Tuesday, March 26, 2013

कौन कह रहा है कि सच को माने बग़ैर हवा में क्रान्ति की जाय?

कौन कह रहा है कि सच को माने बग़ैर हवा में क्रान्ति की जाय?


पलाश विश्वास जी के लेख के प्रत्युत्तर में हमें अभिनव सिन्हा का यह लेख प्राप्त हुआ है। चण्‍डीगढ़ में 'जाति प्रश्‍न और मार्क्‍सवाद' विषय पर सम्पन्न पाँच दिवसीय संगोष्‍ठी के आधार पेपर को भी आप हस्तक्षेप पर जल्द ही पूरा पढ़ पायेंगे तब तक आप इसे आयोजकों की  आयोजकों की वेब साइट अरविन्द ट्रस्ट.ओआरजी पर भी पढ़ सकते हैं। – सं. ह.

विचारधारा को बिना तर्क, बिना तथ्‍य कचरापेटी के हवाले करने से कोई समस्‍या हल नहीं होगी।

-अभिनव 

पलाश विश्‍वास जी ने अपने नये हस्‍तक्षेप में कहा है कि अब वह समझ गये हैं कि हम अंबेडकर को खारिज करने या पूरी तरह अपना लेने की बात नहीं कह रहे हैं। लेकिन उन्‍हें हमारे पहले के लेखों, टिप्‍पणियों और रपटों से ऐसा नहीं लगता था। लेकिन हम इस बात की ओर ध्‍यानाकर्षित करना चाहेंगे हमारी इस बहस में शुरू से यही अवस्थिति थी। हमने इस बहस की शुरुआत की भी नहीं थी। बहस की शुरुआत दूसरे लोगों ने हम पर आक्षेप लगा कर की दी, जिसमें पलाश विश्‍वास जी स्‍वयं भी शामिल थे (अपने पहले लेख में उन्‍होंने हम पर अंबेडकर की हत्‍या करने का आरोप लगा दिया था, जबकि अभी तक न तो उन्‍होंने संगोष्‍ठी का कोई वीडियो देखा था और न ही हमारा आधार लेख पढ़ा था)। ऐसे में, हमें तो लगता है कि जिस सन्‍तुलन और संयम की नसीहत हमें पलाश जी दे रहे हैं, अगर उस पर वह स्‍वयं थोड़ा पालन करते तो बहस पहले ही रचनात्‍मक हो सकती थी।

'मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान' के संपादक अभिनव सिन्‍हा,

जाति व्‍यवस्‍था के एक जटिल प्रश्‍न होने से कब किसने इंकार किया? मसला यह था कि इस जटिल समस्‍या के विश्‍लेषण और समाधान का कोई दृष्टिकोण अंबेडकर के पास था या नहीं। हमें लगता है कि अंबेडकर के पास ऐसा कोई विश्‍लेषण या समाधान नहीं था। हम उन्‍हें दलित गरिमा-बोध और अस्मिता को स्‍थापित करने में योगदान देने वाले तमाम व्‍यक्तियों में से एक व्‍यक्ति होने के अलावा किस बात का श्रेय दे सकते हैं, इस पर कोई ठोस बात नहीं रख रहा है, जिसमें कि पलाश जी भी शामिल हैं। बस एक नरम रवैया अपनाने की गुज़ारिशें की जा रही हैं, जिस पर हम पहले भी कह चुके हैं, कि आलोचना एक वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है, और उसमें इस प्रकार की भावनाओं का कोई स्‍थान नहीं होता। वास्‍तव में,अंबेडकर और अंबेडकरवादी स्‍वयं वामपन्थ या मार्क्‍सवाद के प्रति ऐसा कोई नरम रवैया कभी नहीं अपनाते हैं, और इसके लिये हम उनका सम्‍मान करते हैं। आलोचना आलोचना की तरह ही होनी चाहिये।इसमें थोड़ी कटुता और तीखापन तो आता ही है। लेकिन इसमें क्षुब्‍ध होने की कोई बात नहीं है। ईमानदारी के साथ बहस की जानी चाहिये और जिस मौके पर जिस पक्ष को लगे कि उसका तर्क चुक गया है, उसे विनम्रता के साथ इस बात को स्‍वीकार करना चाहिये। इसमें उसका बड़प्‍पन ही सामने आयेगा। मार्क्‍स ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद और एशियाई उत्‍पादन पद्धति के बारे में अपने विचारों को बदला और माना था कि उनके पहले के प्रेक्षण सही नहीं थे। इससे मार्क्‍सवादी विज्ञान की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता और न ही मार्क्‍स की एक समाज-वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी के तौर पर महानता पर कोई फर्क पड़ता है। उल्‍टे इससे एक समाज-वैज्ञानिक के तौर पर मार्क्‍स की प्रतिष्‍ठा बढ़ती है: एक ऐसा वैज्ञानिक जो अपने प्रेक्षणों और मूल्‍याँकनों के प्रति कठमुल्‍लावादी और रूढ़ दृष्टिकोण नहीं रखता है।

जब दूसरों ने बहस करके अंबेडकर का गलत महिमा-मण्‍डन शुरू किया और उन्‍हें उन चीज़ों का श्रेय देना शुरू किया जिनका श्रेय उन्‍हें किसी भी रूप में नहीं दिया जा सकता है, तो हमने इस बात का तर्कों, तथ्‍यों और प्रमाणों के साथ विरोध किया। इसमें गलत क्‍या है? अगर पलाश जी हमें यह बता रहे थे कि 'दि प्रॉब्‍लम ऑफ दि रुपी' में अंबेडकर का साम्राज्‍यवादी अर्थशास्‍त्र सामने आता है, तो क्‍या इस गलत तथ्‍य का खण्‍डन नहीं किया जाना चाहिये। एक बार मार्क्‍स ने कहा था कि किसी गलत बात का खण्‍डन न करना बौद्धिक बेईमानी हैक्‍या पलाश जी चाहेंगे कि हम बौद्धिक बेईमानी करें? आप ठोस-ठोस बताइये कि अंबेडकर की पूरी विचारधारा में, और विशेष तौर पर उनकी उक्‍त रचना में उन्‍हें क्‍या साम्राज्‍यवाद-विरोधी लगा। हमने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में बताया कि अंबेडकर की उस पुस्‍तक में थीसिस क्‍या है। अगर उससे अंबेडकर एक नवउदारवादी आर्थिक नीति के पक्षधर के रूप में ही सामने आते हैं, तो आप इस सच से भाग क्‍यों रहे हैं? हम अभी भी अंबेडकर की इस रचना पर उद्धरणों और तथ्‍यों के साथ खुली बहस को तैयार हैं, और अपने इस पक्ष का बचाव करने के लिये तैयार हैं कि अंबेडकर के अर्थशास्‍त्र में कहीं कोई साम्राज्‍यवाद-विरोध नहीं है, विशेषकर उक्‍त पुस्‍तक में तो बिल्‍कुल नहीं है।

इसके बाद पलाश जी ने बताया है कि अंबेडकर तो महज़ संविधान समिति के अध्‍यक्ष थे, वे तो चुनाव भी नहीं जीत पाये, वगैरह और ऐसे में उनसे यह उम्‍मीद कैसे की जा सकती है कि वह संविधान में उत्‍पीड़नकारी कानूनों के शामिल किये जाने का विरोध कर पाते! पलाश जी बिना वजह ही अंबेडकर को बेचारा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। हम पूछते हैं कि अगर इस प्रकार के दमनकारी कानून संविधान में उनकी इच्‍छा के विरुद्ध भी शामिल किये जा रहे थे (जैसा कि वास्‍तव में नहीं था, इसके विरोध में अंबेडकर ने कोई विशेष आपत्ति कभी दर्ज़ ही नहीं करायी थी), तो क्‍या वह इस्‍तीफा देकर जनता के बीच नहीं उतर सकते थे? ऐसा तो तमाम क्रान्तिकारियों ने बार-बार किया है। क्‍या वह जनता के बीच इस बात का प्रचार कर उसे गोलबन्द और संगठित करने की मुहिम शुरू नहीं कर सकते थे, कि आज़ाद भारत की नयी सत्‍ता की पूँजी के हितों की ही सेवा करने वाली है, और जनता को यह नया संविधान औपचारिक तौर पर सभी कागज़ी अधिकार देते हुये भी, वास्‍तव में संपत्ति और पूँजी की "पवित्रता" की रक्षा करने के लिये बनाया जा रहा है? अंबेडकर तो उस समय नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मन्त्री के पद पर विराजमान थे, जब नेहरू की सेनाएं तेलंगाना में किसानों और खेतिहर मज़दूरों के आन्‍दोलन को खून के दलदल में डुबो रही थीं, जिसमें कि व्‍यापक बहुसंख्‍या दलितों की थीअंबेडकर की ऐसा क्‍या मजबूरी थी कि उन्‍होंने तेलंगाना में जारी नरसंहार पर एक बयान तक देना ज़रूरी नहीं समझा? अंबेडकर लम्बे समय से श्रम मन्त्री का पद नेहरू से मांग रहे थे, और लम्बे इंतज़ार के बाद भी जब उन्‍हें यह मन्त्रालय नहीं मिला तो उन्‍होंने इस्‍तीफा दिया और संविधान के बारे में भी कोई नकारात्‍मक बात उन्‍होंने उसके बाद ही की। जैसे कि उन्‍होंने कहा कि संविधान के कई प्रावधान उन्‍होंने अनिच्‍छा से लिखे थे। हमारा सवाल है कि ऐसी कौन सी बाध्‍यता थी? अगर अंबेडकर एक प्रगतिशील और क्रान्तिकारी थे, तो वे जनता पर भरोसा करते हुये उस पूरी धोखेबाज़ी की प्रक्रिया से अलग भी तो हो सकते थे। ऐसे और कई वाकयों का हम यहाँ जि़क्र कर सकते हैं जिसमें अंबेडकर ने एक समझौतापरस्‍त रुख अपनाया था। निश्चित तौर पर, अंबेडकर का इरादा जनता के हितों को नुकसान पहुँचाने का नहीं था।दिक्‍कत यह थी कि अंबेडकर जिस विचारधारा को मानते थे, उसका जनता पर भरोसा था ही नहीं। उनके विचारों से राज्‍य को क्रमिक प्रक्रिया में अधिक से अधिक इस बात पर मनाया जाय कि वह सकारात्‍मक कार्रवाई करके जनता कि हितों की एक हद तक पूर्ति करे। उनके लिये राज्‍य का कोई वर्ग चरित्र नहीं था, और वह एक प्रकार से वर्गेतर था जो पूरी जनता के हितों की सेवा डेवी के शब्‍दों में "बुद्धि के ज्‍यादा बेहतर इस्‍तेमाल" के ज़रिये करता है। अंबेडकर का यह भरोसा नहीं था कि परिवर्तन की प्रक्रिया जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलनों के ज़रिये आगे बढ़ती है। डेवी का पूरा प्रैग्‍मेटिज्‍म यही था।

दूसरी बात यह कि पलाश जी को हमारे विचार में इस बात पर बहुत ध्‍यान नहीं देना चाहिये कि संविधान में औपचारिक तौर पर क्‍या सकारात्‍मक बातें लिखी हुयी हैं। इससे पलाश जी का दोहरा दृष्टिकोण भी दिखता है। अगर हम वास्‍तविक सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक रचनाओं से कोई ठोस तथ्‍य, तर्क या उदाहरण उद्धृत करते हैं, तो पलाश जी कहते हैं कि मार्क्‍सवादी लिखित रचनाओं के उद्धरणों से कभी आगे नहीं बढ़ पाते (हालाँकि जो किसी वैज्ञानिक, सैद्धान्तिक कृति में जो लिखा गया होता है, वह व्‍यवहार से ही पैदा हुआ ज्ञान होता है और मार्क्‍स, एंगेल्‍स, लेनिन, आदि जैसे लोग महज़ सिद्धान्तकार नहीं थे; वे जनता की मुक्ति के ठोस संघर्षों में लगे हुये लोग थे, जिन्‍होंने जो कुछ लिखा है, उस जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों के अनुभवों का वैज्ञानिक समाहार ही है), लेकिन वे स्‍वयं संविधान में जो सकारात्‍मक बातें औपचारिक तौर पर दर्ज़ हैं, उन्‍हें एकदम शाब्दिक तौर पर, 'फेस वैल्‍यू' पर स्‍वीकार करने को तैयार हैं। हमें लगता है कि यह पलाश जी का एक पक्षपातपूर्ण रवैया है।

पलाश जी सामान्‍य बातें बहुत ज्‍यादा कहते हैं, और ठोस बातें कम, और उसके बाद वह हम पर सामान्‍य सिद्धान्तों की पूजा का आरोप लगा देते हैं। कौन कह रहा है कि सच को माने बग़ैर हवा में क्रान्ति की जायकिसने कहा कि जाति भारतीय जीवन की प्रमुख वास्‍तविकताओं या यथार्थों में से एक हैक्‍या उन्‍हें संगोष्‍ठी के वीडियो में कोई ऐसा कहता हुआ मिलाक्‍या हमारे पेपर में ऐसी कोई बात कहीं लिखी हैमैंने जाति के इतिहास लेखन पर जो पेपर लिखा है, क्‍या उन्‍हें उसमें ऐसी कोई बात मिली हैअगर मिली है, तो वे ठोस सन्‍दर्भ देकर बतायें कि कहां।अन्‍यथा, पलाश जी, कृपया हवा में तीर न चलायें। हमारी आपसे विनम्र प्रार्थना है।

पलाश जी कह रहे हैं जनता के ठोस संघर्षों में कोई विचारधारा काम नहीं आती। यहाँ पर हमें लगता कि पलाश जी की विचारधारा के बारे में समझदारी सामने आ गयी है। वह विचारधारा को वैचारिक निर्मितियों का एक समुच्‍चय मानते हैं, जिसका यथार्थ से कोई सम्बंध नहीं है। हमारा मानना है कि मार्क्‍सवादी विचारधारा एक विज्ञान है जो व्‍यवहार के अनुभवों के वैज्ञानिक समाहार से निकला है और आज तक विकसित होता हुआ और नये व्‍यवहार के अनुभवों से समृद्ध होता हुआ यहाँ तक पहुँचा है। विचारधारा और सिद्धान्त के प्रति यह संशयवाद स्‍वयं एक विचारधारा है! …और इस सर्वखण्‍डनवादी विचारधारा के हामी जॉन डेवी भी थे। क्‍या इत्‍तेफाक है! जॉन डेवी ने कहा था कि सामाजिक सिद्धान्त और विचारधारा अपने साथ गलत आस्‍थाएं और पूर्वाग्रह लाते हैं (हालाँकि डेवी नहीं जानते थे कि वह स्‍वयं एक विचारधारा ही प्रतिपादित कर रहे हैं)। अंबेडकर का भी यही मानना था। इसका अर्थ यह नहीं है कि डेवी और अंबेडकर जैसे व्‍यवहारवादी किसी विचारधारा का अनुसरण नहीं कर रहे थे; इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि उन्‍हें नहीं पता था कि वे भी एक विचारधारा का ही अनुसरण कर रहे थे। जो विचारधारा वैज्ञानिक होगी और यथार्थों का कमोबेश सही वैज्ञानिक सामान्‍यीकरण करेगी, वह जनता के मुक्ति संघर्षों का पथ-प्रदर्शन करेगी। इसलिये आप चाहे हिमांशु कुमार के, लियाकत आदि के कितने भी उदाहरण दें, उससे विचारधारा का अस्तित्‍व खण्डित नहीं होता। उससे उल्‍टे यही बात पुष्‍ट होती है कि जब तक जनता के संघर्षों को सही विज्ञान का मार्गदर्शन और पथप्रदर्शन मुहैया नहीं होगा, तब तक वे संघर्ष एक अंधी गली में भटकते रहेंगे। जनता ऐसे में अगर हारेगी नहीं (क्‍योंकि जनता कभी नहीं हारती) तो वह कभी जीत भी नहीं पायेगी। जिस प्रकार प्राकृतिक विज्ञान में किसी प्रयोग की सफलता के लिये एक सही वैज्ञानिक परिकल्‍पना की उतनी ही ज़रूरत होती है, जितनी की ठोस क्रान्तिकारी कार्रवाई की, उसी प्रकार समाज की ऐतिहासिक प्रयोगशाला में भी ठोस व्‍यवहार और अनुभवों को एक सही वैज्ञानिक परिकल्‍पना की उतनी ही ज़रूरत होती है। इसीलिये लेनिन ने कहा था कि 'बिना क्रान्तिकारी सिद्धान्त के कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं हो सकता है'। इसलिये आज जनता के संघर्षों के विपर्यय के दौर में होने के कारण के तौर पर एक सही वैचारिक, वैज्ञानिक समझ के अभाव को समझा जाना चाहिये, न कि विचारधारा के प्रति ही संशयवादी हो जायें। इस पर निश्चित तौर पर बहस हो सकती है कि एक सही वैज्ञानिक विचारधारात्‍मक अवस्थिति क्‍या हो, जिससे कि आज जनता के संघर्षों के समक्ष एक व्‍यावहारिक और वैज्ञानिक विकल्‍प रखा जा सके और उस विकल्‍प को लागू करने के लिये जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित किया जा सके। लेकिन विचारधारा को ही कूड़ेदान में फेंक देंगे, तो यह वैसा ही होगा जैसे कि साईकिल चालक अपनी साईकिल के पहिये के धुरे को स्‍वयं ही निकाल कर फेंक दे। ऐसे में, ज्‍यादा सम्भावना यही होगी कि वह जल्‍द ही अपने आपको चोट पहुँचायेगा।

आज की अंबेडकरवादी ताक़तों को पलाश जी ने लोकतन्‍त्र का समर्थक माना है और यह दलील दी है कि आज हिन्‍दू राष्‍ट्रवाद का मुकाबला करने के लिये सभी लोकतान्त्रिक ताक़तों को उनसे मोर्चा बनाना चाहिये। इसमें दो बातें हैं, जिन्‍हें हम पहले भी स्‍पष्‍ट कर चुके हैं, लेकिन पलाश जी उस पर ध्‍यान नहीं दे रहे हैं इसलिये हम फिर से स्‍पष्‍ट कर रहे हैं। एक बात तो यह कि पलाश जी को बताना चाहिये कि आज लोकतान्त्रिक अंबेडकरवादी शक्तियाँ कौन सी हैंजाहिर तौर पर, पलाश जी भी हमारे खयाल से मायावती, पासवान, थिरुमावलवन, रामदास आठवले को इनमें नहीं गिनते होंगे, क्‍योंकि ये अंबेडकरवादी ताक़तें तो खुद ही समय-समय पर खुशी-खुशी हिन्‍दू राष्‍ट्रवाद और दक्षिणपन्थ की गोद में बैठते रहे हैं। बाकी बचते हैं गैरचुनावी अंबेडकरवादी संगठन। उसमें एक रिपब्लिकन पैंथर्स भी हैं। वे कितने जनवादी हैं यह तो उसी समय पता चल गया था जब नेहरू-अंबेडकर कार्टून विवाद में उन्‍होंने सुहास पल्‍शीकर के कार्यालय पर वैसे ही हमला किया था, जैसे विहिप, श्रीराम सेने, बजरंग दल जैसे हिन्‍दू दक्षिणपन्थी धर्मनिरपेक्ष ताकतों पर करते रहे हैं। इसके अलावा भी कुछ छोटे दलित संगठन बचते हैं, जिनसे हम स्‍वयं समय-समय पर जनवादी और नागरिक अधिकारों के सवालों पर मोर्चें बनाते रहे हैं। गोहाना और झज्‍जर के कांडों के समय जो संयुक्‍त मोर्चा दिल्‍ली में बनाया गया था, उसमें हम भी शामिल थे। लेकिन आप जिस एकता की बात कर रहे हैं, वह मुद्दा-आधारित एकता ही हो सकती है। दलित मुक्ति को समर्पित जो भी ईमानदार संगठन हैं, उनसे हमारा संवाद और चर्चा चलती रहती है, और मोर्चे भी बनते हैं। लेकिन अंबेडकरवादी विचारधारा और मार्क्‍सवादी विचारधारा के बीच कोई मिलन-बिन्‍दु नहीं है। यह हम पहले भी स्‍पष्‍ट कर चुके हैं, और हम दोबारा स्‍पष्‍ट कर रहे हैं: पलाश जी से हम आग्रह करेंगे कि कृपया सैद्धान्तिक-विचारधारात्‍मक एकता और मुद्दा आधारित रणकौशलात्‍मक एकता के बीच फर्क करें। हमारा इन दोनों के बारे में स्‍पष्‍ट विचार है, जो हम ऊपर रख चुके हैं। इसलिये कृपया आगे के हस्‍तक्षेपों में ऊपर रखी गयी अवस्थितियों की ठोस आलोचना कारणों और तथ्‍यों के साथ रखें, एकता का सामान्‍य शाकाहारी सा आह्वान न करें।

हम पलाश जी से सहमत हैं कि बहस द्विपाक्षिक न हो और हर प्रकार के लोग इसमें हस्‍तक्षेप करें 'हस्‍तक्षेप' ने प्रशंसनीय निष्‍पक्षता के साथ अब तक इस बहस को चलाया है और इससे हिन्‍दी जगत में मौजूद पाठकों को काफी लाभ मिल रहा है। लेकिन पलाश जी की अन्त में कही गयी कुछ बातों को हम आपत्तिजनक मानते हैं। आप अपने युवाकाल में क्‍या थे और क्‍या नहीं थे, उसके आधार पर हमारे भविष्‍य के बारे में टिप्‍पणी न करें। आप युवाकाल में 'कट्टर विचारधारा' के समर्थक रहे होंगे; लेकिन हम तो आज भी 'कट्टर विचारधारा' के समर्थक नहीं हैं। हम विज्ञान के साथ खड़े हैं और खड़े रहेंगे। आप शायद 'कट्टर विचारधारा' के समर्थक थे, इसलिये आज आप विचारधारा को देखकर ही दूर से सलाम करते हैं। इसके लिये आप अपनी पारिवारिक पृष्‍ठभूमि में न जायें। उसका यहाँ कोई महत्‍व नहीं है। न ही आपको यह मानना चाहिये कि आपने तीन-चार दशक (या जितने भी दशक) पहले जो किया था, हम आज वही कर रहे हैं। ठोस उदाहरणों, तथ्‍यों और तर्कों पर बात कीजिये। आप एक बार फिर से एक गम्भीर सैद्धान्तिक और व्‍यावहारिक बहस को निजता के क्षेत्र में ले जाकर, मूल मुद्दों से बच निकलने का प्रयास कर रहे हैं। ठोस बताइये कि किन मार्क्‍सवादियों ने कब-कब सिद्धान्तों को किताबी तरीके से समझकर ठोस और ज़मीनी हकीकतों की उपेक्षा की, जैसा कि हमने अपने पेपर में लिखा है, क्‍योंकि हमारा भी मानना है कि भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्दोलन राजनीतिक और विचारधारात्‍मक तौर पर बेहद कमज़ोर रहा और वह देश में क्रान्ति का कार्यक्रम तक नहीं तैयार कर सका था। लेकिन इसका कारण विचारधारा का होना नहीं था, उल्‍टे इसका कारण विचारधारा की कोई सुसंगत समझदारी न होना था। इसलिये बेवजह पुस्‍तकों, विचारधारा और सिद्धान्त को गाली न दें। इस बात से कभी कोई वैज्ञानिक इंकार नहीं करता है कि उसे ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्‍लेषण करना चाहिये। लेकिन विश्‍लेषण करने के लिये विश्‍लेषण के सही उपकरण भी होने चाहिये। बिना उनके कोई विश्‍लेषण नहीं हो सकता और सा‍हसिक से साहसिक आन्‍दोलन अनुभववाद और व्‍यवहारवाद के गड्ढे में जाकर गिरते हैं। इसलिये विचारधारा का लोकरंजकतापूर्ण नकार कर यह समझने का प्रयास करें कि आज भारत की ठोस परिस्थितियों पर एक सही वैज्ञानिक दृष्टि को कैसे रचनात्‍मक तौर पर लागू किया जाय, लेनिन के शब्‍दों में कैसे ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्‍लेषण करके ठोस नतीजे निकाले जायें और किस प्रकार एक सही वैज्ञानिक विचारधारा की रोशनी में एक सही क्रान्तिकारी कार्यक्रम तैयार किया जाय, और जनता को उसके इर्द-गिर्द गोलबन्द किया जाय।

बहस में सन्दर्भ के लिये इन्हें भी पढ़ें –

विचारधारा और सिद्धान्त जाति हित में बदल जाते हैं !

बहस अम्‍बेडकर और मार्क्‍स के बीच नहीं, वादियों के बीच है

दुनिया भर में अंबेडकर की प्रासंगिकता को लोग खारिज करके मुक्ति संग्राम की बात नहीं करते।

बीच बहस में आरोप-प्रत्यारोप

'हस्‍तक्षेप' पर षड्यन्‍त्र का आरोप लगाना वैसा है कि 'उल्‍टा चोर कोतवाल को डांटे'

यह तेलतुंबड़े के खिलाफ हस्तक्षेप और तथाकथित मार्क्सवादियों का षडयंत्र है !

भारतीय बहुजन आन्दोलन के निर्विवाद नेता अंबेडकर ही हैं

भावनात्‍मक कार्ड खेलकर आप तर्क और विज्ञान को तिलां‍जलि नहीं दे सकते

कुत्‍सा प्रचार और प्रति-कुत्‍सा प्रचार की बजाय एक अच्‍छी बहस को मूल मुद्दों पर ही केंद्रित रखा जाय

Reply of Abhinav Sinha on Dr. Teltumbde

तथाकथित मार्क्सवादियों का रूढ़िवादी और ब्राह्मणवादी रवैया

हाँडॉ. अम्‍बेडकर के पास दलित मुक्ति की कोई परियोजना नहीं थी

अम्‍बेडकरवादी उपचार से दलितों को न तो कुछ मिला है, और न ही मिले

अगर लोकतन्त्र और धर्मनिरपेक्षता में आस्था हैं तो अंबेडकर हर मायने में प्रासंगिक हैं

हिन्दू राष्ट्र का संकट माथे पर है और वामपंथी अंबेडकर की एक बार फिर हत्या करना चाहते हैं!

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