Monday, September 17, 2012

भ्रष्टाचार की सतह के नीचे

भ्रष्टाचार की सतह के नीचे
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Monday, 17 September 2012 11:01

नरेश गोस्वामी
जनसत्ता 17 सितंबर, 2012: एक-डेढ़ साल से देश की राजनीति में भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहा है। इस बीच दो आंदोलन भी उभरे। अण्णा समूह और रामदेव के नेतृत्व में चले इन आंदोलनों में जनता का एक हिस्सा भी दिखाई दिया, लेकिन आंदोलन की लहरें दूर तक नहीं गइं। सच तो यह है कि इन आंदोलनों की जितनी चर्चा मीडिया में हुई, अगर उतनी ही जनता के बीच होती, तो शायद उनका ऐसा हश्र न होता।
भ्रष्टाचार की इतनी चर्चा होने के बावजूद अभी तक इस बात पर भी सहमति नहीं बन पाई है कि भ्रष्टाचार को केवल सार्वजनिक धन की हेराफेरी माना जाए या हमारी राज्य-व्यवस्था का एक ऐसा जन-विरोधी लक्षण जो राजनीतिक आश्रय के बिना संभव नहीं हो सकता। अण्णा समूह, रामदेव और पिछले दिनों संसद में दिखे भाजपा के तेवर मुख्य रूप से प्रशासनिक ढांचे में व्याप्त भ्रष्टाचार पर ही केंद्रित रहे हैं। उनके स्थायी तर्क को ध्यान से देखें तो यही लगेगा कि अगर कानून में दंड और नियंत्रण की व्यवस्था को थोड़ा और चौकस कर दिया जाए तो भ्रष्टाचार पर लगाम कसी जा सकती है। लेकिन इसी तर्क में यह प्रच्छन्न स्वीकारोक्ति भी मौजूद है कि देश की राज्य-व्यवस्था तो अपनी जगह ठीक है लेकिन उसे चलाने वाले लोग बुरे और बेईमान हैं। यानी अगर इस व्यवस्था में कुछ और नियंत्रणकारी कानून और पद बना दिए जाएं तो वह अच्छे ढंग से काम करने लगेगी।
दरअसल, इस पूरे तर्क की सबसे बड़ी कमजोरी यही रही है कि उसमें राज्य-व्यवस्था के चरित्र को लेकर कोई सवाल नहीं उठाया गया है। और अगर इसके बावजूद सरकार ने इन आंदोलनों को नहीं बख्शा तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी राज्य-व्यवस्था कितनी चालाक हो चुकी है। इसलिए, अब जब दोनों आंदोलन ठप पड़ गए हैं और उनके प्रति कभी भी साफ रुख अख्तियार न करने वाली भाजपा संसद में भ्रष्टाचार-विरोध की अगुआ बन जाती है तो शायद यह सबसे उपयुक्त अवसर है कि अपनी व्यवस्था के उन पहलुओं पर ध्यान दिया जाए जहां से भ्रष्टाचार पनपता है। लेकिन उससे पहले यह जानने का प्रयास किया जाए कि अण्णा समूह और रामदेव के आंदोलन इस तरह क्यों छितर गए, क्योंकि इसे जाने बिना शायद भ्रष्टाचार की वृहत संरचना को समझना मुश्किल होगा।
अण्णा आंदोलन अपने कार्यक्रम, रणनीति और विचार में शहरी जमात की मुहिम है। मीडिया उसमें अब और ज्यादा रुचि नहीं लेगा, क्योंकि उसमें अब दर्शकता बढ़ाने के तत्त्व खत्म हो गए हैं। दूसरी ओर, रामदेव का आंदोलन मूलत: एक छाया आंदोलन है, जो हमारी राज्य-व्यवस्था को कड़ी चुनौती दे ही नहीं सकता। असल में राजनीतिक शून्यता के इस दौर में कहीं भी एक बड़ी भीड़ खड़ी हो जाए तो उसे आंदोलन कहने का रिवाज-सा चल पड़ा है।
रामदेव योग और संस्कृति के विक्रेता हैं। समकालीन इतिहास के अन्य योग-प्रवक्ताओं से वे इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने पश्चिमी देशों के बजाय भारत को ही केंद्र बनाया। अन्य योगाचार्य पश्चिम के लोगों को योग का ज्ञान बांटते थे और इस प्रक्रिया में जो भी धन-धान्य मिलता था, संभवत: उससे संतुष्ट रहते थे। रामदेव ऐसे योगाचार्यों से इस अर्थ में भी भिन्न हैं कि उन्होंने भारत के बाजार पर ही पकड़ बनाई है। वे और उनके प्रबंधक यह बात बखूबी जानते हैं कि हमारा मध्यवर्ग खर्च करने की क्षमता और सेहत के मामलों में खर्च करने के लिहाज से पश्चिम के उपभोक्ताओं से कम नहीं रह गया है।
यानी मामला यह है कि रामदेव असल में एक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति करते हैं और उसे जनता के मुहावरे में पेश करने में सक्षम हैं। उनकी लोकप्रियता उतनी सहज स्फूर्त नहीं है जितनी दिखाई देती है। निश्चय ही उन्हें समाज और अर्थ-जगत की प्रभुत्वशाली ताकतों ने अपने दीर्घगामी हितों के अनुकूल पाया होगा। वरना ऐसा नहीं है कि इस देश में योग और पारंपरिक संस्कृति की परवाह करने वाले लोग न रह गए हों।
असल में रामदेव का आंदोलन एक दूर-संचालित आंदोलन है। जैसे संघ खुद को राजनीतिक संगठन नहीं मानता, वैसे ही रामदेव भी दावा कर सकते हैं कि उनका भाजपा जैसे दल से कोई रिश्ता नहीं है। लेकिन राजनीति को सिर्फ चुनावी आयोजन न समझने वाले लोग जानते हैं कि समाज की स्थायी राजनीति में रामदेव के साथ कौन-सा वर्ग खड़ा है।
यह साफ देखा जा सकता है कि अण्णा समूह के ज्यादातर सदस्य और रामदेव का लगभग पूरा गुट अपनी समाज-दृष्टि में दरअसल उसी संरचना का हिस्सा हैं जो सिर्फ कुछ चुनिंदा विकृतियों की बात करती है। उसकी संवेदनात्मक विकलता में वह बहुसंख्यक जनता नहीं है जिसके पास सरकार की कल्याण-योजनाओं का लाभ नहीं पहुंच पाता और जिसे हमेशा याचक की स्थिति में रख कर सिर्फ इंतजार कराया जाता है। इसलिए अब सवाल के दायरे को भ्रष्टाचार के जिम्मेदार और उसके तलबगार की श्रेणी से आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
क्या भ्रष्टाचार सिर्फ धन और संसाधनों की हेराफेरी है? यह सवाल उन सबके लिए है, जिन्हें लगता है कि अगर भ्रष्टाचार को प्रशासनिक स्तर पर खत्म कर दिया जाए तो जैसे समाज या देश स्वर्णयुग में पहुंच जाएगा। यह सवाल उन बहुत सारे टिप्पणीकारों के लिए भी है, जिन्हें भ्रष्टाचार सिर्फ एक नैतिक मसला लगता है। ऐसे लोग कभी इस बात पर ध्यान नहीं देना चाहते कि आखिर भ्रष्टाचार करने की क्षमता आती कहां से है। जब तक हम इस सवाल पर गौर नहीं करेंगे तब तक इस भ्रम में जीते रहेंगे कि प्रशासनिक तंत्र दुरुस्त कर देने भर से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा।
असल में भ्रष्टाचार कर पाने की   क्षमता इस बात से जुड़ी है कि सरकार से लक्षित वर्गों और समुदायों को जो लाभ स्वत: मिलना चाहिए उसे सत्ता के विभिन्न स्तरों पर बैठे लोग नहीं मिलने देते। और वे जब इस लाभ को देते हैं तो उसके बदले वूसली करते हैं।
अब खासतौर पर भ्रष्टाचार के उस रूप पर विचार किया जाए, जो राजनीतिक सत्ता से निकलता है। असल में हम जिसे पिछले बीस सालों में लोकतंत्र का विस्तार कहते रहे हैं ठीक उसी दौर में राजनीति लगातार ऐसे लोगों के हाथों में कैद होती गई है जिनके पास अकूत संपत्ति है। और दुर्भाग्य से यह बात उन सभी लोगों पर भी लागू होती है जो दलितों और पिछड़ों को उनका ऐतिहासिक अधिकार दिलाने के नाम पर राजनीति करते आए हैं। अगर वे अपनी जाति के बहुसंख्यक लोगों को अपने साथ खींच लेते हैं तो इसका मतलब यह है कि एक आम नागरिक के तौर पर मतदाता के पास ज्यादा विकल्प नहीं रह गए हैं। लगातार हिंसक होते समाज में कम से कम उनके पास एक आश्वस्ति तो होती ही है कि अगर कुछ असामान्य हो गया तो उनकी जाति का दबंग नेता उन्हें बचा लेगा।
इसलिए राजनीति में वंचित, पीड़ित और दमित समूहों के लोगों का प्रवेश तो हुआ है, लेकिन सत्ता में आते ही उनके प्रतिनिधि भी उसी राजनीतिक संरचना का हिस्सा बन जाते हैं जो सत्ता में होने के कारण संसाधनों की मालिक बन जाती है और उनका अपने लिए उपयोग करना चाहती है। इस संरचना में जनता की वास्तविक भागीदारी बहुत सीमित है। दूसरी तरह से कहें तो वह उसमें मतदाता के रूप में तो भाग ले सकती है, उसकी शर्तों और कार्यप्रणाली को नहीं बदल सकती।
मसलन, जनता चाहती है कि स्कूल खुलें और शिक्षा सस्ती हो, लेकिन सरकार शिक्षा को एक निजी उद्योग बना देती है तो वह रोक नहीं सकती। जनता चाहती है कि जीवन खुशहाल हो, पर सरकार विकास के नाम पर किसानों की जमीन छीनने लगती है या आम मजदूर के खिलाफ नीतियां बनाने लगती है तो फिर उसी जनता का सरकार पर बस नहीं चलता। अन्य नीतिगत क्षेत्रों से भी ऐसे तमाम उदाहरण लिए जा सकते हैं। जन-परिवहन के मामले में आजकल बंगलोर और मुंबई सहित देश के लगभग हर बडेÞ शहर में मेट्रो रेल की योजना बनाई जा रही है, जबकि इससे कम खर्च में सड़कों और यातायात के विभिन्न साधनों का बेहतर प्रबंध किया जा सकता है।
असल में भ्रष्टाचार को लेकर पिछले दिनों होने वाली खयालगोई से यह बात नदारद रही है कि हमारे राजकाज का ढांचा ही ऐसा है जिसमें जनता के अधिकार और न्याय की आकांक्षा का सम्मान नहीं किया जाता। आम आदमी अगर अपने अधिकार की बात करे तो पंचायत से लेकर संसद तक पहले उसे चुप करने की कोशिश की जाती है और अगर वह तब भी पीछे नहीं हटता तो फिर दमन का सहारा लिया जाता है।
राजनीतिक संरचना से उपजने वाला भ्रष्टाचार इसलिए संभव होता है, क्योंकि आम जनता को अधिकार और न्याय के लिए लड़ने का तो अधिकार है लेकिन वह यह तय नहीं कर सकती कि राज्य और उसके नाम पर शासन करने वाली सरकार उसे मानेगी या नहीं। सरकार के पास उसे परास्त करने की ताकत और चालबाजी हमेशा होती है। पिछले साल जब अण्णा समूह की मुहिम परवान पर थी और मीडिया के हिसाब से सरकार ही नहीं, संसद भी दबाव में आ गई थी, तब भी सत्ता के प्रबंधकों ने जनमत को परास्त करने का काम इसी तरह किया था। प्रक्रिया को अटकाना, संविधान की दुहाई देना, अराजकता का डर दिखाना आदि कुछ ऐसे पैंतरे थे जिन्होंने इस मुहिम को समूल छितरा दिया।  
इस तरह मसला यह नहीं है कि जनता भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए एकजुट नहीं होती, बल्कि विडंबना यह है कि जनता के बडेÞ हिस्से को इतना अशक्त, असुरक्षित और लाचार बना दिया गया है कि वह सही और जायज का चुनाव नहीं कर सकती। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आम जनता अनंत काल तक नहीं लड़ सकती, क्योंकि एक समय के बाद उसे जीवन का ही खतरा हो जाता है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा स्रोत अधिकारों का अतिशय केंद्रीकरण है। इसी के बल पर नीतियां बनाने में मनमानी की जाती है, सार्वजनिक संसाधन अपने चहेतों को बांटे जाते हैं और विरोध की आवाज दबाई जाती है। जब तक इस केंद्रीकरण को चुनौती नहीं दी जाती, भ्रष्टाचार का विरोध सतह पर ही बना रहेगा, वह व्यवस्था को बदलने की मुहिम नहीं बन पाएगा।


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