अशोक होटल में भात
Author: समयांतर डैस्क Edition : April 2013
एक संवाददाता
अंग्रेजी दैनिक द हिंदू के 21 मार्च के अंक में संपादक सिद्धार्थ वरदराजन की ओर से एक बॉक्स 13वें पृष्ठ पर छपा। यह एक तरह का सार्वजनिक नोटिस था जो मैनेजमेंट की शिक्षा का व्यवसाय करनेवाली एक निजी कंपनी को दिया गया था।
संपादक ने इस बात पर आपत्ति की थी कि इंडियन इंस्टीट्यूट आफ प्लॉनिंग एंड मैनेजमेंट (आइआइपीएम) ने इधर एक विज्ञापन दिया है जिसमें उसने द हिंदू के नाम पर एक पंक्ति यह लगाई है कि "आइआइपीएम को हिंदू ने मानवीय चेहरेवाला बी-स्कूल (बिजनेस स्कूल) कहा है। " इसका अर्थ स्पष्ट रूप से यह है कि अखबार ने आइआइपीएम पर अपनी मुहर लगाई है।
संपादक ने इसे गलत और अनैतिक बतलाया है। उनके अनुसार कथा यह है कि 2 सितंबर, 2012 में दिल्ली पुस्तक मेले के अवसर पर द हिंदू के दिल्ली संस्करण में इस कंपनी का एडवरटाइजर्स फीचर के तहत 'आइआइपीएम: द बी-स्कूल विद ए ह्यूमन फेस' शीर्षक लेख छपा था। इस की सामग्री विज्ञापन विभाग को विज्ञापनदाताओं द्वारा दी गई थी। इसे इस समझ के तहत छापा गया था कि यह सशुल्क विज्ञापन है। एडवरटाइजर्स फीचर विज्ञापन देने का एक ऐसा तरीका है जिसके तहत कंपनियां और संस्थान अपनी ओर से लेख लिखवा कर अखबारों में छपवाती हैं। यह नैतिक रूप से कहां तक सही या गलत है यह विवादास्पद हो सकता है पर इसके दो खतरे तो हैं ही।
पहला और बड़ा खतरा है इसके माध्यम से पाठक का भ्रमित होना। अगर वह सजग नहीं है तो उसके द्वारा प्रचार सामग्री को संपादकीय सामग्री मानने की संभावना सदा बनी रहती है। वैसे सच यह है कि इस तरह की सामग्री का उद्देश्य ही यही होता है।
इसका दूसरा खतरा है विज्ञापनदाता द्वारा इस सामग्री का अपने पक्ष में अन्य जगह इस्तेमाल कराना और उन अखबारों का हवाला देना जिनमें यह विज्ञापन के तहत छपी हो। यह कैसे होता है स्वयं द हिंदू इस का सबसे अच्छा उदाहरण है।
मार्च, 2013 के मध्य में आइआइपीएम ने पूरे पेज का एक नया विज्ञापन जारी किया जिसमें सितंबर के विज्ञापन की पंक्ति 'आइआइपीएम: द बी-स्कूल विद ए ह्यूमन फेस' को द हिंदू के नाम पर शामिल किया हुआ था।
अखबार के अनुसार आइआइपीएम के आदमी यह विज्ञापन द हिंदू को भी देने आए थे पर अखबार की ओर से इस पंक्ति पर आपत्ति की गई और आग्रह किया गया कि इसे निकाला जाए। विज्ञापनदाता के यह न करने पर द हिंदू ने विज्ञापन छापने से इंकार कर दिया। पर यह दूसरी जगहों जैसे कि टाइम्स आफ इंडिया आदि में जैकेट के रूप में 19 मार्च को प्रकाशित हुआ।
संपादक ने आगे कहा है कि "द हिंदू आइआइपीएम के आज के और भविष्य के छात्रों को यह स्पष्ट करना चाहता है कि उसने इस तरह का कोई संपादकीय एंडोर्समेंट नहीं किया है। " साथ ही अखबार ने आइआइपीएम को चेतावनी दी है कि वह इस तरह की हरकत से बाज आए अन्यथा हमें जो उचित लगेगा हम करेंगे।
यह बतलाना जरूरी नहीं है कि द हिंदू आइएएस आदि विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनेवाले छात्रों में विशेष रूप से लोकप्रिय है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आइआइपीएम की मंशा इसी को भुनाने की हो सकती है। पर यहां याद दिलाना जरूरी है कि आइआइपीएम वही संस्थान है जिसने 15 फरवरी को मध्य प्रदेश के एक कस्बे की अदालत से आदेश लेकर विभिन्न वेबसाइटों के लगभग 78 पृष्ठों पर रोक लगवा दी थी। मजे की बात यह है कि इनमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की वेबसाइट भी थी। इस आदेश को बाद में ऊपर की अदालत ने खारिज किया। यूजीसी वेब साइट पर प्रतिबंध लगवाने के पीछे कारण यह है कि यूजीसी हर वर्ष एक सूची जारी करता है जिसमें बतलाया जाता है कि कौन-कौन से शिक्षण संस्थान उसके द्वारा मान्य नहीं हैं। और इन में इस संस्थान, यानी आइआइपीएम का भी नाम लगातार रहता है। सच यह है कि यह संस्थान सिर्फ विज्ञापन के जोर पर चलता है और वर्षों से अपना धंधा चला रहा है। इसकी कथनी और करनी में जबर्दस्त अंतर है इसीलिए इसके यहां से पढ़े असंतुष्ट छात्रों की एक लंबी कतार है जो ऑन लाइन यानी नेट पर इसके खिलाफ खूब लिखते हैं। कुछ तो वेबसाइटें ही पूरी तरह इस संस्थान के खिलाफ हैं। पर सच यह है कि मुख्यधारा का मीडिया इससे मिलनेवाले विज्ञापनों के कारण अपना मुंह बंद रखता है। यह पहली बार है जब किसी अखबारी संस्थान ने इस संस्थान को इस तरह का नोटिस दिया है।
पर विज्ञापन के माध्यम से लोगों को ठगने का सिलसिला कोई नया नहीं है। यह कई तरीके से चलता रहता है और अक्सर बेरोजगार या कम पढ़े लोग इस का शिकार होते हैं। लेकिन विज्ञापनों के माध्यम से दादागिरी करने की कला की इधर बड़े पैमाने पर शुरुआत हो रही है। इसका श्रेय जाता है सहारा के मालिक सुब्रत राय को।
मामला कुछ वर्ष पूर्व का है जब सहारा ने ऑप्शनल फुल्ली कंवर्टेबल डिबैंचर जारी किए। 2010 में एक शिकायत पर सेबी ने इसकी जांच शुरू की और बड़े पैमाने पर अनियमितताएं पाईं। जैसे कि कहने को लाखों लोगों ने डिबैंचर खरीदे पर सेबी ने 68 लोगों को ही वास्तविक पाया। दूसरे शब्दों में इन डिबैंचरों में जो पैसा लगा है वह बेनामी है। जो भी हो सहारा ने जांच में सहयोग नहीं दिया। मामला बढ़ता गया। पिछले दिनों तो सर्वोच्च न्यायालय ने सेबी को यह कहते हुए धमकाया भी कि वह सहारा के खिलाफ उचित कार्यवाही क्यों नहीं कर रही है। जबकि इससे पहले स्वयं सर्वोच्च न्यायाल ने सहारा को तीन महीने की मोहतल दे दी थी। (विस्तृत रिपोर्ट देखें: समयांतर, मार्च, 2013) इस बीच सेबी ने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के तहत सहारा के मालिक सहित कुछ अधिकारियों के खाते सील कर दिए। मार्च के शुरू में सेबी ने सर्वोच्च न्यायालय से अपील की कि चूंकि सहारा जांच में सहयोग नहीं कर रहा है उसके मालिकों को हिरासत में लेने की इजाजत दी जाए और उनके देश से बाहर जाने पर रोक लगाई जाए। अजीब बात यह है कि 24 हजार करोड़ रुपए के इस मामले में सहयोग न करने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय ने सहारा को फिर से समय दे दिया है और इस पर अब अप्रैल में विचार करेगा।
17 मार्च को सहारा ने देश के विभिन्न अखबारों में सेबी के खिलाफ बोलते हुए 'बहुत हो गया' शीर्षक से विज्ञापन जारी किया। सुब्रत रॉय सहारा के हस्ताक्षरों वाले तीन खंडों के इस विज्ञापन में तथाकथित भारत माता का एक चित्र लगा था जो चार दहाड़ते शेरों द्वारा खींचे जा रहे रथ पर विशाल तिरंगा झंडा लिए, तिरंगी किनारी की ही साड़ी और ऊंचा-सा मुकुट पहने चल रही है। इस विज्ञापन में सहारा कंपनी का बखान करने के बाद सेबी के बारे में जो भाषा इस्तेमाल की गई है वह नोट करने वाली है। जैसे कि "सेबी बिना किसी आधार के सहारा समूह के विरुद्ध दुर्भावना से मीडिया में प्रतिदिन कोई न कोई खबर जारी कर देता है….बदले की भावना के साथ… इस मामले से जुड़े कुछ अधिकारियों द्वारा। " इस विज्ञापन में सहारा ने सेबी के अधिकारियों को टेलीविजन पर बहस के लिए भी आमंत्रित किया है।
इस पूरे मामले में एक छोटा-सा सवाल है अगर सेबी पूरी तरह गलत है या उसके आरोप इतने अधारहीन हैं तो फिर सर्वोच्च न्यायालय ने उस मामले को खारिज क्यों नहीं किया? दूसरी बात यह है कि आखिर सहारा अप्रैल तक का इंतजार क्यों नहीं कर रहा है? या क्यों वह अब तक अपने कागजों को पूरा नहीं कर पाया है? या फिर सेबी और उसके आंकड़ों में इतना अंतर कैसे है?
सवाल यह भी है कि आज तक एक भी अखबार ने उसके पक्ष में यह क्यों नहीं कहा है कि यह पूरी कहानी ही गतल है? क्या राय इतना कमजोर है कि वह अपनी बात अखबारों तक नहीं पहुंचा सकता? सच यह है कि वह स्वयं मीडियापति है और उसके कई समाचार चैनलों के साथ ही साथ हिंदी व उर्दू में दैनिक भी हैं? जांच अधिकारियों को टेलीविजन पर बहस के लिए बुलवाने का क्या अर्थ है? इस तरह तो कल को हर आरोपी जांच की जगह अधिकारियों को बहस के लिए टीवी पर बुलाएगा।
पर सहारा इससे पहले भी इसी तरह का एक विज्ञापन इसी मामले में जारी कर चुका है। उसमें भी वह अपने को निर्दोष बताता है और किन्हीं अमूर्त लोगों को अपना दुश्मन जो उसके खिलाफ अहर्निश षडय़ंत्र कर रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि आखिर इस तरह की धमकी भरी भाषा और आक्रामकता के बावजूद न तो सेबी ने और न ही न्यायालय ने इस पर कोई आपत्ति की है। यह विज्ञापन सरासर सेबी नाम की सार्वजनिक संस्था की विश्वसनीयता को खत्म करने की कोशिश के साथ ही साथ सर्वोच्च न्यायालय पर भी अप्रत्यक्ष रूप से दबाव डालना है। मामला न्यायालय के विचाराधीन है और उस तरह से देखा जाए तो अवमानना का बनता है। यह 'क्रोनी कैपिटलिज्म' के बढ़ते कुप्रभाव का भी उदाहरण है। अगर इसे नहीं रोका गया तो निश्चित है कि पूंजीपतियों द्वारा राजनीतिकों से मिलकर की जा रही देश के संसाधनों की लूट और जनता को ठगने की प्रक्रिया और तेज हो जाएगी।
असल में सहारा इससे पहले भी सरकारी कर्मचारियों को डराने की इसी तरह की कोशिश कर चुका है। कुछ वर्ष पहले जब आयकर विभाग ने उसके कार्यालयों पर छापा मारा तब भी उसने इसी तरह से कर्मचारियों के खिलाफ विज्ञापन जारी किए थे। सरकार ने तब भी उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की थी। पर इस बार सौभाग्य से सहारा के इस अवमाननात्मक विज्ञापन को अंतत: चुनौती मिल गई है। पूर्व आइपीएस अधिकारी अमिताभ ठाकुर और उनकी पत्नी नूतन ठाकुर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच में 21 तारीख को एक याचिका दायर की है। उनका आरोप है कि सहारा इंडिया ग्रुप और सुब्रत राय ने 17 मार्च को विभिन्न अखबारों में प्रकाशित विज्ञापन के माध्यम से सेबी और न्यायमूर्ति बीएन अग्रवाल की भी निंदा की है। जबकि वे अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। न्यायालय ने राय को नोटिस जारी कर दिया है और मामले की सुनवाई 2 अप्रैल को होनी है।
समयांतर के पिछले अंक में प्रकाशित लेख में कहा गया था कि "यह आम तौर पर माना जाता है कि सहारा समूह में नौकरशाहों, राजनेताओं और इस प्रकार के तमाम लोगों का पैसा निवेशित है। यह नंबर दो का पैसा नंबर एक में करने की मशीन है और यह एक संस्थान है जिसमें इन सब लोगों का पूर्ण विश्वास है। इसलिए इनके अंदर की बात बाहर नहीं आती है। "
फिलहाल इस पर विस्तार से न जा कर हम एक तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे। इंडिया टुडे समूह, जो इन दिनों सहारा समूह से अपनी निकटता के कारण चर्चा में है, के अंग्रेजी दैनिक मेल टुडे में प्रकाशित समाचार के अनुसार: 21 मार्च को दिल्ली के सरकारी होटल अशोक में एक जबर्दस्त पार्टी हुई। इसमें कई राजनेताओं ने भाग लिया जिनमें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव और जया बच्चन, भाजपा सांसद अरुण जेटली, राजीव प्रताप रूडी और हेमा मालिनी, कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल, केंद्रीय मंत्री फारूख अब्दुल्ला, और पर्यटन मंत्री चिरंजीवी तथा आरजेडी के अध्यक्ष लालू यादव उपस्थित थे। इसमें उपस्थित बॉलीवुड के अभिनेताओं और आस्ट्रेलियाई व भारतीय क्रिकेट तथा हॉकी के खिलाडिय़ों का होना तो बड़ी बात है ही नहीं। पर रही सही कसर अगले दिन (23 मार्च) टाइम्स आफ इंडिया ने पूरी की। इसने अपने परिशिष्ट 'दिल्ली टाइम्स' के दो पृष्ठों में इस अन्नप्राशन के 70 फोटोग्राफ छापे। इनसे पता चला कि भात खाने में पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, राज बब्बर, दिग्विजय सिंह, राजीव शुक्ला, नितिन गडकरी, मीरा कुमार, शीला दीक्षित, मेनका गांधी, शरद यादव, तारिक अनवर, अर्जुन मुंडा, प्रफुल्ल पटेल, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, सीपी ठाकुर, उमा भारती, सुबोधकांत सहाय, अजित जोगी, जगदीश टाइटलर, कर्ण सिंह, त्रिपुरा के राज्यपाल देवानंद कुंवर, उत्तर प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी शामिल थे। सिवा कम्युनिस्टों और बसपा के हर रंग के राजनीतिक वहां उपस्थित थे। इन लोगों के अलावा कानूनी दुनिया की तीन और विभूतियां भी उपस्थित थीं इन में एक थे राम जेठ मलानी, दूसरे थे रविशंकर प्रसाद और तीसरे अपने ही मार्कण्डेय काटजू जो प्रेस की आजादी और मर्यादा को कायम रखने के लिए मर-मिटने को तैयार रहते हैं। इन नामों को इसलिए रेखांकित करना जरूरी है कि सहारा समूह के खिलाफ चल रही कानूनी कार्रवाई की गंभीरता से क्या ये लोग नावाकिफ होंगे?
यहां दो बातें याद रखने की हैं। पहली यह कि 'दिल्ली टाइम्स' मूलत: एक विज्ञापन परिशिष्ट है। यह इसके मास्टर हेड के नीचे लिखा होता है 'एडवरटोरियल एंटरटेनमेंट प्रमोशनल फीचर' – (अंग्रेजी में छद्म को बनाए रखने के लिए जितने शब्द हैं उतने दुनिया की किसी और भाषा में शायद ही होंगे। इसका अनुवाद कुछ इस तरह का होगा: विज्ञापादकीय मनोरंजन प्रोत्साहन फीचर )। यानी ये सारे चित्र पैसे दे कर छपवाए गए थे। इसका एक और प्रमाण उसके अगले दिन रविवार के दैनिक भास्कर में था (बहुत संभव है और जगह भी हो), जिसके पिछले पृष्ठ पर इसी आयोजन के 62 फोटोग्राफ 'एक जगमगाती शाम रोशना के नाम' शीर्षक के साथ छपे हुए थे। पर यह कहीं नहीं लिखा था कि यह विज्ञापन है। यह इसलिए जरूरी था कि पतली रेखा के बॉर्डर के बावजूद इसके संपादकीय फीचर होने का भ्रम होता था। पर असली मजा इसके साथ छपी पंक्तियों में था। उसकी बानगी देखिये: "राजधानी दिल्ली में द्रमुक के यूपीए सरकार से समर्थन वापस लेने के बाद राजनीतिक सरगर्मियां चरम पर थीं और सरकार ने कई अहम मुद्दों पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक और रात को कैबिनेट की बैठक बुला ली थी, इसके बावजूद ….(इस) मौके पर आशीर्वाद देने के लिए पूर्व राष्ट्रपति, राज्यपालों, मुख्यमंत्रीगण, लोकसभा अध्यक्ष, अनेक केंद्रीय मंत्रियों, 175 से ज्यादा सांसदों, 120 से ज्यादा ग्रेड-ए आइएएस, आइपीएस और आइआरएस अधिकारियों ने पंचसितारा होटल अशोक पहुंच कर समारोह की शोभा बढ़ाई। "
यानी सहारा परिवार द्वारा आयोजित इस समारोह के चित्र सामान्य प्रचार का मसला नहीं थे। यह पैसे दे कर करवाया गया था। दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब तक राय परिवार के सारे कार्यक्रम लखनऊ में ही हुआ करते थे, जहां सहारा का मुख्यालय है। पर इस आयोजन को जो निहायत ही मामूली है, दिल्ली में यों ही नहीं किया गया।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष उपस्थित थे। अगर देखा जाए तो सहारा-सेबी विवाद से जुड़ा मसला प्रेस की मर्यादा के सवाल से भी जुड़ा है। आखिर अखबारों ने ऐसा विज्ञापन छापा ही क्यों जो प्रथम दृष्टया ही न्यायालय की अवमानना करता नजर आता है। (सर्वोच्च न्यायालय ने ही पूर्व न्यायाधीश बीएन अग्रवाल को इस मामले का पर्यवेक्षक बनाया है। ) इसलिए उन सब अखबारों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही होनी चाहिए और इस का संज्ञान स्वयं न्यायालय को लेना चाहिए। कम से कम प्रेस कांउसिल के अध्यक्ष को तो यह सवाल उठाना ही चाहिए। क्या वह ऐसा करेंगे?
अब कल्पना कीजिए जिसमें सरकार के इतने सारे मंत्री और विपक्ष के इतने बड़े-बड़े नेता तथा देश के बड़े-बड़े नौकरशाह शामिल हों, उसका कोई बाल बांका कर सकता है?
खैर छोडिय़े सरकार और न्यायालय को। मुद्दे पर आईये और इस प्रश्न का जवाब दीजिए। प्रश्न सीधा-सा है, क्या आप अंदाज लगा सकते हैं कि यह पार्टी क्यों हुई होगी?
सहाराश्री की पोती के अन्नप्राशन संस्कार (मेल टुडे ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है – भात खिलाना) के लिए। इससे बढिय़ा पीआर का कोई और बहाना हो सकता है? असल में सहाराश्री ने अपनी 'नन्हीं' पोती का अपने व्यापारिक हितों को बचाने के लिए इस्तेमाल तो किया ही साथ में उन सारे अतिथियों का भी इस्तेमाल एक ऐसा राजनीतिक संदेश देने के लिए किया जिसके खतरनाक निहितार्थ हैं। साफ शब्दों में कहें तो यह एक पूंजीपति द्वारा, जिसके खिलाफ कई तरह की वित्तीय अनियमितताओं के आरोप हैं, भारतीय कानून व्यवस्था को ही ध्वस्त (सबवर्ट) करने के लिए था। अगर सहारा समूह इतना ही निर्दोष है तो फिर वह कानूनी कार्रवाई से बचना क्यों चाहता है? अजीब बात है कि पूरा शासक वर्ग वहां हाथ बांधे खड़ा था? सवाल है क्या हमारे शासक, राजनीतिक और नौकरशाह इतने मासूम हैं कि जानते ही न हों कि वे कहां जा रहे हैं, और सहारा समूह को लेकर क्या विवाद चल रहा है? कोई पुणे से चला आ रहा है, कोई अगरतला से, कोई रांची से तो कोई भोपाल से और लखनऊ वालों को तो आना ही था। क्या इन पदवीधारियों के पास काम करने को और कुछ नहीं है?
अब बताइये, ऐसे में सेबी के सरकारी नौकर क्या खाकर सहारा के खिलाफ कार्रवाई करेंगे? और अगर करते हैं तो यह बड़ी बात होगी। वैसे यह समारोह इस बात का भी संकेत देता है कि इस बार सहारा समूह गहरे संकट में है। इधर ढाका से समाचार आया है कि बंगला देश में इसकी 80 हजार करोड़ की आवासीय योजना खटाई में पड़ गई है। इसके तहत नूतन ढाका नाम के नए शहर को बसाने के अलावा पांच और जगहों पर आवासीय योजनाओं को अंजाम देना था। यह योजना उसकी बंगलादेश में स्थापित कंपनी सहारा मातृभूमि उन्नयन कार्पोरेशन लि. के तहत शुरू होनी थी। इसके अटक जाने का सीधा संबंध सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश से है जिसके तहत सहारा की दो कंपनियों को सेबी की देखरेख में 24 हजार करोड़ रुपए 15 प्रतिशत ब्याज समेत लौटाने हैं।
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