खोये हुए खेत, खलिहान, नदी, अरण्य, पहाड़ और गांव
पलाश विश्वास
सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में जम्मू कश्मीर के ताजा हालात पर विचार विमर्श किया गया। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में घाटी के लोगों से हिंसा से दूर रहने की अपील की गई है । साथ ही अलगाववादियों से फिर से बातचीत की पेशकश की गई है। बैठक में 15 सितंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाने का फैसला हुआ है। सीसीएस की बैठक में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून में संशोधन पर कोई फैसला नहीं हो सका।केंद्रीय कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक से पहले सोमवार को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की।
प्रधानमंत्री ने सैन्य कमांडरों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा, "हम अपने संविधान के दायरे में हर उस शख्स और समूह से बातचीत करने को तैयार हैं, जो हिंसा त्याग दे।" सिंह ने कहा, "जम्मू एवं कश्मीर में पिछले कुछ हफ्तों से जारी अशांति चिंता का विषय है। कश्मीर के युवा हमारे नागरिक हैं और उनकी शिकायतें दूर होनी चाहिए।"
जम्मू कश्मीर में जारी हिंसा के बीच रक्षा मंत्नी ए. के. एंटनी ने सशत्र बल विशेषाधिकार कानून को (AFSPA) लेकर उनके मंत्नालय और केंद्रीय गृह मंत्नालय के बीच किसी प्रकार के मतभेद से आज स्पष्ट इंकार किया। शांतिगिरि आश्रम के एक समारोह के बाद एंटनी ने पत्रकारों से कहा कि सशत्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर कोई गंभीर मतभेद नहीं है।
वह घड़ी मुझे आज भी याद है, जब नैनीताल से बस में सवार मैं शेखर पाठक के दिये सौ रूपए की पूंजी के साथ पहाड़ से निकल पड़ा था इलाहाबाद के लिए। बिना घर को बताये। सिर्फ बटरोही ने कहा था कि कर्नल गंज में शैलेश मटियानी जी के घर में एक कमरा है, जहां रहा जा सकता है। तब पहाड़ों में तेज बारिश हो रही थी। भूस्खलन जारी था।
वाल्दियाखान से उतरते न उतरते हम भूस्खलन से घिर गये थे। आगे भी जमीन दरक रही थी। पीछे भी पहाड़ टूट रहा था।
डरा नहीं था। पहाड़ में आदत सी हो जाती है।
नैनीताल का मौजूदा नक्शा भी तो भूस्खलन की देन है वरना फ्लैट्स तो बनना ही न था।
उत्तराखण्ड में तेज बारिश और भूस्खलन से प्रसिद्ध चार धाम यात्रा प्रभावित रही। गढ़वाल क्षेत्र में तमाम जगहों पर हुए भूस्खलन के कारण बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री यात्रा मार्ग बंद रहा। प्रशासन यातायात को सामान्य बनाने के प्रयास में जुटा है।
राज्य के आपदा प्रबंधन केंद्र के मुताबिक चार धाम यात्रा प्रभावित हो गई। भूस्खलन के कारण यातायात मार्ग पर मलबा आ जाने से यमुनोत्री मार्ग हनुमानचट्टी के पास, गंगोत्री मार्ग गंगनानी के पास, केदारनाथ मार्ग मनकोटिया के पास और बद्रीनाथ मार्ग छिनका के पास ही बंद रहा।
१९७८ को घनघोर बाढ़ में जब उत्तरकाशी से महज दो किमी दूर अधखाये गंगोरी में डेरा डाले हुए थे सुंदरलाल बहुगुणा, मैं मनेरी परियोजना के आगे तेज धार गंगा के किनारे किनारे भूस्खलन और बरसात के मध्य पैदल चलते हुए अकेले शाम तलक भटवाड़ी पहुंचा था जबकि कहीं कोई सड़क साबूत नहीं बची थी।
मनेरी तक साथ चला था गोविंद बल्ल्भ पंत। जीआईसी नैनीताल का रिश्ता निबा रहा था। वह तब शायद गंगोरी में अपने चाचा के साथ था। मुझसे पहले शेखर और गिरदा भागीरथी की बाढ़ की खबर मिलते ही वहां से होआये थे।
तब फोन नहीं था मोबाइल।
पुलिस के वायरलैस से हम नैनीतास समाचार में दोनों से जुड़े थे। तब मैं एमए प्रीवियस की परीक्षा दे रहा था।
उनके लौटने पर मैं चला थासमाचार में छपी उनकी रपट की परिचिति साथ लेकर अनजाने अनचीन्हे भागीरथी किनारे।
राजू के लौटने के बाद बारिश तेज हो गयी थी और मनेरी के ऊपर कहीं कोई रास्ता था ही नहीं।
भूस्खलन के मध्य गिरते हुए पहाड़ के बीच बिना रुके जख्मी गांवों, खेतों और जंगल के बीच होकर तब मुझे चलना था।
टिहरी में सर्वोदय छात्रावास से भवानी भाई के सौंपा लाउडस्पीकर का हैंडसेट कंधे पर लादे मैं बछेंद्री पाल के गांव के पार उत्तरकाशी पहुंचा था। यह लाउडस्पीकर सुंदरलाल जी के हवाले करना था।
अब इतने अरसे बाद मुझे उस लाउडस्पीकर की आवाज सुनायी पड़ रही थी। पर उससे बहुगुणा जी या किसी आंदोलनकारी की आवाज नहीं आ रही थी। बल्कि द्वाराहाट और चौखुटिया के बीच दूनागिरी की तलहटी में एक गांव की बूढ़ी आमा का आवाज कानों में गूंज रही थी।
मैं सोमेश्वर के मोहन के गांव लखनाड़ी से सोमेश्वर और गंगास घाटी के पार घाटियों और पहाड़ियों को लांघते हुए द्वाराहाट पहुंचा था पांव में मोच लिए। विपिनचचा से मिलकर पहुंचा था पीसी के गांव, जहां आमा अकेली रहती थी। खेत खलिहान, रामगंगा नदी, घाटी , घर गांव की रखवाली करती थी अकेली।
आमा ने हमारे लिए, पीसी वहां पहले से था, मंडुए की रोटी और सरसों का साग बनाया था। कई कई दिन हम घाटी में भटकते रहे थे।
अल्लसुबह जब घास पर ओंस के कण साबूत थे, हम दोनों चल पड़े थे और हमारा पीछा तक रही थी आमा दूर तलक। उनकी आवाजें दूर तक हमारी पीछा कर रही थी। वह गांव न छोड़ने के लिए गिड़गिड़ा रही थी। पीसी पहाड़ में ही रह गया। पर मैं तो निकल गया।
घंटों बस में कैद और बारिश में फंसा मैं सड़क साफ होने तक और फिर बरेली पहुंचकर सहारनपुर पैसेंजर में सवार होने तक, प्रयाग में उतरने पर, संगम में किले के सामने खड़ा होकर भी आमा की वह पुकार सुनता रहा हूं।
आज भी सुनता हूं। तब से बांध तोड़ती नदियों की बाढ़ हिमालय बना देता है मुझे अक्सर और मैं भीतर ही भीतर जख्मी होता रहता हूं, लहूलुहान।
यह सिलसिला थमा नहीं है।
अश्वत्थामा की तरह जख्म चाटकर जीने की आदत हो गयी थी और कुरुक्षेत्र की असलियत ही भूल चला था। गिराबल्लभ ने असमय में कूच कर असमाप्त महाभारत में छोड़ गया मुझे एक बार फिर।
जहां काम के बहाने मेरी हाजिरी लगती है, वह प्रेतभूमि है। मैं प्रेतात्माओं से घिरा हुआ अभिशप्त एकाकी अशरीरी, जिसकी इंद्रियां बेकल हैं। वर्च्युअल रिएलिटी में निष्णात मिथ्या में आत्मलीन।कहने को इस महानगर में करोड़ों की घनी आबादी है पर यहां कोई मेरा नहीं है। जहां सब मेरे हैं , वहां मैं नही हूं। यह यंत्रणा नराई में अभिव्यक्त नहीं हो सकती।
सुबह रविवार के बाजार से घर पहुंचते न पहुंचते राजीव का फोन आ गया। सविता बात कर रही थी। मुझे देखते ही मोबाइल पकड़ा दिया। मैं मोबाइल साथ लेकर नहीं चलता।
राजीव ने बताया कि वह और कथाकार विजय शर्मा २१ सितंबर को नैनीताल जा रहे हैं। उसने मुझसे भी चलने को कहा था पर मेरे हालात गांव जाने लायक नहीं है। विजय ने भी कई दिनों पहले सूचना दे दी थी। नैनीताल फिल्म समारोह में जा रहे हैं ये लोग। काफी गपशप हुआ और राजीव ने फोन रख दिया।
बाद में सविता ने बताया कि राजीव कह रहा था कि वह गिरदा की शादी में शामिल हुआ था क्योंकि वह तब अल्मोड़ा में था। गिरदा ने करीब चालीस साल की उम्र में शादी की थी। इसलिए ज्यादा हंगामा करने से उसने परहेज किया। नैनीताल से किसी को नहीं बुलाया।
गिरदा से उनके परिवार और गांव के बारे में शायद ही कोई चर्चा हुई हो। पर पीसी, विपिन चचा और मोहन के गांवों तक मैं पहुंचा था।
मेरे पिता के देहांत के बाद नैनीताल और अल्मोड़ा से लोग हमारे घर बसंतीपर आये थे। उनमें गिरदा भी थे।
राजीव ने तो फोन रख दिया, पर सविता ने फिर पहाड़ चलने की जिद पकड़ ली। लेकिन उसकी शर्त यह है कि वह बसंतीपुर नहीं जाएगी।
पद्मलोचन और उसके बीच बीच बीच में ऐसा ही शीत युद्ध होता रहता है।
पर इस बार मामला कुछ गंभीर है।
भाई ने सविता के मायके वालों को भला बुरा कहा है और यह मामाला सुलटना मुश्किल लगता है।
मेरे लिए समस्याएं और हैं। मुझे एक साथ उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के कई जिले की यात्रा करनी होगी।
बिजनौर से लेकर नैनीताल और अल्मोड़ा, रामपुर से लेकर पीलीभीत तक। रतनफार्म और शक्तिफार्म भी जाना है। जो लगभग असंभव है। वैसे भी दोस्तों ने भुला दिया है। पहाड़ से संपर्क बरसों से कटा हुआ है।
दिनेशपुर और रुद्रपुर से भी अब ज्यादा नाता नहीं है।
दीप्ति सुंदर, हरे कृष्ण और सुधीर तो हमारे खास रहे हैं।
दीप्ति और हरे कृष्ण बंगाल होटल में मेरे साथ रहे हैं। पर उनसे अब ?फोनालाप भी नहीं होता।
गिरदा के निधन से पहले मुझे सूचना चंडीगढ़ से मिला। निधन के बाद जहूर ने राजीव को फोन किया। मुझे किसी ने फोन करने की जरुरत नहीं समझी।
देवप्रकाश और शंकर से लेकर हमारे पुराने साथियों से अब कोई ताल्लुकात नहीं है।
शायद गांव, खेत, खतिहान, पहाड़, नही और अरण्य को लेकर मेरे अंदर का कनेक्शन ही हमेशा हमेशा के लिए टूटकर बिखर गया है इस कदर कि मरम्मत की कोई गुंजाइश ही नहीं रही।
वरना तराई आकर हमारी बूढ़ी दादी मधुमती नदी के लिए आजीवन क्यों रोती रहती।
पिता तब भी साठ सत्तर पार कर चुके थे, जब बार बार बिना पासपोर्ट वीसा के वह सीमापार जैशोर से लेकर खुलना तक फैले अपने खेत खलिहान की तलाश में निकल पड़ते थे।
अपने गांव की पापसी के लिए तो उन्होंने बांग्लादेश आजाद होने के बाद ढाका जाकर पूर्व और पश्चिम बंगाल के एकीकरण की मांग तब उठा दी थी. जबकि बर्लिन की दीवारे सही सलामत थी।
वे गिरफ्तार कर लिये गये थे और बांग्लादेशी जेल में महीनों बंद रहे थे।
इसी तरह नैनीताल की तराई में ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह की अगुवाई करने के बाद वे ढाका में भाषा आंदोलन में शामिल हुए और पूर्वी पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें जेल में डाल दिया। तब विख्यात पत्रकार अमृत बाजार पत्रिका के संपादक तुषार कांति घोष ने उन्हें छुड़वाया।
इधर आनन्द बाजार पत्रिका में सुनंदा सिकदार की आत्मकथा धारावाहिक छप रही है। इस महिला ने ४८ साल बाद अपने गांव लौटकर पुराने दिनों को, यादों, रिश्तों की नई पड़ताल की है। फिल्मकार सुप्रियो सेन ने तो आबार आसिबो फिरे नामक अपनी फिल्म के लिए अपने माता पिता की बांग्लादेश में उनके पुराने गांव की यात्रा करवाई और उनसे अद्भुत अभिनय करवाया।
इस बीच मैंने अख्तरुज्जमान इलियस की कहानी पायेर तलाय जल का पाठ किया अनेकों बार। ढाका में नौकरी के बहाने बस गये पुत्र की अपने जलप्लावित गांव तक पहुंचने और यादों के सफर का लाजवाब किस्सा है यह। अपने खेत को बचने को लिए गया था वह। पर उस खेत के चप्पे चप्पे पर उसके पिता मौजूद थे।
ये चीजें बहुत बहुत परेशान करती है और अपने पहाड़, नदी, जंगल, खेत,खलिहान और गांव तक पहुंचने का रास्ता बेहद मुश्किल बना देती है। कोई चीज तो हम बचा नहीं सके। किसी चीज के लिए सार्थक कोई लड़ाई नहीं कर सके।
दरअसल समस्या की गहराई इन बातों से कहीं ज्यादा है। उत्तराखंड के हर कस्बे में मेरे प्रिय लोगों का डेरा है।
तराई के गांव गांव में लोग मेरे आत्मीय और अंतरंग।
पिताजी के प्रबल विरोधी सरदार भगत सिंह, जिन्हें पिता ने रुद्रपुर के तराई विकास संघ में दो दो बार हराया, शरणार्थी नेता मास्टर हरिजद विश्वास, पिताजी के अंतरंग मित्र स्वतंत्रता सेनानी रामजी राय जो आखिरी वक्त तक पिता की मौत के बाद बसंतीपुर आते रहे, उनका वह स्नेह भुलाया नहीं जा सकता। वे लोग नहीं हैं।
हर गांव में परिचित चेहरे अब नहीं है।
बसंतीपुर में कृष्ण कोगुजरे हुए थोड़ा ही वक्त हुआ , पर वहां भी अब चारों तरफ सबकुछ बदला हुआ है।
जिन गांवों में मेरा बचपन बीता, अब वहां मुझे पहचानने वाले नहीं हैं। मैं कई गांवों मे जाकर बेहद सदमे की हालत में आता रहा हूं।
तीस साल हो चुके गांव छोड़े हुए। बेदखल केतों का मेरे पास कोई हिसाब नहीं है। मैं अपने खेत पर खड़ा भी नहीं हो सकता। उस खेत पर जहां जाड़ों की रात खलिहान में खुले ाकाश के नीचे रात बिताना मुझे सबसे प्रय था किसी दिन। जहां एक बार जऊ भाई का सामना बाघ से हुआ था। उनकी चीख पर अगल बगल के सारे गांवों के लोग जमा हो गये थे। जऊ हरिजन हमारे घर का मैनेजर हुआ करता था।
जाति से चमार पर हमारे परिवार का सदस्य। वह कई दफा देवरिया में कुशीनगर के पास अपने गांव जाने के रास्ते से लौट आते थे, हमारे छोटे छोटे भाई बहनों को याद करके जो उनकी गोद में बड़े हुए।
आखिरकार एक सर्दी की सुबह जब हम घर के बगल के खेत में गन्ना काट रहे थे और रेटियो पर भारत वेस्ट इंडीज मैच का आंखों देखा हाल सुन रहे थे, तब देवरिया से जऊ भाई का किशोर बेटा चला आया और अपने बाप को लेकर चला गया।
अब नहीं मालूम , उनकी क्या खबर है। तभी, शायद १९७६ में उनकी उम्र साठ पार थी। उस दिन से पहले तक जऊ भाई के बिना हमारे परिवार की कल्पना मु्श्किल थी। हर छोटे बड़े काम में वही तरणहार थे।
रातोंरात सबकुछ बदल गया।
पिता जऊ भाई के जिम्मे खेत खलिहान करके यायावर की तरह देश भर में सड़कों की धूल छानते थे।
हमारी माता जी को खेत खलिहान से कोई मतलब न था। मैं नैनीताल रहता था। छोटोकाका तब शक्तिफार्म में बस चुके थे। ताऊजी अलग हो चुके थे। और १९७० में ही दादी का निधन हो गया था।
जऊ भाई की तरह कितने लोग तो थे, जिनके बिना दुनिया अधूरी लगती थी!
ठीक वैसे ही जैसे अब गिरदा के बिना पहाड़ पहाड़ नहीं लगता। नैनीताल की कोई तस्वीर नहीं उभरती।
इतने सारे मामा, चाचा, दादा, मौसी, बुआ, रिश्तेदार थे. जिनसे खून का कोई रिश्ता न था।
मेरा गांव बसंतीपुर भी तो आखिर एक परिवार है।
मां, ताई और चाची के मां बाप या तो उस पार रह गये थे या उनसे संपर्क टूट गया था।
जैसे मेरा ननिहाल ओड़ीशा के बारीपदा में न हमारी मां गयी और हम जा सके। छोटी चाची के मायकेवाले नेताजी नगर की जमीन बेचकर १९६७ में ही बंगाल में बस गये थे।
इन महिलाओं ने असंख्य मुंहबोले भाइयों और बहन के जरिए अपना अपना मायका जोड़ लिया था।
उन दिनों लगभग हर घर की यही दशा थी।
पूरी आबाद एक अनंत रिश्तेदारी थी।
पिता का परिवार तो कहीं ज्यादा बड़ा था।
बसंतीपुर, दिनेशपुर, नैनीताल और उत्तर प्रदेश की सीमाओं से परे।
यह अहसास तो उनक निधन के बाद हुआ, जबकि अब रोजाने उनके देश व्यापी परिवार की समस्याओं से जूझना होता है और बसंतीपुर, नैनीताल और पहाड़ की समस्याएं इस व्यापक अनंत परिवार की समस्याओं के सामने कभी नजर ही नहीं आतीं।
हमने तराई के जो अब सिडकुल के नाम से जाना जाता है, रचे बसे जाते हुए अपनी जीवन यात्रा शुरू की थी।
खटीमा, सितारगंज, शक्तिफार्म. दिनेशपुर, रूद्रपुर, गदरपुर, पंतनगर, बाजपुर का विकास देखा है।
जंगलों को उजड़ते हुए . फिर किसानों की बेदखली देखी है।
तराईभर में तब हाट और मेलों के ठाठ थे। अटरिया में नौटंकी की बहार थी। सर्कस का सर्च लाइट गांवों को घेर लेता था। और नगाड़ों की हुंकार से खून में सनसनी मच जाती थी।
बाजारों को सजते हुए देखा है। गांव गांव के लोग कितने अपने थे। हमें कहीं भी जाने रहने की आजादी थी। बेइंतहा वक्त था। क्षितिज तक फैली हरियाली। शक्तिफार्म, लालकुंआ और गूलरभोज के जंगलों में बेखटके भटकने का जिगर था। हाटों और मेलों मे सबकी खबर लग जाती थी। सबको खबर हो जाती थी ।
शाम होती थी ढोर डंगरों की घर वापसी के दौरान आसमान में छाए गुबार के बीच आहिस्ते से गायब होते सूरज की किरणों से। शाम को गोशाला को मच्छरों से बचाने और सुबह कड़कते शीत से बचने के लिए अलाव।
धुएं में, धुंध में तब दिशाएं नहीं खो जाती थीं।
अगले चार साल में दुनिया में सबसे अमीर होंगे मुकेश अंबानी
दैनिक भास्कर - 11 घंटे पहलेबोस्टन. रिलायंस इंडस्ट्रीज लि. के प्रमुख मुकेश अंबानी अगले चार साल में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति हो जाएंगे। तब उनकी कुल संपत्ति 62 अरब डॉलर होगी। अमेरिका की प्रतिष्ठित पत्रिका 'फोब्र्स' ने यह अनुमान लगाया है। पत्रिका ने अगले 10 साल में होने वाली कुछ अहम घटनाओं की भविष्यवाणी की है। पत्रिका के मुताबिक दुनिया के धन्नासेठों की सूची में मैक्सिको के उद्योगपति कालरेस स्लिम फिलहाल शीर्ष पर चल रहे हैं। लेकिन 2014 तक मुकेश उन्हें ...
मुकेश अंबानी चार साल में दुनिया के सबसे धनी व्यक्ति बन जाएंगे खास खबर
फोर्ब्स की भविष्यवाणीः मुकेश सबसे अमीर होंगे डी-डब्लू वर्ल्ड
Tarakash - वेबदुनिया हिंदी - आज की खबर - Awaaz Karobar
खेत, खलिहान और चारागाह तब हमारे विश्वविद्यालय हुआ करते थे। पहाड़ से उतरकर सीधे खेतों में जाना होता था। उन खेतों के सिवाय गांव क्या गांव होगा। आज गांवों में कहीं गोबर तक नहीं है। गोशालाएं नहीं है। माटी भी गायब होने लगा है।
आज आनंदबाजार में उत्तरी बंगाल में रेलवे परियोजनाओं की बौछार के बीच ममता मतुआ बनर्जी का बयान आया है कि १९८४ के औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन के खिलाफ हैं वे। वे चाहती हैं नया कानून। वे चाहती हैं कि सरकार निजी कंपनियों के लिए एक इंच जमीन न खरीदें, बल्कि कंपनियां बाजार दर पर किसानों से सीधे जमीन खरीदे। नंदीग्राम सिंगूर आंदोलन की पृष्ठभूमि में वह जमीन अधिग्रहण कानून को देखती है। पर इससे पहले तो यही खबर थी कि ममता विधानसभा चुनाव तक भूमि अधिग्रहण विधेयक को टालना चाहती हैं।
कुछ ही दिनों पहले राहुल गांधी ने ओडीशा जाकर खुद को दिल्ली में आदिवासियों का सिपाही बताया था और खनन परियोजनाओं की अनुमति देते समय आदिवासियों के अधिकार की रक्षा की वकालत की थी। अब गुरुवार को दिल्ली के नजदीक उत्तर प्रदेश के दादरी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जमीन का अधिग्रहण करते समय उर्वर खेतों और किसानों के हक का सवाल उठाया है। उन्होंने दो बातें कही हैं।
नए उद्योगों और बुनियादी ढांचे का विकास खेती की उर्वर जमीन की कीमत पर नहीं होना चाहिए। दूसरे, किसानों को जमीन से वंचित करना ही पड़े तो उन्हें पर्याप्त मुआवजा और वैकल्पिक आजीविका देकर ही करना चाहिए।
नेहरू-गांधी परिवार के राजनीतिक वारिसों की इन घोषणाओं से असहमत होने का कोई कारण नहीं। देश में जिस विकास के केंद्र में लोग नहीं हों, उस विकास का कोई मतलब नहीं। विकास योजनाओं को व्यापक जनता के हित में होना ही चाहिए। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन वर्तमान ही नहीं, भावी पीढ़ियों को भी नुकसान पहुंचाएगा।
इसलिए विकास योजनाओं, पर्यावरण और जनहित में संतुलन जरूरी है। पिछले दिनों यह संतुलन गड़बड़ाता दिखाई दिया है, जिसके नतीजे उग्र जनप्रतिक्रिया के रूप में सामने आए। पहली बार सत्ता के शिखर से इन सवालों पर आश्वस्त करने वाली आवाज सुनाई दी है।
राहुल और सोनिया दोनों ने ये घोषणाएं उन राज्यों में जाकर की हैं, जहां विरोधी दलों की सरकारें हैं और कांग्रेस अपने पैर जमाने के लिए संघर्ष कर रही है। ओडीशा में बीजू जनता दल की सरकार है और वेदांता की खनन योजना को लेकर आदिवासी वहां आंदोलनरत थे।
उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार है और हाल ही में वहां सड़क परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहण से उद्वेलित किसान सड़कों पर उतरे थे। दूसरी ओर, दादरी में कांग्रेस अध्यक्ष ने जमीन के बदले में बेहतर मुआवजा नीति के लिए अपनी पार्टी द्वारा शासित कांग्रेस की तारीफ की। विपक्ष की राज्य सरकारों के खिलाफ इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने से पहले यूपीए अध्यक्ष को केंद्र सरकार की नीतियां बदलवानी होंगी।
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने दो ही दिन पहले विकास को प्रमुखता देने की बात कही थी। सवाल सिर्फ यही नहीं है कि सत्ता का शिखर नेतृत्व दो मुखों से बोल रहा है। सवाल यह भी है कि क्या केंद्र की नीतियां बदलेंगी या ऐसा क्या सिर्फ राजनीतिक लाभ लेने की गरज से किया जा रहा है।
ममता बनर्जी से लेकर युवराज राहुल गांधी और राजमाता सोनिया गांधी से लेकर दलित महारानी मायावती तक सारे के सारे लोग किसानों, आदिवासियों और मूलनिवासी दलितों पिछड़ों के हितैषी है। कारपोरेट के सामाजिक सरोकार है। टीवी चैनलों पर पीपली लाइव हैं। एनजीओ और यूएनओ हैं, फिर भी सबसे बड़ा सच है जमीन से बेदखली। प्रकृति से छेढ़छाड़. सामूहिक बलात्कार और नरसंहार की संस्कृति। विकास के बहाने बेदखली और विनाश की अनंत कथा हरिकथा अनंत।
यूरोपीय व एशियाई बाजारों में मजबूती और स्थानीय स्तर पर रिलायंस, एसबीआई, आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी, इंफोसिस, एचडीएफसी बैंक, एलएंडटी, हिंडाल्को, रिलायंस इंफ्रा के शेयरों में तेजी की बदौलत बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) का सेंसेक्स सोमवार को 31 माह के उच्चतम स्तर पर बंद हुआ। जुलाई में औद्योगिक विकास दर के 13.8 फीसदी रहने से बाजार धारणा मजबूत हुई। निफ्टी ने भी 100 अंकों से ज्यादा की छलांग लगाते हुए 5750 के अहम स्तर को पार कर दिया।
जवाहर इंदिरा से लेकर पांचवी पीढ़ी तक की मनुस्मृति शासकीय व्यवस्था में किस गांव को , किस खेत को , किस पहाड़ को, किस घाटी को, किस नदी को फिर फिर मरते हुए देखना और उसके बावजूद नपुंसक आक्रोश में जीना भवितव्य है।
वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने रविवार को कहा कि वैश्विक आर्थिक मंदी अभी पूरी तरह खत्म नहीं है, इसलिए भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। पश्चिम बंगाल के हुगली जिले में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मुखर्जी ने कहा कि हमें सतर्क रहने की जरुरत है क्योंकि भारत वैश्विक स्थिति से अलग नहीं है।
किसान विरोधी है भूमि अधिग्रहण अधिनियम
Posted by अरविन्द विद्रोही on July 24, 2010 in अंधेर नगरी | 2 Comments
मजदूर-किसान अपने ही नेतृत्व तथा अपने ही द्वारा चुनी गई सरकारों के मनमाने पूर्ण रवैये का शिकार होकर बद से बदतर स्थिति में जीने को विवश है।विकास की अंधाधुंध दौड़ में किसानों की भूमि को अधिग्रहीत करके उन्हें भूमिहीन बनाने व पूंजीवाद का शिकार बनाने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है।राष्टपिता महात्मा गाँधी के सत्याग्रह आन्दोलन से ब्रितानिया हुकूमत की नींद हराम हो गई थी,क्रान्तिकारी विचारधारा के वाहकों ने भारत माता की गुलामी की बेडियां काटने में अपना सर्वस्व न्यौछावर किया।भारत-भूमि ब्रितानिया हुकूमत से,साम्राज्यवादी सोच से आजाद तो हो गई परन्तु अफसोस अंग्रेज परस्त काले-भूरे शासकों ने भारत के आम जनों का शोषण-उत्पीड़न बदस्तूर जारी रखा है।आम जन आज भी नौकरशाही के चक्रव्यूह में फंसा हुआ अपना दम तोड़ने को विवश है।भ्रष्टाचार को जीवन का अनिवार्य-आवश्यक अंग बना चुके तमाम नेताओं-नौकरशाहों ने जन विरोधी कृत्यों को करना बदस्तूर जारी रखा है। उ0प्र0 की राजधानी लखनउ से सटे जनपद बाराबंकी की तहसील फतेहपुर के पचघरा में उपमण्डी स्थल निर्माण के लिए किसानों की बेशकीमती उपजाउ कृषि भूमि का मनमाना अधिग्रहण आम जन विरोधी,किसान हित विरोधी सोच का ज्वलंत उदाहरण है।किसान जिस संगठन से जुडे रहे उसके नेतृत्व ने ही उनका साथ छोड़ दिया,उनके साथ विश्वासघात किया,प्रशासन के पैरोकार बनकर किसानों के धरने को बिना उनकी सहमति के खत्म करने की घोषणा कर दी।लेकिन किसान अब भी अपनी कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण के विरोध में सत्याग्रह कर रहे। है।।अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए पचघरा के किसानों ने अब अपने खेत पर धरना देते रहने के बजाए विभिन्न संगठनों से सम्पर्क कर के संघर्ष में सहयोग मांगा है।भूमि अधिग्रहण से पीड़ित किसान अब अपने गाँव ,खेत,खलिहान से अपने हक को वापस लेने के लिए निकल पड़े हैं।नेतृत्व के छल व नौकरशाही के मनमाने पूर्ण रवैये के शिकार पचघरा के पीड़ित किसानों के दिलों में गुबार भरा है।अपनी ही भूमि पर सरकारी कब्जे की आशंका से ये किसान आक्रोशित है।।इन बेबस,छल के शिकार किसानों के दिलो-दिमाग में आग सुलग रही है।किसानों के इस संघर्ष मे। जनपद के तमाम किसान नेताओं व संगठनों ने अपना समर्थन दे दिया है।पचघरा के किसानों के द्वारा लड़ी जा रही हक की लड़ाई जन-संघर्ष में बदलती जा रही है। युग दृष्टा सरदार भगत सिंह जिन मजदूरों-किसानों को भारत की,क्रान्ति की वास्तविक शक्ति मानते थे,जिनकी तरक्की से ही वो भारत की तरक्की की कल्पना करते थे,आज वो मजदूर-किसान अपने हक से वंचित हैं।विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए मनमाने पूर्ण तरीके से अन्नदाता की जमीनों का अधिग्रहण करके विकास के नाम पर गरीब किसानों की आजादी पर,उनके अधिकारों पर हमला बोलना जारी है।यह हमारा अपना दुर्भाग्य है कि जो कानून ब्रितानिया हुकूमत ने वर्ष 1894 में ''भूमि अधिग्रहण अधिनियम,1894''पारित किया था,वर्ष 1947 में आजादी मिलने के बाद भी भारत सरकार ने किसान हित विरोधी इसी भूमि अधिग्रहण अधिनियम,1894 को अंगीकार किया।भारत की ग्राम्य व्यवस्था को खस्ताहाल करने के घृणित उद्देश्य से बनाये गये इस भूमि अधिग्रहण अधिनियम,1894 में आजादी के बाद कुछ संशोधन भी किये गये परन्तु किसानों की भूमि का मुआवजा निर्धारण की प्रक्रिया वही बनी रही।ब्रितानिया हुकूमत का यह काला कानून आज भी अन्नदाता की छाती पर मूंग दरने का कार्य कर रहा है।मुआवजे के निर्धारण के तौर-तरीके,मापदण्ड़ तथा प्रशासनिक कार्यशैली अब तो ब्रितानिया हुकूमत को भी मात देने लगी है।किसान अपनी भूमि नहीं देना चाहते हैं तो भी सार्वजनिक उद्देश्य व विकास के नाम पर कृषि भूमि का अधिग्रहण लोकतन्त्र को भयावह राह पर ले जाने वाला साबित होगा।आज किसानों की भूमि तरक्की व विकास का वास्ता देकर हड़पने की साजिश को समझने की जरूरत है। कृषि योग्य उपजाउ भूमि पर उपमण्ड़ी स्थल निर्माण से विकास का दावा करने वालों को यह समझना होगा कि यदि किसानों की भूमि मनमाने तरीके से शासन सत्ता के बल व नेतृत्व द्वारा विश्वासघात के कारण ले ली जाती है,तो वर्तमान शासकीय व्यवस्था के खिलाफ इनके मन में जो बीज रोपित हो गया है,वो कालांतर में कितना बड़ा वट वृक्ष बनेगा।किसी तरह मेहनत मशक्कत करके,कड़ी दोपहरी में,भीषण सर्दी व बरसात में सपरिवार अपने परिवार व समाज का उदर-पोषण करने वाले इन गरीब,बेबस पचघरा के किसानों के जीवन स्तर को यदि सरकारें सुधार नहीं सकती तो इनसे इनकी अपनी भूमि जबरन अधिग्रहीत करने का हक भी सरकारों को नहीं है।पीड़ित किसानों ने अपना संगठन ''पचघरा भूमि अधिग्रहण विरोधी मोर्चा'' गठित करके अपने हक एवं जनअधिकारों की रक्षा का संकल्प ले लिया है।
किसानों के मसीहा चौधरी चरण सिंह का साफ कहना था कि,''देश की तरक्की का रास्ता खेत व खलिहान से होकर गुजरता है।''आज किसानों के खेत पर सरकारों की कुदृष्टि पड़ चुकी है।बंजर जमीन को कृषि योग्य बनाने के नाम पर लाखों नहीं करोंड़ों व्यय करने वाली सरकारें कंक्रीट के जंगल को तैयार करने के लिए कृषि भूमि का चयन करके जनता के पैसों की बर्बादी कर रहीं हैं।विकास के नाम पर बनने वाली इमारतों का निर्माण बंजर भूमि पर,सरकारी भूमि पर होना चाहिए।दबंगों व भूमाफियाओं के कब्जे की सरकारी जमीन पर कब्जा लेने में नाकाम प्रशासन अपनी सारी ताकत पूरे देश-समाज का उदर पोषण करने वाले अन्नदाता किसानों को धमकाने-लठियाने व ऐन केन प्रकारेण उनकी भूमि पर इमारतों को बनाने में लगा देता है।विकास के धन की लूट व बन्दरबाट के फेर में देश को ज्वालामुखी के मुहाने पर ले जाने का कार्य भ्रष्टाचार में लिप्त शासन के जिम्मेदारों द्वारा किया जा रहा है।सादगी की प्रतिमूर्ति,ईमानदारी के प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री ने देश की सीमा पर तैनात जवान और मेहनतकश किसान के सम्मान में ही ''जय जवान-जय किसान'' का उदघोष किया था।औद्योगीकरण के भयावह खतरों को समझते हुए ही महात्मा गाँधी स्वदेशी,स्वावलम्बन व पुरातन ग्राम्य संरचना की स्थापना पर बल देते थे।डा0 राममनोहर लोहिया ने समाजवादी परिवर्तन को सफल बनाने के लिए जेल,वोट और फावड़ा,इन तीन संघर्षों पर विशेष बल दिया था।डा0 लोहिया की सोच जेल,वोट और फावड़े में फावड़े का मूल अर्थ समाज के आखिरी आदमी के चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक पैदा करना है।समस्त संघर्ष के आक्रोश को रचनात्मक उत्सर्ग के लिए तत्पर रहने की इच्छा शक्ति पैदा करना अनिवार्य मानते थे-डा0 लोहिया। गाँधी के सच्चे अनुयायी डा0लोहिया तात्कालिक अन्याय का पुरजोर विरोध करते थे और चाहते थे कि उनके लोग भी करे।।आज पचघरा के इन संघर्षरत् किसानों के साथ हो रहे अन्याय,उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की अगुआई करने यदि डा0लोहिया जीवित होते तो अब तक पहुँच गये होते।आज पचघरा के किसान डा0लोहिया के सिद्धान्त को मानते हुए अन्याय के खिलाफ प्रतिकार कर रहें हैं। लोहिया के लोगों को खामोशी तोड़कर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ संघर्ष करना चाहिए।
Tags: class-struggle, congress, democracy, naxalites, politics, कृषि, गरीबी, नौकरशाही, भूमि अधिग्रहण अधिनियम, भ्रष्टाचार, मजदूर-किसान, लोकतंत्र, लोकतान्त्रिक भारत, सरकार
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किसान विरोधी है भूमि अधिग्रहण ...
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24 जुलाई 2010 ... यह हमारा अपना दुर्भाग्य है कि जो कानून ब्रितानिया हुकूमत ने वर्ष 1894 में ''भूमि अधिग्रहण अधिनियम,1894''पारित किया था,वर्ष 1947 में आजादी मिलने के बाद भी भारत सरकार ने किसान ...
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8 सितं 2010 ... राष्ट्रीय लोकदल अध्यक्ष अजित सिंह ने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 को तुरंत निरस्त करके किसानों के हित में एक अधिक व्यावहारिक, प्रगतिशील, समयबद्ध, स्पष्ट और व्यापक कानून ...
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19 मई 2007 ... शासन, वहां आई व्यावहारिक दिक्कतों को प्रशासनिक तौर पर दूर करने के उददेश्य से आपसी समझौते पर ही ज्यादा जोर दे रही है क्योंकि भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत भूमि ...
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भूमि अधिग्रहण अधिनियम
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फ्रेट कॉरिडोर के लिए जमीन अधिग्रहण जमीन अधिग्रहण अक्टूबर तक जमीन अधिग्रहण अक्टूबर तक किसान फिर हुए एकजुट.
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Ispat Times | इस्पात टाइम्स भूमि अधिग्रहण ...
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भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन एक अनिवार्यता है। गांधी परिवार के उदित होते हुए नक्षत्र राहुल गांधी ने इस अधिनियम के विरुद्घ आवाज उठाई। उन्होंने यह विरोध एक किसान रैली में ...
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भूमि अधिग्रहण अधिनियम के खिलाफ ...
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अजित सिंह ने कहा कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के खिलाफ लोकसभा में वैकल्पिक विधेयक लाया जायेगा। इसके बारे में उनकी पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा समेत कई नेताओं से बातचीत हो ...
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मेट्रो को भूमि अधिग्रहण की छूट - Latest ...
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कानून की व्याख्या करते हुए न्यायालय ने कहा कि सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किए जा रहे भूमि अधिग्रहण में मेट्रो रेलवे अधिनियम में भूमि अधिग्रहण अधिनियम को लागू करने पर ...
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भू-अधिग्रहण कानून पर बिल लाने की ...
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15 अप्रैल 2010 ... लिहाजा पार्टी ने निर्णय किया है कि भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 में कुछ अहम फेरबदल के लिए ... नए प्रस्तावित अधिनियम में भूमि अधिग्रहण मुआवजा विवाद निपटान प्राधिकरण की ...
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प्रधानमंत्री का भूमि अधिग्रहण ...
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26 अगस्त 2010 ... सिंह ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) नेता मायावती की सरकार उत्तर प्रदेश में भूमि अधिग्रहण अधिनियम के आपातकालीन प्रावधानों का दुरुपयोग कर रही हैं। ...
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thatshindi.oneindia.in/news/.../1282804571.html - संचित प्रति
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Procedure for Land Acquisition
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(क) भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के उपबंध के अधीन भूमि के अधिग्रहण हेतु प्रक्रिया ... भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4 और 6 के अधीन अपेक्षित प्रारुप अधिसूचना, मांग करने वाले विभाग ...
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land.delhigovt.nic.in/hindi/la.html - संचित प्रति
* इसके लिए अनुवादित अंग्रेज़ी परिणाम देखें:
भूमि अधिग्रहण अधिनियम (Land Acquisition Act)
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शर्रि्मदगी के अनेक उदाहरण
Sep 07, 11:49 pm
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'जन हित' में अधिग्रहीत भूमि के लिए जो तुच्छ सा मुआवजा दिया गया है उसके विरोध में गत सप्ताह नई दिल्ली में संसद भवन के निकट लगभग 80,000 हजार किसान एकत्रित हुए थे। जिस अधिनियम के तहत राज्य को भूमि के अधिग्रहण का अधिकार दिया गया है वह बहुत पुराना है। उत्तर प्रदेश सरकार ने उद्योग के लिए यमुना एक्सप्रेस वे बनाने के लिए सैकड़ों एकड़ भूमि अधिग्रहीत की है। सत्य है कि राज्य सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय के अनुरूप कमोवेश बाजार मूल्य चुका रहा है, परंतु किसानों की धारणा यह है कि भूमि ही उनकी एकमात्र संपदा है और यदि वह भी उनसे ले ली गई तो उनके पास नकद राशि ही रह जाएगी, जो कृषि कार्य पर ही आजीविका के लिए निर्भर उनकी पीढ़ी के जीवन यापन के लिए भी पर्याप्त नहीं। क्या उद्योगपतियों के लिए 'जनहित' की आड़ लेना न्यायोचित है? इससे अनिवार्यत: वही पुराना प्रश्न उभरता है कि विकास के नाम पर भूमि अथवा प्राकृतिक संसाधनों का अधिग्रहण कैसे हो सकता है? यह वैसी ही स्थिति है जिसमें सरकार को विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना को हलका करने पर बाध्य कर दिया था। अब उत्तर प्रदेश सरकार पर ऐसा ही दबाव पड़ा। भूमि अधिग्रहण अधिनियम में संशोधन एक अनिवार्यता है। गांधी परिवार के उदित होते हुए नक्षत्र राहुल गांधी ने इस अधिनियम के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने यह विरोध एक किसान रैली में किया। सरकार ने उनके परामर्श पर अमल का आश्वासन दिया है, किंतु यह पहला अवसर नहीं है कि जब सरकार ने 'शुभ कार्य' का श्रेय उन्हें (राहुल गांधी को) लेने का अवसर दिया है। अभी कुछ दिन पूर्व ही वह उड़ीसा में एक परियोजना को रद कराने में सफल रहे थे, जहां आदिवासी उस परियोजना के खिलाफ खड़े हो गए थे।
केंद्र ने पर्यावरणीय आधारों पर इस परियोजना को खारिज करके संभवत: सही पग ही उठाया है, किंतु क्या इसे राहुल गांधी के प्रयास की सफलता ही माना जाना चाहिए? निश्चय ही वहां राजनीति भी है ही, क्योंकि आदिवासी एक समय पर सत्तारूढ़ कांग्रेस दल का वोट बैंक रहे थे। राहुल गांधी का उड़ीसा में उनके समक्ष यह उद्घोष कि वह दिल्ली में उनके सिपाही हैं, कांग्रेस के लिए कोरा प्रचार मात्र ही है। यह दर्शाने वाले अनेक उदाहरण हैं कि सत्तारूढ़ दल ने अथवा घूस ने एक निर्णय विशेष कराया है। पंजाब में भी किसानों को एक शिकायत है। खाद्यान्न सड़ने के समाचारों पर सर्वोच्च न्यायालय ने तथ्यों का पता लगाने के लिए आयुक्तों की नियुक्ति की है। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय को अवगत कराया है कि 50,000 मीट्रिक टन के लगभग अनाज तो खराब हो ही चुका है। उन्होंने अधिकारियों द्वारा बरती गई उपेक्षा को 'संहारक' बताते हुए उसकी भर्त्सना की है। उन्होंने सिफारिश की है कि केंद्र और राज्य सरकारों में उच्चतम स्तर पर जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की जाए। हरियाणा में भी 31.574 मीट्रिक टन अनाज 2008-09 से खुले में पड़ा है। पंजाब में किसानों ने पिछले वर्ष जो चावल उत्पादित किया था वह अब तक नहीं उठाया गया। सारे गोदाम अपनी पूरी क्षमता तक भरे हुए हैं। खुले में पड़े खाद्यान्न को गरीबों में मुफ्त बांटने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर कृषि मंत्री शरद पवार तब तक हीला हवाली करते रहे थे जब तक कि अदालत ने फटकार नहीं लगाई। बुनियादी समस्या यह है कि पवार का मन उस मंत्रालय की अपेक्षा क्रिकेट में अधिक रमा है जिसके वह प्रमुख हैं। संवेदनशील व्यक्ति तो बहुत समय पूर्व ही त्यागपत्र दे देता।
खाद्यान्न के मामले में अव्यवस्था तो एक उदाहरण है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार, धांधली और देरी शर्रि्मदा होने का दूसरा कारण है। ऐसा लगता है कि सरकार कोई भी कार्य दक्षता सहित नहीं कर रही है। इससे सत्तारूढ़ दल में एक प्रकार की घबराहट ही व्याप्त हो रही लगती है। नि:संदेह कांग्रेस ने परमाणु ऊर्जा विधेयक पर अपने हास्यास्पद रवैए से भी कुछ आधार गंवाया है। फिर भी सक्षम विपक्ष परिदृश्य पर नहीं उभर रहा है। कम्युनिस्ट अपने गढ़ पश्चिम बंगाल को अगले वर्ष विधानसभा चुनाव में गंवाते हुए लगते हैं। भाजपा भी उभर नहीं पा रही है। वह शीघ्र ही रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के मध्य में होगी। दरअसल कांग्रेस के लिए यही आदर्श समय है कि वह राजनीति से ऊपर उठकर कुछ निर्णय ले, जो लंबे समय से लम्बित हैं। उदाहरण के लिए वे निष्ठुर कानून वापस लिए जाने की जरूरत हैं जिन्होंने लोकतंत्र के लिए स्थान सिकोड़ा है। खासतौर पर सशस्त्र बल अधिनियम, जो सुरक्षा बलों को बिना जवाबदेह हुए ही संदेह पर ही किसी को मार डालने का अधिकार देता है। यदि 52 साल पुराना अधिनियम वापस ले लिया जाता है तो मणिपुर में दस वर्ष पुराना आंदोलन समाप्त हो जाएगा।
इस अधिनियम का उल्लेख ही कश्मीर और पूर्वोत्तर में आक्रोश उभारता है। अभी भी सरकार गलतियां कर रही हैं। कोई भी यह आशा संजो सकता था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या शक्तिशाली सोनिया गांधी स्थिति का नियंत्रण संभालें, परंतु लोगों का उद्धार करने के लिए राहुल गांधी आ रहे हैं। दो और दो को जमा करने में समय नहीं लगता। राहुल गांधी को सत्तारूढ़ कांग्रेस भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश कर रही हैं। तब तक देश कैसे चलेगा, क्योंकि जैसा कि आज है, सिस्टम काम नहीं करता ओर सरकार का समग्र सिस्टम अकुशलता और भ्रष्टाचार की दुर्र्गध से ग्रस्त हो रहा है।
[केंद्र और राज्य सरकारों को शासन की बुनियादी कसौटियों पर असफल होते देख रहे हैं कुलदीप नैयर]
http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_6706481.html
कश्मीर में भारी हिंसा, 13 की मौत
डी-डब्लू वर्ल्ड - 36 मिनट पहले
कश्मीर घाटी में पिछले तीन महीनों से जारी हिंसा में सोमवार का दिन सबसे हिंसक साबित हुआ. भारत विरोधी प्रदर्शनों में 13 लोगों की जानें गई हैं. उधर दिल्ली में सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडीय समिति की अहम बैठक हो रही है. जैसे जैसे कश्मीर के हालात बिगड़ रहे हैं, केंद्र और राज्य सरकार के लिए विकल्प भी सिमटते जा रहे हैं. राज्य से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने और वहां राजनीतिक पहल शुरू करना बेहद जरूरी हो गया है. ...
कश्मीर उग्र हुआ, एक दिन में नौ की मौत
जोश 18 - 3 घंटे पहलेश्रीनगर। कश्मीर के कई शहरों में कर्फ्यू होने के बावजूद प्रदर्शनकारियों और सुरक्षाबलों के बीच हुई झड़पों में एक ही दिन में नौ लोगों की मौत हो गई, जिसमें एक पुलिसकर्मी भी शामिल है। इन झड़पों में 30 लोग घायल हुए हैं। सबसे ज्यादा तीन लोगों की मौत तनमर्ग में हुई। बडगांव में एक पुलिसकर्मी सहित दो लोगों की मौत हुए और बीस लोग घायल हुए। इन सात लोगों की मौत के बाद पिछले तीन माह में मरनेवालों की संख्या बढ़कर 80 हो गई है। इससे पहले, जम्मू ...
कश्मीर में फिर हिंसा, 13 की मौत
डी-डब्लू वर्ल्ड - 3 घंटे पहलेभारतीय कश्मीर में हिंसा का दौर जारी है. कर्फ्यू के बावजूद सोमवार को प्रदर्शनकारियों पर पुलिस की फायरिंग में 13 लोगों की मौत हो गई. बीते तीन महीनों के दौरान यह एक दिन मरने वाले लोगों की सबसे ज्यादा संख्या है. कर्फ्यू की परवाह किए बिना दसियों हजार लोग सड़कों पर उतर आए. उन्होंने सरकारी इमारतों को जलाया और थानों पर पथराव किया. ज्यादातर लोग भारत विरोधी नारे लगा रहे थे और आजादी की मांग कर रहे थे, लेकिन कुछ लोग अमेरिका में कुरान के ...
कश्मीर में हिंसक झड़पों में 11 की मौत
आज की खबर - 32 मिनट पहलेहिंसा के दौर से गुजर रहे कश्मीर घाटी में सोमवार को अमेरिका में पवित्र कुरान के कथित अपमान की अफवाह फैलने के बाद हुए हिंसक विरोध प्रदर्शनों में कम से कम 11 लोगों की मौत हो गई, जबकि पंजाब में गुस्साई भीड़ ने एक गिरजाघर की सम्पति को आग के हवाले कर दिया। देश के अन्य शहरों में भी इस तरह के विरोध प्रदर्शन हुए हैं।श्रीनगर और घाटी के अन्य प्रमुख शहरों में दो दिनों से जारी 24 घंटे के कर्फ्यू के बावजूद हिंसा भड़की जबकि पंजाब के ...
कश्मीर में हिंसक घटनाओं में 3 की मौत
SamayLive - 2 घंटे पहलेबड़गाम जिले में जहां एक प्रदर्शनकारी और एक पुलिसकर्मी की मौत हो गई वहीं बांदीपोरा में भीड़ पर सुरक्षाबलों की गोलीबारी में एक युवक की मौत हो गई। इसके साथ ही घाटी में अशांति के ताजा दौर में मरने वालों की संख्या बढ़कर 73 हो गई। पुलिस के एक अधिकारी के मुताबिक बड़गाम जिले के हमहमा में भीड़ ने स्थानीय सशस्त्र पुलिस की चौकी पर हमला कर दिया। सुरक्षाकर्मियों की गोलीबारी में गुलाम रसूल तांत्रे नाम का एक व्यक्ति बुरी तरह घायल हो ...
कश्मीर घाटी के कई इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया
एनडीटीवी खबर - 8 घंटे पहलेकश्मीर घाटी में हिंसक वारदातों और अलगाववादियों की ओर से बुलाए गए विरोध मार्च के मद्देनजर कई अन्य हिस्सों में सोमवार को भी कर्फ्यू लगा दिया गया। पुलिस के एक प्रवक्ता ने बताया "बड़गाम के जिला मुख्यालय से लेकर हैदरपुरा तक के हिस्सों में कर्फ्यू लगाया गया है। पुलवामा जिले के तीन नगरों में भी एहतियातन कर्फ्यू लगाया गया है।" पुलवामा जिले के अवंतीपुरा, लेथपुरा और पंपोर इलाके में कर्फ्यू लगाया गया है। ये इलाके श्रीनगर-जम्मू ...
भाजपा ने मांगा उमर से इस्तीफा
जम्मू एवं कश्मीर के किसी भी हिस्से में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को हटाए जाने संबंधी कदम का सख्त विरोध करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने रविवार को राज्य मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से इस्तीफे की मांग की।
लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) की सोमवार को प्रस्तावित बैठक के पूर्व एक आपात बैठक की और कहा कि केंद्र सरकार के पास कश्मीर के हालात से निपटने की कोई दृष्टि नहीं है। पार्टी की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है, ""राष्ट्र के लिए चिंता की बात यह है कि समस्या की गंभीरता को महसूस करने और उसके समाधान की कोशिश करने के बदले केंद्र सरकार इस भ्रम में जी रही है कि वह एएफपीएसए को कमजोर कर अलगाववादियों को संतुष्ट कर सकती है।"" बयान में कहा गया है कि पिछले तीन महीनों से कश्मीर की स्थिति अचानक बिग़डी है। बयान में कहा गया है, ""सीमा पार से समर्थन पा रहे अलगाववादी समूहों ने घाटी में हिंसा और आतंकवाद का माहौल ख़्ाडा किया है। एक अलोकप्रिय मुख्यमंत्री अपनी जनता से पूरी तरह कट जाता है। ऎसे समय में उनकी जगह किसी अधिक लोकप्रिय व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया जाना चाहिए।"" भाजपा ने कहा कि राज्य के हालात के बारे में दो अलग-अलग दृष्टि है। ""एक सेना और सुरक्षा कर्मियों की जिसका प्रतिपादन रक्षा मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है और दूसरी दृष्टि कांग्रेस की है, जो वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित है।"" बयान में कहा गया है, ""अब पूरा राष्ट्र इस ओर नजरे ग़डाए हुए है कि सोमवार को प्रस्तावित सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति में कौन-सी दृष्टि हावी होती है।"" बयान में कहा गया है, ""सरकार को किसी भी परिस्थिति में राज्य के किसी भी संकटग्रस्त जिले से एएफएसपीए को उठाने के बारे में नहीं सोचना चाहिए। सुरक्षा का वातावरण हर हाल में चुस्त किया जाना चाहिए, उपद्रवियों को भय महसूस होना चाहिए।"" भाजना नेताओं ने दावा किया कि अलगाववादी आजादी के अपने घोषित लक्ष्य को साकार करने की कोशिश में देश के साथ राज्य के राजनीतिक रिश्ते को कमजोर करना चाहते हैं। यह बैठक आडवाणी के आवास पर संपन्न हुई। बैठक में पार्टी नेता एस.एस.अहलूवालिया और रविशंकर प्रसाद ने भी हिस्सा लिया। इसके पहले प्रसाद ने मुख्यमंत्री उमर अब्दु़ल्ला की आलोचना की थी। उन्होंने कहा था कि राज्य में ईद के मौके पर जब घाटी में फिर से हिंसा भ़डक उठी और कई स्थानों पर सरकारी इमारतों को आग लगाया गया, उस समय मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला श्रीनगर में हिंसा पर नियंत्रण करने के बदले दिल्ली चले आए। प्रसाद ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण और खेदजनक था। प्रसाद ने कहा था, ""एएफएसपीए में किसी भी तरह की ढिलाई स्वीकार नहीं होगी और राजनीतिक दबाव में उन सुरक्षा बलों के आत्मविश्वास के साथ समझौता करने की कोई कोशिश नहीं की जानी चाहिए, जिन्होंने आतंकियों के साथ ल़डाई में अपनी जान कुर्बान की है।"" ज्ञात हो कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में होने वाली सीसीएस की बैठक में कश्मीर के हालात पर चर्चा होगी और राज्य के कुछ हिस्सों से एएफएसपीए के हटाए जाने जैसे विकल्पों पर विचार किया जाएगा।
गिरिडीह में नक्सलियों ने पटरी उड़ाई
दैनिक भास्कर - 5 घंटे पहलेगिरिडीह. नक्सली बंदी शुरू होते ही झारखण्ड में माओवादियों ने जमकर उत्पात मचाया है. बीती देर रात लगभग 2 बजे नक्सलियों ने गिरिडीह जिले के करमाटांड स्टेशन पर विस्फोट कर रेल पटरी को उड़ा दिया है. इस हादसे के कारन कई ट्रेनें जहाँ की तहां फंसी हुई हैं. मिली जानकारी के अनुसार, हटिया-मुगलसराय रूट पर ट्रेनों का परिचालन ठप हो गया है. यह नक्सली विस्फोट चौधरीबान्ध और चेचाकी स्टेशन के बीच हुआ है. इस कारन पारसनाथ स्टेशन पर नीलांचल ...
नक्सलियों के बंद की हिंसक शुरूआत, आठ की मौत
खास खबर - 6 घंटे पहलेपटना/झारग्राम/रायपुर। नक्सलियों के सात राज्यों में दो दिवसीय बंद की शुरूआत सोमवार को खून-खराबे के साथ हुई है। अब तक प्राप्त खबरों के मुताबिक छत्तीसगढ़ के दंतेव़ाडा में दो नक्सलियों ने दो पुलिसकमियों को मार डाला जबकि पश्चिमी बंगाल के पश्चिमी मिदनापुर जिले में पांच माकपा कार्यकर्ता मारे गए। इसके अलावा नक्सलियों ने गिरडीह जिले में झारखंड के पारसनाथ और हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन के बीच किया, जहां तीन मीटर तक रेलवे ट्रैक ...
बंद के दौरान नक्सलियों ने रेल पटरी उड़ाई
Patrika.com - 5 घंटे पहलेकोलकाता। नक्सलियों के छह राज्यों में 48 घंटे के बंद के दौरान कई हिंसक वारदातों को अंजाम दिया है। झारखंड के पारसनाथ और हजारीबाग रोड रेलवे स्टेशन के बीच तीन मीटर तक रेलवे ट्रैक को विस्फोट कर उड़ा दिया गया। इसी तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में नक्सलियों ने पुलिसवालों को निशाना बनाया। पुलिसवाले जब शौच के लिए बाहर गए तो उन पर हमला कर दो पुलिस जवानों को मार दिया गया। पश्चिम बंगाल में लालगढ़ से सटे नयाग्राम में पटीना इलाके में ...
सात राज्यों में बंद आज से
दैनिक भास्कर - 8 घंटे पहलेरांची. झारखंड, बिहार समेत सात राज्यों में नक्सलियों का दो दिवसीय बंद रविवार रात 12 बजे से प्रभावी हो गया। बंद का आह्वान नक्सली नेता आजाद की पुलिस मुठभेड़ में मौत के विरोध स्वरूप किया गया है। माओवादियों का आरोप है कि आजाद की हत्या की गई है। इस घोषणा के मद्देनजर राज्य में विशेष सतर्कता बरती जा रही है। झारखंड पुलिस के प्रवक्ता अरके मल्लिक ने बताया कि सुरक्षा और कानून व्यवस्था बनाए रखने के कड़े इंतजाम किए गए हैं। ...
नक्सली बंद : झारखंड में पटरी उड़ाई, छत्तीसगढ़ में 2 जवान शहीद
दैनिक भास्कर - 11 घंटे पहलेनई दिल्ली. नक्सलियों ने अपने प्रभाव वाले सात राज्यों में 48 घंटे के बंद के दौरान दो बड़ी वारदात की है। झारखंड के गिरिडीह में उन्होंने विस्फोट कर रेल की पटरी उड़ा दी, जिसके बाद हावड़ा-नई दिल्ली रूट पर ट्रेनों की आवाजाही बुरी तरह प्रभावित हो गई है। एक अन्य घटना में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सोमवार सुबह नक्सलियों ने दो पुलिस जवानों की जान ले ली। हमलावर नक्सलियों ने भेज्जी पुलिस थाने पर हमला किया। इसमें कई जवान घायल भी हुए ...
बिहार में नक्सलियों का बंद, सुरक्षा व्यस्था चौकस
खास खबर - 12 घंटे पहलेपटना। बिहार में सोमवार को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के 48 घंटे के बंद को देखते हुए राज्य में सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए गए हैं। राज्य में बंद का यातायात व्यवस्था पर खासा असर प़डा है। राज्य में त्योहारी मौसम के दौरान बंदी के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को काफी दिक्कतों का सामना करना प़ड रहा है। राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में वाहनों की आवाजाही ठप्प हो जाने से यात्रियों के सामने भारी मुश्किलें पैदा हो रही हैं। ...
बंद के दौरान हमले, आठ मौतें
बीबीसी हिन्दी - 10 घंटे पहलेभारत के सात राज्यों में 48 घंटे के बंद की घोषणा के दौरान माओवादियों ने झारखंड और छत्तीसगढ़ में हमले किए हैं. माओवादियों ने सोमवार की सुबह झारखंड के एक गांव में एक ही परिवार को पांच लोगों को मार दिया जबकि छत्तीसगढ़ में दो पुलिसकर्मियों को गोली मार दी. कल रात गढ़वा ज़िले में भी माओवादियों ने एक युवक की हत्या कर दी ती. पहला हमला झारखंड के पारसनाथ और हज़ारीबाग रोड रेलवे स्टेशन के बीच किया गया जहां तीन मीटर तक रेलवे ट्रैक को ...
नक्सलियों का दो दिनों का बंद
प्रभात खबर - 16 घंटे पहलेरांची : माओवादियों के दो दिनों का झारखंड बंद रविवार रात 12 बजे से प्रभावी हो गया. मंगलवार रात 12 बजे तक प्रभावी रहेगा. माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने आजाद की मौत की जांच की मांग को लेकर बंद का आह्वान किया है. बंद सात राज्यों में प्रभावी रहेगा. झारखंड में व्यापक सुरक्षा : माओवादियों के बंद को देखते हुए झारखंड में सुरक्षा के व्यापक इंतजाम किये गये हैं. पुलिस मुख्यालय ने सभी जिलों के एसपी को अलर्ट कर दिया है. ...
नक्सलियों ने गिरिडीह में रेलवे ट्रैक उड़ाया
SamayLive - 11 घंटे पहलेनक्सिलयों ने बंद के पहले दिन सोमवार की सुबह गिरिडीह के कर्माबाद रेलवे हॉल्ट के पास विस्फोट कर रेलवे ट्रैक को उड़ा दिया। विस्फोट में करीब एक मीटर डाउन ट्रैक को क्षति पहुंची है, इसकी वजह से तीन राजधानी एक्सप्रेस सहित 30 रेलगाड़ियों का परिचालन बाधित हुआ है। धनबाद रेल डिविजन के जनसंपर्क अधिकारी अमरेंद्र दास के मुताबिक नक्सलियों ने तड़के 1.50बजे करमाबांध के निकट रेल की पटरियां उड़ा दी। विस्फोट के चलते जिन रेलगाड़ियों का ...
सात राज्यों में दो दिनों का नक्सली बंद
याहू! जागरण - ११-०९-२०१०धनबाद [जागरण संवाददाता]। प्रतिबंधित नक्सली संगठन भाकपा माओवादी ने अपने नेता आजाद की मौत की निष्पक्ष जांच की मांग को लेकर 13 और 14 सितंबर को सात राज्यों में 48 घंटे का बंद आहूत किया है। बंद 12 सितंबर की मध्यरात्रि से प्रभावी हो जाएगा। पुलिस सूत्रों के अनुसार नक्सलियों ने झारखंड के अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह बंद आहूत किया है। खुफिया विभाग ने तोड़फोड़ की आशंका से ...
नक्सलियों के बंद को ले बढ़ी चौकसी
SamayLive - 15 घंटे पहलेनक्सलियों के दो दिवसीय बंद को देखते हुए बिहार में सुरक्षा बंदोबस्त कड़े कर दिए गए हैं। खासकर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अतिरिक्त चौकसी बरती जा रही है। महत्वपूर्ण ट्रेनों के आगे पायलट इंजन चलाए जा रहे हैं। राज्य के सभी नक्सल प्रभावित थानों को हाई अलर्ट पर रखा गया है। राज्य पुलिस मुख्यालय ने पुलिस अधीक्षकों को सर्तक रहने के आदेश दिए हैं। नक्सलियों ने अपनी कई मांगों को लेकर बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और ...
सुनो मृणाल वल्लरी, तुम कोयलनगर मत जाना!
[13 Sep 2010 | 36 Comments | ]
समाज के वैचारिक अकाल पर पटना में होगी बात
[13 Sep 2010 | Read Comments | ]
डेस्क ♦ इंसान और उसके दुख को समझने की कोशिश में पटना के एक युवक ने नागार्जुन की कविताओं पर आधारित एक फिल्म बनायी है, मेघ बजे। इसकी लॉन्चिंग के मौके पर समाज के वैचारिक अकाल पर एक गोष्ठी रखी गयी है…
आवेश तिवारी ♦ मृणाल तुम राजी चेरो को नहीं जानती? कुछ ही दिन पहले ससुराल पहुंची थी, जब जंगल विभाग ने उसके पति को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए मारा-पीटा और उसकी इज्जत लूट ली।
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मुख्य पृष्ट समसामयिक कविता कहानी छत्तीसगढ ईतवारी आरंभ
छत्तीसगढ़: अपनी ही जमीन से बेदखल आदिवासी
4:13 PM, Posted by डा. निर्मल साहू, One Commentछत्तीसगढ़: अपनी ही जमीन से बेदखल आदिवासी
परिचय
जिस तरह विश्व में हमारे देश का स्थान है उसी तरह स्थान अन्य प्रदेशों की तुलना में मध्यप्रदेश का था। किसी राज्य के पृथक्करण के पीछे दीर्घकालीन आर्थिक,राजनीतिक सामजिक उपेक्षा और शोषण होता है जिससे धीरे-धीरे असंतोष जन्म लेता है और यही बात छत्तीसगढ़ के निर्माण के पीछे लागू होती है। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से छत्तीसगढ क़ी प्रशासनिक दूरी अधिक होने से नीतिगत फैसलों को करने और उनके क्रियान्वयन में देरी होती थी। छत्तीसगढ़ की आबादी मालदीव,कुवैत, इराक,नेपाल वशरीलंका जैसे राष्ट्रों से भी अधिक है। छतीसगढ़ का क्षेत्रफल कई राज्यों के क्षेत्रफल से अधिक है। छत्तीसगढ़ से एकत्रित राजस्व की तुलना में छत्तीसगढ़ को विकास हेतु पर्याप्त धन नहीं दिया जाता था? जबकि अकेले बस्तर जिले से सालाना 120 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त होता था और उसे विकास के लिए महज 5 करोड़ रुपए दिए जाते थे। छत्तीसगढ अंचल से सदैव ही भेदभाव किया जाता रहा उच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय की खंडपीठ, राजस्वमंडल, परिवहन आयुक्त, आबकारी आयुक्त, महालेखाकार, भूराजस्व, विद्युत मंडल, वित्त निगम आदि प्रमुख कार्यालय भोपाल और जबलपुर में स्थापित किए गए। यहां का विकास तो केवल क्षेत्रीय खनिज संपदा के दोहन तक सीमित होकर रह गया था। वहीं छत्तीसगढ़ अपनी भाषा,रहन,सहन व विशिष्ट संस्कृति से शेष मध्यप्रदेश से अलग था।
देश के इस सबसे बड़े राज्य अविभाजित मध्यप्रदेश के विभाजन के पीछे प्रमुख कारण यह था कि दूरस्थ अंचलों तक विकास का उजाला पहुंच सके, सबका विकास हो सके सबको सहजता से न्याय मिल सके। हर खेत तक पानी, हर हाथ को काम, हर बच्चे को दूध मिल सके, कोई भी आदमी भूखा या नंगा ना रहे को साकार करने के लिए छत्तीसगढ़ अंचल को पृथक राज्य बनाया गया।
अगस्त 2000 में संसद के दोनों सदनों ने राज्य का पुनर्गठन विधेयक पारित कर दिया, यह विधेयक लोकसभा में 31 जुलाई को तथा राज्य सभा में 9 अगस्त 2000 को पारित किया गया। महामहिम राष्ट्रपति ने 28 अगस्त 2000 को अपनी मंजूरी दे दी। 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ भारत के 26 वें राज्य के रुप में अस्तित्व में आ गया।
प्रशासनिक विभाजन
135,191 वर्ग किलोमीटर में फैले छत्तीसगढ़ राज्य को प्रशासनिक दृष्टि से तीन संभागों रायपुर, बस्तर तथा बिलासपुर और 16 जिलों में विभक्त किया गया है। रायपुर संभाग के अंतर्गत 6 जिले रायपुर,महासमुंद,धमतरी, दुर्ग, राजनांदगांव,कवर्धा हैं। बस्तर संभाग के अंतर्गत 3 जिले बस्तर, दंतेवाड़ा, और कांकेर है। बिलासपुर संभाग में 7 जिले क्रमश: बिलासपुर, जांजगीर चांपा,कोरबा, रायगढ़, जशपुर, सरगुजा, कोरिया जिले हैं। बिलासपुर और बस्तर संभाग के अधिसंख्य जिले वनांचल हैं जहां आदिवासी निवास करते हैं। बिलासपुर संभाग में 130 विकासखंड हैं जिसमें से 25 आदिवासी विकासखंड हैं। इसी तरह बस्तर संभाग के 32 विकासखंडों में से 14 आदिवासी विकासखंड हैं। रायपुर संभाग में 49 विकासखंडों में से 7 आदिवासी विकासखंड हैं।
जनसंख्या
सन 2001 में हुई जनगणना के अनुसार छत्तीसगढ़ की जनसंख्या 20,795,956 है जिसमें पुरुषों की संख्या 10,452,426 और महिलाआें की संख्या 10,343,530 है। कुल जनसंख्या में से अनुसूचित जाति व जनजाति की संख्या 2148000है। राज्य कुल आबादी की 79.92 जनसंख्या गांवों में निवास करती है। जिसमें 8330000 महिला और 8291000 पुरूष हैं।
जनजातीय संस्कृति
जनजातीय संस्कृति छत्तीसगढ़ की पहचान है। यहां की कुल जनसंख्या का 35.77 प्रतिशत जनजातीय संस्कृति से संबंधित हैं। छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजातियों की संख्या 21 है। जिसमें गोंड,बैगा,कोरबा,उरांव हल्वा,भतरा,कंवर,कमार,माड़िया,मुड़िया,ङैना, भारिया, बिंडवार, धनवार,नगेशिया मंढवार, खेरवार, भुंजिया, पारधी खरिया, गड़ाबा या गड़बा हैंं। इनकी कई उपजातियां भी हैं। छह अनुसूचित जनजातियों अबुझमाड़िया, बैगा, भारिया, बिरहोर, कमार, कोरवा, को आदिम जनजातियों का दर्जा प्राप्त है। इनमें से अबूझमाडिया, बैगा, कोरवा जाति की प्रमुखता है। गोंड जनसंख्या की दृष्टि से सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। यह छत्तीसगढ़ के दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्रों कांकेर, बस्तर, दंतेवाड़ा में निवास करती है। इनका प्रमुख व्यवसाय कृषिहै। ये शिकार तथा मजदूरी आदि में भी काफी रुचि रखते हैं। कोरबा जनजाति सरगुजा, रायगढ़, जशपुर,कोरिया बिलासपुर तथा जांजगीर जिलों में निवास करती है। पहाड़ों में रहने वाले कोरवा को पहाड़ी और मैदानों में पहने वाले कोरवा को दिहरिया कोरबा के नाम से जाना जाता है। येजमीन बदल-बदल कर खेती करते हैं। पहाड़ी कोरवा रूढ़िवादी और एकान्तप्रिय होते हैं। माड़िया बस्तर जिले में निवास करते हैं। इनकी उत्पत्ति प्रोटो आस्ट्रेलायड नृजाति प्रडजाति से हुई मानी जाती है। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले माड़िया दुनिया की सभ्यता से पूर्णत: विलग हैं। इनमें से अनेक अबूझमाड़ की पहाड़ियों में रहते हैं अत: इन्हें अबूझमाड़िया कहा जाता है। ये मुख्यत: झूम खेती करते हैं इनकी स्थानांतरिक खेती को दिघा, पेंडा व दाही कहा जाता है। इनकी प्रमुख देवी भूमि माता है। मुड़िया जनजाति का निवास स्थान बस्तर क्षेत्र है। जमीन बदल-बदलकर खेती करना इनकी प्रमुख विशेषता है नृत्य गायन और मदिरा पान इनकी प्रमुख विशेषता है। इनकी सर्वाधिक मौलिक विशेषता घोटुल प्रथा है। गड़ाबा या गड़वा जनजाति मुंडारी या कोलेरियन समूह की जनजाति है। ये बस्तर, रायगढ़ और बिलासपुर जिले में निवासरत हैं। ये बोझा ढोकर तथा खेती द्वारा अपना जीवन यापन करते हैं। बैगा द्रविड़ समुदाय की जनजाति है। ये बिलासपुर और राजनांदगांव क्षेत्र में निवासरत हैं। ये लोग जंगलों को ईश्वर द्वारा बनाया गया आवश्यकता पूर्ति का साधन मानते हैं। खेती तथा वनोपज इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है।
वन और खनिज
छत्तीसगढ़ में विपुल प्राकृतिक संसाधन मौजूद हैं। वन और खनिज संपदा से सम्पन्न है यह राज्य। राज्य का 59285.27 हेक्टेयर भू भाग वनों से आच्छादित है जो छत्तीसगढ़ प्रदेश के कुल भू क्षेत्रफल का 43.85 है। भारत का 70 फीसदी तेंदूपत्ता का उत्पादन छत्तीसगढ़ से होता है। खनिज समपदाओं में 16 प्रकार के खनिज यहां पाए जाते हैं। इनमें चूना पत्थर, तांबा, लौह अयस्क, मैंगनीज, कोरण्डम,डोलोमाइट, टिन अयस्क, बाक्साइट, अभ्रक, सोप स्टोन यूरेनियम गेरू प्रमुख हैं।
कृषि
छत्तीसगढ़ के निवासियों के मुख्य व्यवसाय खेती है। अखंडित मध्यप्रदेश के कुल कृषि उत्पादन का 24.1 हिस्सा छत्तीसगढ़ राज्य में सम्िमिलित है। चावल यहां की प्रमुख फसल है। साल भर में केवल एक ही फसल मिलती है। यहां के संपूर्ण क्षेत्र में चावल होने के कारण इसे धान का कटोरा कहा जाता है। यह राज्य 6 सौ चावल मिलों के कारखानों को धान की आपूर्ति करता है।
छिना जा रहा जीने का अधिकार
भारत के नक्शे पर खनिज संपदा और अमीर धरती के नाम से स्थान प्राप्त छत्तीसगढ़ के आविर्भाव के साथ ही राज्य में खासकर औद्योगिक निवेश की ओर उद्योगपतियों का रुख बढ़ा है बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नजरें छत्तीसगढ़ की ओर लगी हुई हैं। खनिज और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कई राष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी परियोजनाएं प्रारंभ कर दी है। औद्योगिक विकास के नाम पर इन वनांचलों में स्थापित हो रहे संयंत्रों का इन आदिवासी क्षेत्रों में जोरदार विरोध हो रहा है पर आदिवासियों की जमीनें जो उनके भरण पोषण का एकमात्र साधन है उनसे छीना जा रहा है। संयंत्रों की स्थापना के कारण जंगल कट रहे हैं इससे भी इन आदिवासियों की आय जरिया खत्म होता जा रहा है। आदिवासियों के जल जंगल जमीन का संसाधन धीरे-धीरे छिनता जा रहा है। जिंदल द्वारा केलो नदी पर बनने वाली केलों विद्युत परियोजना का जोरदार विरोध वहां के आदिवासियों ने किया पर इसका अब तक सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है। बहुराष्ट्रीय कंपनी रेडियस वाटर महानदी के बाद प्रदेश की सबसे बड़ी शिवनाथ नदी पर बांध बनाकर पानी बेच रही है। इसके लिए राज्य को करोड़ों का नुकसान हो रहा है पर राज्य सरकार इस पर ध्यान नहीं दे रही है। दुर्ग अंचल के किसानों को इसके पानी से वंचित होना पड़ रहा है। वे इसके पानी से खेती करते थे, यहां के लोगों के निस्तारी के लिए यह नदी एकमात्र थी जिस पर वे अवलंबित थे। औद्योगीकरण के कारण प्रदूषण बढ़ा है किसानों के खेत सीमेंट से पटने लगे हैं। कारखानों से उगलने वाला काला धुंआ खेत की खड़ी फसल को खराब करने लगा है। मजबूर किसानों को अपनी उपज बहुत ही कम कीमत में बेचने के लिए विवश होना पड़ रहा है। बीस हजार से ज्यादा देशी धान बीज के संग्रहण के लिए जाने जाने वाले इस राज्य के बीज बैंक को बहुराष्ट्रीय कंपनी सिजेंटा ने हथियाने की कोशिश की थी इससे साफ हो जाता है कि यह नवीन राज्य किस ओर अग्रसर होकर दुष्चक्र में फंसता जा रहा है। कोदो-कुटकी का उत्पादन आदिवासी करते हैं, उन्हें इसे बंद कर आधुनिक खेती अपनाने के लिए बाध्य किया जाता है। पर आज हर्बल स्टेट का दावा करने वाला छत्तीसगढ़ में कोदो को मूल्य राजधानी रायपुर में प्रतिकलो 40 रुपए है। यह कोदो मधुमेह के मरीजों का प्रमुख आहार है।
औद्योगिकीकरण के कारण आदिवासियों को विस्थापित होना पड़ रहा है। बांध बन रहे हैं गांव और जमीनें डूबत में आ रही है। लाभ शहरों को हो रहा है। उद्योग स्थापित हो रहे हैं जमीनें आदिवासियों से छीनी जा रही हैं। कभी सिलिंग एक्ट का हवाला देकर जमीदारों से उनकी जमीनी छीनी गई अब विकास के नाम पर उद्योग स्थापित करने के नाम पर जमीनें छीनकर इन उद्योगपतियों के हवाले की जा रही है। पहले सिलिंग एक्ट से निकाली गई जमीनें आदिवासियों भूमिहीनों और दलितों को आंबटित की गई पर आज इन्हीं आदिवासियों की जमीनें छीनकर उद्योगपितयों के हवाले की जा रही हैं। क्या यह जमींदारी प्रथा का नवीनीकरण नहीं है। एक छोटे से पर बहुचर्चित कोडार बांध परियोजना जिस तरह से भ्रष्टाचार हुआ और जिस तरह अब तक इससे प्रभावित किसानों को उनका मुआवजा तक नहीं मिल पाया है। यह स्वत: इस तथ्य को इंगित करता है कि यदि आदिवासी इलाके में ऐसी कोई परियोजना होगी तो भोलेभाले आदिवासियों के हिस्से क्या आएगा। गंगरेल और अन्य कई परियोजनाओं के विस्थापितों को उनका मुआवजा नहीं मिल पाया है। मिला भी है तो बहुत ही कम। आदिवासियों की जल जंगल जमीन पर कब्जा कर आदिवासियों के लिए विकास का तर्क देना उसके खोखलेपन को साबित करता है। जंगल के बिना आदिवासी अधूरा है पर अभयारण्य के नाम आदिवासियों को उन स्थलों से बदेखल किया जा रहा है जंगलों में स्थित ग्राम उजाड़े जा रहे हैं उन्हें अब वहां रहने का हक नहीं है अब वहां जंगली जानवर रहेंगे। विकास का हवाला देकर बस्तर में नगरनार स्टील संयंत्र की स्थापना की जा रही है पर इससे न जाने कितने आदिवासी परिवार बेदखल किए जा रहे हैं। संयंत्र स्थापना कर जंगल खत्म किया जा रहा है जिससे इन आदिवासियों के आजीविका का प्रमुख साधन वनोपज भी खत्म होता जा रहा है। नए राज्य के निर्माण से उम्मीद थी कि इन आदिवासियों की स्थिति में सुधार होगा पर दिनों दिन उनकी स्थिति बजतर होती दा रही है। आदिवासी भूखे मरने लगे हैं।
शासन और प्रशासन से मिलने वाली सुविधाओं का उन्हें लाभ नहीं मिल पा रहा है। राज्य सरकार भी इनके विकास के लिए कोई आधारभूत संरचना का निर्माण नहीं कर पाई है सरकार के नीतिगत फैसलों के लाभ इन्हें नहीं मिल पा रहा है। यही कारण है आए दिन वनांचलों से काम की तलाश में अन्य राज्यों को पलायन होता है। राज्य की अधिकांश जनता ग्रामीण है और उनके जीवन-यापन का साधन कृषि पर अवलंबित है। वे व्यक्ति जिनके दो-चार एकड़ जमीन है या फिर वे मजदूर जो खेतों में काम करने अपना गुजारा करती है रोजगार के अभाव में खासकर गर्मी के मौसम में छत्तीसगढ़ से अन्यत्र आंध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार आदि चले जाते है और बारिश होने के पहले खेती के लिए वापस लौट आते हैं। वनांचलोें में शिक्षा की बेहतर व्यवस्था तो दूर प्रथमिक स्कूली शिक्षा ठीक ढंग से नहीं मिल पाती जिसके कारण आदिवासी शिक्षित होने से वंचित हो जाते है। स्वास्थ्य सुविधाएं भी न्यून रूप में है कई स्वास्थ केंद्र उनके निवास से कई किलोमीटर दूर होते हैं जहां वे पहुंच नहीं पाते। उन्हें प्राथमिक चिकित्सा का लाभ तक नहीं मिल पाता।
कुल मिलाकर देखें तो भूमंडलीकरण से छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का कोई भला नहीं हुआ है। उल्टे विकास के नाम पर उनके जीने के साधन, संसाधन और सांस्कृतिक मान्यताओं पर निरंतर आघात होता जा रहा है। उनके जीने के अधिकार पर सीधे प्रहार हो रहा है। सिकुड़ते जल, जंगल और जमीन से आदिवासियों के समक्ष एक अस्तित्व का संकट उत्पन्न होता जा रहा है। पहाड़ी कोरवा जनजाति की निरंतर घटती जनसंख्या इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज जल, जंगल और जमीन से बेदखल हो रहे आदिवासियों की स्थितियों पर एक सर्वेक्षण कर उनके पुनर्वास और विकास के लिए आधारभूत संरचनागत नीति निर्माण की जरूरत है। इन आदिवासियों की मूल परंपरा, मान्यताओं, सांस्कृतिक विरासत को क्षति पहुंचाए बिना उनको किस तरह से विकास की धारा में शामिल किया जा सकता है उस पर गहन अध्ययन की जरूरत है।
http://viviksha.blogspot.com/2008/05/blog-post_25.html
दबंग बेदखल, दलितों को जमीन, 17 दबोचे
1 Sep 2010, 0337 hrs IST,नवभारत टाइम्स लखनऊ।। मायावती सरकार ने दलितों की जमीन पर कब्जा करके बैठे दबंगों को जमीन से बेदखल कर प्रॉपर्टी के वास्तविक हकदार, दलितों को उनकी जमीन
वापस दिला दी है। वेस्टर्न यूपी में चलाए गए इस अभियान को काफी सफलता मिली है। यूपी के रेवेन्यू डिपार्टमेंट ने मंगलवार को यह दावा किया। जमीन पर अवैध कब्जा करने के आरोप में तेरह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई और 17 लोगों को गिरफ्तार किया गया है।
रेवेन्यू डिपार्टमेंट के एक सीनियर अफसर के अनुसार अलीगढ़ मंडल में 279, आगरा मंडल में 32, मेरठ मंडल में 321, मुरादाबाद मंडल में 86 और सहारनपुर मंडल में 67 अवैध कब्जेदारों को बेदखल करके उनके वास्तविक दलित हकदारों को कब्जा दिलाया गया। वहीं कमिश्नरी लेवल के हिसाब से आजमगढ़ में 372, फैजाबाद में 71, विंध्याचल में 151, देवी पाटन में 372, चित्रकूट धाम में 24, गोरखपुर में 46, लखनऊ में 260 वाराणसी में 546, इलाहाबाद में 224 और कानपुर में 112 वास्तविक पट्टेेदारों को कब्जे दिलाए गए।
पूंजीवादी हुकूमत का मतलब रहा है मेहनतकश लोगों के लिए रोजी-रोटी और जिन्दगी की असुरक्षा!
महाराष्ट्र में मजदूरों और किसानों की एकता बनाओ!
महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र राज्य कमेटी का बयान, 20 सितंबर, 2009
13 अक्तूबर, 2009 को महाराष्ट्र विधान सभा के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। वर्तमान हालतों से त्रस्त और नाखुश तमाम मेहतनकश लोगों के लिए इन हालतों को बदलने और एक शांतीपूर्ण, सुरक्षित और सुखी भविष्य सुनिश्चित करने के बारे में चर्चा करने और उस दिशा में कदम उठाने का यह एक अच्छा मौका है।यह बात बिल्कुल साफ है कि कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस गठबंधन जिसने महाराष्ट्र पर पिछले 30 वर्षों में से 25 वर्ष तक राज किया और भाजपा-शिवसेना गठबंधन जिसने बाकी 5 वर्षों तक राज किया इनमें से किसी भी गठबंधन ने लोगों की समस्याओं को हल नहीं किया है और न ही यह पार्टियां हल कर सकती हैं। इस बार महाराष्ट्र में पिछले बीस वर्षों का सबसे गंभीर सूखा पड़ा है और ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि पीने के पानी की ही नहीं बल्कि पशुओं के लिए चारे की भी कमी हो सकती है। इस सबके चलते किसानों द्वारा अपने पशुओं को बेहद सस्ते दामों में बेचने का सिलसिला शुरू हो गया है। रोजमर्रा खाने की चीजों के दाम इस कदर आसमान छू रहे हैं कि लोगों ने खाने में कटौती करना शुरू कर दिया है। महाराष्ट्र चीनी के सबसे बड़े उत्पादक राज्यों में से एक है, लेकिन आम लोगों को इसके लिए भी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। राज्य के तमाम औद्योगिक क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में लाखों लोगों की रोजी-रोटी छीन गई है। भारी संख्या में स्थायी नौकरियां ठेकेदारी में तब्दील होती जा रही हैं, जिससे मजदूरों का शोषण तेजी से बढ़ता जा रहा है, श्रम के अधिकारों का तो कोई निशान ही नहीं। राज्य में बिजली का उत्पादन पर्याप्त नहीं है और वितरण बेहद असमान है, जिससे घंटों तक बिजली गायब रहती है। महाराष्ट्र के लोग किस तरह से अनगिनत तकलिफों से गुजर रहे हैं यह साथ में दिये गये बाक्स से साफ नज़र आता है।
कांग्रेस, भाजपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना इन सारी पार्टियों को पूंजीपति पैसा देते हैं और ये पार्टियां अपना राज पूंजीपतियों के हित में चलाती हैं। लेकिन कभी-कभी और खास तौर से चुनाव के दौरान लोगों को बेवकूफ बनाने के लिए मीठी-मीठी बातें करती हैं।
पूंजीपतियों को और अधिक अमीर, और तेजी के साथ एक साम्राज्यवादी ताकत बनाने के कार्यक्रम के प्रति ये पार्टियां पूरी तरह से वचनबध्द हैं। उनका काम है संकट के हालातों में बड़ी पूंजीवादी कंपनियों के मुनाफों को बढ़ाना। इसका मतलब है कि तमाम तरीकों से लोगों को लूटना और बर्बाद करना। इसका मतलब है लोगों के संघर्ष को आतंक के द्वारा गुमराह करना और खून में डूबा देना। दरअसल इन पार्टियों के अधिकांश नेता खुद बड़े पूंजीपति और बड़े पैसे वाले हैं, जिनके पास हजारों एकड़ जमीन है। वे कई कंपनियों और कारखानों के मालिक हैं; और सहकारी चीनी संस्थाओं तथा सहकारी बैंकों के मालिक हैं।
पिछले 62 वर्षों के पूंजीवादी शासन में मजदूरों, किसानों, स्वयं रोजगार लोगों और छोटे उद्योग चलाने वाले परिवारों, जो कि राज्य की 95 प्रतिशत आबादी है, को तकलीफों का ही सामना करना पड़ा है। 1992 के बाद महाराष्ट्र में जो भी गठबंधन या पार्टी सत्ता में आई है उसने केंद्र में कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम को ही राज्य में लागू किया है। इस कार्यक्रम के चलते मेहनतकश लोगों की तकलीफें और अधिक बढ़ गई हैं।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी का यह मानना है कि अब समय आ गया है कि सभी मजदूर, किसान, औरत और नौजवान एकजुट होकर पूंजीपतियों के कार्यक्रम के खिलाफ़ संघर्ष चलाकर उसे परास्त करें।
पूंजीपतियों के उदारीकरण और निजीकरण कार्यक्रम को रोकना ही होगा और ऐसा हम कर सकते हैं। इसके लिए हमें हिन्दोस्तान और महाराष्ट्र के नवीकरण का एक वैकल्पिक कार्यक्रम आगे रखना होगा।
नये भविष्य के निर्माण का मतलब है हिन्दोस्तान की अर्थव्यवस्था की दिशा को बदलना जिससे सभी के लिए रोजी-रोटी, आवास और सभी मूलभूत जरूरतें पूरी की जा सकें। अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने के उपायों में शामिल होगा सभी अनुत्पादक खर्चों पर रोक लगाना, जैसे कि राज्य द्वारा लिये गये कर्जों पर ब्याज और पूंजीपतियों के लिए तमाम सहुलियतें और रियायतें। महाराष्ट्र में ज्यादा पानी का इस्तेमाल करने वाली गन्ने की खेती को कम करना, जहां पानी का अभाव है। इसमें शामिल होगा मूलभूत सेवाएं और जरूरतों को पूरा करने के लिए सार्वजनिक खर्च में बड़े पैमाने पर बढ़ोतरी, जैसे सभी के लिए रोजगार, और सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जिसमें केवल खाने की चीजें ही नहीं बल्कि सभी उपभोक्ता वस्तुओं को अच्छे दर्जे और पर्याप्त मात्रा में वाजिब दामों पर उपलब्ध करना।
अर्थव्यवस्था की दिशा बदलने के लिए हमें अपने हाथों में सत्ता लेनी होगी। मौजूदा राजनीतिक प्रक्रिया में पूंजीपतियों के पैसों से चलने वाली पार्टियों का बोलबाला है। यह राजनीतिक प्रक्रिया और चुनावी प्रक्रिया इस ढंग से बनाई गई है जिसमें पूंजीपतियों की एक या दूसरी पार्टी सत्ता में आती है और इसके लिए मजदूरों और किसानों का केवल वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जाता है। लोगों को सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए सबसे पहले यह कदम उठाना होगा कि इन पूंजीपतियों की पार्टियों के वोट बैंक बने रहने की भूमिका को ठुकराना होगा। इन सरमायदारी राजनीतिक पार्टियों को चुनौति देने के लिए हम सब मेहनतकशों को खुद अपनी एक मजबूत राजनीतिक शक्ति तैयार करनी होगी।
लोकतंत्र के नवीकरण का मतलब है राजनीति में सरमायदारों की तमाम गुनहगारी पार्टियों की पकड़ को तोड़ना। इसका मतलब है कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि हम मेहनतश लोग अपने बीच से उम्मीदवारों का चयन कर सकते हैं और उनको चुन कर ला सकते हैं, उनको वापस भी बुला सकते हैं और अपने हित में विधि का भी प्रस्ताव कर सकते हैं। देहातों के स्तर पर एक साथ मिलकर अपने सांझा कार्यों को लोकप्रिय पंचायतों द्वारा चलाने की हमारे पास काफी लंबी परंपरा रही है। आज इन पंचायतों को मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में शामिल कर लिया गया है और इनके जरिये लोग अपने हित में कोई फैसला नहीं सकते हैं। हमें अपनी परंपराओं से सीखकर नये आधुनिक हालातों के मुताबिक गांवों में, कारखानों में, और बस्तियों इत्यादि में लोक राज के नये संगठन बनाने होंगे। हमें ऐसे सत्ता के संस्थान बनाने होंगे जो सरमायदारों और उनकी राजनीति दलों और चुनावी प्रक्रिया को चुनौति दे सकें।
हर चुनाव में सरमायदार और उनकी पार्टियां हम लोगों को धर्म, जाति, क्षेत्र इत्यादि के आधार पर बांटने की कोशिश करते हैं। पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र में कई जगह पर कुछ राजनीतिक ताकतों ने धर्म और अन्य मतभेदों के आधार पर दंगे आयोजित किये। हाल ही में सांगली और इचलकरंजी के लोग इस फूट डालो और राज करो की राजनीति का शिकार बने। इससे पहले महाराष्ट्र में हजारों लोगों को ''मराठी माणुस'' अभियान का शिकार बनाया गया। बेरोजगार नौजवानों के सवालों का जवाब देने में नाकामयाब सरमायदारों ने लोगों को आपस में भड़काने और उनको गुमराह करने के लिये ''मराठी माणुस'' अभियान छेड़ा, ताकि सभी के लिए रोजगार की मांग को लेकर एकजुट होकर लड़ने के बजाय वे आपस में एक दूसरे के खिलाफ़ लड़कर अपना गुस्सा ठंडा करें। कांग्रेस-एन.सी.पी. गठबंधन तथा भाजपा-सेना गठबंधन, दोनों इस अभियान के पीछे हैं। लेकिन महाराष्ट्र् के लोगों ने इन राजनीतिक ताकतों से सवाल किया : ''सरमायदारों की नीतियों की वजह से जो किसान आत्महत्या करने पर मजबूर है, क्या वह मराठी माणुस नहीं? सरमायदारों की नीतियों की वजह से लाखों टेक्सटाईल मजदूरों को अपनी रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा और मकान छिन गया, क्या वह मराठी माणुस नहीं?'' इस चुनाव में हमें इन राजनीतिक ताकतों का सबसे बड़े अमीर और देश के बड़े सरमायदारों के प्रति असली लगाव का भी पर्दाफाश करके इनके बंटवारे के अभियान को हराना होगा।
इसलिए हमें मजदूर, किसान, औरत और जवान बतौर अपनी एकता को मजबूत करना होगा और सरमायदारी पार्टियों द्वारा धर्म, जाति, भाषा और प्रांत के आधार पर हमें बांटने और आपस में लड़वाने की कोशिशों को नाकाम करना होगा। सरमायदारों के खिलाफ संघर्ष में हमें अपनी एकता मजबूत करनी होगी और उनके बंटवारे के खेल को हराना होगा।
हम सभी मेहनतकशों को कारखानों, औद्योगिक क्षेत्रों, गांवों और जिलों में जमीनी स्तर पर अपने संगठनों को मजबूत करना होगा। हमें हर जगह पर लोगों की समितियां बनानी होगी जो कि एक नये लोकप्रिय मोर्चे की बुनियाद होंगी। मजदूरों, किसानों, औरतों और नौजवानों और उनकी तमाम यूनियनों और स्थानीय समितियों द्वारा चयन किये गये उम्मीदवारों को हमें बढ़ावा देना होगा।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी सभी कम्युनिस्टों और तमाम ऐसे लोगों को जो मजदूरों और किसानों का जनतंत्र स्थापित करने के लिए लड़ रहे हैं, को यह बुलावा देती है कि हम अपनी पूरी संयुक्त ताकत उन उम्मीदवारों के पीछे लगाएं जो सरमायदारों के कार्यक्रम को चुनौति देने के लिए वचनबध्द है। हमारे शोषण के आधार पर जो खुद विश्व स्तर की ताकत बनना चाहते हैं, इस चुनावी मैदान को उनके खिलाफ अपने ताकत का प्रदर्शन करने के लिये इस्तेमाल करें।
आओ हम मजदूर वर्ग और किसानों के ऐसे राजनेताओं को बढ़ावा दें जो बिना किसी समझौते के सरमायदारी हमले के खिलाफ लड़ें और मजदूरों, किसानों का राज बसाने के कार्यक्रम के लिए काम करें। आओ हम मजदूरों, किसानों, औरत और जवानों के काबिल वक्ताओं और नेताओं को तैयार करने के लिए इस चुनावी अभियान का इस्तेमाल करें।
आओ हम इस देश के मालिक बनें! हिन्दोस्तान हमारा है, इन गुनहगार परजीवी सरमायदारों और उनकी पार्टियों का नहीं!
(बोक्स) महाराष्ट्र - महा भेदभावों और असमानताओं का राज्य
• सकल घरेलू उत्पादन के आधार पर महाराष्ट्र सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला राज्य होने का ढींढोरा पिटता आया है। लेकिन इसी राज्य में 3 करोड़ से ज्यादा लोग यानि महाराष्ट्र की एक-तिहाई आबादी सरकार परिभाषित गरीबी रेखा के नीचे जी रही है (हालांकि यह रेखा भुखमरी की रेखा से भी नीचे है)। इस मामले में महाराष्ट्र, बिहार और उत्तार प्रदेश के बाद तीसरे नंबर पर है और गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है।
• 2008 में देश के 51 अरबपतियों (एक अरब डालर की कीमत 5000 करोड़ रुपये होती है) में से 20 अरबपति केवल मुंबई में रहते हैं। इनमें से एक अरबपति दुनिया की सबसे महंगी 27 मंजीला इमारत बनाने जा रहा है जिसमें 3 हैलिपैड होंगे और यह सब केवल एक परिवार के लिए है, जबकि मुंबई की आधे से ज्यादा आबादी झुग्गियों और सड़कों पर रहने को मजबूर है।
• देश में सबसे ज्यादा किसानों द्वारा आत्महत्या महाराष्ट्र में देखी गई है। 1995 से लेकर आज तक 40,000 से अधिक किसानों ने आत्महत्या की है। 2007 में महाराष्ट्र में किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या की तादाद देश के पांच सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों में हुई कुल किसान आत्महत्याओं का 38 प्रतिशत है।
• गलत कृषि नीतियों का सबसे बड़ा शिकार राज्य महाराष्ट्र ही है। 2008-09 में वर्तमान सूखे की स्थिति के शुरु होने से पहले ही महाराष्ट्र में खाद्यान्नों का उत्पादन 24 प्रतिशत गिरने का अनुमान था, तिलहन उत्पादन में 49 प्रतिशत, तो गन्ने के उत्पादन में 43 प्रतिशत की गिरावट हुई है।
• राज्य द्वारा किये गये आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 2004-05 में महाराष्ट्र में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन केवल 100 किलोग्राम था। यह आंकड़ा न्यूनतम ज़रूरत से करीब 40 प्रतिशत कम है। इसकी तुलना में बिहार में प्रति व्यक्ति उत्पादन 262 किलोग्राम था।
• किसानों को मौसम की मार से बचाने के लिए सरकार ने सिंचाई व्यवस्था के लिये कोई भी इंतजाम नहीं किये हैं। इसके विपरीत सरकार ने अधिक पानी की लागत वाले गन्ने की फसल को बढ़ावा दिया, जबकि महाराष्ट्र की केवल 20 प्रतिशत कृषि जमीन में ही सिंचाई की सुविधा है।
• किसानों को बढ़ते पैमाने पर रोजी-रोटी की असुरक्षा और जमीन से बेदखली का सामना करना पड़ रहा है। राज्य सरकार यह दावा करती है कि उसने सबसे अधिक (करीब 200) विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) बनाने की मंजूरी दी है। इसका मतलब यह हुआ कि आने वाले समय में किसानों को और अधिक रोजी-रोटी की असुरक्षा और जमीन से बेदखली का सामना करना पडेग़ा। पूंजीपति केवल तभी सेज़ लगायेंगे जब उन्हें शोषण के लिए बेहतर हालतें सरकार बनाकर देगी। इसलिए सरकार उनके लिए जमीन और अन्य सुविधाओं का इंतजाम करेगी ताकि और ज्यादा पूंजीपति यहां पर पूंजी निवेश करना चाहेंगे। सेज़ में मजदूरों के कोई अधिकार नहीं होते हैं और उनका बेइंतहा शोषण किया जाता है।
महाराष्ट्र के कृषि के संकट का हल नहीं होने के पीछे एक वजह है। जो पूंजीपति वर्ग सत्ता में है, जिसमें केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार जैसे तथाकथित किसान नेता भी शामिल हैं, इनको केवल अधिकतम मुनाफे कमाने में ही दिलचस्पी है इसके लिए किसानों को चाहे जो कीमत चुकानी पड़े। पूंजीपति पार्टियों और गठबंधनों ने कृषि सामग्रियों के व्यापार में बड़े पूंजीपति व्यापारियों को अपना दबदबा जमाने के लिए बढ़ावा दिया है। कृषि उत्पादों के दामों में और उनके उत्पादन में भारी उतार-चढ़ाव के चलते बड़ी पूंजीपति व्यापार कंपनियों को अधिकतम मुनाफे बनाने का मौका मिलता है। यह जानते हुए कि राज्य में चीनी की कमी है, चीनी का निर्यात किया गया। और अब ऊंचे दामों पर चीनी का आयात किया जाएगा क्योंकि चीनी के अंतर्राष्ट्रीय व्यापारी जानते हैं कि चीनी की कमी को पूरा करने के लिए इस वर्ष हिन्दोस्तान बेचैन होगी। चीनी के उत्पादन और बढ़ती कीमतों का एक नियमित चक्र है, और बड़े इज़ारेदार व्यापारी और सट्टेबाज अधिकतम मुनाफा बनाने के लिए इस चक्र का फायदा उठाते हैं।
• बडे पूंजीपतियों के तथाकथित शहरी नवीकरण के कार्यक्रम के चलते मजदूरों और उनके परिवार की रोजी-रोटी और आवास के हकों पर लगातार हमले किये जा रहे हैं। मुंबई के लाखों टेक्सटाइल मजदूरों को न केवल अपनी नौकरी खोनी पड़ी बल्कि मिलो की ज़मीनों पर बसे उनके घरों से भी उनको बेदखल किया गया। मुंबई, नवी मुंबई, और ठाणे-डोंबिवली-कल्याण-उल्हासनगर-अंबरनाथ-भिवंडी इलाके में सबसे बड़ी तादाद में मेहनतकश लोग झुग्गियों में रहते हैं। यहां पर साफ-सफाई और जीने के हालात हिन्दोस्तान में सबसे बदतर हैं। मुंबई को सिंगापुर या शांघाई बनाने के नाम पर सरकार ने झुग्गिवासियों के खिलाफ़ लगातार हमला किया है और उनको जमीन से बेदखल करके दूर-दराज के इलाकों में फैंक दिया, जहां पर हालात और भी अधिक बदतर हैं। महाराष्ट्र सरकार और केंद्र सरकार द्वारा थोपी जा रही झुग्गी-झोपड़ी पुन:स्थापना परियोजना केवल बिल्डरों को झुग्गी-झोपड़ी की जमीन पर कब्ज़ा जमाने देने का एक तरीका है ताकि वह यहां पर रियेल इस्टेट बेचकर बड़े मुनाफे बना सकें, जैसे कि धारावी योजना में हुआ है।
• 2005-06, 2006-07, और 2007-08 के दौरान राज्य में 20 लाख से अधिक लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। यह वही दौर था जब अर्थव्यवस्था के तेजी से आगे बढ़ने का दावा किया जा रहा था। 2008-09 में नौकरी खोने का सिलसिला पिछले वर्षों के मुकाबले और अधिक तेज हुआ है।
राज्य सरकार यह दावा करती है कि ''वह स्वास्थ्य सेवा के विकास में हिन्दोस्तान में सबसे आगे है''। लेकिन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 (एन.एफ.एच.एस.-3) के मुताबिक महाराष्ट्र के सबसे समृध्द शहर मुंबई में तीन वर्ष से कम आयु के 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
http://www.cgpi.org/hindi/pages/latest/091202-Build_the_worker-peasant_Allince_h.aspx
विकास का शिकार बना किसान?
क्या विकास के लिए किसान को उसकी ज़मीन से बेदखल करना ज़रूरी है?पिछले हफ़्ते उत्तर प्रदेश में अलीगढ़ के पास अपनी ज़मीनों के मुआवज़े से असंतुष्ट हज़ारों किसान सड़कों पर उतर आए. हिंसा भड़की, पुलिस ने गोली चलाई, दो किसान मारे गए और और पुलिस वाले की भी मृत्यु हो गई. लेकिन ये अपनी तरह की पहली घटना नहीं है.
सिंगूर, नंदीग्राम से लेकर दादरी के किसान अपनी ज़मीनें बचाने के लिए या बेहतर मुआवज़े के लिए लगातार सड़कों पर उतरे हैं. उधर आदिवासी समाज की भी शिकायत है कि विकास के नाम पर उन्हें उनकी ज़मीन और जंगलों से बेदखल करके उद्योगपतियों को वहाँ लाया जा रहा है.
क्या ये विकास की आवश्यक परिणति है या किसानों को ज़मीन से हटाने की साज़िश?
इस बार बीबीसी इंडिया बोल में बातचीत इसी विषय पर होगी. अगर आप रेडियो कार्यक्रम में शामिल होना चाहते हों तो इस 20 अगस्त, शुक्रवार को रात आठ बजे हमें मुफ़्त फ़ोन कीजिए 1800 11 7000 या 1800 102 7001 पर. और इस विषय पर आप अपनी राय ज़ाहिर करना चाहते हैं तो अपने विचार हमें लिख भेजिए बीबीसी हिंदी डॉट कॉम पर. इंतज़ार किस बात का.
इंतज़ार किस बात का?
प्रकाशित: 8/18/10 6:08 AM GMT
http://newsforums.bbc.co.uk/ws/hi/thread.jspa?forumID=12430
वनवासियों की बेदखली वाले वन कानून
Saturday, 28 November 2009 15:49 पंकज चतुर्वेदी
पंकज चतुर्वेदी
भारतीय कानून के अनुसार जिन्हें 'जंगल' कहते हैं, सही मायनों में इनका यथार्थ के वन क्षेत्र से कोई मतलब नहीं है। कई क्षेत्र को वन क्षेत्र घोषित करते समय यह नहीं देखा गया कि इन क्षेत्रों में कौन रहता है, कितनी जमीन का वे उपयोग कर रहे हैं व वन भूमि का क्या उपयोग किया जा रहा है आदि। आज भी म.प्र. का लगभग 80 प्रतिशत वन क्षेत्र और देश के ज्यादातर राष्ट्रीय उद्यानों का सर्वेक्षण अपूर्ण है। भारत सरकार की टायगर टास्क फोर्स ने भी वन संरक्षण के नाम पर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया पर सवाल उठाये हैं। पिछली बार सन 2002 से वन भूमि को अतिक्रमण (जैसा सरकार कहती है) से मुक्त कराने की राष्ट्रीय मुहिम ने लगभग तीन लाख वनवासी परिवारों को (जो अपने जीवन यापन के लिए जंगल पर आश्रित हैं) बलपूर्वक बेदखल कर दिया और आज यह सब भुखमरी और अभावों के बीच अपना जीवन यापन कर रहे हैं। वनभूमि मुक्त कराने के नाम पर यह सब अपने घर में ही पराये हो गये। प्रताड़ना, बंधुआ मजदूरी, यौन उत्पीड़न आदि इनकी नियति है। स्थिति विकट है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयुक्त ने अपनी 29वीं रिपोर्ट में कहा है कि वनभूमि में निवास करने वाली जनजातियों का अपराधीकरण की ओर बढ़ाना, भारत की साक्षरता और मौलिक अधिकार बचाने जैसे मुहिम पर बदनुमा धब्बा है।
अब सबसे बड़ा प्रश्न यह है क्यों उन लोगों के अधिकार संरक्षित नहीं रखे गये जो पीढ़ियों से वनों में निवास करते हैं र्षोर्षो इस सब की जड़ में भारतीय वन अधिनियम 1927 है, जो अंग्रेजों ने अपने वन उपयोग एवं लकड़ी की उपलब्धता के लिए बनाया था। इसका सही मायनों में वन संरक्षण या वन में निवास करने वालों के हितों से कोई लेना-देना नहीं है। इस नियम में जंगलों को सरकारी संपत्ति घोषित कर एक अधिकारी नियुक्त कर दिया गया था व उसने सिर्फ सशक्त जाति के लोगों के अधिकारों को जिंदा रखा व कमजोर जातियों को जीते जी मार दिया। लगभग ऐसा ही कुछ वन्य जीव संरक्षण अधिनियम 1972 में है।
लेकिन शायद सरकार को वनवासियों की चिंता है इसलिए नए वन कानून में मुख्यता: दो तथ्यों को ध्यान में रखा है :-- परंपरागत रूप से वन में निवास करने वाली जातियों के अधिकारों को वैधानिक मान्यता देते हुए पूर्व में हुए अधिकारों के हनन में सुधार करना।
- इन वनवासियों को जंगल एवं वन्य जीव संरक्षण की योजना में बराबरी से सम्मिलित करना।
इस नए कानून में जिन्हें यह अधिकार मिलेगा उन्हें वन का मूल निवासी होना अनिवार्य है व साथ-साथ उनका जीवन यापन वन एवं वनभूमि पर यथार्थ में निर्भर होना चाहिए, जिसमें ठेकेदार, लकड़ी के व्यापारी आदि शामिल नहीं हैं। इसका अभिप्राय यह है कि आप सही मायनों में मूल रूप से वन निवासी हों।
इन नियम में मुख्यत: तीन प्रकार के अधिकार हैं -- 13 दिसंबर 2005 की अवधि तक आप वनभूमि में जितनी जमीन पर खेती कर रहे हैं, उसमें से अधिकतम 4 हेक्टेयर तक भूमि का पंजीयन आपके पक्ष में हो जाएगा। उदाहरण के लिए यदि आप 1 हेक्टेयर पर खेती कर रहे थे तो 1 हेक्टेयर, 5 हेक्टेयर पर कर रहे थे तो 4 हेक्टेयर और यदि कुछ भी भूमि नहीं है तो कुछ नहीं है। इसके साथ-साथ जिनके पास पट्टा या शासन की लीज़ है व जिनकी भूमि को वन विभाग या राजस्व विभाग ने गैरकानूनी रूप से अधिग्रहित कर लिया है, वे भी अपना दावा प्रस्तुत कर सकते हैं। इसमें महत्वपूर्ण यह है कि गैर-आदिवासी समुदाय के लोग भी दावा कर सकते हैं बशर्ते वह पिछले 75 वषोंZ से इस भूमि पर कब्जा रखते हों व खेती आदि कर रहे हों व वन क्षेत्र के निवासी हों।
- इसके साथ-साथ वनवासी छोटी वन उपज जैसे तेंदूपत्ता, जड़ी-बूटियां, औषधीय वनस्पतियां आदि ले जा सकते हैं, जो कि वह परंपरागत रूप से एकत्रित करते आ रहे हैं।
- पहली बार इस अधिनियम में वन में निवासरत् जनजातियों को वन संरक्षण एवं प्रबंधन का अधिकार प्राप्त हुआ है। इसके प्रावधानों के अनुरूप इन जनजातियों को वन संसाधनों के उपयोग एवं संरक्षण का अधिकार है।
यह उन सब लाखों परिवारों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है जो अपने वन एवं वन्यजीवन को जंगल माफिया, उद्योगपति और अतिक्रमणकारियों से बचाने के लिए बिना अधिकारों के संघर्ष कर रहे थे। इस दावे की प्रक्रिया में तीन चरण हैं, पहली अनुशंसा ग्राम सभा को करनी है कि कौन खेती कर रहा है व कौन जड़ी-बूटियां व औषधी आदि एकत्रित कर रहा है। ग्राम सभा की अनुशंसा की पड़ताल तहसील व जिला स्तर की समिति करेंगी। और अंत में जिला स्तर की छह सदस्यीय समिति अंतिम निर्णय करेगी जिसमें तीन सरकारी अधिकारी एवं तीन निर्वाचित सदस्य होगे। तहसील व जिला स्तर पर ग्राम सभा के द्वारा की गयी अनुशंसा के विरोध में यदि कोई आम आदमी जिला स्तर पर अपील करता है एवं उसके द्वारा लगाये गये आरोप तथ्यों सहित सही पाए जाते हैं तो जमीन पर दावा पाने वाले का आवेदन खारिज कर दिया जावेगा।
लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या सही मायनों में आदिवासी व गैर-आदिवासी वन भूमि पर अपना स्वामित्व पा सकेंगे या भ्रष्ट अधिकारी एवं व्यापारी इस कानून में भी सेंध लगाने का रास्ता खोज लेंगे, क्योंकि इस कानून के विरोध में इस तरह की बातें कि, जंगल खत्म हो जाएंगे, जमीने हड़प ली जाएंगी, वन व वन्य जीव विशेष रूप से शेर का संरक्षण कठिन हो जाएगा आदि भ्रामक तथ्यों के रूप में प्रचारित की जा रही हैं।
लेखक पंकज चतुर्वेदी पर्यावरण एनजीओ एनडी सेंटर फार सोशल डेवलपमेंट एवं रिसर्च के अध्यक्ष हैं.
http://vichar.bhadas4media.com/home-page/37-my-view/201-pankaj-chaturvedi.htmlपैसा देंगे तो अखबार आपके बाप का, कुछ भी लिखिए!
Saturday, 11 September 2010 12:26 राजेन्द्र हाड़ा
: पेड न्यूज के लिए कुत्तों की तरह टूट पड़े थे नैतिकता की दुहाई देने वाले अखबारों के एजेंट : खबर नहीं सौदा पटा रहे थे पत्रकार : पिछले 28 सालों से पत्रकारिता से जुड़ा हूं, परंतु बीते दिनों जिस अनुभव से गुजरा वह भड़ास के माध्यम से पूरी पत्रकार बिरादरी के सामने रखना चाहता हूं। मेरे वे साथी जिन्होंने मेरे साथ दस-दस सालों तक बराबर की डेस्क पर बैठकर रोजाना चार-चार, छह-छह घंटे बिताए, वे साथी जो थे दूसरे अखबारों में परंतु कहीं ना कहीं मिला करते थे और बड़े प्यार से बातें किया करते थे, वे अखबार जो नैतिकता और मूल्यों की दुहाई देते हैं, सब बेनकाब हो गए। पैसा ही उनका ईमान, पैसा ही उनका भगवान, पैसा ही उनकी जान और पैसा ही उनकी आन साबित हो गया। निर्लज्जता की पराकाष्ठा तो यह है कि मैं दस दिन उनके सामने गिड़गिड़ाता रहा हूं, 'यार, कुछ तो लिहाज करो, मैं 25-30 सालों से आपके साथ रहा हूं।' बात नहीं मानने पर उन्हें यह कहने से भी नहीं चूका हूं कि इस सारे मामले को मैं भड़ास4मीडिया डॉट कॉम और अन्य पत्रकारों व मीडिया प्रतिनिधियों के जरिए सामने लाऊंगा, परंतु वे फीकी हंसी हंसते हुए कहते, 'यार, आप खुद समझदार हो, इसके अलावा और हम कर भी क्या सकते हैं।' बड़ी ही बेशर्मी से अगले ही पल, '... तो कब दे या भेज रहे हो' का सवाल दाग दिया करते थे।
मामले की जानकारी देने से पहले मैं संक्षेप में अपना परिचय देना चाहूंगा। मेरा नाम राजेंद्र हाड़ा है। मैं अजमेर में रहता हूं। सन 1982 से ही मैं पत्रकारिता से जुड़ा हूं। इस दौरान कई अखबारों में काम किया। कोटा, जयपुर, जोधपुर से जिला स्तर पर निकलने वाले कुछ अखबारों के संवाददाता के अलावा फ्रीलांसर के रूप में जनसत्ता, नवभारत टाइम्स के जयपुर संस्करण में न्यूज आर्टिकल्स भी लिख दिया करता था। पढ़ाई के साथ पत्रकारिता जारी थी, परंतु जब यह अहसास हो गया कि अखबार की छह सौ या आठ सौ रूपए की कमाई से गुजारा नहीं हो सकता तो मैंने एलएलबी किया और 1986 में वकालत के साथ दैनिक नवज्योति में विधि संवाददाता के रूप में जुड़ गया। बाद में कुछ ऐसा दौर चला कि वकालत जारी रही और मैं पार्ट-टाइम पत्रकार कहलाते हुए भी पूर्णकालिक की तरह विधि संवाददाता के साथ नवज्योति के उदयपुर, बीकानेर, पाली, सिरोही, आबू रोड डाक संस्करण प्रभारी के रूप में काम करता रहा। पूरे दस साल के बाद सिर्फ आधा घंटा काम के समय को लेकर मैंने नवज्योति से इस्तीफा देकर मार्च 1998 में दैनिक भास्कर, जो एक साल पहले ही अजमेर से प्रकाशित होना शुरू हुआ था, ज्वाइन कर लिया। वहां मैं महानगर प्लस प्रभारी से लेकर बाद में नागौर डाक संस्करण प्रभारी तक रहा। इस बीच वकालत जारी रही। हालात कुछ ऐसे बने कि दिसंबर 2008 में मैंने भास्कर से इस्तीफा दे दिया और पूरी तरह वकालत को समय देने लग गया।
मुझसे दो साल छोटा मेरा भाई डॉ.प्रियशील हाड़ा एमबीबीएस करने के साथ ही अपना निजी क्लीनिक खोलकर चिकित्सा क्षेत्र में जुट गया। उसकी ईमानदारी, मिलनसारिता के कारण 1995 में भारतीय जनता पार्टी के एक युवा नेता स्वर्गीय वीर कुमार ने उसे जिद कर भाजपा के टिकट पर अजमेर नगर परिषद का चुनाव लड़वा दिया और वह सबसे अधिक मतों से जीता। इसके बाद वह तीन साल अजमेर नगर सुधार न्यास का ट्रस्टी, अनुसूचितजाति-जनजाति वित्त एवं विकास निगम का सदस्य समेत भाजपा संगठन के विभिन्न पदों पर रहा। 1995 से आज तक के इस पूरे राजनीतिक और डॉक्टरी कॅरियर में उसके खिलाफ आज तक एक भी भ्रष्टाचार, बदतमीजी, अनैतिकता, चरित्रहीनता या अन्य किसी तरह का आर्थिक आरोप नहीं है। 18 अगस्त 2010 को हुए अजमेर नगर निगम के मेयर चुनाव के लिए भाजपा ने उसे टिकट दिया। अब तक पार्षद मेयर चुना करते थे, पहली दफा जनता को सीधे मेयर का चुनाव करना था। करीब ढाई विधानसभा क्षेत्र के इस मेयर चुनाव में साढ़े तीन लाख मतदाता थे।
अजमेर से छह दैनिक अखबार प्रकाशित होते हैं- दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, दैनिक नवज्योति, राष्ट्रदूत, हिन्दू और न्याय सबके लिए। टाइम्स ऑफ इंडिया और पंजाब केसरी के जयपुर से अजमेर संस्करण निकलते हैं। दो स्थानीय न्यूज चैनल स्वामी न्यूज और सरेराह के अलावा दैनिक भास्कर का रेडियो माई एफएम भी प्रसारित होता है। 8 अगस्त 2010 को टिकट की घोषणा हो गई। मेरे अनुभव को देखते हुए खबरें और विज्ञापन का काम मुझे देखने के लिए कहा गया। मैंने प्रचार की खबरें बनानी शुरू की और ई-मेल से उन्हें भेजने लगा। 9, 10, 11 अगस्त तीनों दिन खबरें भेजता रहा, दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका में एक भी लाइन नहीं छपी। दोनों अखबारों की ओर से उनके मैनेजर, विज्ञापन मैनेजर, विज्ञापन एक्जीक्युटिव, विज्ञापन एजेंसी संचालक यहां तक कि पत्रकार और फोटोग्राफर मुझसे संपर्क करने लगे। व्यक्तिगत मुलाकातें हुई। टिकट मिलने की बधाइयों और हाल-चाल के बाद मैंने उन्हें खबरें नहीं छपने का उलाहना दिया। सभी के शब्द अलग-अलग थे, संदेश एक ही था, पैसा दे दो, विज्ञापन तो छपेंगे ही खबरें भी छपनी शुरू हो जाएंगी। दोनों की मांग शुरू हुई छह-छह लाख रूपए से। इतना पैसा कहां से लाएं और वह भी खबरें छापने के लिए। एक दिन फिर इसी उधेड़बुन में निकल गया। इधर पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं का दबाव बढ़ता जा रहा था।
सामने वाले प्रत्याशी के बड़े-बड़े विज्ञापन और खबरें छप रहीं थी और हम इस तरह मीडिया से गायब थे, जैसे चुनाव ही नहीं लड़ रहे हों। फिर तो सारा-सारा दिन सौदेबाजी में बीतने लगा। पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं का दबाव बढ़ता जा रहा था। मैं मीडिया प्रतिनिधियों को बताता था कि विज्ञापन की दर बताएं, मैं जितना हो सकता है विज्ञापन के पैसे के बारे में आपको बता देता हूं, परंतु खबरों के लिए पैसा कौन सा पत्रकारिता धर्म है। भास्कर का कहना था, 'रोज तीन कॉलम खबरें, एक तीन कॉलम का फोटो और राइट हैंड पेज पर एक अच्छा विज्ञापन।' खबर में आप चाहे जो लिखो, एक लाइन नहीं कटेगी। पत्रिका के संपादक को विज्ञापन की दर बताने के लिए कहा तो उन्होंने कहा, 'यार, हाड़ा जी आप तो पुराने मित्र हो अब आपसे क्या सौदेबाजी, मैं फलां को भेज रहा हूं, आप तय कर लेना।'
मुझे बड़ा अच्छा लगा कि कितना साफ-सुथरा मामला नजर आ रहा है। जो सज्जन आए उन्होंने आते ही अपनी कीमत बता दी। साथ ही मेरी आंखों में झांकते हुए कहा, 'सामने वाले यानी भास्कर से कितने में सौदा पटा।' मैंने बताया कि संपादक जी ने मुझे विज्ञापन की दर बताने की बात कही थी, तो वह ऐसे देखने लगा जैसे मेरे सिर पर सींग उग आए हों। उसका एक ही जवाब था, 'सर आप इतने सालों से मुझे जानते हैं, मैं आपसे क्या कहूं, मुझे तो आदेश मिला है इतना पैसा ले आओ।' मेरे इस जवाब पर कि इतनी तो हमारी हैसियत ही नहीं है। विज्ञापन के लिए इतना है, चाहो तो एकमुश्त ले जाओ। उसने कहा, 'सामने वाला जो दे रहा है, उसके सामने तो यह कुछ भी नहीं है।' फिर उसने संपादक से बात की। संपादक के कहने पर वह लौट गया।
इसी बीच टाइम्स ऑफ इंडिया की एक महिला मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव का फोन आया। उसने टाइम्स ऑफ इंडिया के अजमेर प्लस पर एक विज्ञापन और एक इंटरव्यू छापने की बात कही। बात अंतिम हो गई। विज्ञापन का आधा पैसा एडवांस एक विज्ञापन एजेंसी वाला आकर ले गया। जब विज्ञापन छपने में दो दिन बचे तब मैंने याद दिलाया कि इंटरव्यू लेने अभी तक कोई नहीं आया है। उसी महिला का कहना था, 'पेज तो फाइनल हो गया। अब कुछ नहीं हो सकता।' उसे याद दिलाया गया कि आधा पेमेंट अभी बकाया है। इस बातचीत के दौर में 12 अगस्त हो चुकी थी। हमारे समाचार या तो प्रकाशित नहीं हो रहे थे या हो रहे थे तो नाम मात्र के। मेरी जिद थी कि विज्ञापन के बतौर छह दिन के करीब डेढ लाख रूपए बनते हैं, वे मैं दे सकता हूं। पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं का दबाव बढ़ता जा रहा था। सब मुझसे एक ही सवाल पूछ रहे थे, हमारी खबरें क्यों नहीं आ रही है? खबरें क्यों नहीं आ रही है, इसकी वजह आठ-दस लोगों तक सीमित थी?
कैसे करें, क्या करें, कहां से पैसा लाएं? सारे अखबारों की मांग पूरी करता तो करीब पंद्रह लाख रूपए की जरूरत थी। कुछ पार्टी नेता सामने आए। उन्होंने मध्यस्थता की और मीडिया की मांग पूरी की गई। जो कुछ दिया गया, उस पर उनका अहसान यह था कि यह तो कुछ भी नहीं है, पर चलो ठीक है। इसके बाद हमारी खबरें छपने लगी। जितना पैसा, उतने स्पेस के आधार पर। रोजाना की खबर के साथ अगले दिन का कार्यक्रम भी भेजा जाता था, परंतु वह नहीं छापा जाता था। 16-17 अगस्त को सभी का दबाव आने लगा बकाया पैसा भी दे दो। उन्हें याद दिलाया कि कुछ तो सब्र करो, अभी तो चुनाव में समय है। पत्रिका का कहना था कि आपने जितना पैसा दिया है, उससे ज्यादा विज्ञापन स्पेस आपको दे चुके हैं, अब तो आप पर ज्यादा बकाया हो गया है। विज्ञापन स्पेस किस दर से और कितना तय हुआ और किसने किया, इन सवालों का कोई जवाब उनके पास नहीं था।
मैं बीच-बीच में उन्हें कहता भी रहा कि चुनाव का परिणाम चाहे हमारे पक्ष में आए या खिलाफ परंतु मैं परिणाम के बाद इस मुद्दे को भड़ास4मीडिया डॉट कॉम जैसे मंच पर उठाउंगा। पैसा दिया गया और मेरे हाथ से दिया गया, मैं यह स्वीकार करता हूं, इसके लिए सजा भी भुगतने को तैयार हूं परंतु साथ ही उन्हें भी सजा भुगतनी होगी, जिन पत्रकारों ने मुझे इसके लिए मजबूर किया। ऐसे हालात किए कि चुनाव में माहौल नहीं बनने का दोषी मुझे ठहरा दिया जाए। हम चुनाव हार चुके हैं। चुनाव हमने व्यक्तिगत छवि के आधार पर लड़ा था। आचरण में भी इसे अपनाया। घर की दो गाडियों में चुनाव प्रचार किया। शराब की एक बोतल तक ना खरीदी ना किसी को दी, ना ही कार्यकर्ताओं को पैसा दिया। जो दस-पंद्रह साथी चुनाव में लगे उनका खाना घर की महिलाएं ही बनाती थी। यह स्थिति सारे अखबारों को और अजमेर की जनता को पता है।
मुझे सब्र है इस बात का कि चुनाव हारने के बावजूद कोई मुझे इसका दोषी नही ठहरा रहा है कि कम खबरों या कम विज्ञापन हमारी हार का कारण है, क्योंकि अब ज्यादातर को पता लग चुका है कि खबरों के लिए हमने जो कुछ इन अखबारों को दिया, वह सामने वाले ने जो दिया उसके मुकाबले कुछ नहीं है। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इन अखबारों के संपादक अपने अग्रलेखों में नैतिकता और सदाचरण की बातें लिखने का साहस कैसे जुटा लेते हैं। खबरों के लिए पैसा लेने और उसके लिए ब्लैकमेल करते समय इनके मूल्यों को क्या हो जाता है? और वे पत्रकार, जिन्हें मैं अब अपना साथी कहने में जलालत महसूस कर रहा हूं, किसी कारखाने में हो रहे अवैध उत्पादन, किसी मजदूर को मिलने वाली कम तनख्वाह या सुविधा की बात पर तो खबरें बना सकते हैं, क्या कभी अपनी बिना साप्ताहिक अवकाश की ड्यूटी, बिना ओवरटाइम भुगतान की नौकरी, बिना नियुक्ति पत्र की संपादकीय और अवकाश के बदले भुगतान नहीं होने के बारे में लिखना तो दूर, क्या कभी इस बारे में अपने मालिकों से बात करने का साहस भी रखते हैं। ऐसे बिना रीढ़ की हड्डियों वालों को अपना साथी कहने में मुझे शर्म नहीं आएगी तो और क्या होगा?
अब मुझे महसूस हो रहा है कि अजमेर जैसे देश के पहले साक्षर जिले और स्वामी दयानंद सरस्वती के समय की पत्रकारिता वाले स्थान के पत्रकारों की जमात के कारनामों को सामने लाने का वक्त आ चुका है। अजयमेरू प्रेस क्लब का मामला हो या यूआईटी कॉलोनी की पत्रकार कॉलोनी में भूखंडों की बंदरबांट का या जनता के लिए बने सामुदायिक भवन को प्रेस क्लब के नाम पर हड़पकर उसे किराए पर देने का, ऐसे पत्रकारों के भी ऐसे कई उदाहरण हैं, जो किसी प्रदेश स्तरीय अखबार के अजमेर संवाददाता थे और 1200 रूपए की पगार पाते थे या फिर अपना सौ-डेढ सौ प्रतियों वाला साप्ताहिक या पाक्षिक निकालते थे, कमाई उनकी क्या होती थी, आप खुद अंदाजा लगा लें या फिर किसी स्थानीय अखबार के संवाददाता थे और 1500-2000 रूपए महीना कमाते थे, परंतु इनमें से कई के आलीशान बंगले बन चुके थे। उनके बेटे महंगी फीस वाली अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते थे। अब यह सब सामने लाने का वक्त आ गया है ताकि किसी और को ब्लैकमेलिंग का शिकार ना होना पड़े।
लेखक राजेन्द्र हाड़ा अजमेर में वकालत करते हैं तथा लगभग तीन दशक से पत्रकारिता से जुड़े हैं. राजेन्द्र हाड़ा जी से संपर्क उनकी मेल आईडी rajendara_hada@yahoo.co.inThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it के जरिए किया जा सकता है.
http://vichar.bhadas4media.com/home-page/37-my-view/525-2010-09-11-06-56-17.html
आदिवासियों पर वन विभाग का कहर
केन्द सरकार और मध्यप्रदेश सरकार द्वारा आदिवासियों के हित में किए जा रहे कार्यों के तमाम दावों को धता बताते हुए मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले के नेपानगर तहसील में वन विभाग ने पिछले दिनों बड़े पैमाने पर आदिवासियों के घर, जमीन और उनके जीविकोपार्जन के साधनों को तहस-नहस कर दिया है।
फोटोः बुरहानपुर के बोमल्यापाट वनगांव में उजाड़े गए घरों में से रायसिंग का यह परिवार भी शामिल है।
पिछले पखवाड़े में चिड़ियापानी, हल्दियाखेड़ा, जामुननाला और बोमल्यापाट नामक गांव से सैकड़ों आदिवासियों को उजाड़ा गया। उनके बर्तन-भांडे, बिस्तर-कपड़े, नकदी, उनके अनाज, खेती के औजार, पालतू जानवर और अन्य समान वन विभाग वाले उठाकर ले गए। इस कार्रवाई के दौरान एक व्यक्ति को गिरफ्तार भी किया गया। बोमल्यापाट गांव में तो 21 राउंड गोलियां भी चलीं जिसमें 5 लोग घायल हुए हैं और एक की हालत गंभीर है। इलाके के आदिवासी एवं अन्य जंगलवासी वन विभाग के डर से छिपकर जीवन बिता रहे हैं।
आदिवासी एकता संगठन के गोपाल भाई, रतन भाई, नाहरसिंग भाई ने बताया कि 11 दिसंबर को वन विभाग के लगभग 100 लोगों ने बोमल्यापाट गांव पर हमला कर दिया। इस अमले में चार घुड़सवार, पांच जीप, तीन ट्रैक्टर, दो डग्गा गाड़ी, एक पिंजरा गाड़ी के साथ-साथ एक जेसीबी मशीन को भी तोड़-फोड़ के लिए गांव में लाया था। सुबह से शाम तक वन विभाग ने इस गांव के 47 घरों को तोड़ डाला। ग्रामीणों के पास अब न तो खाने को अनाज है और न ही पहनने को कपड़ा। ठंड के इस मौसम में छोटे-छोटे बच्चे नंगे बदन रह रहे हैं। बच्चों के लिए संचालित स्कूल को भी तोड़ दिया गया।
यह अत्याचार तब हो रहा है, जब आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल पर अधिकार देने के लिए संसद से "अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006" पास हो चुका है। राज्य के वन विभाग ने इस अवैध तोड़फोड़ के लिए आड़ इस बात की ली है कि कानून तो पास हो गया, पर अभी इसके क्रियान्वयन संबंधी दिशानिर्देश और नियम नहीं बने हैं।
ऐसा करने के पीछे यह मंशा है कि कानून को लागू करने के लिए नोटिफिकेशन जारी होने से पहले आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल से बाहर कर दिया जाए, ताकि जब उन्हें अधिकार देने की बात आए, तब तक वे जंगल से बेदखल हो चुके हों। इसी को कहते हैं "नीयत में खोट"। सरकार की नीयत में खोट है तभी तो कानून के पूरी तरह लागू होने से पहले वह उसके प्रभाव को कम से कमतर करने पर उतारू है।
आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों ने जंगल पर अपने अधिकारों को मान्यता दिलाने लिए लंबा संघर्ष किया है। इसी संघर्ष का परिणाम है कि केंद्र सरकार ने माना है कि आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है और उसे सुधारने की दृष्टि से संसद ने अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून 2006 पास किया। पर अफसोस की बात है कि सरकार उस अन्याय को खत्म करने के बजाय जारी रखना चाहती है, जो वन विभाग द्वारा जारी अत्याचारों को देखकर स्पष्ट होता है।
सरकार अत्याचारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है और अभी तक इस कानून को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार नियमों को नहीं बनाकर उन्हें अत्याचार करने की शह दे रही है। ऐसी परिस्थिति में जंगलों में निवासरत लाखों लोग अपने अधिकारों से वंचित हैं, साथ ही वे वन अधिकारियों के प्रताड़ना के शिकार हैं। वन विभाग द्वारा आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों को जंगल से बेदखली की प्रक्रिया भी अब तेज कर दी गई है।
वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह लगता है कि सरकार की यह कतई मंशां नहीं है कि कानून अपने मूल रूप में लागू हो और जंगलवासियों को उनका अधिकार मिल सके।
आदिवासी मुक्ति संगठन के विजय भाई का कहना है कि जंगलों पर पारंपरिक रूप से काबिज लोगों को उनके अधिकारों से किसी भी तरीके से वंचित नहीं किया जाना चाहिए। आदिवासियों एवं अन्य जंगलवासियों के ऊपर वन विभाग द्वारा कई झूठे केस लगाए जाते रहे हैं, जिन्हें तत्काल हटाए जाने की जरूरत है। उनकी मांग है कि लोगों को जंगल-जमीन से बेदखली तुरंत बन्द किया जाए। बुरहानपुर में घटित इस पूरे सरकारी दुष्चक्र में जिन लोगों के घर उजाड़े जा रहे हैं, उन्हें न्याय दिलाने के लिए इस पूरी घटना की निष्पक्ष जांच कराई जाए। प्रभावितों को मुआवजा दिया जाए और उनके जीविकोपार्जन के साधन को फिर से उपलब्ध कराया जाए। दोषियों को दण्डित किया जाए।
इसी तरह की अन्य खबरें
http://www.merikhabar.com/News/_N129.htmlजनाधिकार है पर्यावरण
वेब/संगठन:pravakta com
Author:
जगदीश्वर चतुर्वेदी
विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के 'अधिकार' को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ' पृथ्वी' पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं। 'पृथ्वी' को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी 'अपनी संपत्ति' नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को 'अपनी संपत्ति' मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे।आज समय की मांग है कि विश्व के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अपनाया जाए, जो मानव जाति की एकता, समाज और प्रकृति में समन्वय के सिध्दान्त पर आधारित हो। विश्व के प्रति नया दृष्टिकोण विश्व-स्तर पर मानव के 'अधिकार' को भी प्रभावित करेगा। मानव जाति की संपत्ति होने के कारण ' पृथ्वी' पर किसी का भी अधिकार नहीं होना चाहिए, यहां तक कि राज्य का भी नहीं।
'पृथ्वी' को हमें एकदम नए दृष्टिकोण से देखना होगा। पृथ्वी 'अपनी संपत्ति' नहीं है अपितु मानव जाति की संपत्ति है। इसी तरह प्रकृति भी किसी की संपत्ति नहीं है, वरन् समूची मानव जाति की संपत्ति है। जब तक हम प्रकृति को 'अपनी संपत्ति' मानते रहेंगे, प्रकृति को लूटते रहेंगे, उसका ध्वंस करते रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि भारतीय कानून प्राकृतिक संसाधनों को संपत्ति के अधिकार के दायरे में रखता है। आज दुनिया में 200 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय कानून हैं। 600 से ज्यादा द्विपक्षीय समझौते हो चुके हैं। 150 से ज्यादा क्षेत्रीय कानून हैं।ये ज्यादातर यूरोपीय देशों में हैं। भारत ने समस्त अंतर्राष्ट्रीय कानूनों पर दस्तखत किए हैं और उनकी संगति में प्रकृति और पर्यावरण संबंधी कानूनों को बदला है।
भारत ने सबसे पहले 1933 के लंदन कन्वेंशन को 1939 में स्वीकार किया। बाद में 1951 के रोम के वृक्ष संरक्षण कन्वेंशन को 1952 में स्वीकृति दी। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिहाज से संविधान के 253 अनुच्छेद में प्रावधान है। बाद में 1972 की स्टोकहोम कॉफ्रेंस की सिफारिशों को संसद ने 42 वें संविधान संशोधन के जरिए लागू किया। हमारे संविधान के अनुच्छेद 48A में राज्यों को जिम्मेदारी दी गयी है कि वे पर्यावरण को सुधारें, वन, जंगलात और पशुओं का संरक्षण करें। अनुच्छेद 51[A][g]में नागरिकों के इस संदर्भ में दायित्वों का उल्लेख किया गया है।
दुखद बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून लागू कराने के लिए जितना दबाब ड़ाला जाता है उसकी तुलना में कानून बनाने की प्रक्रिया में सभी देशों को शामिल नहीं किया जाता। कायदे से अंतराष्ट्रीय कानून बनाने वाली प्रक्रिया का लोकतांत्रिकीकरण किया जाना चाहिए। साथ ही विश्व संस्थाओं को 'प्रकृति को संपत्ति' बनाने अथवा राज्य को उसका मालिक बनाने की कोशिशों का विरोध करना चाहिए। संसार में अभी तक जितनी भी पीढ़ियां गुजरी हैं ,सभी ने प्रकृति को संपत्ति के रुप में अपने वंशजों को विरासत में छोड़ने की कोशिश की है। इसके अलावा 1974 का जल कानून,1981 का वायु कानून, 1986 का पर्यावरण संरक्षण कानून स्टाकहोम कन्वेंशन की संगति में बनाए गए। इसी तरह समुद्री पर्यावरण से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को भारत स्वीकार कर चुका है और हमारे यहां इनकी संगति में अनेक कानून हैं। अभी तक संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रकृति और पर्यावरण संबंधी जितने भी कानून बनाए हैं उनकी संगति में भारत में कानून बन चुके हैं।
दुखद बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय कानून लागू कराने के लिए जितना दबाब ड़ाला जाता है उसकी तुलना में कानून बनाने की प्रक्रिया में सभी देशों को शामिल नहीं किया जाता। कायदे से अंतराष्ट्रीय कानून बनाने वाली प्रक्रिया का लोकतांत्रिकीकरण किया जाना चाहिए। साथ ही विश्व संस्थाओं को 'प्रकृति को संपत्ति' बनाने अथवा राज्य को उसका मालिक बनाने की कोशिशों का विरोध करना चाहिए।
प्राकृतिक ध्वंस को देखना हो तो कुछ मोटे आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा। मसलन्, बॉधों, हाइड्रो इलैक्टि्क क्षेत्र, कृषि प्रकल्पों, खान-उत्खनन, सुपर थर्मल पॉवर, परमाणु उर्जा संस्थानों, मत्स्य पालन, औद्योगिक कॉम्प्लेक्सों, सैन्य-केन्द्रों, हथियार परीक्षण स्थलों, रेल मार्गों एवं सड़कों के विस्तार, अभयारण्यों एवं पार्कों, हथकरघा उद्योग आदि क्षेत्रों में नई तकनीकी के प्रयोग ने पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव छोड़ा है। संबंधित इलाकों के वाशिंदो को अपने घर -द्वार एवं जमीन-जायदाद से बेदखल होना पड़ा है। संसार में अभी तक जितनी भी पीढ़ियां गुजरी हैं ,सभी ने प्रकृति को संपत्ति के रुप में अपने वंशजों को विरासत में छोड़ने की कोशिश की है। इस प्रश्न पर बहुत कम विचार किया गया है कि क्या ऐसे मूल्य ,इरादे और लक्ष्य मौजूद हैं ,जो भावी पीढी के मूल्यों ,इरादों तथा लक्ष्यों के अनुकूल हों । अपने कार्यों के औचित्य और भावी पीढी की कृतज्ञता में लोगों का अटल विश्वास था।परन्तु ,सभ्यता की विशाल इमारत का निर्माण करते हुए काफी देर तक उस अपार हानि से अनभिज्ञ रहे, जिसे मानव जाति को उठाना पड़ा।
इस प्रसंग में कार्ल मार्क्स को उद्धृत करना समीचीन होगा। मार्क्स ने लिखा कि " निजी संपत्ति ने हमें इतना जड़मति और एकांगी बना दिया कि कोई वस्तु सिर्फ तभी हमारी होती है जब वह हमारे पास हो ,जब वह पूंजी की तरह अस्तित्वमान हो, अथवा जब वह प्रत्यक्षत: कब्जे में हो, खाई, पी, पहनी, आवासित हो-संक्षेप में, जब वह हमारे द्वारा प्रयुक्त की जाती है।"
आज प्रकृति को बचाने के लिए दो मोर्चों पर एक साथ संघर्ष चलाना होगा। पहला मोर्चा परंपरावादियों का है जो प्राकृतिक संपदा के अराजक उपभोग को स्वाभाविक मानते हैं।
दूसरा मोर्चा पूंजीवादी विचारों का है जहां प्रकृति भी निजी संपत्ति है या राज्य की संपत्ति है।ये दोनों ही दृष्टिकोण प्रकृति को समूची मानव जाति की संपदा नहीं मानते। हमारे देश के वन, पर्यावरण एवं प्रकृति संबंधी कानूनों में यह दृष्टिकोण हावी है। ये दोनों दृष्टिकोण प्रकृति के ध्वंस को सुनिश्चित बनाते हैं।
प्राकृतिक ध्वंस को देखना हो तो कुछ मोटे आंकड़ों पर गौर करना समीचीन होगा। मसलन्, बॉधों, हाइड्रो इलैक्टि्क क्षेत्र, कृषि प्रकल्पों, खान-उत्खनन, सुपर थर्मल पॉवर, परमाणु उर्जा संस्थानों, मत्स्य पालन, औद्योगिक कॉम्प्लेक्सों, सैन्य-केन्द्रों, हथियार परीक्षण स्थलों, रेल मार्गों एवं सड़कों के विस्तार, अभयारण्यों एवं पार्कों, हथकरघा उद्योग आदि क्षेत्रों में नई तकनीकी के प्रयोग ने पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव छोड़ा है। संबंधित इलाकों के वाशिंदो को अपने घर -द्वार एवं जमीन-जायदाद से बेदखल होना पड़ा है।
सन् 1947 से अब तक 1600 बॉधों और कई हजार मध्यम और छोटे कृषि प्रकल्पों को तैयार किया गया और नहरों का जाल बिछाया गया।फलत: जगह-जगह पानी जमा हो जाने के कारण पानी में नमक की मात्रा बढ़ गई, उन स्थानों पर खेती और रिहाइश मुश्किल हो गई, साथ ही लाखों लोगों को बेदखल होना पड़ा।
मसलन्, जल प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही लें, जल प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य क्षति का मूल्य 19,950 करोड़ रुपये आंका गया है। इसके लिए जो आधार चुना गया है वह अपर्याप्त एवं विवादास्पद है। इसी तरह प्रदूषित हवा से होने वाली क्षति 4,500 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष आंकी गयी है। जबकि प्रदूषित हवा से प्रतिवर्ष 40,000 मौतें हो जाती हैं। जबकि नमक की कमी से होने वाली क्षति 650 करोड़ रुपये बतायी है। जंगलात के विनाश से 4,900 करोड़ रुपये की क्षति का अनुमान है। एक अनुमान के अनुसार 1951-1985 के बीच में बेदखल होने वालों की संख्या दो करोड़ दस लाख थी। विकासमूलक प्रकल्पों के नाम पर जो कार्यक्रम लागू किए गए उनसे एक करोड़ 85 लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापितों में आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा थी।
आदिवासियों में लागू किए गए 110 प्रकल्पों के सर्वे से पता चला कि इनसे 16.94 लाख लोग बेदखल हुए।इनमें तकरीबन 8.14 लाख आदिवासी थे। यह स्थिति उन इलाकों में है जहां खानें हैं।अधिकांश खानें आदिवासी इलाकों में हैं। खानों के उत्खनन से आदिवासियों को जमीन, रोजगार एवं उपजाऊ जमीन से हाथ धोना पड़ा। वनों को काट दिया गया। प्रत्यक्ष बेदखली के साथ-साथ इन लोगों को भाषाई एवं सांस्कृतिक कष्टों को झेलना पड़ा।
इसके अलावा उपभोक्तावादी उद्योगों के द्वारा जिन्हें विस्थापित किया जा रहा है, कृषि और बाजार की तबाही से जो लोग बेदखल हो रहे हैं उनका अभी तक कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
सत्तर के दशक में दक्षिण, उत्तर और पश्चिमी भारत के संसाधनों के चुक जाने के बाद से पूंजीपति वर्ग ने पूर्वी घाट के संसाधनों को लूटने की दिशा में प्रयाण किया। इस इलाके के प्राकृतिक संसाधनों में 30 फीसदी अकेले उड़ीसा में है। पूर्वी घाट के दोहन के बाद पर्यावरण और प्रकृति में भयंकर बदलाव आ सकते हैं। जिनकी ओर अभी हमारा ध्यान ही नहीं है।
विश्व बैंक के दो अधिकारियों कार्टर ब्रांडों और किरशन हीमेन ने "दि कॉस्ट ऑफ इनेक्शन : वेल्यूइंग दि इकॉनोमी बाइड कॉस्ट ऑफ इनवायरमेंटल डिग्रेडेशन इन इंडिया" नामक कृति में पर्यावरण से होने वाली क्षति का अनुमान लगाने की कोशिश की है। लेखकों के अनुसार पर्यावरण से 34,000 करोड़ रुपये यानि 9.7 विलियन डॉलर की क्षति का अनुमान है।यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद का4.5 फीसदी है। यह भी कह सकते हैं कि सन् 1991 में भारत में जितनी विदेशी पूंजी आई उसके दुगुने से भी ज्यादा है। हवा-पानी के प्रदूषण से 24,000 करोड़ रुपये की क्षति हुई। भूमि के नष्ट होने एवं जंगलों के काटे जाने से 9,450करोड़ रुपये की क्षति हुई। अकेले कृषि क्षेत्र में जमीन के क्षय से उत्पादकता में 4 से 6.3 फीसदी की गिरावट आई जिसका मूल्य 8,400 करोड़ रुपये आंका गया।
उपरोक्त अनुमान कम करके लगाए गए हैं। मसलन्, जल प्रदूषण से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को ही लें, जल प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य क्षति का मूल्य 19,950 करोड़ रुपये आंका गया है। इसके लिए जो आधार चुना गया है वह अपर्याप्त एवं विवादास्पद है। इसी तरह प्रदूषित हवा से होने वाली क्षति 4,500 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष आंकी गयी है। जबकि प्रदूषित हवा से प्रतिवर्ष 40,000 मौतें हो जाती हैं।
जबकि नमक की कमी से होने वाली क्षति 650 करोड़ रुपये बतायी है। जंगलात के विनाश से 4,900 करोड़ रुपये की क्षति का अनुमान है। यह समूचा अनुमान गलत मानदंडों पर आधरित है वास्तव में 50,000 से 70,000 करोड़ रुपये तक की क्षति का अनुमान है। यह हमारे सकल घरेलू उत्पाद के 9 फीसदी के बराबर है।यह हमारी सकल राष्ट्रीय विकास दर से भी ज्यादा है।
http://hindi.indiawaterportal.org/node/19754
> उपन्यास >> बेदखल
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सारांश: | | | | | | | | | | | ||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंशसन् अट्ठारह सौ सत्तावन के विप्लव और उसके दमन के बीच से ही अवध में वह क्रूर और तालुकेदारी व्यवस्था पनपी थी जिसमें पिसती रिआया की छटपटाहट इसी शती के दूसरे दशक तक आते-आते एक तूफान के रूप में फूट पड़ी, जिसने एक बार सत्ता की तमाम चूलें हिला दीं। कमलाकांत त्रिपाठी का दूसरा उपन्यास 'बेदखल' उसी तूफान के घिरने, घुमड़ने और फिर एक कसक-सी छोड़ते हुए बिखर जाने की कथा है और इस दृष्टि से अठारह सौ सत्तावन की पृष्ठभूमि में लिखे उनके पहले उपन्यास 'पाहीघर' की अगली कड़ी भी।अवध का किसान आन्दोलन ऊपर से राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा का अंग भले लगे लेकिन दोनों की तासीर में बुनियादी फर्क था। जहाँ मुख्य धारा सत्ता में महज ऊपरी परिवर्तन और उसमें भागीदारी के लिए उन्मुख होने से देशी तालुकेदारी के कुचक्रों के प्रति आँखें मूँद रही, वहीं किसान आन्दोलन ने भू-व्यवस्था और उससे जुड़ी उस विषम सामाजिक संरचना को चुनौती दी जिसके केन्द्र में यही तालुकेदार मौजूद थे। इसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। शायद इस अन्तर्विरोध को रेखांकित करने के लिए ही लेखक ने इतिहास की इस विडंबना को अपने उपन्यास का विषय बनाया है। कमलाकांत त्रिपाठी अपने पात्रों को कुछ इस तरह छूते हैं कि उनके और पाठकों के बीच न काल का व्यवधान रह जाता है, न लोगों को अतिमानव बनाने वाली इतिहास की प्रवृत्ति का। यह जन-शक्ति के उस स्वतःस्फूर्त उभार की कथा है जो बाबा रामचन्द्र जैसे जन-नायक पैदा करती है, जिन्होंने रामचरित मानस की चौपाइयों को आग फूँकने के औजार की तरह इस्तेमाल किया और जिनकी 'सीताराम' की टेप पर हिन्दु-मुसलमान दोनों अपने धार्मिक भेद को भुलाकर दौड़ते चले आये। उपन्यास में 'साधु' और 'सुचित' जैसे कुछ सामान्य चरित्र भी हैं जिनकी आम भारतीय तटस्थता और दार्शनिकता के बरअक्स ही अवध के किसान आंदोलन को उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। दूर जलते अलाव की छोटी-छोटी लपटें अँधेरे के बीच रोशनी का एक रहस्यमय वृत्त बनाती थिरक रही थीं। वहाँ से उठती बोल-चाल की अस्पष्ट आवाज रात की निस्तब्धता को तोड़ती, फासलों के ऊपर से तैरती बीच-बीच में कानों से टकरा जाती थी। रात, अँधेरा, सुनसान, फसलों की गंध, अलाव की रोशनी, दूर से आती बोलचाल की आहट-सबकुछ बाबा के मन में एक गहरा, अटूट सन्नाटा भर रहे थे। एक तड़प, एक अवसाद, एक अकुलाहट। सब से भागकर कहीं खो जाने गुम हो जाने की पलायनी वृत्ति ।...क्या था इसकी जड़ में ? धिराजी ? अकल्पित मोड़ पर पहुँचे आन्दोलन की अनिश्चितता ? या और कुछ ? एकसाल की पहली बारिश थी। वैसे तो अंधड़ के साथ बूँदाबाँदी हो चुकी थी लेकिन अभी तक लहरा नहीं पड़ा था। आज खूब जमकर बारिश हो रही थी। हवा भी तेज थी। पेड़ों की पत्तियाँ और ऊपर की डालें जोर से हिल रही थीं। नीचे की सूखी डालों पर रेंगते हुए पानी की लकीरें तने की ओर बढ़ रही थीं। छप्पर और खपरैल की ओर तेज धार गिरने लगी थी जिसकी आवाज बारिश और हवा के शोर में खो गई थी। द्वार पर उमड़ी धूल बैठ गयी थी। और पानी फैलकर ढाल की ओर बहने लगा था। द्वार के सामने वाली गड़ही में कुछ पानी जमा हो गया था और उसमें बूँदें पड़ने से बुलबुले नाच रहे थे। शाम तक बारिश बंद हुई तो गड़ही में इतना पानी भर गया था कि मेंढक बोलने लगे थे। बच्चे उनकी आवाज के साथ आवाज मिलाते थे-सम गम, गए हम। लेकिन बीच में टर्र-टर्र का कर्कश, एकाकी स्वर संगत तोड़ देता था। अँधेरा होते ही झींगुरों ने भी सुर मिलाना शुरू कर दिया। बिलों में पानी चले जाने से चींटे-चींटियाँ और दीमक पंख लगाए बाहर निकले और दिवठी पर रखे दीये के चारों ओर मंडराने लगे। बुढ़ऊ आँगन में भोजन करने उठे थे। पाँखियाँ अगल-बगल गिरने लगीं तो दीए को दूर हटा कर रख दिया गया। पर उससे थाली के पास अँधेरा हो गया। अब तो कोई पाँखी आकर थाली में गिर जाए तब भी नहीं पता चलेगा। बुढ़ऊ खाते समय बोलते नहीं थे। वे अन्दर-ही-अन्दर कसमसाते ही रहे। जब दो पाँखियाँ बदन से टकराईं तो वे थाली छोड़कर उठ खड़े हुए। बाहर आकर मुँह-हाथ धोया और गरज उठे— ''मइ कहा, ई दोनों बहुरियाँ मुझे मांसाहार कराने पर तुली हुई हैं। आगाह किया था कि आज पहली बारिश हुई है, पाँखियाँ निकलेंगी, दिन रहते खवाई-पिआई निपटा लेना। लेकिन कौन सुनता है ! आखिर ठहरीं तो धाकरों (निम्न कुल के ब्राह्मणों) की ही बेटियाँ।'' द्वार सूना था। उनकी आवाज घिरते अँधेरे से टकराकर लौट आयी। वे जाकर मड़हे में लेट गए। बूँदाबाँदी फिर शुरू हो गयी थी। घर के अन्दर से खटर-पटर की आवाज आती रही। बुढ़ऊ का असली नाम था शालग्राम जो बिगड़कर सालिकराम हो गया था। उम्र पचपन के आस पास। लम्बा ऊँचा शरीर। हल्का साँवला रंग। सिर और दाढ़ी के बाल साधुओं की तरह बढ़े हुए। साल में सिर्फ एक बार माघ मेले में संगम जाकर बाल बनवाते थे। माथे पर द्वादश तिलक जो शाम तक जो धुँधला पड़ जाता था। भगवान् शालग्राम की बटिया वे हमेशा साथ रखते थे। रोज सुबह नहाकर बटिया को नहलाते थे। चन्दन, फूल, धूप, नैवेद्य चढ़ाते थे। संध्या-तर्पण करते थे। विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते थे। एक माला 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय' का जाप करते थे। फिर उठ कर भगवान का भोग लगाते थे। तब जाकर मुँह में कौर डालते थे। वेश-भूषा के चलते लोग उन्हें साधू भी कहने लगे थे। शालग्राम नाम के कारण कई लोग उन्हें भगवान भी बुलाते थे। पर घर वालों के लिए वे बुढ़ऊ थे। इलाके के दस्तूर के अनुसार बड़े बेटे की बहू आते ही वे बुढ़ऊ कहलाने लगे थे। तीन बेटे थे उनके—तीनों की अपनी-अपनी अलग राह थी। बड़ा–राम अभिलाख—गैर जिम्मेदार की हद तक अपने में मस्त। मंडलीबाज और बोलिकर। देश-पवस्त और नाते-रिश्तेदारियों में नेवहड़ छौंकता, गप्पें मारता घूमता था। मझला—रामदेव—गुरु के यहाँ से संस्कृत व्याकरण पढ़कर आया था। पंडिताई करता था और साथ-साथ घर गृहस्थी भी देखता था। छोटा—रामहित—मेहनती पर रंगीन मिजाज। गाँव में उसका मन नहीं लगता था। लड़-भिड़कर रंगून भाग गया था। दोनों बड़ी बहुएँ घर में थीं, छोटी मायके में । बड़ी बहू देखने में गोरी-चिट्टी, सुन्दर और स्वभाव से फितरती थी। सास के रहते उसने मालिकाना सँभाल लिया था। मझली देखने-सुनने में साधारण और स्वभाव से सीधी थी। वही बुढ़ऊ की सेवा करती थी और डाँट भी खाती थी। बूढ़ा पूरी गऊ थीं। ऊपर से सांस की मरीज। देखते-देखते सबकुछ बड़ी बहू के कब्जे में आ गया था। बूढ़ा कभी मँझली का पक्ष लेकर कुछ बोलतीं तो उन पर भी झाड़ पड़ जाती थी। घर में सात बच्चे थे। राम अभिलाख के एक लड़की और दो लड़के। रामदेव के दोनों लड़के। रामहित के एक लड़का और एक लड़की—दोनों प्रायः माँ के साथ ननिहाल में रहते थे। मड़हे में लेटे हुए सालिकराम ने आँखें बन्द कर लीं। गहराती रात के सन्नाटे में उनके भीतर उमड़-घुमड़ हो रही थी। पहली बारिश हमेशा उन्हें विकल कर देती है। मन पीछे बहुत पीछे भाग जाता है।....वक्त कैसे उड़ते चला गया। उन्चास-पचास साल तो हो गए होंगे। ऐसा ही दिन था और ऐसी ही बूँदाबाँदी वाली रात जब वे बसौली आए थे। पैतृक गाँव से पैदल चलकर। माँ-बाप के रहते अनाथ और बेसहारा। तब कहाँ पता था कि यहीं के होकर रह जाएँगे। कहने को ननिहाल था यहाँ लेकिन दुर्बली नाना भरी जवानी में ही चल बसे थे। कम्पनी सरकार की फौज में थे और गदर के समय मारे गए थे। उनके बड़े भाई शंकर का मालिकाना था। उनके आगे पीछे कोई नहीं था पर स्वभाव से वे बेहद उग्र और हृदयहीन थे। दुर्बली के एक ही लड़की थी जिसे शंकर ने एक दरिद्र, घुमंतू, बूढ़े ब्राह्मण के साथ ब्याह दिया था। जिसकी पहले ही तीन शादियाँ हो चुकी थीं। वे तो इधर-उधर भटकते, दूसरों के यहाँ माँग-जाँचकर अपना पेट पाल लेते थे, विपन्नता की मार पड़ती थी बीवी पर। गरीब और अवहेलना से जूझती तीनों बीवियाँ एक के बाद एक बिना कोई संतान दिए चल बसीं थी। तब आयी थी दुर्बली की बेटी—कच्ची उम्र की पितृहीन लड़की। गौने के दो साल बाद ही सालिकराम पैदा हुए थे। एक साल बाद एक लड़की और हो गई थी। बिना किसी सहारे के दो-दो बच्चों को सम्हालना। और उसकी अपनी ही उम्र क्या थी। ग्यारह साल की थी जब शादी हुई थी, एक साल बाद गौना। महज सोलह-सत्रह की उम्र में। मायके में सबकुछ भरा था लेकिन ससुराल में दरिद्रता का अखंड साम्राज्य। चार बीघे बीजर-बाँगर खेत थे और एक हड्डी गाय। बारिश ठीक से हो गई तो दूसरों के हल बैल के सहारे एक फसल हो जाती थी। नहीं तो वही आकाश-वृत्ति। पिता महीने दो महीने में घूम-फिककर लौटते तो उनके झोले में आटा-दाल की छोटी-छोटी पुटकियाँ होती थीं। कभी-कभी वह भी नहीं। बीच-बीच में उपवास की नौबत आ जाती थी। ऊपर से लगान की चिन्ता हमेशा सिर पर सवार रहती थी। उस साल बारिश हुई तो खेत में डालने को एक दाना अन्न नहीं था। पिता कहीं रमे हुए थे। माँ ने सालिकराम को पुराने चिथड़े पहनाकर किसी के साथ बसौली भेज दिया था। बड़े नाना ने कैसी ठंडी निगाहों से देखा था ! पर घर के अन्दर नानी ने अंकवार में भर लिया था और देर तक हुमस-हुमस के रोती रहीं थीं। फिर उन्होंने जल्दी-जल्दी खाना पकाया था। सामने बैठकर पूछ-पूछकर खिलाया था। कितने दिन बाद पेट भर खाने को मिला था। उस दिन भी दिवठी पर दीया ऐसे जल रहा था, पाँखियाँ मँडरा रही थीं और थाली के पास अँधेरा था। लेटे-लेटे सालिकराम को झपकी आने लगी। बारिश तेज हो गई थी मेंढकों और झींगुरों की आवाजें उसमें दब गई थीं। द्वार पर पानी भर गया था जो धीरे-धीरे गड़ही की ओर सरक रहा था। बीच-बीच में बिजली चमकती तो बहते पानी पर लावे की तरह तैरते बुलबुले नजर आते। दूर से किसी के पानी में चलने की आवाज आयी तो बुढ़ऊ उठकर बैठ गए। ''के आ हो ?'' ''हम हैं दादा।'' रामदेव मड़हे के एक कोने में जाकर धोती बदलने लगा। ''मइ कहा बड़ी देर कर दी आज ?'' ''हाँ, झिंगुरीसिंह की सभा थी पट्टी में। चले तो बारिश शुरू हो गयी।'' ''तुम भी पड़ गए इन लुंगाड़ों के चक्कर में।'' रामदेव सूखे गमछे से देह पोंछते-पोंछते धीरे से हँसा पर कुछ बोला नहीं। ''यह विकरमाजीत का पाछिल, खुद तो ढूबेगा ही, दूसरों को भी डुबोयेगा। राय साहब ने सुन लिया तो आफत खड़ी हो जाएगी।'' विक्रमाजीत झिंगुरीसिंह के बाप का नाम था। रामदेव भोजन के लिए उठने लगा तो बुढ़ऊ ने ताकीद की— ''मार पाँखी उठी हैं, जरा देख के कौर उठाना।'' रामदेव भोजन खत्म कर बाहर निकला तब तक बारिश बन्द हो गई थी। वह ओसारे में बैठकर हाथ-मुँह धोने लगा तो बुढ़ऊ मड़हे में लेटे-लेट बोले— ''आसमान औंधा हुआ है। रात में फिर बारिश के आसार हैं। हो सकता है, सुबह तक खेतों में लेव लग जाए। बेहनौर और धनहा खेतों का माड़ संभालना है।...बड़े जन तो जाने कहाँ रमे हैं। वैसे भी उन्हें कौन फिकिर है खेती-बारी की ! पहला दौंगरा पड़ता है तो किसान घर की ओर भागता है, पर वे तो चुपड़ी रोटी और बघारी दाल उड़ा रहे होंगे।'' रामदेव कुछ असमंजस में खड़ा रहा। फिर धोती का फाँड़ और कन्धे पर फावड़ा लेकर सिवान की ओर चल पड़ा। वहाँ पहुँचने तक आसमान छँटने लगा था। एक ओर बादल के फाहों के पीछे से चाँद निकल आया था और सिवान में धुँधली-सी चाँदनी बिछ गयी थी। झिल्लियों की झंकार, रेवों की सिसकार, मेंढकों की टर्राहट और चुहचुइया की एकतार चीख आपस में मिलकर साज-सा बजा रहे थे जिससे सिवान का एकाकीपन गाढ़ा हो गया था। जिन खेतों की जुताई नहीं हुई थी उनमें मजे का पानी भर गया था और चाँदनी में दूर से चमक रहा था। रामदेव ने मेड़ों के चारों ओर घूम-घूमकर कटे हुए घारों को बाँधा। कई जगह चीटों और चूहों ने मेड़ों के नीचे से सुरंगें बना दी थीं जिनमें से पानी धीरे धीरे रिस रहा था। पर रात में उन्हें बन्द करना आसान नहीं था। अक्सर ये टेढ़ी-मेढ़ी सुरंगें मेड़ के नीचे-नीचे दूर तक चली जाती हैं और पानी के अन्दर घुसने की जगह बाहर निकलने की जगह से बहुत दूर होती है। पानी निकलता तो दिखता है पर उसके अन्दर घुसने की जगह बहुत ध्यान से खोजनी पड़ती है। कभी-कभी तो पूरी सुरंग की लम्बाई तक मेंड़ को काटकर फिर से दबा-दबाकर बाँधना पड़ता है। चाँदनी की धुँधली उजास में यह काम नहीं हो पाएगा और दिन में दुबारा आना ही पड़ेगा–रामदेव ने सोचा और फावड़ा कन्धे पर डाले घर की ओर लौट पड़ा। बारिश के बाद की निस्तब्धता। रात का दूसरा पहर। फीकी चाँदनी में डूबे जंगल के बीच से गुजरते हुए रामदेव का मन बार-बार झिंगुरीसिंह की सभा की ओर दौड़ जाता था। देशी जबान में कैसे ठह-ठह कर बोलते हैं वे— ''मोरे भइया किसानो, तोहरी कमाई पर तालुकेदारन की धोती आकाश में झुराए रही है और तोहार दुःख-तकलीफ सुनै वाला कोई नहीं।...पहली बारिश के बाद किसान उछाह के साथ हल-बैल लिए खेत की ओर दौड़ता है। मगर खेत उसका नहीं। तालुकेदार जब चाहे उसे बेदखल कर दे। जिस मिट्टी को पालते-पोसते बाप-दादे मिट्टी में मिल गए वह मिट्टी उसकी नहीं। दूर अपने आलीशान कोट में बैठा तालुकेदार उसका मालिक है और अंग्रेज बहादुर उसका रखवाला। दोनों ने मिलकर रिआया को तबाह करने की कैसी रचना रची है। यही तालुकेदार जब सत्तावन के गदर में अँगरेजों के खिलाफ खड़े हुए तो रिआया ने आगे बढ़कर उनका साथ दिया। उनके साथ लड़ी-मरी। बाद में दोनों मिलकर एक हो गए और रिआया को मक्खी की तरह निकाल फेंका। उसका कोई हक नहीं, कोई अख्तियार नहीं। बस वह तालुकेदार का मुँह जोहे। उसके यहाँ हारी-बेगारी करे, नजराना दे और खुद दाने-दाने को मोहताज रहे। मोरे भैया किसानो, आप कब तक चुप सहते रहोगे ?...'' रामदेव स्वभाव से भावुक था। झिंगुरी सिंह की बातें सुनकर उसका दिल पिघलने लगता। उसकी इच्छा करती थी। सबकुछ छोड़कर उन्हीं के साथ लग जाए। मगर घर का ध्यान आते ही मन सिकुड़ जाता था। दरवाजे पर पहुँचकर उसने खँखारा और फावड़े को कंधे से उतार कर जमीन पर रख दिया। कहीं कोई आवाज नहीं थी। चारो-ओर सोता पड़ गया था। उसने अपनी चारपाई मड़हे से बाहर निकाली और लेट गया। गड़ही में मेंढकों की टर्राहट पूरे उफान पर थी। घर के चारों ओर जंगल, उसके बाद खेतों और बागों का सिलसिला। सबको अपने में समेटे चाँदनी की धुँधली उजास दूर तक पसरी थी। देर तक सोचते, करवटें बदलते पता नहीं कब नींद आ गई। दोराता-भर बारिश नहीं हुई। सुबह बादल घिरे थे और पुरवइया चल रही थी। दो घड़ी दिन चढ़े हवा का रुख बदला और रिमझिम शुरू हो गयी। बीच-बीच में लहरा भी आ जाता था। ताल-तलैयों में पानी जमा होने लगा। लोग इधर-से-उधर उलीचकर बेहनौर के खेतों में लेव लगाने लगे। अब तक जो सिवान सूना पड़ा था, हल और पाटा चलाते और फावड़ लेकर खेतों के कोन गोड़ते या मेंड़ संभालते किसानों से भर गया। चारों ओर से हट्-हट् नांऽऽह की आवाजें आने लगीं। सालिकराम के दोनों हलवाहे तड़के ही आकर बैलों को सानी-पानी डाल दिये थे। बैल नाँद में मुँह डालकर सानी खाने लगे तो वे हल कन्धे पर उठाए समुझ लोहार के यहां चल दिए। उनमें फाल ठुकवाकर लेव में चलाने के लिए दाबी लगवानी थी। समुझ के यहाँ एक ओर भाथी चल रही थी जिसे उसका बेटा खींच रहा था। दूसरी ओर वह खुद बसूला लेकर बैठा था और हलों में दाबी देकर फाल ठोकता जा रहा था। वहाँ बड़ी भीड़ थी। कई किसान हाथों से हल थामे अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे और बातें भी करते जा रहे थे। ''अरे मिस्त्री, जरा जल्दी हाथ चलावा हो।'' एक किसान बेसब्री से बोला। ''हाँ भइया, आज तो सबको जल्दी होगी। खरिहग-फरवार देते समय नानी मरती है। दस-दस चक्कर लगवाते हो।'' समुझ अपने ढंग से काम करता रहा। ''क्या करें, जब राजा-दैव से बचे तो तोहका दें।'' ''अरे भइया, दैव से एक बार बच भी जाए पर राजा से कैसे बचे।'' ''ठीक कहा भइया।... आज हाड़ तोड़कर बुआई कर रहे हैं, कल बेदखली हो जाए तो घरौ का ओर्द जंगेरे में जाए कि नाहीं ?'' ''लगान पूरा भरोगे तो बेदखली काहे होगी हो।'' ''अरे कौनो अन्त है लगान का। बस भरे जाओ। रसीद देता है कोई ?'' ''रसीद दें दें तो बेदखली का डर कैसे दिखाएँ। और बेदखली का डर न रहे तो नजराना कौन देगा।'' ''लो, हम बातों में लगे रहे और ई सुखई का पाछिल मेरी बारी झपट लिया।....चल हट हियां से।'' ''बनवा लेने दो, उसी को बनवा लेने दो भइया। मिस्त्री कहीं भागे थोड़े जा रहे हैं।'' हलवाहे समुझ के यहाँ से हल बनवाकर लौटे तब तक दो घड़ी दिन चढ़ आया था। एकाएक जोर से लहरा आया और टप-टप बूँदे गिरने लगीं। जुआ खोज कर दोनों भीगते हुए बैलों को बाँधने लगे। तभी सालिकराम नहाकर गमछा पहने कुएँ से लौटे और मड़हे के एक कोने में खड़े होकर सूखी धोती पहनने लगे। एक बैल उसी समय पेशाब करने लगा। देबीदीन हलवाहा उन्हें सुनाकर बैल से बोला— ''लो, ऊपर से भगवान तुलतुल कर रहे हैं, नीचे से तुमने भी शुरू कर दिया।'' सालिकराम ने भौहें टेढ़ी करके उसकी ओर देखा और चुपचाप धोती बाँधते रहे। देबीदीन शरारत से मुस्कराता अपने काम में लगा रहा। वह और सालिकराम दोनों बराबर की उम्र के थे और सालिकराम से उसकी खंगड़ई चलती रहती थी। वे अकच्छ होने पर बोल नहीं सकते थे। उन्होंने काँछ बाँध ली तो नकली गुस्से में बोले— ''ऐसे ही मेल्हते रहे तो खेत तक पहुँचते दिन लटक जाएगा देबीदीन। आज जुताई का इरादा नहीं है क्या ?'' ''अब क्या करें भगवान्। न ऊपर वाला बस में है, न तोहरे ई बरधऊ। दोनों मिल के मार किच-किच किए हैं। आखिर मौका देख कर न कौनो काम करे चाही।'' सालिकराम ओंठ में मुस्कराकर रह गए। दोनों हलवाहे हल-बैल लेकर चले गए तो वे मड़के के कोने में रखी चौकी पर बैठकर पूजा करने लगे। तभी बांस की टूटी छतरी लगाए, काँख में एक फटी-पुरानी पिछौरी दबाए, उघारे बदन एक आदमी आता दिखा। पास आने पर उसने झुककर पैलगी की और छतरी एक किनारे रखकर चौकी के सामने खड़ा हो गया। सालिकराम ने सिर उठाकर हाथ के इशारे से उसे बैठने को कहा। ''बिसार (उधार पर बीज) के लिए गए थे भगवान् पदारथ महराज के यहाँ। पर वे निराश लौटा दिए।'' सुचित जमीन पर उकड़ूँ बैठ गया और शालग्राम के शंपुट की ओर सिर नवाकर हाथ जोड़े। आचमन करते-करते हाथ के इशारे से सालिकराम ने कारण पूछा। ''अभी पिछले साल का बकाया है महराज। बहुत हाथ-पैर जोड़े पर वे टस से मस न हुए। समझ में नहीं आता के अब कहाँ जाएँ।...घर में मुट्ठी-भर धान नहीं है। लरिकन को भात खाए महीनों गुजर गए। मजूरी में जो मोट महीन मिलता है उसी से किसी तरह गुजारा चल रहा है। अगर धनहा खेत में बीज न पड़े तो आगे भी सब अँधियार है।'' सालिकराम ने संकेत से कहा कि वह धीरज के साथ बैठे। फिर दत्तचित्त होकर पूजा करने लगे। सुचित एक कोने में रखी सुतली लेकर धीरे-धीरे साफ करने लगा। भगवान् को नहलाकर चन्दन और फूल चढ़ाने के बाद सालिकराम ने घंटी बजाई। मझली बहू धूप के लिए कलछुल में आग और नैवेद्य के लिए पत्ते में गुड़ लेकर घूँघट काढ़े घर से बाहर आयी। वह आग और बाल भोग रखकर वापस जाने लगी तो उन्होंने ताली बजाकर उसे रोका और सुचित को उससे अपनी बात कहने के लिए इशारा किया। ''बिसार चाही दुलहिन।....दो पसेरी धान मिल जाता तो लरिकन के लिए आगे का सहारा हो जाता। नहीं तो वे खाना बिना मरेंगे।'' बहू ने हाथ हिलाकर अपनी असमर्थता जाहिर की और अन्दर जाकर बड़ी बहू से बोल दिया। वह कुछ देर बड़बड़ाती रही, फिर बूढ़ा को सिखा-पढ़ाकर बाहर भेजी। ''कउनो सदाबरत खुला है क्या।...बस खाने और बीज भर का धान रखा है। उसमें से इसको कैसे देंगे ?...बैठे-बैठे हुकुम चलाते रहते हो।'' कहते-कहते बूढ़ा की सांस फूलने लगी। सालिकराम ने बेसब्री से हाथ हिलाकर बूढ़ा को वापस जाने का इशारा किया। पर माला जपते हुए बराबर उनके माथे पर शिकन बनी रही। सुचित आशा-निराशा में झूलता बैठा रहा। पूजा खत्म होते ही सालिकराम ने आवाज लगाई— ''मई कहा, कउनो है ?'' फिर से बूढ़ा बाहर आयीं—''अब क्या है ?...रसोई तैयार है, उठते क्यों नहीं ?'' बुढ़ऊ का नियम था, पूजा खत्म होते ही सीधे भोजन के लिए उठ जाते थे। पीढ़ा-पानी न रखा हो तो बहुओं की शामत आ जाती थी। थोड़ी-सी अधपकी दाल मिल जाए तो ठीक, नहीं तो चार मोटी-मोटी रोटियां जरा से अमचुर के साथ खाकर बड़े प्रेम से उठ जाते थे। ''देखो, सुचित इतनी देर से आस लगाए बैठा है। उसे दो पसेरी धान तुलवा दो। ''जानते तो हो, धरना-उठाना दुलहिन के हाथ में है। उसने जो कहा, मैंने आकर बोल दिया। अब हमारी जान न खाओ।'' बुढ़ऊ कुछ देर शून्य में ताकते रहे। फिर अन्दर उठते उबाल को दबाकर शान्त स्वर में बोले— ''जरा बड़की बहू को भेज दो।'' बूढ़ा बड़बड़ाते अन्दर गईं और थोड़ी देर बाद बड़ी बहू तिरछा घूँघट निकाले ओसारे के पास आकर खड़ी हो गई। ''बहू यह बताओ, हमें खाने को देती की नहीं ?...बस उसी में से निकाल दो। हम भात नहीं खाएँगे इस साल।'' बहू चिनकती हुई अन्दर गई। पहले एक दौरी में धान लेकर आई और ड्योढ़ी में धम्म से रखा। फिर अन्दर से तराजू और बाँट लाकर पटका। वह कुढ़ती हुई धान तौलती रही और साधू उसकी झटक-पटक को नजर अंदाज कर खुलती धूप में धोती फैलाते रहे। सुचित पोटली बाँध कर खड़ा हुआ और साधू के सामने झुककर हाथ जोड़े— ''धन्य हैं महराज। तोहरे पुन्न-परताप से सात पीढ़ी फूले-फलेगी।'' सुचित के जाने के बाद बुढ़ऊ ने भोजन किया और मड़हे में आकर अपनी चारपाई पर लेट गए। एक झपकी लेने के बाद उठे तो ओसारे में जाकर आवाज लगायी— ''अरे कउनो है, जरा सुँघनी बना के दे देना।'' इस बीच रामदेव आकर नहा-खाकर वापस चला गया था। औरतें भी खा-पीकर लेटी हुई थीं। बुढ़ऊ की आवाज सुनकर मझली बहू उठी। ताक पर रखा सुरती का पत्ता उठाया। चूल्हे से गरम राख भी निकाली। उस पर रखकर पत्ते को गरम किया। हाँड़ी से चूना लेकर लत्ते में दबाकर सुखाया। सुरती और चूना मलकर सुँघनी बनाई और डिबिया में भरकर बुढ़ऊ के पास ले गयी। ''इसको यहीं रख दो। जरा एक लोटा ताजा पानी लेती आओ। लोटा ठीक से माँज लेना।'' बुढ़ऊ का लोटा अलग था जो चौकी पर रखा हुआ था। बहू ने उसे उठाया, अन्दर ले जाकर राख से माँजा। फिर डोरी खोज कर कुएँ पर गयी। पानी भरकर लायी और चौकी पर रख दिया। ''जरा खड़ाऊँ दे दो।'' बहू ने छप्पर में खुँसे खड़ाऊँ लाकर रखे तो बुढ़ऊ ने फिर आदेश जमाया— ''एक ढोंका गुड़ लेती आओ।'' बहू का सब्र जवाब दे रहा था— एक बार में सबकुछ क्यों नहीं बोल देते। जब तक वह गगरी से गुड़ निकालकर उसे पत्ते पर रख कर आई, बुढ़ऊ हाथ-मुँह धो चुके थे और खड़ाऊँ पहनकर पैर लटकाए चौकी पर बैठे इन्तजार कर रहे थे। ''पैर में जाँत बँधा है क्या लक्ष्मी ? जरा जल्दी-जल्दी डुलाया करो।'' बहू कुछ बोल तो नहीं सकती थी, अन्दर-ही-अन्दर कसमसाकर वापस चली गई। बुढ़ऊ ने गुड़ खाकर पानी पिया। कुछ देर सुँघनी सूँघते बैठे रहे। फिर उठकर पौला पहना, सोंटा उठाया और सिवान की ओर चल पड़े बेहनौर वाले खेत में हल चल रहे थे और रामदेव कोने गोड़ने में लगा था। बगल में पदारथ का खेत था। उसमें चार-चार हल एक साथ चल रहे थे। दो उनके और दो कुर्मियान के। बिसार और महाजनी से उन्होंने पूरे कुर्मियान को बाँध रखा था। जिस कुर्मी को बोल देते, वह अपने हल-बैल लेकर पहले पदारथ के खेत की बुआई करता फिर अपने खेत में जाने की हिम्मत करता। हलवाहों के अलावा तीन आदमी और काम पर लगे थे। घर का कोई आदमी खेत पर नहीं था पर सारा काम मुस्तैदी के साथ चल रहा था। सालिकराम कुछ देर मेड़ पर बैठे काम का जायजा लेते रहे, फिर उठकर पदारथ के घर की ओर चल दिए। आज सुबह से ही पदारथ का बखार खुल गया था। अभी तक बिसार लेने वालों की भीड़ लगी थी। पदारथ दालान के ओसारे में चारपाई पर लेटे थे। और बगल में मँझला बेटा बही लेकर बैठा था। जिन लोगों का पुराना हिसाब बकाया था वे हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहे थे लेकिन पदारथ पर कोई असर नहीं हो रहा था। बड़ा बेटा धान तौल रहा था और खुले आम डंडी मार रहा था पर किसी की कुछ बोलने की हिम्मत नहीं थी। जिसका पिछला चुकता हो गया था वह पिछौरी बढ़ाकर धान रोपता, पोटली बाँधकर कन्धे पर डालता, पदारथ के सामने पूरा झुककर पैलगी करता और अपने को धन्य मानता रास्ता पकड़ लेता। सालिकराम के आ जाने से इस काम में थोड़ी बाधा पड़ी। ''आवा-आवा हो साधू, कहाँ से रास्ता भूल पड़े ?'' पदारथ ने चारपाई से उठकर उन्हें सिरहाने बिठाया। उच्च कुल के नाते वह उन्हें पूज्य मानता था। ''बेरन-वेरन कुछ डलवा रहे हैं ? लेव लगने भर का पानी तो हो गया होगा।'' ''हाँ, रो-धो के हो ही गया है। रामदेव बड़के बेहनौर में लगा है। ...तुम खेत पर नहीं गए ?'' ''हमें बिसरहों से फुरसत मिले तब तो जाएँ। सुबह से नाक में दम किए हैं। देख तो रहे हैं।'' ''भगमान हो भइया, बिना हिले-डुले सब काम हो रहा है।...सिवान से ही आ रहा हूँ।'' ''इन ससुरों को दबा के रखो तो दौड़ के सब करेंगे। जाति ही ऐसी है इनकी।'' पदारथ आवाज धीमी करके बोला। सालिकराम बिना कुछ कहे पदारथ की ओर देखते रहे। उनका ध्यान सुचित की ओर चला गया। ''अच्छा यह बताओ पदारथ, जो बिसार नहीं पाएँगे बोएँगे कहाँ से, और बोएँगे नहीं तो पहले का बकाया कैसे वापस करेंगे ?'' ''जरा धीमे बोलो साधू।... सब ससुरे जोत-बो लेंगे और लगान भर देंगे तो बेदखल कैसे होंगे ? बेदखल नहीं होंगे तो हमारे-तुम्हारे यहाँ मजूरी कौन करेगा ? फिर बेदखल होंगे तो आखिर खेतवा कहाँ जाएगा। राय साहब किसी को तो देंगे, खुद तो यहाँ काश्त करने आएँगे नहीं।'' पदारथ साधू की ओर झुककर उनके कान में फुसफुसाए। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि सालिकराम के चेहरे का रंग कैसा बदल गया। आखिर धरम-ईमान भी कोई चीज है। ऊपरवाले का कोई खौफ नहीं इसे। वहाँ और बैठने का मन नहीं हुआ उनका। वहाँ से चले तो उनके मन में भवरें पड़ रही थीं। पदारथ ने देखते-देखते कैसे अपना ऐश्वर्य बढ़ा लिया ! शुरू में जमीन जायदाद क्या थी, बस जैसे-तैसे खाने को हो जाता था। आषाढ़-कार्तिक में हमारे यहाँ से अनाज जाता था तो खेत में बीज पड़ता था। लेकिन जब से इसने होश संभाला है जैसे लक्ष्मी बरसने लगी हैं। अब तो रुपया थैली में लिए घूमता है। जहाँ बेदखली हुई, नजराना गिनने को तैयार हो जाता है। कितने गाँवों में जमीन बना ली है। बिसार और महाजनी ऊपर से। चारों ओर तूती बोल रही है। थोड़ी बेरहमी, थोड़ा कपट और थोड़ा भाग्य।... अपने से तो यह होने वाला नहीं। दो वक्त की रोटी मिल जाती है यही क्या कम है। भगवान ने बहुत दिया है। जब बसौली आए थे तो क्या था। आज गाँव के आधी सीर के मालिक हैं। दरवाजे पर जोगी-फकीर को भीख मिल जाती है। साल में एक बार साधुओं का भंडारा हो जाता है। पवस्त में इज्जत आबरू है। और क्या चाहिए।...लेकिन पदारथ का रोब-दाब देखकर मन क्यों कसमसाता है ? एक पानी पर क्यों नहीं रहता वह ? दोनों तो नहीं हो सकता न। रास्ता जंगल के बीच से जाता था। पानी बरसने से बीच-बीच में कीचड़ हो गया था। वे सोंटे के सहारे सँभल-सँभल के चल रहे थे। शाम ढलने में अभी देर थी। पश्चिम में सूरज के पास से बादल हट गए थे और चटक धूप निकल आयी थी जिसमें बारिश से धुले ढाक के पत्ते चमक रहे थे। आसमान की ओर देखने से लगता नहीं था कुछ देर पहले बारिश हो चुकी है। घर तक पहुँचने में उनके पसीना चुहचुहा आया। तीनयह सन उन्नीस सौ सत्रह का साल था। आषाढ़ का दूसरा पाख। बसौली से चार कोस दूर, अवध की सरहद पर बसा छोटा-सा गाँव रूरे। गाँव में बछगोती ठाकुरों का टोला-ठकुरइया। इनके पूर्वज कभी छोटे-मोटे जमींदार थे। परिवार बढ़ता गया और भइयाबाँटन के तहत जमीन के टुकड़े होते गए। उस के साथ पुरानी शान मिटती गई और दरिद्रता का साया फैलता गया। | | | | | | | | | | |
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एएफएसपीए पर सीसीएस की चुप्पी, सर्वदलीय बैठक 15 को
हिन्दुस्तान दैनिक - 59 मिनट पहलेजम्मू-कश्मीर में एक बार फिर हिंसा भड़क उठने के बाद सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस- ने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) जैसे विवादास्पद मुददे पर निर्णय टाल दिया और वहां की नाजुक स्थिति पर विचार करने के लिये 15 सितंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाने का निर्णय किया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में सोमवार की शाम यहां हुई सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की बैठक में यह फैसला किया गया। ...
प्रधानमंत्री का कश्मीरी गुटों को बातचीत का प्रस्ताव (लीड-1)
That's Hindi - 4 घंटे पहलेप्रधानमंत्री ने यहां सैन्य कमांडरों के संयुक्त सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा, "हम अपने संविधान के दायरे में हर उस शख्स और समूह से बातचीत करने को तैयार हैं, जो हिंसा त्याग दे।" सिंह ने कहा, "जम्मू एवं कश्मीर में पिछले कुछ हफ्तों से जारी अशांति चिंता का विषय है। कश्मीर के युवा हमारे नागरिक हैं और उनकी शिकायतें दूर होनी चाहिए।" उन्होंने कहा, "हमें बेहतर सेवाएं देने और राज्य की जनता की आर्थिक तरक्की के लिए अवसर तैयार करने ...
सीसीएस की बैठक खत्म, 15 को होगी सर्वदलीय बैठक
Patrika.com - 2 घंटे पहलेनई दिल्ली। सुरक्षा मामलों पर कैबिनेट कमेटी की बैठक में जम्मू कश्मीर के ताजा हालात पर विचार विमर्श किया गया। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई बैठक में घाटी के लोगों से हिंसा से दूर रहने की अपील की गई है । साथ ही अलगाववादियों से फिर से बातचीत की पेशकश की गई है। बैठक में 15 सितंबर को सर्वदलीय बैठक बुलाने का फैसला हुआ है। सीसीएस की बैठक में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून में संशोधन पर कोई फैसला नहीं हो सका। इससे पहले शनिवार को ...
उमर ने की चिदंबरम से मुलाकात
प्रभात खबर - 7 घंटे पहलेनयी दिल्लीः जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने आज गृह मंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात कर राज्य के कुछ इलाकों से विवादास्पद सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएसएफ़पीए) हटाने के मुद्दे पर बातचीत की. सरकारी सूत्रों ने बताया कि उमर ने चिदंबरम से कश्मीर घाटी की कानून व्यवस्था की स्थिति के बारे में भी चर्चा की है, जहां कल हिंसा की ताजा घटनाएं हुईं. आज सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की बैठक भी होनी है, जिसमें कश्मीर के ...
एएफएसपीए पर नहीं हो पाया निर्णय
आज की खबर - 1 घंटा पहलेनई दिल्ली: । सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) की सोमवार को यहां बुलाई गई बैठक में जम्मू एवं कश्मीर के कुछ हिस्सों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को हटाए जाने को लेकर कोई निर्णय नहीं हो पाया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में तीन घंटे तक चली सीसीएस की बैठक में बुधवार को एक सर्वदलीय बैठक बुलाने और संकटग्रस्त कश्मीर घाटी में शांति स्थापना के संभावित उपायों पर चर्चा करने का निर्णय लिया गया। ...
भाजपा ने मांगा उमर से इस्तीफा
खास खबर - 13 घंटे पहलेनई दिल्ली। जम्मू एवं कश्मीर के किसी भी हिस्से में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) को हटाए जाने संबंधी कदम का सख्त विरोध करते हुए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने रविवार को राज्य मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला से इस्तीफे की मांग की। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरूण जेटली जैसे भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) की सोमवार को प्रस्तावित बैठक के पूर्व एक आपात बैठक की और कहा कि केंद्र ...
कश्मीर पर कांग्रेस कोर समूह की बैठक शनिवार को
हिन्दुस्तान दैनिक - १०-०९-२०१०सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) की संभवत: शनिवार को होने वाली बैठक में सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) में संशोधन और जम्मू-कश्मीर के कुछ जिलों को अशांत क्षेत्र के दायरे से बाहर करने के बारे में फैसला किए जाने की संभावना है। सरकारी सूत्रों ने कहा कि केवल जिलों से सेना की तैनाती के विकल्प को हटा लीजिए, एएफएसपीए अपने आप खत्म हो जाता है। इसका मतलब यह हुआ कि केवल पुलिस और केन्द्रीय अर्धसैनिक बल ऐसे जिलों ...
कश्मीर में शांति पैकेज की आज हो सकती है घोषणा
खास खबर - 10 घंटे पहलेनई दिल्ली। कश्मीर नें बिग़डते हालात पर सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) की बैठक सोमवार सायं पांच होने वाली है। इसमें कश्मीर के लिए शांति पैकेज और वहां सेना को मिले विशेषाधिकार (एएफपीएसए) में कटौती पर चर्चा होने की संभावना है। उधर, कश्मीर में सेना को मिले विशेषाधिकारों में कटौती के मामले पर फिलहाल रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय में ठनी हुई है। इनमें बदलाव को लेकर रक्षा मंत्रालय और गृह मंत्रालय में मतभेद सामने आ ...
कश्मीर पर मंत्रिमंडल में कोई मतभेद नहीं : एंटनी
खास खबर - १२-०९-२०१०तिरूवनंतपुरम। रक्षा मंत्री ए.के.एंटनी ने रविवार को इन खबरों का खंडन किया कि कश्मीर की हिंसा से निपटने को लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में मतभेद हैं। सोमवार को सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) कश्मीर के लिए शांति पैकेज पर चर्चा करने वाली है। एंटनी ने यहां एक कार्यक्रम के दौरान संवाददाताओं से बातचीत में कहा, ""सोमवार को सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की दिल्ली में बैठक होगी। मंत्रिमंडल में किसी फैसले पर ...
AFSPA पर किसी तरह का मतभेद नहीं- एंटनी
दैनिक भास्कर - १२-०९-२०१०नई दिल्ली. जम्मू कश्मीर में जारी हिंसा के बीच रक्षा मंत्नी ए. के. एंटनी ने सशत्र बल विशेषाधिकार कानून को (AFSPA) लेकर उनके मंत्नालय और केंद्रीय गृह मंत्नालय के बीच किसी प्रकार के मतभेद से आज स्पष्ट इंकार किया। शांतिगिरि आश्रम के एक समारोह के बाद एंटनी ने पत्रकारों से कहा कि सशत्र बल विशेषाधिकार कानून को लेकर कोई गंभीर मतभेद नहीं है। रक्षा मंत्नालय और गृह मंत्नालय के बीच मतभेद को लेकर आई खबरों की ओर ध्यान दिलाये जाने पर ...
कश्मीर मुद्दे पर सोमवार को चर्चा करेगी सीसीएस
हिन्दुस्तान दैनिक - ११-०९-२०१०जम्मू-कश्मीर में जारी हिंसा के बीच सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) में संशोधन और जम्मू-कश्मीर के कुछ जिलों को अशांत क्षेत्र के दायरे से बाहर करने के बारे में संभवत: सोमवार को फैसला करेगी। सरकारी सूत्रों ने बताया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में सोमवार को सीसीएस की बैठक होगी। समझा जाता है कि सरकार घाटी में तीन महीने से चल रही हिंसा को विराम देने के लिए ...
उमर अब्दुल्ला ने की सोनिया गांधी से मुलाकात
एनडीटीवी खबर - 9 घंटे पहलेकेंद्रीय कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक से पहले सोमवार को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की। गौरतलब है कि कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति की बैठक के दौरान जम्मू-कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून :एएफएसपीए: को आंशिक तौर पर हटाने के मुद्दे पर चर्चा की जाएगी। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया और उमर की मुलाकात करीब 15 मिनट तक चली। ...
सीसीएस की सोमवार को बैठक
खास खबर - 13 घंटे पहलेनई दिल्ली। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीएस) की बैठक सोमवार को होने जा रही है। बैठक में कश्मीर के लिए शांति पैकेज पर चर्चा होगी। उधर घाटी में हिंसा का दौर जारी है। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने राज्य के किसी भी हिस्से से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (एएफपीएसए) को हटाए जाने का सख्त विरोध किया है। प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के एक अधिकारी ने रविवार को आईएएनएस को बताया, ""अभी तक सीसीएस की बैठक के बारे में कोई ...
कश्मीर के ईद पैकेज पर चर्चा शनिवार को संभव
That's Hindi - १०-०९-२०१०प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सात रेसकोर्स मार्ग स्थित सरकारी आवास में संपन्न हुई बैठक के बाद चिदंबरम ने संवाददाताओं को बताया, "जी हां, हमने कश्मीर के हालात पर चर्चा की। कल सीसीएस की बैठक हो सकती है।" मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा वरिष्ठ नेता एवं वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी, गृह मंत्री पी.चिदंबरम, रक्षा मंत्री ए.के.एंटनी, जम्मू एवं कश्मीर के प्रभारी कांग्रेस महासचिव पृथ्वीराज चव्हाण और सोनिया गांधी ...
अहम बैठक से पहले सोनिया से मिले उमर
डी-डब्लू वर्ल्ड - 10 घंटे पहलेजम्मू कश्मीर से सशस्त्र सैन्य बल विशेषाधिकार कानून को आंशिक रूप से हटाने के बारे में कैबिनेट की बैठक से पहले मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की. घाटी में पुलिस फायरिंग में तीन घायल. सोनिया गांधी और उमर अब्दुल्लाह की मुलाकात 15 मिनट तक चली. समझा जाता है कि इस बैठक के दौरान राज्य को दिए जाने वाले बहुप्रतीक्षित ईद पैकेज पर बात हुई जिसका मकसद कश्मीर में गतिरोध को तोड़ना है. ...
उमर ने चिदम्बरम, सोनिया से भेंट की
खास खबर - 10 घंटे पहलेनई दिल्ली। जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सोमवार को केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग)अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर उन्हें घाटी के घटनाक्रमों से अवगत कराया। उमर ने यह मुलाकात सुरक्षा मामलों की केन्द्रीय मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) की कश्मीर के हालात पर चर्चा के लिए सोमवार को होने वाली महत्वपूर्ण बैठक से चंद घंटे पूर्व की। नेशनल कांफे्रंस के एक शीर्ष नेता ने ...
भाजपा ने उमर को लापरवाह करार किया
Pressnote.in - 14 घंटे पहलेनई दिल्ली | जम्मू-कश्मीर में लगातार बिगड़ रहे हालात के लिए राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को जिम्मेदार ठहराते हुए भाजपा ने उनको हटाने की मांग की है। पार्टी की आपात बैठक में राज्य की स्थिति की समीक्षा करते हुए उमर को अक्षम, अलोकप्रिय व राज्य के हालात के प्रति लापरवाह करार देते हुए उनकी जगह किसी योग्य नेता को नेतृत्व सौंपने को कहा गया। भाजपा नेतृत्व ने कश्मीर में सुरक्षा बल विशेष अधिकार अधिनियम को नरम करने व सेना को ...
उमर ने कश्मीर पर चिदंबरम, सोनिया से मंत्रणा की
That's Hindi - 4 घंटे पहलेनई दिल्ली। कश्मीर घाटी की बद से बदतर होती स्थिति में जम्मू एवं कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला नई दिल्ली पहुंच कर केंद्रीय नेताओं से गंभीर विचार-विमर्श में लगे हुए हैं। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने सोमवार को केन्द्रीय गृह मंत्री पी. चिदम्बरम से मुलाकात कर आद के बाद कश्मीर में जारी ताजा हिंसा पर बात की। सूत्रों ने बताया कि चिदम्बरम से उमर की बैठक 40 मिनट तक चली। इसके बाद उमर ने संप्रग अध्यक्षा सोनिया ...
एएफएसपीए पर कोई मतभेद नहीं: एंटनी
प्रभात खबर - १२-०९-२०१०तिरूवनंपुरम: सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति की कल होने वाली बैठक से पहले रक्षा मंत्री ए के एंटनी ने आज कहा कि जम्मू कश्मीर में एएफएसपीए पर सीसीएस में कोई मतभेद नहीं हैं लेकिन साथ ही उन्होंने स्वीकार किया कि इस पर विविध विचार हो सकते हैं. शांतिगिरि आश्रम के पास एक समारोह से इतर एंटनी ने संवाददाताओं से कहा ''मंत्रिमंडल में इस विषय कोई गंभीर मतभेद नहीं है. जब हम किसी विषय पर चर्चा करते हैं तो इस पर अलग अलग विचार सामने ...
सेना के अधिकारों में कटौती पर बंटी सरकार
याहू! जागरण - १०-०९-२०१०नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। जम्मू-कश्मीर में सेना के अधिकारों में कुछ कटौती करा अपने लिए सियासी गलियारा तलाश रहे उमर अब्दुल्ला को अपनी अपेक्षाओं से कुछ समझौता करना पड़ सकता है। जम्मू कश्मीर से सशस्त्र सेना विशेष संरक्षण अधिनियम [अफास्पा] में ढील के सवाल पर सरकार और कांग्रेस दोनों बंटी हुई हैं। हालांकि, मौके की नजाकत और सियासी जरूरत के मद्देनजर सरकार जम्मू-कश्मीर को ईद का क्या तोहफा देती है, यह शनिवार को सुरक्षा मामलों की ...
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आज तक - 9 घंटे पहलेकश्मीर में बिगड़े हालात के बीच आज जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दिल्ली में गृह मंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात की. यह मुलाकात करीब आधे घंटे चली जिसमें राज्य की हालत पर चर्चा हुई. गृहमंत्री से मिलने के बाद उमर अब्दुल्ला ने सोनिया गांधी से भी मिले. इस बीच, कश्मीर घाटी में लगातार दूसरे दिन भी कर्फ्यू जारी है. बांदीपुरा में प्रदर्शन को देखते हुए वहां भी कर्फ्यू लगा दिया गया है. श्रीनगर के बाहरी इलाके में एक ...
भाजपा ने उमर को हटाने की मांग की
हिन्दुस्तान दैनिक - १२-०९-२०१०सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडल समिति की सोमवार को होने वाली बैठक से पहले भाजपा ने जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हटाने की मांग की और साथ ही सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून (एएफएसपीए) में किसी तरह के संशोधन के प्रति चेतावनी दी। भाजपा के र्शीष नेताओं ने कहा यह समय है कि उन्हें (उमर अब्दुल्ला को) हटाकर किसी और स्वीकार्य व्यक्ति को बैठाया जाए। एक अलोकप्रिय मुख्यमंत्री अपने लोगों से पूरी तरह कट जाता है। ...
उमर अब्दुल्ला को हटाने की मांग
SamayLive - १२-०९-२०१०भारतीय जनता पार्टी ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को हटाने और केंद्र सरकार से घाटी में सुरक्षा बलों का मनोबल ऊंचा रखने के लिये सशस्त्र बल विशेषधिकार कानून में कोई ढील नही देने की मांग की है। जम्मू कश्मीर के बारे में सुरक्षा मामलों संबंधी मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक की पूर्व संध्या पर रविवार को भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के निवास पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की अहम बैठक हुई जिसमें कश्मीर घाटी में ...
कश्मीर पर सीसीएस बैठक सोमवार को
SamayLive - ११-०९-२०१०कश्मीर घाटी के लिए शांति पैकेज पर चर्चा के लिए होने वाली सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) की बैठक अब सोमवार को होगी। पहले ये बैठक शनिवार को होने वाली थी। कश्मीर मसले पर दिल्ली में शुक्रवार को हुई कांग्रेस कोर कमेटी की बैठक के बाद केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने शुक्रवार को कहा था कि 'सीसीएस की बैठक शनिवार' को होगी। एक सरकारी अधिकारी के मुताबिक, "शनिवार को अवकाश का दिन था। सीसीएस के कई सदस्य जैसे वित्त ...
जम्मू-कश्मीर मुद्दे पर सीसीएस की बैठक
SamayLive - 10 घंटे पहलेकश्मीर घाटी में शांति स्थापना के लिए सुरक्षा मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीएस) की सोमवार को होने वाली बैठक से पहले जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने गृहमंत्री पी चिदंबरम से मुलाकात की। बैठक में जम्मू-कश्मीर सरकार की उस मांग पर भी विचार किया जाएगा, जिसमें आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (एएफएसपीए) को हटाने की बात कही गई है। कश्मीर के कुछ इलाकों से एएफएसपीए खत्म करने के मसले पर रक्षा और गृहमंत्रालय में ...
सोनिया के दामाद को दी करोड़ों एकड़ जमीन'
Source: भास्कर न्यूज | Last Updated 10:44(13/09/10)Comment| Share
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इससे पहले
- सीएम ने वढेरा को दी हजारों एकड़ जमीन : चौटाला
- खतरा पांच हजार लोगों के बेदखल होने का
- पीपल्याहाना चौराहे के पास बनेगा नया आरटीओ
- 20 हजार एकड़ फसल को खतरा!
कैथल. इनेलो के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सीएम ओमप्रकाश चौटाला ने कहा कि कांग्रेस की सरकार किसानों की जमीनों को कौड़ियों के भाव अधिग्रहण करके प्राइवेट कंपनियों को दे रही है। इसकी एवज में कंपनियों से करोड़ों रुपए कमीशन लेकर सरकार के नुमाइंदे मालामाल हो रहे हैं। इनेलो की सरकार आने पर इसकी जांच कराई जाएगी। चौटाला इनेलो के प्रदेश सचिव कैलाश भगत के निवास पर पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि एक तरफ तो कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी बयान दे रही हैं कि किसानों की ऊपजाऊ भूमि का अधिग्रहण नहीं होगा। दूसरी तरफ सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वढेरा को गुड़गांव और फरीदाबाद में हजारों एकड़ जमीन कौड़ियों के भाव दे दी। इस जमीन पर बीपीटीपी कंपनी के बोर्ड लगे हुए हैं। सोनिया गांधी इसी कारण हरियाणा की भूमि अधिग्रहण नीति की प्रशंसा कर रही हैं।
दूसरे राज्यों को भी हरियाणा का अनुशरण करने की सलाह दे रही है। चौटाला ने कहा कि इनेलो के राज में भूमि अधिग्रहण की नीति सबसे अच्छी थी। उस समय किसान की एक एकड़ जमीन बिकती थी, तो दूसरी जगह उसी पैसों में पांच एकड़ जमीन मिल जाती थी, लेकिन आज एक एकड़ जमीन बिकती है तो उसके बदले कुछ नहीं आता। इनेलो के समय में किसान ज्यादा खुशहाल था। उन्होंने कहा कि प्रदेश में जितने भी हुडा के सेक्टर काटे जा रहे हैं, सभी जमीनों का अधिग्रहण इनेलो के समय में हुआ था।
नया सेक्टर नहीं काट
कांग्रेस की सरकार ने प्रदेश में कोई भी नया सेक्टर नहीं काटा। सारी जमीन बड़े कालोनाइजरों को दी जा रही है। चौटाला ने कहा कि देश में सबसे ज्यादा क्राइम हरियाणा में है। आए दिन हत्या और डकैती हो रही हैं। गृह राज्य मंत्री गोपाल कांडा खुद क्राइम कर रहे हैं। बाढ़ ही खेत को खा रही है।
कोई भी तबका प्रदेश में सुरक्षित नहीं है। लेकिन भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को बचाने में लगी है। लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। विधान सभा में उनकी आवाज को दबाया जा रहा है। इस अवसर पर उनके साथ विधायक रामपाल माजरा, फूल सिंह खेड़ी, जिला प्रधान लीला राम, प्रदेश सचिव कैलाश भगत, रणबीर पराशर और युवा जिला प्रधान बलराज नौच उपस्थित रहे।
सोनिया के दामाद को दी करोड़ों एकड़ जमीन'
Source: भास्कर न्यूज | Last Updated 10:44(13/09/10)Comment| Share
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- सीएम ने वढेरा को दी हजारों एकड़ जमीन : चौटाला
- खतरा पांच हजार लोगों के बेदखल होने का
- पीपल्याहाना चौराहे के पास बनेगा नया आरटीओ
- 20 हजार एकड़ फसल को खतरा!
कैथल. इनेलो के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सीएम ओमप्रकाश चौटाला ने कहा कि कांग्रेस की सरकार किसानों की जमीनों को कौड़ियों के भाव अधिग्रहण करके प्राइवेट कंपनियों को दे रही है। इसकी एवज में कंपनियों से करोड़ों रुपए कमीशन लेकर सरकार के नुमाइंदे मालामाल हो रहे हैं। इनेलो की सरकार आने पर इसकी जांच कराई जाएगी। चौटाला इनेलो के प्रदेश सचिव कैलाश भगत के निवास पर पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि एक तरफ तो कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी बयान दे रही हैं कि किसानों की ऊपजाऊ भूमि का अधिग्रहण नहीं होगा। दूसरी तरफ सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वढेरा को गुड़गांव और फरीदाबाद में हजारों एकड़ जमीन कौड़ियों के भाव दे दी। इस जमीन पर बीपीटीपी कंपनी के बोर्ड लगे हुए हैं। सोनिया गांधी इसी कारण हरियाणा की भूमि अधिग्रहण नीति की प्रशंसा कर रही हैं।
दूसरे राज्यों को भी हरियाणा का अनुशरण करने की सलाह दे रही है। चौटाला ने कहा कि इनेलो के राज में भूमि अधिग्रहण की नीति सबसे अच्छी थी। उस समय किसान की एक एकड़ जमीन बिकती थी, तो दूसरी जगह उसी पैसों में पांच एकड़ जमीन मिल जाती थी, लेकिन आज एक एकड़ जमीन बिकती है तो उसके बदले कुछ नहीं आता। इनेलो के समय में किसान ज्यादा खुशहाल था। उन्होंने कहा कि प्रदेश में जितने भी हुडा के सेक्टर काटे जा रहे हैं, सभी जमीनों का अधिग्रहण इनेलो के समय में हुआ था।
नया सेक्टर नहीं काट
कांग्रेस की सरकार ने प्रदेश में कोई भी नया सेक्टर नहीं काटा। सारी जमीन बड़े कालोनाइजरों को दी जा रही है। चौटाला ने कहा कि देश में सबसे ज्यादा क्राइम हरियाणा में है। आए दिन हत्या और डकैती हो रही हैं। गृह राज्य मंत्री गोपाल कांडा खुद क्राइम कर रहे हैं। बाढ़ ही खेत को खा रही है।
कोई भी तबका प्रदेश में सुरक्षित नहीं है। लेकिन भ्रष्ट मंत्रियों और अधिकारियों को बचाने में लगी है। लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। विधान सभा में उनकी आवाज को दबाया जा रहा है। इस अवसर पर उनके साथ विधायक रामपाल माजरा, फूल सिंह खेड़ी, जिला प्रधान लीला राम, प्रदेश सचिव कैलाश भगत, रणबीर पराशर और युवा जिला प्रधान बलराज नौच उपस्थित रहे।
http://www.bhaskar.com/article/HAR-HAR-HIS-cm-given-by-the-thousand-acres-vadera-chautala-1360028.htmlभारत
इस पृष्ठ पर कहानियों का चयन और स्थान-निर्धारण किसी कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा स्वचालित रूप से निर्धारित
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