कांग्रेस और सीपीएम की दोगली औलाद है माओवाद
18 September 2010 8 Comments
♦ व्यालोक
डियर अविनाश जी, सुना है कि आप विरोध की वाणी को भी तरजीह देते हैं। अपनी एक राय भेज रहा हूं : व्यालोक
मैं लिखने से उपराम हो चुका था, लेकिन आलोक तोमर जी की टिप्पणी ने कुछ लिखने पर बाध्य कर ही दिया। उपराम हो गया था, क्योंकि इस देश में बड़ा संकट है। वह संकट है – स्पेस का। आप तभी लिख सकते हैं, जब आप कम्युनिस्ट हों, तथाकथित प्रगतिशील हों और हरेक वक्त नारीवाद का झंडा उठाये रहें (भले ही, निजी जीवन में आप अपनी बीवी के बाल पकड़ कर मार-कुटाई करें, अगणित औरतों से संबंध रखें, लेकिन आपकी कविताओं में ब्रा-बर्नर बालाओं से भी अधिक आग होनी चाहिए)। अपने दक्षिणपंथी भाइयों ने तो ऐसा बंटाधार कर रखा है कि उपहास का पात्र ही बनकर रह गये हैं। उनको कोई गंभीरता से लेता ही नहीं। तो, फिर दिक्कत यही आती है कि आप कुछ लिखेंगे कहां। सवाल यह हो सकता है कि मार्क्सवाद से क्या झमेला है? तो झमेला मार्क्सवाद से नहीं, उसके टुच्चे, अहमकाना और वाहियात भारतीय संस्करण से है। उस पर खैर बात फिर कभी।
अभी, तो फिलहाल बात करें, माओवाद की। आलोकजी ने मुंबई के टपोरी गुंडों वाली बात लिखकर तो उसका वर्तमान बताया है, मैं इतिहास के तौर पर यही जानता हूं कि माओवाद तो मूलभूत तौर पर कांग्रेस और सीपीएम की दोगली औलाद है। यह कोई छिपी बात नहीं कि सीपीएम को कांग्रेस ने हमेशा प्रश्रय दिया और उसके लिए तमाम संस्थान, पुरस्कार बनाये। दोनों ही एक-दूसरे की राह और स्वार्थ पूर्ति में सहायक सिद्ध हुए। पहले प्रधानमंत्री नेहरू के समय से लेकर अब तक यह खेल चलता रहा है। आप आईसीएचआर, आईसीएसएसआर से लेकर ऐसी तमाम बौद्धिक-मानविकी-वैज्ञानिक संस्थाओं को देख लें, वहां आपको सीपीएम के लोग मिल जाएंगे। ये संस्थाएं बनायी गयीं, ताकि इस देश की गरीब जनता के पैसे और खून को चूस कर चंद तथाकतित बौद्धिक अपनी वैचारिक उल्टी कर सकें, कांग्रेस के लिए खाद-पानी इकट्ठा कर सकें और बाकी सारे विचारों और सच को दफन कर सकें।
यह सच अगर जानना है, तो आईसीएचआर की दरो-दीवारों में दफन उन लाखों रुपयों से जानिए, जो आदरणीय, प्रातः स्मरणीय महान इतिहासकार बिपिन चंद्र एंड कंपनी ने दफन कर लिये। चंद्रा को भारतीय इतिहास के प्रोजेक्ट के लिए 20 किताबों का पूरा खंड देना था, बदले में उन्होंने 20 वर्षों में दिया दो किताबों का कचरा। इन माननीयों का पूरा कच्चा-चिट्ठा अरुण शौरी की किताब एमिनेंट हिस्टोरियंस में खुला था, लेकिन उनको दक्षिणपंथी मोहरा बताकर खारिज कर दिया गया। अपराध तो खैर इनके इतने बड़े हैं कि इनको जो भी सजा मिले, कम है, लेकिन आज भी ये मान्यवर बड़े समारोहों में माला पहने घूम रहे हैं। उस अवांतर कथा पर फिर कभी बात।
कांग्रेस और सीपीएम का यह समागम बड़े मजे से तब तक चला, जब तक माओवाद नाम की उनकी औलाद बड़ी होकर बेकाबू नहीं हो गयी। कांग्रेस के पास दरअसल शासन का लंबा अनुभव है। उसके पास तोड़-जोड़ का लंबा इतिहास है। सीपीएम बेचारी यह कर न सकी। बंगाल, केरल और त्रिपुरा में भी उसे कई बार बेदखल होना पड़ा। उसने सोचा कि जो काम कांग्रेस कर रही है, अपने ही विरोध को खुद पैदा करने का, वही वह खुद भी करे। तो, इस तरह नक्सलवाद को तरजीह दी गयी और तत्कालीन कांग्रेसी सरकार को जनविरोधी ठहराया गया।
आज जब माओवाद एक सुलगता हुआ बम बन चुका है, तो कांग्रेस-सीपीएम की समझ में नहीं आ रहा कि किया क्या जाए। यह तो दरअसल उनके ही पापों का अंजाम है, तो फिर अब पछताये होत क्या। रहा, अरुंधतियों का सवाल, तो उनका आखिर बिगड़ना क्या है… उनके घर में एसी तो काम कर ही रहा है। भले ही माओवादी महिलाओं के पैर में चप्पल नहीं और वे बलात्कार झेल रही हों।
[ व्यालोक। जेएनयू से पढ़े युवा पत्रकार।
चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार की दूसरी पारी के अहम हिस्सा रहे।
इन दिनों दैनिक भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण में हैं।
उनसे vyalok@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। ]
बात बिलकुल वैसी है, जैसे कि भस्मासुर.कांग्रेस की गांधी टोपी तो बदल गयी, पर वो चालबाजियां नहीं गयी, ठीक इसी तरह वामपंथी भाइ यह समझते तो हैं की उनकी लाठी टूट गयी है, पर यह भी मानते हैं की उनका बल अभी बाकी है.
मई समझता हूँ उनके सफ़ेद कपड़ों से कली करतूतों को सामने लाना नाको चने चबाने जैसा है.
एक ऐसा आवरण उन्होंने ओढा हुआ है, जो आम आदमी की आँखों में चमक बरकरार रहने देता है, उसे हकीक़त से वास्ता कभी नहीं पड़ता.
रवीश कुमार ♦ बीस से पचीस रुपये की इन सीडी के टाइटल आपको अच्छे न लगें, लेकिन करोड़ों घरों में मौजूद हैं। रेट बोल जवानी के, किस देबू का हो से लेकर धाकड़ छोरा। हरियाणा में लड़के अपने मोबाइल में रागिनी अपलोड कर सुन रहे हैं।
आज मंच ज़्यादा हैं और बोलने वाले कम हैं। यहां हम उन्हें सुनते हैं, जो हमें समाज की सच्चाइयों से परिचय कराते हैं।
अपने समय पर असर डालने वाले उन तमाम लोगों से हमारी गुफ्तगू यहां होती है, जिनसे और मीडिया समूह भी बात करते रहते हैं।
मीडिया से जुड़ी गतिविधियों का कोना। किसी पर कीचड़ उछालने से बेहतर हम मीडिया समूहों को समझने में यक़ीन करते हैं।
नज़रिया »
आभा सिंह ♦ अगर अजय प्रकाश कहता है कि मैंने मृणाल को कुछ नहीं बताया और मृणाल ने झूठ लिखा तो मैं आभा सिंह कहती हूं कि अजय प्रकाश झूठ बोल रहा है। उसे मेरे पति ने जो बताया, वह वही बोल रहा है। अगर उसने सबके सामने कहा है ऐसा, तो मैं कहती हूं कि अगर वह मुझे सबके सामने कभी मिल गया, मंडी हाउस या कहीं भी, तो मैं उसे चप्पल से मारूंगी। अब तक मैं चुप थी। उसने गड़े मुर्दे को फिर से उखाड़ा है। मेरी तकलीफ का अंदाजा किसी को नहीं है। मैं यह दुनिया के सामने कहती हूं कि अजय प्रकाश एक झूठा आदमी है। वह अगर मेरा दुख कम नहीं कर सकता, तो मेरा मजाक उड़ाने वाला वह कौन होता है।
असहमति, नज़रिया »
व्यालोक ♦ माओवाद तो मूलभूत तौर पर कांग्रेस और सीपीएम की दोगली औलाद है। यह कोई छिपी बात नहीं कि सीपीएम को कांग्रेस ने हमेशा प्रश्रय दिया और उसके लिए तमाम संस्थान, पुरस्कार बनाये। दोनों ही एक-दूसरे की राह और स्वार्थ पूर्ति में सहायक सिद्ध हुए। पहले प्रधानमंत्री नेहरू के समय से लेकर अब तक यह खेल चलता रहा है। आप आईसीएचआर, आईसीएसएसआर से लेकर ऐसी तमाम बौद्धिक-मानविकी-वैज्ञानिक संस्थाओं को देख लें, वहां आपको सीपीएम के लोग मिल जाएंगे। ये संस्थाएं बनायी गयीं, ताकि इस देश की गरीब जनता के पैसे और खून को चूस कर चंद तथाकतित बौद्धिक अपनी वैचारिक उल्टी कर सकें, कांग्रेस के लिए खाद-पानी इकट्ठा कर सकें और बाकी सारे विचारों और सच को दफन कर सकें।
नज़रिया »
आलोक तोमर ♦ जो भाई लोग और बहनजियां माओवाद को एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना मान कर अपने आपको भी प्रगतिशील घोषित करना चाहते हैं, उन्हें उनकी गलतफहमियां मुबारक हो, मगर एक बार जंगल में सफल हुए तो आपकी दहलीज तक माओवादी हिंसा को बहुत बेशर्मी से पहुंचने से भी कोई नहीं रोक पाएगा और तब आप विचार और धारणाएं और इतिहास और सिद्धांत से नहीं बल्कि हिंसा के सामने घुटने टेकने से ही बचेंगे। वक्त है, अब भी अपराधियों को पहचानो। सरकार और सरकारें परम भ्रष्ट हैं, मगर वे चुनी ही इसलिए जाती हैं क्योंकि आप घर से वोट देने निकलते नहीं हैं और बाकी वोटों का मैनेजमेंट हो जाता है।
मोहल्ला दिल्ली, विश्वविद्यालय »
अनहद गरजै ♦ जेएनयूं के वीसी बी बी भट्टाचार्या की देखरेख में वर्ल्ड क्लास यूनिवर्सिटी बनाने के नाम पर पिछले पांच साल में जेएनयू में जिस भयानक पैमाने पर चोट्टई और बेईमानी हुई, किसानों मजदूरों की मेहनत की कमाई को जिस तरीके से अनाप-शनाप खुलेआम बरबाद किया गया, उसकी विस्तार से जांच होनी चाहिए। लाइब्रेरी में 'हनुमान फिलासफी' समेत तमाम निरर्थक किताबें किसके आदेश से, क्यों खरीदी गयी? हिसाब दो। जवाब दो। साथियो! यह सब जेएनयू को बरबाद करने की 'परियोजना' के तहत किया जा रहा है। कोर्ट के 'सपोर्ट' से, सरकार की देख-रेख में भट्टाचार्या और उसके लगुए-भगुए, गिद्धों की तरह दिन-रात जेएनयू के 'वेलफेयर' में जुटे हुए हैं।
नज़रिया »
राजकिशोर ♦ जब तक सही खबर न मिले, हम न तो पुलिस की नृशंसता का ठीक-ठीक अनुमान लगा सकते हैं न माओवादियों की गतिविधियों के बारे में जान सकते हैं। सचाई के हक में मेरा निवेदन है कि जैसे दो देशों के बीच युद्ध के दौरान रेड क्रॉस के कार्यकर्ताओं और संवाददाताओं को जान-बूझ कर चोट नहीं पहुंचायी जाती, उसी तरह इस लाल पट्टी में भी संवाददाता जा सकें और प्राप्त सूचनाओं से देश की जनता को अवगत करा सकें, इसकी कोई अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए। मेरा विश्वास है कि सत्य के सामने आने से किसी भी पक्ष का वास्तविक नुकसान नहीं हो सकता। हां, सत्य को छिपाने के लिए उस पर पहरा देने से सभी का नुकसान होने की निश्चित संभावना है।
नज़रिया, विश्वविद्यालय »
संजीव चंदन ♦ विभूति नारायण राय के जमाने में तो दलित-पिछड़ा उत्पीड़न संस्थागत रूप लेता चला गया है। ब्राह्मणवाद बरास्ते भूमिहारवाद मजबूत हुआ है। इनके आते ही दलित लड़कों को आंदोलन पर जाना पड़ा। विभूति तिकड़म कर ही रहे थे कि यूजीसी के डंडे के कारण दलित लड़कों का आंदोलन सफल हुआ। इसके बाद तो दलित-पिछड़ा उत्पीड़न का organised तरीका अपनाया जाने लगा। दलित लड़के, प्राध्यापक कई बार आंदोलन पर गये। यूजीसी के अध्यक्ष थोराट जी से भी जनाब लड़ बैठे। विद्वान दलित प्राध्यापक कारुण्यकारा को बाबा साहब आंबेडकर की पुण्यतिथि पर निकली यात्रा में शामिल होने पर उत्पीड़ित किया गया। दलित उत्पीड़न के आरोपियों को पुरस्कृत किया गया।
नज़रिया »
मृणाल वल्लरी ♦ अविनाश जी, शायद इसमें आपको कोई घिनौनी साजिश नहीं लगे, जिसमें आवेश तिवारी की मानसिकता वाला समाज एक बच्चे को सिर्फ उसके वीर्य देने के साथ आइडेंटीफाई करता है। दरअसल, आवेश तिवारी जैसे तमाम लोगों के लिए माओवाद और नारीवाद एक ट्रॉफी की तरह है। जहां जो सुविधाजनक लगा, अपने कॉलर पर वह तमगा लटका लिया। राजसत्ता का वर्गचरित्र हमारे लिए अलग-अलग नहीं है। सर्वहारा के खिलाफ जो जुल्म है, उससे विवाद नहीं। लेकिन मैं तो यही कह रही हूं कि स्त्री दोहरी मार खाती है। इसी दोहरी मार के खिलाफ आवाज उठाने की बात थी।
नज़रिया, रिपोर्ताज »
आवेश तिवारी ♦ मृणाल तुम राजी चेरो को भी नहीं जानती होगी? भवनाथपुर की ये लड़की कुछ ही दिन पहले ससुराल पहुंची थी, जब जंगल विभाग ने उसके पति को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए पहले मारा-पीटा और फिर जब उससे भी जी नहीं भरा, तो राजी चेरो की दिनदहाड़े इज्जत लूट ली। जब उसका पति बंदूक लेकर जंगलों में कूद गया, तो एक रात उसका घर जला दिया। उसको ये यकीन नहीं होता कि मृणाल किसी औरत का नाम है। तुम्हारी कहानी सुनाने के बाद और भी नहीं होता। मृणाल तुम रोहतास की संध्या, सुनगुन और चंपा से भी बातें करना। उनका प्यार बिना दाना-पानी के पुलिस की गोलियों की जद में ही परवान चढ़ता है।
Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
I agree there is genuinely a great deal of disappointment due to the double standard of Congress and the CPM. Still that doesn't give other parties to do whatever they want.
I agree that there is a genuine anger about the way Congress and CPM have worked for their mutual benefit. But that doesn't give other parties the license to involve in all sorts of wrong practices.
व्यालोक जी, आपके लेख में धुर दक्षिणपंथ की छाप है. वैसे मैं यह नहीं मानता की ज्ञान या विश्लेषण मार्क्सवादियों की चेरी है…पिछले १०० वर्षों में हमें यह सिखाने की लगातार कोशिश की गयी कि अध्ययन का एक ही तरीका सही है और वो है मार्क्सवाद..इसे मैं आधुनिक सोच का पिछडापन ही ज्यादा मानता हूँ….. इस तरह के यूनिवर्सल और टोटेलिटेरियन विचारों ने हमें मानसिक रूप से गुलाम बनाया है…चर्च या धर्म की रूढी से मुक्त कर के हमें मार्क्सवाद की रूढी में फंसा दिया है..इससे निकलने की कोशिश की जानी चाहिए…एक बात कहना चाहूंगा ..अगर अपने कहे को तथ्यों और सन्दर्भों से पुष्ट करते तो पढने वालो पर उपकार होता…
Dear Vyalok Jee,
This is global phenomenon. Superpowers like USA create Osama's and Saddam, and later when they do not know how to tackle them they run haywire. At times Saddam's are killed by their GodFather, at times Osama's create a new world.
With the vote politics an all-season favorite business, Maoists will thrive only as they will not be given basic requirements and others will use them to disturb peace.
Nice article.
Punit
माओवाद की तथाकथित आलोचना में पिछले दिनों आए लेखों को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि मोहल्ला लाइव कोई प्रोत्साहन कार्यक्रम चला रहा है जो बच्चों से बूढ़ों तक को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि आओ माओवाद पर लेख लिखें। महाप्रबुद्ध अखबार के पत्रकार भी सिर्फ अखबार ही अखबार पढ़कर लेख लिख मारते हैं। चंबल से निकला पत्रकार भी ऐसा लेख लिखता है जैसे बीहड़ से रिटायर हुए किसी महाबली ने लिखा हो। और अब ये नमूना। जो एकगली और दोगली में ही उलझ कर रह गया है। एक सवाल यह भी है कि चौथी दुनिया के सारे 'पीस' ऐसे ही 'कड़े' हैं क्या ?
विचारों के सल्फ़ेटीकरण से अब आगे निकलें. मुद्दे नये हैं,युग बदल चुका,और प्रश्न का हल न जाने कित ने पीछे जाकर खोज़ रहे हैं
Awanish jee ko pranam,
Pata hi nahi tha ki aap "SHATAYU" hain. Bagal mai itna din bait kar kam kiye, kuch kah diye ho to kshama kariyega. Hey, SHATAYU mahraj. Khair, vyalok jee ke saath to paki purani khunnas hai, isko blog par lakar "KICHAHIN" mat kariye. SHATAYU mahraj ki jay…..