Sunday, March 24, 2013

हम अपनी विरासत से पल्ला झाड़ेंगे तो विरासत बेदखल ही नहीं होगा बल्कि जनशत्रुओं के हित में इस्तेमाल होगा!

हम अपनी विरासत से पल्ला झाड़ेंगे तो विरासत बेदखल ही नहीं होगा  बल्कि जनशत्रुओं के हित में इस्तेमाल होगा!


पलाश विश्वास


हम चकित हैं कि कारपोरेट साम्राज्यवाद, जायनवादी विश्वव्यवस्था और हिंदुत्व के एजंडे से निर्मित त्रिशुल चौतरफा अश्वमेध अभियान में​ ​ खुले बाजार के आखेटगाह में मारे जाने को नियतिबद्ध निनानब्वे फीसद जनता के हकहकूक की लड़ाई में जिन ताकतों को एकताबद्ध किये ​​बिना हम न आत्मरक्षा कर सकते हैं और न प्रतिरोध, ऐसे समय में जब राष्ट्र लोकगणतंत्र राज्य के बजाय अपनी ही जनता के दमन के लिए उसेके विरुद्ध युद्धघोषमा कर चुकी है, तब वहीं ताकते सिद्धातों और अवधारणाओं की अव्यवहारिक व्याख्या और बहस में निहायत अलोकतात्रिक ​​आत्मघाती मारकाट पर उतारु है।


हम हमारे प्रिय फिल्मकार आनन्द पटवर्द्धन की फिल्म जय भीम कामरेड के यथार्थ पर तनिक विचार ​​करें। लाल झंडा उठाये हुए लोगों के नीले रिबन पर भी गौर करें। हम दलित पैंथर आंदोलन के क्रांतिकारी चरित्र को खारिज नहीं कर सकते ​​और न ही आनंद तेलतुंबड़े को बहस के दौरान कही उनकी बातों में कथित अंतर्विरोधों के कारण गैर ईमानदार या फरेबी करार दे सकते हैं। ​​तेलतुंबड़े की तरह हम भी भारत में वामपंथी कार्यकर्ताओं, कथित संशोधनवादी और क्रांतिकारी दोनों और अंबेडकर के अनुयायी देश की बहुसंख्यक आबादी, जिसमें सबसे ज्यादा लोग विस्थापित, शरणार्थी, जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता के अलावा मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों से वंचितलोगों को परस्परविरोधी नहीं मानते और किसी भी मुक्तिकामी राष्ट्रव्यापी संग्राम में उनके साझा मंच के लिए प्रयत्नरत हैं।इसके अलावा जाति और धर्म के अतिरिक्त नस्ली भेदभाव के तहत गोरखों, पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत के लोगों और भौगोलिक दृष्टि से सबसे ज्यादा​​ शोषण और दमन के लक्ष्यस्थल कश्मीर से लेकर नगालैंड और मणिपुर, समूचा आदिवासी बहुल मध्यभारत जिसमें गोंडवाना और दंडकारण्य शामिल हैं, की निहत्था जनता को एकसाथ लाना चाहते हैं। हमारी विचारधारा चाहे कोई हो,देश निकाला अभियान के शिकार शरणार्थियों के बीच के होने की हैसियत से, देशभर के आदिवासियों से निरंतर चार दशकों के संवाद की अभिज्ञता और पूर्वोत्तर के लोगों से जुड़ाव के कारण हम इन लोगों के लिए फौरी अनिवार्यता  उन्हें नागरिक और मानवाधिकार बहाल करने, उनकी नागरिकता और आजीविका की गारंटी देना और​

​ सैन्य शासन विशेष सशस्त्र बल कानून और दूसरे जनविरोधी कानूनों, आधार योजना, आदिवासियों के दमन के लिए सैन्य अभियानों और सलवा  जुड़ुम जैसे अभियानों का अंत, वनाधिकार कानून व पर्यावरण कानून के तहत प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, बेदखली अभियान पर रोक​ ​क और निश्चय ही आर्थिक सुधारों के तहत जारी जनसंहार संस्कृति पर रोक की है। दुस्साहसिक जंगल में सीमाबद्ध क्रांतिकारिता से यह लक्ष्य हासिल होने से रहा।मुक्तिकामी संघर्ष चाहे अंबेडकर विचारधारा के मुताबिक हो या क्रांतिकारी मुक्तिकामी वामपंथी विचारधारा से बहुसंख्य बहिस्कृत जनता की हिस्सेदारी इसके लिए अनिवार्य है। क्रांति, आजादी और मुक्तिसंग्राम भारत विभाजन  के तुरंत बाद से लोकप्रिय सपना है। बल्कि उससे ​​पहले से। नेताजी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के लिए आजाद हिंद फौज का गठन करके भारी जनसमर्थन हासिल करने में कामयाब हुए तो उनसे भी ​

​पहले शहीदे आजम भगत सिंह की क्रांति की दिशा तय कर चुके थे। १९६७ से पहले और यहां तक कि तेलंगना जनसंघर्ष से काफी पहले ​​ऐसा हुआ। अभिनव जी मानेंगे कि सपना और हकीकत में काफी फर्क है। क्रांति के इंतजार में भारतीय लोक गणराज्य और इसके संविधान ​​के तहत जो अधिकार और रक्षा कवच हासिल हैं, मसलन हमारे मौलिक अधिकार, संविधान की पांचवी और छठीं  अनुसूची, प्राकृतिक ​​संसाधनों पर जनता के हक हकूक संबंधी धारा ३९ बी और धारा ३९ सी, उनके महत्व को नजरअंदाज करके हम भारतीय जनता को इस वधस्थल पर कसाइयों के होथों मरने के लिए खुला छोड़ नहीं सकते। चंडीगढ़ संगोष्ठी भले ही जाति विमर्श को संबोधित हो, उसका प्रस्थानबिंदु अंबेडकर विचारधारा को खारिज करना कतई नहीं हो सकता।


हमें विज्ञान और तर्कों के अलावा इतिहास और समसामयिक संदर्भो को भी ध्यान में रखना चाहिए। किन्हीं डेवी या किसी दूसरे अर्थशास्त्री ​​जिनका कि कथित तौर पर, और अवश्य ही इसमें और संवाद की गुंजाइश है, अंबेडकर विचारधारा और राजनीति, उनके अर्थशास्त्र पर प्रभाव​ ​ है, यह तर्क जाति विमर्श का प्रस्थानबिंदु नहीं बन सकता। जाति भारतीय सामाजिक य़थार्थ है, जिसे अंबेडकर के अलावा गांधी और ​​लोहिया ने भी अपने तरीके से संबोधित करने की कोशिश की है। खुद अभिनव कुमार कहते हैं कि वामपंथियों ने भी जाति यथार्थ को संबोधित करने की कोशिश की है और वे यह भी मानते रहे हैं कि इस प्रयास में वामपंथियों से गलती हुई हैं। तो क्या क्रांतिकारियों को गलती करने का एकादिकार मिला हुआ है?अभिनव जी की युक्ति के मुताबिक अगर मान भी लिया जाये कि अंबेडकर से भी  गलतियां हुईं, तो ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि दलितों ​

​की मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थीं। दलित राजनीति, अकादमिक दलित विमर्श का चाहे जो भी  अवस्थान हो,विभिन्न पार्टियों, गुटों और व्यवस्थाओं में बंटी हुई बहुसंख्य जनता जिसमें दलितों के अलावा आदिवासी, ओबीसी और धर्मांतरित अल्पसंख्यक भी हैं, ऐसा नहीं मानते तो क्या णुक्ति कामी जनसंघर्ष उनको हाशिये पर रखकर चलेगा?


भारतीय वामपंथ की बुनियादी त्रासदी है कि भारतीय परिस्थितयों, जमीनी हकीकत और संदर्भों से ेकदम कटकर विज्ञानऔर तर्क के नाम​

​ पर निष्कर्ष निकालने की आत्मघाती प्रवृत्ति से वह कभी मुक्त नहीं हो पाया। मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के दो दशक बीत जाने के बावजूद, राष्ट्र और विकल्पों से वंचित जनता के लिए एकमात्र विकल्प हिंदू राष्ट्र बन जाने और नरसंहार और दंगो, मानवाधिकार हनन के युद्धअपराधियों के भारतीय लोकतंत्र में कारपोरेट सहयोग से भाग्यविधाता बन जाने के बावजूद वह कोई प्रतिरोधी आंदोलन खड़ा नहीं कर पाया। इसके विपरीत बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर अस्पृश्यता के विरुद्ध, जाति उन्मूलने के लक्ष्य को लेकर देशव्यापी ांदोलन चलाने में कामयाब हुए और उन्ही की वजह से व्यक्ति और संगठन अलग असग समय संदर्भ में अ लग अलग तरीके से जाति समस्या को संबोधित करने की कोशिश कर रहे हैं, आज जो ​

​बहसस आपने शुरु की है , वह भी अंबेडकर निर्मित है, इससे अस्वीकार करने का दुस्साहस नहीं करना चाहिए। यहां तक कि संघ परिवार, जिनका एकमात्र लक्ष्य हिंदू राष्ट्र और मनुस्मृति व्यवस्था है, सामाजिक समरसता के नाम पर अपना जाति विमर्श चलाने को मजबूर है। बल्कि कटु​

​यथार्थ है कि वामपंथियों की तुलना में जाति विमर्श और उसकी रणनीति में संघ परिवार ज्यादा कामयाब है और नतीजतन बहिस्कृत जनता का एक बड़ा हिस्सा हिंदुत्व की पैदल सेना में तब्दील है। कृपया इस पर गौर करें।​

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​हम सभी, शायद आनंद तेलतुंबड़े और दूसरे दलित चिंतक भी आपकी बहस की उच्चकोटि क्षमता के आगे  किंकर्तव्यविमूढ़ से हैं। बहस में हमारी पराजय का मतलब अंबेडकर का गैरप्रासंगिक हो जाना नही है। फिल किन्हीं अभिनव सिन्हा, पलाश विश्वास या आनंद तेलतुंबड़े की बहसबाजी से इस देश और इसकी जनता के भाग्य का निरण्य नहीं हो जाता और न जाति पहेली का हलनिकलता है। अंबेडकर नें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संदर्भो के अलावा ऐतिहासिक व धार्मिक संदर्भों में सिलसिलेवार इस यथार्थ को संबोधित करने की कोशिश की है। नृतात्विक अवधारणाओं को भी खंगाला है। उन्होंने न केवल भारत बल्कि समूचे दक्षिण एशिया में सांस्कृतिक धरातल होमोजिनस होने के तर्क के ​

​आधार जाति के प्रभाव को सर्वव्यापी माना है। आज जो ग्लोबल हिंदुत्व है, उस संकट को भी उन्होंने विश्वभर में हिंदुत्व के फैलाव के​​ संदर्भ में देखा है और कहाहै कि हिंदू धर्म अनुयायी जहां कहीं पहुंचेगे, वे जाति की व्यवस्था वहां ढो ले जायेंगे। आजविश्व व्यवस्था में जो हिंदुत्व और जायनवदी गठजोड़ है, उसके संदर्भ में हम लोग अंबेडकर के जाति विमर्श का विवेचन करें, तो बहस के नये आाम खुल सकते हैं। हम लोग तो मामूली कार्यकर्ता हैं। नैनीताल में हमें पढ़ाने वाले शिक्षक और परीक्षक अभ भी हैं और वे बता सकते हैं कि अंग्रेजी से एमए करने के बावजूद हमने उद्धरणों का प्रयोग नहीं किया। समूचा शेक्सपीयर साहित्य पढ़ने के बावजूद इसी के चलते हमें शेक्सपीयरन त्रासदी में मात्र ३६ अंक ही मिले थे। हम उतने मेधा संपन्न नहीं हैं और न उतने बड़े हैं, जैसा कि हमारे मित्र और हितैषी दुष्प्रचार करते हैं। हम मामूली कार्यकर्ता है. जो संयोगवश पत्रकार भी ​

​है पेशे से। लोग हमें संपादक इत्यादि भी लिखते हैं। पर हकीकत है कि मैं अपने कार्यस्थल पर स्टेटस के हिसाब से एक सबएडीटर मात्र हूं, अनेक संपादकों को रिक्रूट करने के बावजूद। पिता के आंदोलन की विरासत, छात्र जीवन में नैनीताल समाचार व पहाड़ से जुड़़े होने के कारण संयोगवश चिपको आंदोलन से जुड़़ाव के कारण और सत्तर दशक की पत्रकारिता के मिशन और प्रतिबद्दता के कारण पूर्वोत्तर , मध्यभारत और बाकी देश के आदिवासियों के संघर्षों में जुड़े होने की वजह से हमारे मित्र हमें सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं। सोशल मीडिया पर जो मेरा परिचय आता है, उसका श्रेय बी अविनाश दास और अमलेंदु जैसे मित्रों का कृतित्व है। आपके विज्ञान और तर्कों का जवाब देने में हमें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ेगा।पर इसका मतलब यह नहीं है कि हम माकूल जवाब नहीं दे पाये, या आनन्द तेलतुंबड़े जवाब देने में कथित तौर पर दिशा भ्रमित हो गये तो अंबेडकर विचारधारा की पराजय है।


जो इस बहस में शामिल नहीं होना चाहते उनकी अपनी समज, राजनीति और रणनीति जरुर होगी। पर संवाद संवाद की तरह होना चाहिए। हम तो यह समझने में निहायत असमर्थ हैं कि यह संवाद आनंद तेलतुंबड़े और अभिनव सिन्हा के आपसी विवाद का मामला कैसे बनता जा रहा है। मैं लिखना नहीं चाह रहा था और इंतजार कर रहा था कि दूसरे लोग बोलें। इसीलिए डायवर्सिटी मिशन के दुसाथ जी का वक्तव्य बी हमने प्रसारित कर​​दिया। हम इस बहस को अनिवार्य मानते हैं और  सवालों के जवाब को अपरिहार्य। लेकिन जैसा कि पहले हम बता चुके हैं कि ये जवाब निजी बहस से नहीं निकलने वाले। बहसका दायरा बढ़ाने की दरकार है। अगर अभिनव जी के तर्क को मान लिया जाये कि अंबेडकर दलित मुक्ति की दिसा दिका नहीं पाये तो क्या बताइये कि क्या हमने वह दिशा कोज निकाली है?हस्तक्षेप या हाशिये पर पोस्ट वीडियो से कोई जवाब नहीं मिलने वाला। चंडीगढ़ संगोष्टी के विवाद को पीछे छोड़कर हमें बहस ईमानदारी से आगे बढ़ानी चाहिए। अभिनव जी न भी मानें  तो इस देश के धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक लोग अवश्य मानेंगे कि हिंदुत्व का एजंडा इस वक्त ​​भारत राष्ट्र के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा संकट है और हिंदुत्व ही कारपोरेट राज का सबसे बड़़ा हथियार है। वैश्विक कारपोरेट व्यवस्ता ही नही, तमाम राजनीतिक क्षत्रप नरे्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए एकजुट है। भले ही आपका विज्ञान, तर्क और सिद्धांत भारतीय लोकतांत्रिक ​​व्यवस्था और इसके संविधान को खारिज करते हों, पर हमारा निवेदन है कि जब हम प्रतिरोध करने की हालत में कतई नहीं है तो जनता के बचाव के रास्ते से उसे बेदखल करने का भी हमें कोई हक नहीं है। अंबेडकर की मूर्ति तोड़कर अगर आप जाति विमर्श को अंजाम तक पहुंचाना चाहते हैं, तो जैसा कि पहले ही हमने लिखा है कि यह एक भारी रणनीतिक भूल है। भारत में दलित आंदोलन की परंपरा सूफी संतों और किसान आंदोलनों से ​शुरु हुई है, अंबेडकर इसके जनक नहीं है। बंगाल में जो मतुआ आंदोलन चला, वह दो सौ साल पुराना है जिसकी वजह से बंगाल में भारतभर में सबसे पहले अस्पृश्यता मोचन हुआ। अंबेडकर के राजनीतिक अवतार से भी पहले। चंडीगढ़ में बंगाल में वामशासन के संदर्भ मे मतुआ आंदोलनकी चर्चा हुई है। जबकि हकीकत है कि करीब दो सौ साल पहले ज्योतिबा फूले से भी पहले हरिचांद ठाकुर ने मतुआ आंदोलन के जरिये किसान आंदोलन और भूमि सुधार के युद्ध के लिए सबसे पहले ब्राह्मणवादी हिदुत्व को खारिज किया था। जैसे बीरसा का मुंडा विद्रोह, संथाल विद्रोह, भील विद्रोह,​​सन्यासी विद्गोह, नील विद्रोह और  कोरेगांव क्राति भारतीय इतिहासकारों की व्याख्या के मुताबिक धार्मिक  आंदोलन नहीं है, वैसे ही मतुआ आंदोलन भी धार्मिक आंदोलन नहीं है। बंगाल के वाम शासन को जिस भूमि सुधार का श्रेय दिया जाता है, उसेक लिए आंदोलन का श्रेय मतुआ आंदोलन के जनक हरिचाद ठाकुर को जाताहै। बंगाल में मतुआ समर्थन से  फजलुल हक की अगुवाई में जो अंतरिम सरकार बनी, प्रजा कृषक पार्टी की, उसका भी एजंडा भूमि सुधार था , जिसे उस मंत्रिमंडल में शामिल भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक ने विफल कर दिया जो भारत विभाजन की नींव बन गया।


मतुआ आंदोलन का प्रस्थान बिंदु ब्राह्मणवादी हिंदुत्व का विरोध था और वह किसान आंदोलन था। झिसे अब धार्मिक आंदोलन साबित किया जा चुका है जबकि भारत में अस्पृश्यता के खिलाफ वह पहला आंदोलन था। इसीतरह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ  हिंदू और मुसलामान किसानों के साझा विद्रोह क सन्यासी विद्रोह करार दिया गया और वंदे मातरम के जरिये वह हिंदू राष्ट्रवाद का मुख्य आधार बन गया। हम अपनी विरासत से पल्ला झाड़ेंगे तो विरासत बेदखल ही नहीं होगा  बल्कि जनशत्रुओं के हित में इस्तेमाल होगा। अंबेडकर विचारधारा चाहे जिस प्रभाव में हो, चाहे उसने ​​पूंजीवाद या साम्राज्यवाद का विरोध न किया हो, जैसे कि चंडीगढ़ विमर्श का आक्रामक निष्कर्ष है, यह हकीकत बदल नहीं जाता कि हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद के खिलाफ वह एक अनिवार्य संग्राम था , जिससे खुली हो या नहीं, पर दलितों की मुक्ति ही नहीं भारतीय निनानब्वे फीसद जनता की मुक्ति का दिशा  अवश्य बनती है। अभिनव जी चाहे जो सोचे हों और उनके जैसे विद्वान चाहे जो साबित कर दें लेकिन दुनियाभर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते। अभी अमेरिका से गैर अंबेडकरवादी  फोरम हिमालयन व्यावस से मेरे दो इंटरव्यू प्रसारित हुए हैं। आप चाहे तो अपने साइट पर लगा सकते हैं। यह अंतरराष्ट्रीय संवाद भी अंबेडकर आंदोलन के व्यापक सदर्भ में है।


THE HIMALAYAN TALK: PALSH BISWAS FLAYS SOUTH ASIAN GOVERNM

Published on 22 Mar 2013

Palas Biswas, one of the editors for Indian Express, a major daily from India http://www.indianexpress.com/, spoke to us

today from Kolkota and, told he supports the idea of forming SAARC type of 'Peoples' Level International Forum' of the Indigenous Peoples, Dalits and Other Backward communities to advance their rights to social justice and economic development in the entire South Asia.


He also lashed out those 1% people in the government in New Delhi for failure of delivery and creating hosts of problems in South Asia.

http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=lD2_V7CB2Is


THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS ON NEPALI SENTIMENT, GORKH

Published on 19 Mar 2013

Palas Biswas, a journalist who works for Indian Express, spoke to us today from Kolkota, India and shared his views on All India Backward (SC, ST, and OBC) and Minority Communities Employees' Federation, known as BAMCEF, Nepali sentiment, Gorkhaland, Kumaon, Garhwal etc. He also criticized New Delhi's interference in Kathmandu's internal affairs.

http://www.youtube.com/watch?v=dOHvRbwZBBo





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