Saturday, 23 February 2013 12:34 |
अनिल चमड़िया ऐसे लोकतंत्र में जिस किसी भी पहलू पर विचार सामने आते हैं, उनकी बारीकी से पड़ताल इस मायने में जरूरी होती है कि आखिर समाज की संरचना की दिशा क्या है। पटना में जेडी वीमेंस कॉलेज की एक विद्यार्थी बताती है कि समाज पर वर्चस्व रखने वालों के लिए तो समानता का विचार इतने से ही पूरा हो जाता है कि लड़के-लड़की को स्कूल में समान रूप से पढ़ाया जाए। लेकिन क्या यह प्रावधान पर्याप्त है और समानता का पर्याय हो सकता है? लोकतंत्र में समानता का अर्थ छद््म भावों का निर्माण करना नहीं हो सकता। वर्चस्ववादी विचार ये भाव तैयार करते हैं। मुसलमानों के खिलाफ भाजपा के शासनकाल में दंगे नहीं होते, यह बात तो अक्सर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता कहते रहे हैं। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? मजे की बात तो यह है कि पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट भी यही कहते रहे हैं। और तो और, धर्मनिरपेक्षतावादी लालू यादव ने तो पुलिस वालों को हड़का कर दंगे नहीं होने दिए और उन्हें मुसलमानों के वोट मिलते रहे। जिस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के सामने समानता से पहले अपनी सुरक्षा का सवाल लगातार बना रहे, वहां लोकतंत्र की दशा और दिशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुसलमानों की सुरक्षा की बाबत विभिन्न तरह की राजनीतिक पार्टियों में कितनी एकरूपता है? क्या भाजपा समेत संघ परिवार की दलील दिल्ली पुलिस के मर्दवादी विज्ञापन जैसी नहीं है, यानी हिंदूवादी बन कर मुसलमानों की सुरक्षा करो! नरेंद्र मोदी की सत्ता स्थापित करो। संसदीय राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में मोदी या संघ के संचालक भी बाजी मार कर सत्ता पर काबिज हो सकते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि भक्तिन नानी डायन हैं या डायन जैसे विचार सही हैं। संसदीय राजनीति ने मुसलमानों के साथ दो तरह के व्यवहार किए हैं। एक ने मुसलमानों में मुसलमानियत को उकेरा है तो दूसरे ने डराया है। पटियाला की एक गोष्ठी में समाजशास्त्री डॉ राजेश गिल एक अध्ययन के बारे में बता रही थीं कि उसमें यह पाया गया कि पुरुष टेलीफोन का इस्तेमाल अपने संबंधों के विस्तार के लिए करता है तो महिलाएं अपने सामाजिक संबंधों को बनाए रखने की कोशिश के लिए ही करती हैं। अगर मुसलमानों को धर्म की तरफ खुद की सुरक्षा के लिए धकेलने की ही कार्य-योजना चल रही हो तो उनके पास क्या विकल्प बचता है। किसी भी देश में नागरिकता के विकास का पैमाना क्यों नहीं तैयार किया जाना चाहिए, ताकि उस पैमाने पर जाति, धर्म, लिंग, भाषाई सदस्यों की स्थिति का अध्ययन किया जाए। लोकतंत्र की अवस्था को अमीर देशों के विकास के पैमाने और नजरिए से नहीं मापा जा सकता। दंगे न हों तब भी असुरक्षा महसूस की जा सकती है, या जो असुरक्षा की भावना बनी हुई है उसे बनाए रखा जा सकता है। जिन घरों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं नहीं हुई हैं क्या उन्हें असुरक्षा बोध से मुक्त और समानता की स्थिति में माना जा सकता है? देश में मुसलमानों को सुरक्षा नहीं अपनी आजादी की सुरक्षा चाहिए, जिसे अभी तक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था ने सुनना ही शुरू नहीं किया है। बल्कि सच तो यह है कि वे अपनी आ२जादी की सुरक्षा की मांग न उठाएं, इस मकसद से उनके सामने असुरक्षा का प्रश्न बनाए रखना जरूरी समझा जा रहा है। इस तरह असुरक्षा की स्थितियां बनाए रखना आजादी और समानता की लड़ाई को रोकने का सबसे बड़ा हथियार बन कर हमारे सामने आ रहा है। और लोकतंत्र के नाम पर यह जारी है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/39473-2013-02-23-07-05-17 |
Saturday, February 23, 2013
असुरक्षा बोध से पनपी सियासत
असुरक्षा बोध से पनपी सियासत
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