कहा कि अगर दंगों के मुजरिमों पर कार्यवाई की गई, तो शहर में तनाव फैल जाएगा और एक बार फिर सांप्रदायिक धुव्रीकरण तेज होगा। यानी दंगों के गुनहगार शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे और उनकी दंगाई सेना के खिलाफ सरकार कोई कार्यवाही करती है तो शहर की सुख-शांति में खलल पड़ेगा।
जस्टिस श्रीकृष्णा ने अपनी रिपोर्ट में दंगों के लिए शिवसेना चीफ बाल ठाकरे, उनके चहेते मनोहर जोशी, मधुकर सरपोद्दार, गजन कृतिकार, शिवसेना के प्रमुख अखबार सामना इसके अलावा एक और मराठी अखबार नवाकाल और 31 पुलिस वालों को जिम्मेदार करार देते हुए कहा था कि दंगों से संबंधित कम से कम 1371 मामले फिर से खोले जाएं और मुल्जिमों के खिलाफ मुकदमे चलवाकर सख्त कार्रवाई की जाए। रिपोर्ट में आयोग ने पुलिस की भूमिका को भी शक के दायरे में लिया है। आयोग का कहना था कि यदि पुलिस ने कानून के दायरे में काम किया होता, तो दंगों पर काबू पाया जा सकता था। रिपोर्ट में तमाम दोषी पाए गए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सिफारिश की गई थी। आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक दंगों का ज्यादातर मामला 15 दिसंबर 1992 और 5 जनवरी 1993 के बीच हुआ। लेकिन बड़े पैमाने पर दंगे 6 जनवरी 1993 से भड़के, जब संघ परिवार और शिव सेना ने बड़े पैमाने पर मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार शुरू किया। और उस मुहिम में शिवसेना के प्रमुख पत्र सामना और नवाकाल अखबारों ने प्रमुख भूमिका निभाई। रिपोर्ट में खास तौर पर बाल ठाकरे, मनोहर जोशी और मधुकर सरपोद्दार का जिक्र किया गया था। जिन्होंने धार्मिक भावनाएं भड़काने में मुख्य भूमिका निभाई।
रिपोर्ट में सांप्रदायिक संगठनों, नेताओं की भूमिका का तो खुलासा हुआ ही है, साथ ही मुंबई पुलिस पर भी संगीन आरोप लगाए गए हैं। मुंबई दंगों में महाराष्ट्र पुलिस का सांप्रदायिक चेहरा खुलकर उजागर हुआ था। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, द पीपुल्स वरडिक्ट की रिपोर्टों ने उस समय खुलासा किया था कि दंगों में पुलिस की भूमिका काफी पक्षपातपूर्ण थी। मुंबई में पहले दौर के दंगे यानी दिसंबर 1992 में पुलिस गोलीबारी से ज्यादातर मुसलमान मारे गए थे। पोस्टमार्टम की रिपोर्टें दर्शाती हैं कि 250 लोगों में से 192 शख्स पुलिस गोलीबारी में मरे और उनमें से 95 फीसदी लोगों के पेट के ऊपर गोली लगी। पुलिस ने सीने पर गोलियां चलाई। जबकि उन्हें सख्त हिदायत है कि दंगा होने और जरूरत पडऩे पर फायरिंग जिस्म के निचले हिस्सों पर ही की जाए। जाहिर है पुलिस का इरादा दंगों को रोकने का न होकर कत्ले-आम करने का ज्यादा था। श्रीकृष्णा आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में मुंबई पुलिस पर संगीन आरोप लगाए थे। खुद मुंबई के तत्कालीन पुलिस आयुक्त आरडी त्यागी पर भी गैर जरूरी और बहुत अधिक गोलीबारी करने का इल्जाम है। दंगों के दौरान पुलिस कितनी वहशी हो गई थी, इसका अंदाजा चर्चित हरी मस्जिद मामले से लगाया जा सकता है। हरी मस्जिद में पुलिस की गोलीबारी से उस वक्त 6 बेगुनाह नमाजी मारे गए थे। जस्टिस श्रीकृष्णा कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में हरी मस्जिद मामले में पुलिस को दोषी करार दिया था और दंगों के तमाम दोषी पाए गए पुलिस अधिकारियों और सिपाहियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की सिफारिश की थी। लेकिन अब तक सिर्फ एक पुलिस अफसर को बर्खास्त किया गया है।
दंगों के दौरान पुलिस की कार्यपद्धति से नाखुश जस्टिस श्रीकृष्णा ने रिपोर्ट में 25 सिफारिशें, तो राज्य पुलिस बल की कार्यक्षमता और छवि सुधारने पर ही केंद्रित की थीं। जस्टिस श्रीकृष्णा ने बाद में एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि "अगर पुलिस ने मामले के सही दस्तावेज तैयार किए होते, तो उसे यकीनी माना जा सकता था। लेकिन पुलिस रिपोर्ट और गवाहों के बयान में काफी विरोधाभास पाया गया। जाहिर है जब संरक्षक खुद ही भेदभाव से काम लें, तो हालात और भी खराब हो जाते हैं। जांच के दौरान महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से लेकर कांस्टेबल तक भेदभाव का शिकार नजर आया। लेकिन जो कुछ भी मैंने पाया अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ दर्ज किया।" रिपोर्ट में राज्य के नेताओं और पुलिस अधिकारियों के जरिए अलग-अलग आदेश किए जाने को भी दंगों की प्रमुख वजह बतलाया गया था। यानी रिपोर्ट सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाती है। यदि तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने सही समय पर कारगर कदम उठाए होते तो दंगों पर काबू पाया जा सकता था।
दंगों में शिव सेना की भूमिका खुलकर सामने आई थी। शिव सेना के मधुकर सरपोद्दार को दंगों के दौरान फौजियों ने एक जीप के साथ पकड़ा था। जीप में असलहो बरामद हुए। फौज ने तुरंत उन्हें पकड़कर मुंबई पुलिस के हवाले कर दिया। मगर पुलिस ने उन्हें थाने से ही छोड़ दिया। पुख्ता सबूत होने के बाद भी उनके खिलाफ टाडा तो क्या, आर्म्स एक्ट का मुकदमा भी दर्ज नहीं किया गया। जाहिर है जब सारी मुंबई दंगों की आग में जल रही थी, ऐसे में शिवसेना सांसद मधुकर सरपोद्दार का जुर्म काफी संगीन था और उन पर तुरंत कार्रवाई की जानी चाहिए थी लेकिन मुंबई पुलिस ने सरपोद्दार पर कोई कार्रवाई नहीं की। दूसरी ओर फिल्म अभिनेता संजय दत्त का मामला है, जिन्हें महज एक हथियार की बरामदगी पर टाडा अदालत ने छह साल और सुप्रीम कोर्ट ने पांच साल की सजा सुना दी। जबकि संजय दत्त ने किस हालात में अपने पास हथियार रखा इस बात पर कोर्ट ने कतई गौर नहीं किया। दंगों के दौरान संजय दत्त और उनके पिता सुनील दत्त को जो उस वक्त कांग्रेस के सांसद थे, बराबर धमकियां मिल रही थीं। दंगाई सुनील दत्त को मुसलमानों का हमदर्द मानते थे। वहीं पुलिस दंगाईयों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही थी। ऐसे हालात में संजय दत्त का अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार रखना, उन्हें दोषियों की कतार में ला देता है। वहीं दंगों के लिए हथियारों का जखीरा ले जाने वाले शिव सेना के नेता मधुकर सरपोद्दार पर मुंबई की एक अदालत ने सोलह साल बाद दंगों का दोषी ठहराते हुए सिर्फ एक साल की कैद और पांच हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। जाहिर है एक ही जुर्म के लिए सरकार और अदालतें अलग-अलग सजाएं कर रहीं हैं।
दरअसल, हमारे देश में सरकारों ने सांप्रदायिक दंगों को कभी गंभीरता से नहीं लिया। दंगों के आरोपियों को कभी कठोर सजाएं और जुर्माने नहीं हुए। जिसके चलते दंगाईयों को कानून का कोई डर नहीं सताता। फिर दोषियों को सजा दिलवाने में हमारी लचर कानून व्यवस्था भी आड़े आती है। दंगा पीडि़तों को सालों में जाकर इंसाफ मिल पाता है। दंगाईयों को सजा दिलवाना कितना मुश्किल है, यह महज एक उदाहरण मेरठ के हाशिमपुरा हत्याकांड से जाना जा सकता है। जिसमें मेरठ दंगे के दौरान पीएसी के जवानों ने 50 मुसलमानों को गिरफ्तार कर उनका कत्ल कर हिंडन नहर में बहा दिया था। मामला खुला तो केस कोर्ट में चला गया। मगर विडंबना की बात यह है कि घटना के ढाई दशक बाद भी आरोपी जेल की सलाखों के पीछे नहीं जा पाए हैं। 1984 के सिख विरोधी दंगों, बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसके बाद हुए दंगे, 2002 के गुजरात में जघन्यतम दंगों के दोषियों पर कितनी कार्रवाई, कितनी सजाएं हुईं? सभी जानते हैं। यदि दंगाईयों पर धर्म-जाति से ऊपर उठकर कानून अपना काम करता तो देश के सामने एक अच्छा उदाहरण होता और दंगाई फिर कभी कानून तोडऩे से कतराते, मगर सरकारों की हीलाहवाली के चलते हमेशा आरोपी या तो सजा से बच जाते हैं, या फिर जब उनको कोई सजा सुनाई जाती है, तब तक बहुत देर हो जाती है।
कुल मिलाकर जस्टिस श्रीकृष्णा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में दागियों की साफ तौर पर निशानदेही की थी। जांच के दौरान दंगों में उनके शामिल होने के ठोस सबूत हासिल हुए थे। फिर भी महाराष्ट्र सरकार 15 साल से यह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाले हुए है। जब भी इस रिपोर्ट पर अमल करने की बात उठती है, सरकार दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत कवायद करती है और उसके बाद फिर भूल जाती है। 2004 एवं 2009 के लोकसभा और उसके बाद में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हर बार अपने चुनावी घोषणा पत्र में राज्य के मुसलमानों से वादा करती है कि वे दोबारा सत्ता में लौटे, तो श्रीकृष्णा आयोग की रिपोर्ट को लागू करेंगे। लेकिन 15 साल होने को आये, इस रिपोर्ट पर अमल करने की राह में दोनों ही पार्टियों ने कोई कारगर कदम नहीं उठाया है। दंगा पीडि़तों को इंसाफ और गुनहगारों को सजा मिले, यह कहीं से भी उनकी प्राथमिकता में नहीं। बल्कि अभी तक की उसकी जो कारगुजारियां रही हैं, वह गुनहगारों को सजा दिलवाने से ज्यादा उन्हें बचाने की है। ऐसे में आखिरी उम्मीद, देश की न्यायपालिका से ही जाकर बंधती है। मुंबई बम विस्फोटों के मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट से पीडि़तों को इंसाफ मिला है, ठीक उसी तरह एक दिन दंगा पीडि़तों को भी इंसाफ मिलेगा।
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