सारी चिंता बंगाल को अखंड बनाये रखने की! धर्म राष्ट्रवाद से क्षेत्रीय अस्मिता प्रबल हुईं!
पलाश विश्वास
दार्जीलिङ पहाडमा लेप्चा बिकाश परिषद आखिरमा ममता सरकारले गठन गर्ने निर्णयमा सिलमोहर लगाएको छ।दिर्घ दिनदेखि लेप्चा जातिको भाषा, संस्कृति आदिको बिकासको निम्ति लेप्चा बिकास परिषद गठन गर्ने माग गर्दै।
आमरा बंगाली का कहना है :गोरखालैंड का मांग करने वाले रोशन गिरी और विमल गुरूंग का मन बढ़ाने में पिछली और वर्तमान सरकार, दोनों जिम्मेदार है।1977 में वाम को सत्ता मिलते ही विधान सभा में उनके स्वायत्त शासन का मांग करने लगी। 1950 में भारत -नेपाल समझौते के अनुसार नेपालियों को व्यवसाय का अधिकार है, लेकिन नागरिकता का नहीं.हमने उच्च न्यायलय में जीटीए को असंवैधानिक बताकर मामला दर्ज किया। यह कहना है आमरा बांगाली के जिला सचिव बासुदेव साहा का।वें शुक्रवार को पत्रकारों को संबोधित कर रहें थे। बासुदेव साहा ने कहा कि 10 फरवरी को मोरचा रक्त रंजित आंदोलन पर उतरेगी। हम भी उसका जवाब देंगे.लेकिन गणतांत्रिक तरीके से। बंगाल का विभाजन के हम कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने आगे बताया कि जिस तरह लेप्चा और बुद्धिस्ट के लिए उन्नयन परिषद का गठन किया गया। उसी तरह गोरखाओं का भी उन्नयन परिषद बनाकार मामला निपटारा करना चाहिए था।
हिमालयी क्षेत्र के बारे में समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री टिप्पणी करने से बचते हैं। वहां सत्ता में भागेदारी और विकास के यथार्थ के बारे में किसी आशीष नंदी की बवंडरी टिप्पणी का अभी इंतजार है। सिविल सोसाइटी के नजरिये से पूर्वोत्तर और कश्मीर तो इस देश के भूगोल से बाहर के जनपद हैं। प्रगतिशील बांग्ला मीडिया और सुशील समाज अखंड बंगाल के नारे के साथ गोरखालैड आंदोलन का मूल्यांकन करता रहता है। सारी चिंता बंगाल को अखंड बनाये रखने की है, लेकिन जो लोग आंदलन करके पृथक राज्य की मांग कर रहे हैं, उनकी शिकायतों और तकलीफों पर गौर करने की जरुरत कतई नहीं समझी जाती। वैसे अखंड बंगाल का दावा तो ऐतिहासिक तौर पर गलत हो गया। प्रेसीडेंसी जोन के अंतर्गत उत्तर बारत के बड़े इलाके भी बंगाल के अंतर्गत थे।लार्ड कर्जवन ने ही बंगाल से असम को अलग किया। पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल का एकीकरण हुआ बंगभंग विरोधी आंदोलन की वजह से। लेकिन असम तो अलग हो ही गया।१९४७ को बंगाल में बहुजन स्ता की संभावना को खारिज करने के लिए जो लोग बंग भंग का विरोध कर रहे थे, उन्हीं लोगों की पहल पर बंगाल और भारत का विभाजन हो गया। बंगाल की बात छोड़ें तो राज्यों का पुनर्गठन कोई नयी बात नहीं है। गुजरात अलग राज्य बना तो पंजाब और हरियाणा का विभाजन हुआ। पंजाब से अलग हो गया हिमाचल तो उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेस का भी विभाजन हो गया। भविष्य में महाराष्ट्र और आंध्र के भी विभाजन की तैयारी है। गोरखालैंड कोई असंभव मांग नहीं है भारतीय गणतंत्र में। जो लोग अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, वे हमेशा राजनीति करते होंगे और बाकी राज्यों के विभाजन के वक्त भी ऐसा होता रहा है। लेकिन आंदोलन से राजनीतिक तरीके से निपटने के खेल में राजनीति इतनी प्रबल हो जाती हैं कि बुनियादी समस्याएं जस की तस रह जाती है। हम लोग बचपन से उत्तराखंड में देखते रहे हैं कि कुमायूं और गढ़वाल के बिभाजित समाज जीवन को आधार बनाकर कैसे कैसे इस विभाजन को अलंघ्य बनाकर बुनियादी मुद्दों की लगातार उपेक्षा करते हुए बाहरी लोग राज करते रहे हैं। अलग राज्य बन जाने के बाद भी यह राजनीति बदस्तूर जारी है।यह भी समझने की बात है कि धर्म राष्ट्रवाद से इन समस्याओं के समाधान करने की हर कोशिश से क्षेत्रीय अस्मिता प्रबल हुई हैं।
कुमायूंनी गढ़वाली राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई के मध्य पूरा उत्तराखंड भूमाफिया उत्तराखंड पर राज कर रहा है।कुमायूं गढ़वाल के विभाजन की लाइन पर गोरखालैंड आंदोलन का समाधान कर देने का दावा करने वाली बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गोरखा विकास परिषद के मुकाबले लेप्चा विकास परिषद की घोषणा कर दी है। अब अगर इसे गोरखा आंदोलनकारी गोरखा ौर ल्प्चा समुदायों में विभाजन कराने का खेल बता रहे हैं, तो गलत नहीं बता रहे हैं। जनता की तकलीफें दूर करने के बदले राजनीतिक भष्मासुर पैदा करने का खेल ही सर्वत्र होता रहता है।
जीजेएम प्रमुख विमल गुरूंग के गोरखालैण्ड के लिए उग्र आंदोलन शुरू करने की धमकी देने के एक दिन बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एकीकृत बंगाल का आह्वान किया और गुरूंग के उन आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि मुख्यमंत्री पर्वतीय प्रदेश में 'बांटो और राज करो' की नीति पर चल रही हैं।दार्जिलिंग जिला तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों की बैठक के बाद ममता बनर्जी ने संवाददाताओं से कहा, 'सरकार का रुख पूरी तरह से स्पष्ट है। हम राज्य को एकजुट रखने के लिए काम कर रहे हैं। हम एकीकृत बंगाल के पक्ष में हैं।' लेप्चा और बौद्ध के लिए अलग विकास परिषद के गठन के मुख्यमंत्री के प्रस्ताव पर गुरुंग द्वारा मुख्यमंत्री पर पर्वतीय क्षेत्र में बांटो और राज करो की नीति को आगे बढ़ाने के गुरूंग के आरोपों पर उन्होंने कहा, 'हम दार्जिलिंग का सम्पूर्ण विकास चाहते हैं। हम बांटो और राज करो के आधार पर काम नहीं करते। हम मानते हैं कि जीजेएम इस हद तक नहीं जायेगी।'गुरूंग के उग्र आंदोलन छेड़ने की धमकी को कमतर बताते हुए उन्होंने कहा, 'हम देखेंगे कि यह कब होता है। हमने संविधान के तहत राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली। उन्होंने (जीजेएम) ने भी संविधान के अनुरूप जीटीए की शपथ ली। यह जवाबदेही की भावना है।'
गोरखालैंड के मसले पर 2008 से कुल चार दौर की बातचीत हो चुकी है, पर गतिरोध जस का तस है। दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल पंगु बनी हुई है।इलाक़े को छठीं अनुसूची में शामिल करने की पहल विमल गुरुंग ने बहुत पहले ही ठुकरा दी और गोरखालैंड राज्य बनाने पर अड़े हुए हैं।गोरखा जनमुक्ति मोर्चा द्वारा 'स्वशासन' शुरू करने की घोषणा के साथ ही दार्जिलिंग की शांत पहाड़ियों में उबाल आ गया है।तेलंगाना राज्य के लिए केंद्र सरकार और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रीय नेताओं के बीच चल रही रस्साकशी के बीच गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) ने पश्चिम बंगाल से अलग गोरखालैंड राज्य की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर रहे हैं।प्रदर्शन में पश्चिम बंगाल विधानसभा के तीन जीजेएम सदस्यों के अलावा संगठन की महिला, छात्र व युवा इकाइयों के सदस्य भी शामिल हैं।
दार्जीलिङ पहाडमा लेप्चा बिकाश परिषद आखिरमा ममता सरकारले गठन गर्ने निर्णयमा सिलमोहर लगाएको छ।दिर्घ दिनदेखि लेप्चा जातिको भाषा, संस्कृति आदिको बिकासको निम्ति लेप्चा बिकास परिषद गठन गर्ने माग गर्दै
।लेप्चा परिषद गठन से तिलमिलाए गोजमुमो ने सरकार के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की चेतावनी दी है। परिषद गठन के विरोध में शनिवार को हिल्स बंद की घोषणा की भी। गोजमुमो प्रमुख ने जीटीए के प्रधान सचिव डॉ. सौमित्र मोहन को हटाने की घोषणा की। वहीं, कोलकाता में अभागोली के अध्यक्ष भारती तमांग ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात की।भानुभक्त भवन में गोजमुमो प्रमुख ने संवाददाताओं को बताया कि जीटीए गठन के बाद लेप्चा परिषद का गठन सरकार का षडयंत्र है। सरकार के आदेश के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे।षडयंत्र में जीटीए सचिव व दार्जिलिंग डीएम की संलिप्तता की वजह से उन्हें जीटीए प्रधान सचिव के पद से हटाया गया है। जीटीए प्रधान सचिव का दायित्व डॉन बॉस्को लेप्चा को सौंपा गया। बैठक में जीटीए उप प्रमुख सेवानिवृत्त कर्नल रमेश आले व जीटीए सदस्य विनय तमांग भी उपस्थित थे। विनय तमांग ने राज्य सरकार के जीटीए में हस्तक्षेप के विरोध में शनिवार को 12 घंटे हिल्स बंद का एलान किया। उन्होंने कहा कि अलोकतांत्रिक हस्तक्षेप को सहन नहीं किया जाएगा। जीटीए समझौते का मुख्यमंत्री खुलेआम उल्लंघन कर रही है।उधर, अभागोली के अध्यक्ष भारती तमांग ने कहा कि अपने पति मदन तमांग की हत्या की जांच के सिलसिले में वे मुख्यमंत्री से मिली। इस मुलाकात को हिल्स की वर्तमान राजनीति से जोड़ा नहीं जाना चाहिए।
जीटीए प्रधान सचिव सह जिलाधिकारी डॉ. सौमित्र मोहन को गोजमुमो समर्थकों ने लालकोठी स्थित कार्यालय में घुसने से गुरुवार को रोक दिया। जीटीए में कार्यरत अस्थाई कर्मचारी अपनी सेवा नियमित करने की मांग पर अड़े थे।गोजमुमो के एक प्रवक्ता ने कहा कि जबतक हमारी मांगे पूरी नहीं की जाती प्रधान सचिव को कार्यालय घुसने नहीं दिया जाएगा। आरोप लगाया कि प्रधान सचिव जीटीए को दरकिनार कर काम कर रहे हैं। प्रधान सचिव की प्रतिक्रिया नहीं ली जा सकी। गोजमुमो ने बुधवार को ही नौ फरबरी के दिन हिल्स में 12 घंटे बंद का आह्वान किया था। लेप्चा परिषद के गठन के बाद गोजमुमो ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। विमल गुरुंग मुख्यमंत्री पर जीटीए में दखलअंदाजी का आरोप लगा चुके हैं। जीटीए में विभाग हस्तांतरण को लेकर भी गुरुंग नाराजगी जता चुके हैं।विवाद की शुरुआत उत्तर बंग उत्सव के दौरान गोजमुमो कार्यकर्ताओं द्वारा नारेबाजी व प्रदर्शन से हुई थी। मुख्यमंत्री ने सभा के दौरान ही कहा था इस मामले में मैं सख्त हूं।
अकाली आंदोलन से निपटने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने जरनैल सिंह भिंडरावालां को खड़ा किया, उसका क्या नतीजा हुआ, इतिहास सामने है। सिखों को न सिर्फ आपरेशन ब्लू स्टार का सामना करना पड़ा, बल्कि सिखों का नरसंहार भी हुआ, जिसका आज तक न्याय नहीं हुआ।इस्लामी राष्ट्र पर नियंत्रण के लिए सुपर पावर अमेरिका ने तालिबान और अल कायदा को खड़ा किया, इसका क्या नतीजा हुआ, आतंकवाद के विरुद्ध अमेरिका के युद्ध में शामिल हर भारतीय को इसका अंदाज हो, तो इतिहास की पुनरावृत्ति की नौबत नहीं आती। जनता को इतिहास कितना मालूम है, यह जानने का कोई तरीका नहीं है।पर सत्ता में बैठे लोगों का इतिहास बोध निःसन्देह संदिग्ध है। बंगाल के पहाड़ी इलाके और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके नेपाल के अधीन थे, यह इतिहास बताता है। सिक्किम और भूटान तक पर नेपाल का आधिपात्य था। यह ऐतिहासिक सच है। इसे झुठलाकर गोरखा जनसमुदाय की अस्मिताकी लड़ाई को लेप्चा परिषद जैसे हास्यास्पद हथकंडे से सुलझाने की कोशिश इतिहास के पुनरूत्थान की स्थितियां ही पैदा कर सकती हैं।हमें मालूम है कि उत्तराखंड आंदोलन के दमन से क्या हालात पैदा हुए थे। तेलंगाना का वर्तमान सामने है। पंजाब और हरियणामका विवाद अभी धुंधला हुआ ही नहीं है। लेकिन झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के निर्माण को लेकर वैसी अप्रिय स्थितियां नहीं बनी, यह भी सच है। गोरखालैंड में आज जो हो रहा है, वैसी ही स्थितियां उत्तराखंड में भी तेजी से बन रही थी। यह अलग सवाल है कि अलग राज्य बन जाने से ही जनता की समस्याओं का समादान नहीं हो जाता।
कम से कम झारखंड और छत्तीसगढ़ के आदिवासीबहुल इलाकों में इसे साबित करने की कोई जरुरत नहीं है,जहां से देश का नक्सली और माओवादी भूगोल की शुरुआत होती है। असम के कितने ही टुकड़े हो गये, पर पूर्वोत्तर में न विकास हुआ और जनता को सत्ता में समता और सामाजिक न्याय के सिद्धेांतो की बुनियाद सही हिस्सा मिला। नतीजा सामने है। पूरा उत्तरपूर्व अशांत है, सशस्त्र बल विशेष कानून के अंतर्गत है।
यह भी समझने की बात है कि धर्म राष्ट्रवाद से इन समस्याओं के समाधान करने की हर कोशिश से क्षेत्रीय अस्मिता प्रबल हुई है। तमिलनाडु का विभाजन तो नहीं हुआ। तमिल अस्मित भी अटूट अभेद्य है। पर बाकी देश से तमिलनाडु का अलगाव अगर हमारी नजर में नहीं है, तो हम अपने देश क समजते ही नहीं है। धर्म राष्ट्रवाद को हवा देने की वजह से ही पूरा का पूरा अस्सी का दशक रक्त रंजित हो गया। असम और त्रिपुरा से लेकर पंजाब समेत समूचे उत्तर भारत और यहां तक कि परदेस श्रीलंका तक हमारे अपनों के खून की नदियां बहती रहती हैं। गुजरात नरसंहार और असम के दंगे हमारे सामने ज्वलंत सच हैं । धर्म राष्ट्रवाद से अंध हम कश्मीर हो या मणिपुर या फिर दंडकारण्य मूलनिवासी भूगोल की कथा व्यथा समझते ही नहीं हैं और नतीजतन राजनीति को सलवा जुड़ुम जैसा खतरनाक खेल खेलते रहने की छूट मिलती है। आंतरिक सुरक्षा के बहाने राष्ट्र लोकतांत्रिक व्यवस्था के बदले एक युद्धरत सैन्य प्रणाली में तब्दील हो जाता है। अपनी ही जनता के विरुद्ध युद्धरत। विकास के बहाने, जनकल्याण की फर्जी योजनाओं के बहाने सीआईए और मोसाद तक को आंतरिक सुरक्षा का कार्यभार सौंप दिया जाता है। अभी सड़कें बनाय़ी जांयेंगी आदिवासी भूगोल में। किसलिए? नहीं, आदिवासियों के हित में नहीं, उन्हें माओवादी नक्सलवादी गोषित करके उनके दमन के लिए। उनकी चिकित्सा का जिम्मा भी विदेशी एजंसियों के हवाले है। आशीष नंदी के बयान पर विवाद को लेकर यह धर्मराष्ट्रवाद वाक् स्वतंत्रता की बात तो करता है पर समता और सामजिक न्याय के यथार्थ की पड़ताल नहीं करता। बंगाल में जब पिछड़ों और अनुसूचितों को पिचले सौ सालों में सत्ता में हिस्सेदारी नहीं मिली, तो गोरखा और और लेप्चा जैसी पर्वतीय जनगोष्छियों की जो अनुसूचित जातियां भी हैं,के साथ क्या सलूक हुआ होगा, अल्लाह ही जानें!
वामपंथियों ने लंहबे अरसे तक राज्य में ओबीसी के अस्तित्व से ही इंकार किया। हालत यह है कि आशीष नंदी को पहले कायस्थ या बैद्य बताया जा रहा था। बाद में जब ओबीसी की गिनती की मांग जोर पकड़ने लगा है और जनसंख्यावर विकास और सत्ता में हिस्सेदारी की पड़ताल के लिए सच्चर कमीशन की तर्ज पर न्यायिक आयोग की मांग लेकर पिछड़े और अनुसूचित बंगालभर में सड़क पर उतरने लगे हैं तो अचानक सबसे बड़े बांगाला अखबार ने बाकायदा संपादकीय आलेख लिखकर यह पर्दाफास किया कि आशीष नंदी तो तेली, नवसाख हैं। यानी ओबीसी। नवसाख बंगाल में बौद्धमत से जबरन धर्मांतरित समुदाय को भी कहा जाता है जो शूद्र या अशूद्र है। हमें पहली बार पता चला कि प्रीतीश नंदी और आशीष नंदी का पुश्तैनी पेशा शंखकार की है। वैसे ओबीसी मुसलमानों को दस प्रतिशत और पहले से बुद्धदेव घोषित सात फीसद ओबीसी आरक्षण के बावजूद, मंडल कमीशन घोषित १७७ ओबीसी जातियों में से ६४ को सरकारी मान्यता मिल जाने के बावजूद बंगाल में ओबीसी बतौर कोई आरक्षण नहीं मिलता। कृपया वर्चस्ववादी इस शासकीय आधिपात्य के आलोक में गोरखालैंड की समस्या का अवलोकन करें और फिर समझे अलग लेप्चा परिषद बनाये जाने का आशय क्या है।
'गोरखालैंड पर समझौते से बढ़ेगी समस्याएं'
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य ने राज्य की मौजूदा सरकार को दार्जीलिंग के मुद्दे पर आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वह इस मुद्दे को गलत तरीके से निपटा रही है, जिसके कारण गम्भीर समस्याएं पैदा होंगी।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की पोलित ब्यूरो के सदस्य बुद्धदेब ने मंगलवार को एक बांग्ला समाचार चैनल के साथ बातचीत में कहा कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली पश्चिम बंगाल सरकार ने गोरखा जनमुक्ति मोर्चा द्वारा अपनी मांगें नहीं छोड़ने के बावजूद गोरखालैंड प्रादेशिक प्रशासन (जीटीए) समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए, जो गलत है। इससे राज्य के लिए समस्याएं पैदा होंगी।
बुद्धदेब ने कहा कि गोरखालैंड के मुद्दे के साथ समझौता कर जीजेएम के साथ राज्य सरकार द्वारा बातचीत करना अनुचित है। अंतिम मसौदे में इसका जिक्र है कि समझौते पर हस्ताक्षर जीजेएम द्वारा गोरखालैंड की मांग छोड़े जाने के बगैर किया जा रहा है। यह भारी भूल है।
कालिम्पोंग:लेप्चा विकास परिषद की मंजूरी मिलते ही यहां बुधवार को दीवाली का आलम दिखा। लेप्चाओं ने जमकर आतिशबाजी की और सीएम ममता बनर्जी को धन्यवाद दिया। देरतक समुदाय के लोग सड़क पर जमे रहे। वहीं, लेप्चा राईट्स मूवमेंट के मुख्य संयोजक व इल्टा के संयुक्त सचिव एनटी लेप्चा ने कहा इसका अर्थ यह नहीं कि हम गोरखालैंड के विरोधी हैं। हिल्स के हित में अलग राज्य गठन हो। परिषद हमारी राजनीतिक मांग नहीं है, और न हीं सीमांकन का मामला समुदाय ने उठाया है। उन्होंने बताया कि बंगाल के लेप्चाओं के विकास के लिए ही हमने परिषद मांगा था, ताकि समुदाय का विकास हो सके। यह समुदाय की पुरानी मांग थी जो मुख्यमंत्री ने पूरा कर दिया। इससे समुदाय का विकास हो सकेगा। हमने कभी समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग नहीं की है। पहले बातचीत के दौरान तय हुआ था कि पिछड़ा कल्याण मंत्रालय के तहत की परिषद संचालित होगा। इससे समाज में विभेद नहीं समुदाय का विकास होगा। जातपात के विभाजन के लिए नहीं समुदाय की उन्नति के लिए ही ऐसा किया गया है। अब परिषद के गठन से विकास की उम्मीद बंधी है।
पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ने दरियादिली दिखाते हुए अरसे से जारी मांग को पूरा कर दिया। इसके लिए वे धन्यवाद के काबिल हैं। समुदाय की दशा किसी से छिपी नहीं है। समुदाय को संरक्षण की आवश्यकता है। इससे समुदाय के विकास की संभावना तलाशी जाएगी। हिल्स के प्राथमिक विद्यालयों में लेप्चा भाषा में पढ़ाई शुरू करने सहित कई समस्याओं का समाधान हो सकेगा।
कालिम्पोंग: क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के उपाध्यक्ष जेबी राई ने लेप्चा परिषद के गठन को सरकार का सराहनीय प्रयास बताया। कहा कि आदिम जनजाति की सुरक्षा के लिए परिषद की मंजूरी से समुदाय को सुरक्षा मिलेगी। परिषद के विरोध को गैरवाजिब करार दिया। साथ हीं, उन्होंने गोजमुमो पर हिल्स में अशांति फैलाने का आरोप लगाया। गोजमुमो व सरकार के बीच तानातानी से यहां का माहौल आशांत हो गया। यहां के निवासियों में विभेद होना शुभ लक्षण नहीं है। यहां आशांति के बादल मंडरा रहे हैं। इसके लिए सरकार व गोजमुमो दोनों को जिम्मेदार ठहराया। यहां बंद बुलाकर घर में हीं लकीर खीचने का काम गोजमुमो ने किया है। यह मतभेद खत्म होने वाला नहीं है।
आरोप लगाया कि गोजमुमो ने डुवार्स में भी आदिवासियों व गोरखाओं के बीच दूरी उत्पन्न की थी। अब हिल्स में इसी गलती को दुहाराया गया है। आमरण अनशन पर बैठे लेप्चा समुदाय के लोगों को कहना है कि परिषद का गठन राजनीतिक नहीं है। यह समुदाय के विकास से संबंधित है। गोरखालैंड आंदोलन में शामिल होने पर वे सहमत हैं। परिषद कोई राजीतिक संस्था नहीं है।
फिर लेप्चा परिषद का विरोध करना समझ से परे है। परिषद के गठन से पिछड़ापन हद तक दूर होगा। लेप्चा संगठन का बयान विश्वनीय है।
राई ने कहा कि सबसे बड़ी बात समुदाय की एकता को कायम रखना है। इस चुनौती पर गोजमुमो खरा नहीं उतरा। गोरखालैंड के लिए सभी को एकजुट होकर आंदोलन करने की आवश्यकता है।
वहीं, एक राजनीतिक घटनाक्रम में अनशन स्थल पर गोरखालीग के महाचिव प्रताप खाती व गोटोफो प्रतिनिधि पहुंचे। उन्होंने अनशनकारियों से मुलाकात कर गहरी मंत्रणा की। यह मुलाकात राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बना हुआ है।
No comments:
Post a Comment