हमला हुआ दरभा घाटी में, बहस आतंकवाद पर हो रही है!!!
कभी कम्युनिस्टों के लिये कहा जाता था कि जब मास्को में बारिश होती है तो भारत के कम्युनिस्ट दिल्ली में छाता लगा लेते हैं। आज लगभग वही स्थिति अमरीकी-परस्त भारतीय शासक वर्ग और उनके समर्थकों की भी है। जब कभी भारत में किसी किस्म की कोई आतंकवादी या माओवादी हिंसा की घटना घटती है पूरे देश में चारों ओर से हल्ला मचने लगता है – सरकारी सत्ताधारी और कथित विपक्ष के नेताओं की ओर से, सर्वज्ञता का दावा करने वाली मीडिया-जमात की ओर से, सर्वज्ञ कथित बुद्धिजीवियों की ओर से, कथित महान देशभक्तों की ओर से – लगभग सभी ओर से, सियार के हुवाँ-हुवाँ की तर्ज़ पर, अमरीका की नकल पर आतंकवाद के कथित कारगर और अन्तिम तौर पर सफाये के लिये तुरत-फुरत एक आतंकवाद-विरोधी केन्द्रीय " नेशनल काउन्टर टेररिज्म सेन्टर" (एन.सी.टी.सी.) खोलने और उसे आतंकवाद को समाप्त करने के लिये "पूरी छूट" देने की दलीलें दी जाने लगती हैं। तर्क दिया जाता है कि इस तरह की एक संस्था ही आतंकवाद के सफाये की कुँजी है, इस साँप का जहर मोहरा है।
दरभा घाटी में माओवादी हमले और उसमे बड़े पैमाने पर मारे गये काँग्रेसी नेताओं के क्रूर तथ्य की पृष्ठभूमि में आंतरिक सुरक्षा के सवाल पर देश के मुख्यमन्त्रियों की एक बैठक फिर 5 जून, 2013 को आयोजित की गयी है। विगत 15 अप्रैल 2013 की आन्तरिक सुरक्षा पर बुलायी गयी मुख्यमन्त्रियों की बैठक में भी एक प्रस्ताव पेश किया गया था (जिसे कुछेक मुख्यमन्त्रियों के विरोध की वजह से स्वीकृति नहीं मिल पायी थी) कि अमरीकी की तर्ज पर एक एन.सी.टी.सी. गठितकिया जाये। बहुत सारे मुख्यमन्त्रियों ने इस 15 अप्रैल की बैठक में जाना भी जरूरी नहीं समझा था। मुख्यमन्त्रियों के एक हिस्से ने भारत सरकार के एन.सी.टी.सी. के प्रस्ताव में संघीय ढाँचे के खिलाफ तत्व देखे थे।
इसके बाद ही केन्द्रीय गृह मन्त्री सुशील कुमार शिंदे ने इस प्रस्ताव के पक्ष में जनमत बनाने के क्रम में देशवासियों से कहा था कि संघीय ढाँचे के खिलाफ जिन बिन्दुओं पर आपत्ति व्यक्त की गयी थी वे सभी अधिकार जो एन.सी.टी.सी. को दिये गये थे सभी के सभी वापस ले लिये गये हैं और अब आपत्ति के लायक इसमें कुछ भी नहीं बचा है। अब दरभा घाटी जैसी घटना की पृष्ठभूमि में फिर इसे स्वीकृति दिलाने की कोशिश की जा रही है। हमारे देश और समाज में अभी अमरीकी राष्ट्र-राज्य को अन्तिम सत्य मानने की होड़ जो लगी हुयी है। इसके कई नहीं, अनगिनत पैरोकार भी निकल आयेंगे।
प्रायः अमरीका को मक्का-मदीना मानने वालों की ओर से तर्क यह दिया जाता है कि 9/11 की ट्विन टावर ध्वस्त करने वाली आतंकवादी घटना के बाद से ही अमरीका ने किस प्रकार आतंकवाद को – अमरीका के खिलाफ आतंकवाद को, दुनिया के कोने- कोने में ध्वस्त किया और अमरीकी राष्ट्र-राज्य की धर्म –ध्वजा फहरा दी है।
मगर तथ्य तो कुछ दूसरी ही कहानी कहते दिखते हैं। ऐसे लोग यह भूलने की कोशिश करते दिखते हैं कि यदि तीन आतंकवादी घटनाएँ विफल हुयी – दिसम्बर 2001 की शू बॉम्बर रिचर्ड रीड की, दिसम्बर 2009 की अंडरवियर बॉम्बर उमर फारुक अब्दुल्मुताल्लब की और मई 2010 की फैसल शहजाद की टाइम्स स्क्वायर बॉम्बिंग की, तो वो इसलिये नहीं कि वो कोई अमरीकी एन.सी.टी.सी. और अमरीकी इन्टेलिजेन्स की सफलता थी। बल्कि आतंकवाद के अध्येता बताते हैं कि वे तीनों की तीनों, इन इस्लामिक आतंकवादियों की अदक्षता की वजह से विफल रहीं। मगर हमारे देश में वे लोग, जो अमरीका को स्वर्ग मानना चाहते, वे इसे भूलना चाहेंगे। इसके ज़िक्र तक से बचना चाहेंगे। वे सुविधानुसार यह निर्मम तथ्य भी भूलना ही चाहेंगे कि यह भी नहीं है कि 2001 की ट्विन टावर की घटना के बाद और अमरीकी एन.सी.टी.सी. बनने के बाद भी अमरीका आतंकवाद मुक्त नही ही हो पाया। जुलाई 28, 2006 को नावीद अफज़ल हक नाम के एक इस्लामिक आतंकवादी नेज्यूइश फेडरेशन ऑफ़ ग्रेटर सीएटल में अंधाधुंध फायरिंग कर एक को हलाक और पाँच को घायल कर दिया। उसी तरह फरबरी 12,2007 को सुलेज्मन तालोविक ने साल्ट लेक सिटी, उटाह के ट्राली स्क्वायर मॉल में 5 लोगों को हलाक़ कर दिया और पाँच जने घायल कर दिये गये। अभी रुकिये मत, चौंकिये भी नहीं, जानिये और बेहतर हो कि याद भी रखिये कि यू.एस. के आर्मी मेजर, निदाल मलिक हसन ने ही अमरीका के फोर्ट हुड, टेक्सास के मिलिट्री इस्टैब्लिशमेन्ट के अन्दर ही 14 लोगों की हत्या कर दी थी और 29 को घायल कर दिया था। और यह सब तब हुआ जब कि अमरीका सभी तरीके से भारत से ज्यादा सम्पन्न और सुरक्षित राज्य है और साथ ही तब जब कि 9/11 की घटना के बाद से ही अमरीका ने तमाम किस्म के "जनतान्त्रिक" और "मानवाधिकारवादी" पहलुओं को पूरी तरह से तिलाञ्जलि दे रखी है। सच ही कहा गया है कि तथ्य बड़े ही निर्मम होते हैं।
अब जरा इन्टरनेशनल थिएटर की भी बातें करें। वहाँ अमरीका की क्या उपलब्धि रही ? तथ्य बताते हैं वहाँ भी अमरीका की काउन्टर-टेररिज्म की पॉलिसी को नाकामी ही हाथ लगी। अफ-पाक रीजन में क्या हुआ ? सिवाय एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौत के, अमरीका को कुछ भी ठोस हाथ नहीं लगा। अमरीका के "ऑपरेशन इण्ड्यूरिंग फ्रीडम" चलाये जाने के पहले जहाँ तालिबान के आधार क्षेत्र कम थे वहीँ उस ऑपरेशन के बाद तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान के 34 में से 31 जिलों में उसके पाँव मज़बूत हो गये। पाकिस्तान में भी अमरीका की "ऐड एण्ड इन्टरवेन्शन" की नीति को कोई ज्यादा सफलता नहीं मिली। बल्कि वहाँ भी अराजकता बढ़ी ही।
अमरीका ने अमरीकी धरती से दूर "टेररिस्ट एपरेटस को न्यूट्रलायिज़" करने के नाम पर दो दो वॉर लड़े, सारी दुनिया में घूम-घूम कर आतंकवादी नेताओं को मारा और गिरफ्तार किया, और वो भी तमाम अन्तर्राष्ट्रीय कानून, विधि और अधिकारों को ठेंगे पर रखते हुये और इसके लिये उसने कुछ भी उठा नहीं रखा। उसके पास जो कुछ भी था उसने इस लड़ाई में झोंक दिया – धन से लेकर सामरिक ताकत तक। अमरीका के अन्दर उसने एन.सी.टी.सी. के लिये अपने ही फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेशन (ऍफ़बीआई) तक को समाप्त कर दिया, अमरीकी संविधान तक को पाँव तले रौंद डाला और इसके लिये विदेशी धरती पर जाकर अन्तर्राष्ट्रीय कानून (इन्टरनेशनल लॉ) तक की धज्जियाँ उड़ा डाली। दुनिया के विभिन हिस्सों मेंड्रोन हमले में अपने कथित दुश्मनों को मार डाला। ऐसे "एग्जीक्यूटिव एक्सन्स" के आदेशों पर खुद अमरीकी प्रेसिडेंट्स ने दस्तखत किये। सीआईए को पैरामिलिट्री फ़ोर्स की तरह बना दिया गया, जिसका काम इन्टेलिजेन्स गेदरिंग नहीं रहकर अब वह एक्सेक्युट करने वाली एजेंसी की तरह हो गयी। बुश एडमिनिस्ट्रेशन ने "किल लिस्ट" बनायीं जिसे अब ओबामा एडमिनिस्ट्रेशन "डिस्पोजिसन मेट्रिक्स" कहकर पुकारता है। आज किसी भी अमरीकी नागरिक का नाम इस लिस्ट में हो सकता है – जिसके तहत बिना कानूनी प्रोसेस के सिर्फ एक्जेक्युटिव ऑर्डर से उनको मारा जा सकता है।
बकौल सीआईए के वर्तमान डायरेक्टर जॉन ओ ब्रेन्नन "जो कुछ भी अमरीकी काउन्टर-टेररिज्म के आँशिक नतीजे सामने आये भी उसके लिये अमरीका ने अपनी पूरी इन्टेलिजेन्स, मिलिट्री, डिप्लोमेटिक, इकॉनोमिक, फाइनेंसियल, लॉ एन्फोर्समेन्ट और होमलैण्ड सिक्यूरिटी की तमाम ताकतों को झोंक दिया।"
क्या भारत यह अफोर्ड कर सकता है ? सिर्फ यह कहना कि हमे अमरीकी मॉडल अपनाना चाहिये, काफी नहीं है। यह एक दिवास्वप्न का पीछा करने जैसी बात होगी क्योंकि सिर्फ एन.सी.टी.सी. नाम की संस्था बना लेना ही काफी नहीं है। आपने 26/11 मुम्बई आतंकी हमले के बाद एनआईए तो बना ही लिया था, उससे क्या हुआ ? यह एक मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं होगा। इसकी सिर्फ इतनी ही उपयोगिता होगी कि केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भले ही यह दावा कर सकेगी कि उसने आतंकवाद के खिलाफ काफी कारगर कदम उठाये हैं, शायद जिसका फायदा उसको 2014 के लोक सभा चुनाव में मिल सकता है। क्योंकि हमारे पास अमरीका की तरह न तो सामरिक शक्ति है और न ही उतना संसाधन ही जिसकी ताकत पर हम इसका खर्च उठा सकते हैं। जब अमरीका जैसा, युनिपोलर वर्ल्ड का सुपर-पॉवर अब इस सब का खर्च उठाने में हाँफ रहा है तो भारत की क्या बिसात है ?
जुलाई 2010 में वाशिंगटन पोस्ट में दो खोजी पत्रकारों दाना प्रीस्ट और विलियम एम्. आर्किन ने अमरीका की 9/11 के बाद की इन्टेलिजेन्स व्यवस्था में बदलाव का अध्ययन किया था जो एक सीरीज के तौर पर छपा। यह न सिर्फ पढ़ने लायक है वरन गुनने लायक भी है।
इस सीरीज में इन खोजी पत्रकारों ने बताया कि 9/11 के बाद के बदलाव में तकरीबन 1,271 सरकारी संगठन और 1,931 प्राइवेट संगठन काउन्टर-टेररिज्म और होमलैण्ड सिक्यूरिटी के काम में लगाये गये हैं जो यूएस के 10,000 लोकेशन से काम करते हैं। इनमे 8 लाख 54 हजार लोग लगे हैं। इसका मतलब है कि यह संख्या वाशिंगटन डी.सी. की आबादी का डेढ़ गुना है। वाशिंगटन और उसके आसपास के इलाकों में इस टॉप-सीक्रेट इन्टेलिजेन्स कार्य के लिये 33 बिल्डिंग कॉम्प्लेक्स बनाये गये हैं। इसके मानी आप समझते हैं ? यानि कि 17 मिलियन स्क्वायर फीट का इलाका यानि जिसमे तीन पेंटागन समा जायें। 2009 के यूएस का इन्टेलिजेन्स बजट जो पब्लिक किया गया था उसके मुताबिक वह 75 बिलियन यूएस डॉलर था। मगर याद रखिये इसमें उनके मिलिट्री एक्टिविटीज और काउन्टर-टेररिज्म के खर्चे शामिल नहीं हैं।
इस रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिदिन नेशनल सिक्यूरिटी एजेन्सी के द्वारा 1.7 बिलियन ई-मेल, फ़ोन कॉल्स, और अन्य किस्म के कम्युनिकेशन इन्टरसेप्ट किये जाते हैं। मगर यह सब ताम-झाम ही इतना भारी हो गया है कि इनका कुछ हिस्सा ही 70 डाटा-बेस में सॉर्ट किया जा पाता है और बाकी के सभी सूचनाओं की भीड़ में बिला जाते हैं।
प्रीस्ट और आर्किन बताते हैं कि 9/11 के बाद यू एस की सरकारों ने जो ताम-झाम खड़े किये वो इतना विशाल, इतना उलझा हुआ और इतना गुप्त है कि किसी को मालूम ही नहीं कि इस सब में कितना पैसा खर्च हो रहा है, कितने लोग इस काम पर लगाये गये हैं, कितने प्रोग्राम इसके तहत चलाये जा रहे हैं और इस सब कामों में कितनी एजेन्सीज लगायी गयी हैं।
क्या भारत भी यही करना चाहता है ? और क्या भारत के पास अमेरिका के इतना संसाधन इन चीजों पर खर्च करने के लिये हैं भी क्या ? बेहतर हो कि भारत अपनी व्यवस्था को ही मानवीय बनाये, अपनी पुलिस को मानवीय बनाये, अपने प्रशासन को सम्वेदनशील बनाये और सबसे उपर अपनी न्यायपालिका को सही मानी में जुडिसीयस बनाये ताकि यहाँ के लोग खास कर वो जनता जो हाशिये पर है –मेहनतकश अवाम, आदिवासी, दलित, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक, अपने आप को भारतीय राष्ट्र-राज्य से आईडेन्टिफाई कर सके, उसे यह महसूस हो कि यह देश उसका भी है और सिर्फ धनिकों का ही नहीं है। इससे ज्यादा बेहतर सुरक्षा भारत के पास कुछ नहीं हो सकती है। सब कुछ की नकल करना ठीक नहीं क्योंकि अन्तिम सत्य जैसी कोई चीज नहीं होती – सब कुछ देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार तय होता है। शायद भारत के लिये यही बेहतर होगा कि वो एक समावेशी देश के रूप में अपने को विकसित करे।
(लेखक भारतीय प्रेस परिषद् के सदस्य हैं )
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