माओवादी मुंबई के टपोरी गुंडों से अलग से नहीं हैं!
17 September 2010 20 Comments
♦ आलोक तोमर
माओवाद के बहुत सारे आरामतलब प्रशंसक हैं, जिन्हें ये आपराधिक गिरोह एक नयी क्रांति की आहट देता नजर आ रहा है। लगातार लाशें गिर रही हैं, लगातार उस समाज के साथ माओवादी विश्वासघात कर रहे हैं, जिसे बदला हुआ और चमकता हुआ चेहरा देने का उन्होंने वादा किया है। जान पर खेलने वाले वैसे भी अपने आप नायक मान लिये जाते हैं इसलिए माओवादियों को भी नायक मानने वाले पेशेवर बुद्विजीवियों की अपने यहां कोई कमी नहीं है। इन लोगों को कश्मीर के जेहादियों को भी पूजना चाहिए क्योंकि वे भी एक तथाकथित पवित्र धारा के विचार के लिए लड़ रहे है।
एक फैशन सा हो गया है कि जो प्रतिष्ठान के खिलाफ बगावत करे उसे प्रतिष्ठा के मंच पर पहुंचा दो। अपने यहां माओवादियों के साथ भी यही हो रहा है। जैसे चंबल घाटी में कई डाकू गिरोहों को सिर्फ इसलिए आदर का पात्र मान लिया जाता है क्योंकि वे गरीबों को नहीं सताते और औरतों को हाथ नहीं लगाते, माओवादियों को भी एक आयातित विचार को ले कर मैदान में उतरने की वजह से काफी विमर्श का अवसर मिल रहा है।
यह बात अलग है कि जैसे भारत की पुलिस और सरकार और मंत्री और विधायक और सांसद और अफसर और पंच और ग्राम सभाएं पवित्र नहीं हैं और उन पर अनेक कारणों से अनेक संदेह किये जाते हैं, अपने आपको माओवादी कहने वाले अपराधी गिरोह भी चारित्रिक पतन और सिर्फ भारतीय दंड विधान के नहीं अनैतिकता के अपराध के भी दोषी हैं। आदिवासियों को साथ लेकर लड़ने वाले इन माओवादियों ने सबसे ज्यादा कत्ल आदिवासियों के ही किये हैं। भले ही मुखबिर कह कर किये हों या सरकार का एजेंट कह कर। उनकी समानांतर सरकार की अपनी अदालतें हैं, जिनका कोई दंड विधान नहीं है। रही भारत सरकार की बात तो वह भी कम कायर साबित नहीं हुई।
मनमोहन सिंह जब अचानक एक बाबू छाप नेता से प्रधानमंत्री बन गये थे, तो 2004 में उन्होंने पहला बयान यही दिया था कि माओवादी देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं और देश की अखंडता को सबसे बड़ा खतरा उन्हीं से है। यही मनमोहन सिंह आज कल फरमाते हैं कि माओवादी भी हमारे भाई हैं और उनसे बातचीत की जा सकती है। माओवादियों के शुभचिंतक जेल में डाल दिये जाते हैं और उनके मुखबिर गोली से उड़ा दिये जाते हैं तो माओवादियों के इस सरदार भाई के साथ क्या किया जाना चाहिए? यह ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाने वाले सोचें।
अपने देश में और खास तौर पर सिनेमा के जरिये बनायी गयी रूमानी धारणा के तहत वर्दी वालों से एक उद्देश्य ले कर लड़ने वालों को हीरो माना जाता है। माओवादियों के साथ भी समाज का एक वर्ग जिसमें बहुत सारी अरुंधतियां शामिल हैं, यही कर रहा है। किसी गलतफहमी में मत रहिए। रॉबिनहुड के वेश में अपने आपको प्रस्तुत कर रहे माओवादी मुंबई के टपोरी अंडरवर्ल्ड के शूटर्स और वसूलीबाजों से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनके पास सत्ता बदलने का एक फर्जी मुहावरा जरूर है, लेकिन बदली हुई सत्ता में और व्यवस्था में वे क्या तीर मारने वाले हैं इसका कोई विधान उनके पास हो तो भी आज तक सामने नहीं आया।
यहीं पर जरा विकास-विकास खेल लेते हैं। अचानक पिछले एक डेढ़ साल से माओवादी हिंसा को परिभाषा और तर्क देने वाले बुद्विजीवी सरकारी आंकड़ों के जरिये ही कहते हैं कि चूंकि भूमि का वितरण ठीक से नहीं हुआ, वनवासियों और आदिवासियों के अधिकार उन्हें नहीं मिले, उन्हें कोई विकास का अवसर नहीं मिला और जंगलों में जंगल राज चलता रहा इसलिए माओवादियों को परिवर्तन के लिए आना पड़ा। अब यह कौन पूछे कि जंगल राज के बदले माओवादी कौन सा मंगल राज चला रहे हैं? विकास की बात करते हैं और दो हजार स्कूल और ग्यारह सौ से ज्यादा डिस्पेंसरियां उन्होंने तोड़ डाली हैं। हथियार खरीदने से लूट की जो चिल्लर बचती है, उससे छोटी-मोटी गोलियां खरीद कर आदिवासियों में बांटते हैं और उन्हें चिकित्सा शिविर का नाम दे देते हैं। हमारी सरकार जहां आज तक डॉक्टर तो क्या, कंपाउडर तक नहीं पहुंचा पायी, वहां इनका मसीहा बनना लाजमी है।
गरीबी और पिछड़ापन हिंसा के मददगार हो सकते हैं, मगर तर्क नहीं। आधार भी नहीं। कारण तो कतई नहीं। अगर हिंसा से समाज बदलता, तो नक्सलवाद कब का सफल हो चुका होता और कानू सान्याल को अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अपनी सैद्धांतिक असफलता से आहत हो कर और माओवादी गुंडागर्दी को धिक्कार कर फांसी नहीं लगानी पड़ती। माओवादियों ने अगर माओ को पढ़ा होता तो उन्हें पता होता कि माओ ने कानू सान्याल और चारू मजूमदार दोनों से बीजिंग बुला कर कहा था कि अपने देश की परिस्थितियों के हिसाब से समाज बदलने का संघर्ष करना चाहिए। मगर ज्यादातर माओवादी अनपढ़ हैं और जो पढ़े लिखे हैं, उन्हें माओवाद का असली वैचारिक आधार जानने तक नहीं दिया जाता। दलम की कुछ विचार बैठकों और शिविरों में जाने का अवसर मिला है और वहां सिर्फ यही सिखाया जाता है कि जो लाल झंडे के नीचे नहीं है और तिरंगे झंडे का सम्मान करता है, उसे दुश्मन मानो। माओवादी उन एनजीओ की तरह है जो विकास के नाम पर बदलाव के नाम पर देश परदेस से वसूली करते हैं और गिरोह चलाते हैं।
वामपंथी और खास तौर पर भारत की माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान में लिखा है कि महिलाओं को बराबर का दर्जा और अधिकार दिये जाएंगे। महिलाएं माओवादी आंदोलन में कॉमरेड की भूमिका में हथियार ले कर लड़ रही है और उनमें से कई मारी भी गयी है। लेकिन जब इन महिलाओं में से कुछ अपने कमांडरों और साथियों पर यौन शोषण का आरोप लगाती हैं और वह अखबारों में टीवी पर आता है तो इसे फटाफट पूंजीवादी प्रचार कह कर खारिज कर दिया जाता है। सेवा में सविनय निवेदन यह है कि आदर प्रतिष्ठा और गरिमा का उतना ही हक माओवादी दलम में हथियार ले कर घूम रही महिलाओं को है, जितना पुलिस की महिला सिपाहियों को। इसलिए इस पर शील और सिद्धांत के कवच चढ़ा कर बहस नहीं करनी चाहिए।
जो भाई लोग और बहनजियां माओवाद को एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना मान कर अपने आपको भी प्रगतिशील घोषित करना चाहते हैं, उन्हें उनकी गलतफहमियां मुबारक हो, मगर एक बार जंगल में सफल हुए तो आपकी दहलीज तक माओवादी हिंसा को बहुत बेशर्मी से पहुंचने से भी कोई नहीं रोक पाएगा और तब आप विचार और धारणाएं और इतिहास और सिद्धांत से नहीं बल्कि हिंसा के सामने घुटने टेकने से ही बचेंगे। वक्त है, अब भी अपराधियों को पहचानो। सरकार और सरकारें परम भ्रष्ट हैं, मगर वे चुनी ही इसलिए जाती हैं क्योंकि आप घर से वोट देने निकलते नहीं हैं और बाकी वोटों का मैनेजमेंट हो जाता है। माओवादियों से कहा जा रहा है कि वे चुनाव लड़ें। जब उनसे कहा जा रहा है तो भैया पप्पू यादव, शहाबुद्दीन, आनंद मोहन और अंसारी को क्यों रोका जा रहा है? माओवादी अपराधी हैं – संविधान और सरकार से ज्यादा आपके और अगर आपको यह मंजूर नहीं है, तो आपका भविष्य आपको मुबारक हो।
(आलोक तोमर। युवा तेवर वाले वरिष्ठ जुझारू पत्रकार। जनसत्ता से पत्रकारीय फलक का विस्तार। राजनीति से लेकर अंडरवर्ल्ड तक पर उन्होंने कलम चलायी। अटल बिहारी वाजपेयी के लिए उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में भाषण लिखा। प्रभाष जोशी के बेहद अंतरंग रहे। उनसे aloktomar@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
आलोक तोमर के बारे में यदि यह सच्चाई है कि वे अटल बिहारी वाजपेयी के लिए उनके प्रधानमंत्रित्वकाल में भाषण लिखा और प्रभाष जोशी के बेहद अंतरंग रहे तो फिर क्या कहने को रह जाता है.उनकी मति अटल 'सती' भक्ति के मेल में ही न होगी. दक्षिण-विचार पोषक बुद्धिजीवी तो लाजवाब तर्क दे सकते हैं,लगता है,जनसत्ता में तो ऐसे प्रभाषी नगीने ही नगीने भरे हैं!
आलोक तोमर माफिया और पतित सही, मगर उन्होंने जो लिखा है, बात उसी पर क्यों नहीं हो सकती.? आप विरोध में हैं तो बोलिए, मगर संवाद की एक भाषा होती है. उसका ध्यान रखेंगे तो ठीक रहेगा. माओवादियों के भक्त भी क्या मुंह पर नकाब रह कर बात करते हैं? या " वो सलीबों के करीब आये,तो हमको, कायदे कानून समझाने लगे हैं"?
"माओवादी मुंबई के टपोरी गुंडों से अलग से नहीं हैं!"
sarkari bhopuo ko yah bhi pata nahi hai ki sarkari doccuments kya kah rahe hai. agar padana chahe to pad sakte hai, planning commission ki report, samajhna chahoge to samajh jaoge ki janta taporiyo ke sath nahi judti
http://planningcommission.nic.in/reports/publications/rep_dce.pdf
कहने का मतलब यही है के किसी विचारधारा को सपोर्ट करने के अतिरेक उत्साह में हम किसी ऐसी ही एक नयी व्यवस्था को जन्म दे रहे है बजाय इसे बदलने के .इसकी खामियों को दुरस्त करने के
नासमझ, असंवेदनशील और शर्मनाक लेखन…अच्छे पत्रकार के रूप में चर्चा सुनी थी, लेकिन भारत में शायद अच्छे पत्रकार इतने ही भोथरे होते हैं, जितने कि आलोक तोमर!!!!!!!!!!
आलोक सर ,नमस्कार ,इसे आप क्या कहेंगे ?नीचे जनसत्ता में छपी दो ख़बरें हैं जो आपके योद्धाओं में से एक ने लिखी है,ये वही हैं जिनके माध्यम से आपने मेरी ख़बरों के चरित्र को दिखाने कि कोशिश की थी और तमाम वल्लरियों और नामी बेनामी चेहरों के माध्यम से मुझे और मेरी पत्रकारिता को जी भर के गली सुनवाई थी |अब तो आप को ही जवाब देना चाहिए कि बबिता का बलात्कार किसने किया ?माओवादियों ने ,पुलिस के शह पर बुलाये गए गुंडों ने या फिर खुद पुलिस ने |एक तीसरी खबर भी है"बबिता को पेश करने से डरती है पुलिस" जो जेपीजी फॉर्मेट में है ,इसलिए यहाँ नहीं पोस्ट हो पा रही ,उसमे कुछ और कहा गया है |मेरे इस कमेन्ट का मतलब ये कहना बिलकुल नहीं है कि इनमे से कोई खबर गलत है,और न ही मै इसे चूक मानता हूँ (ये मै खुद को अवसरवादी ठहराने और घिनौना कहने वालों के लिए भी कह रहा हूँ ) समय के साथ साथ बदली हुई परिस्थितयों में जो सच्चाई सामने आती है ,पत्रकार का काम होता है उसको ईमानदारी से लिखे |माओवाद को लेकर आपके विचार स्थायी और स्थिर है,और मेरी दृष्टि में ये सही नहीं है वजह सिर्फ ये है कि आपने भी अब गाँवों में ठांव बनाना छोड़ दिया है|
सितम्बर-२०१०
माओवादी महिलाओं की ये हालत!
अंबरीश कुमार / विजय विनीत
जनसत्ता /जनादेश /डेटलाइन इंडिया
इसी तरह माओवादी टीम में शोषण का शिकार हो चुकी एक महिला माओवादी ने मिर्जापुर जेल में एक बच्ची को जन्म दिया था।लोक लाज के भय से उसने बच्ची को पैदा होते ही मार डाला।उस समय मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रोमा भी उसके साथ जेल में थी ।रोमा ने कहा – माओवादी महिला बबिता ने जो बयान दिया है वह माओवादियो के तौर तरीके पर सवाल तो खड़ा करता ही है। जमानत के बाद वह नीलम उर्फ सबिता पन्नूगंज थाना क्षेत्र के औरहवा गांव निवासी है।मई 2006 से वह जेल में है संगठन मे रहते समय ही वह गर्भवती हुई और मिर्जापुर जेल में एक बच्ची पैदा हुई।जिस युवक से संगठन में उसका सम्बन्ध था आज उसका कोई अता पता नहीं ।
सितम्बर -२००७
नक्सली बताकर जेल भेजा फिर किया सामूहिक बलात्कार
-अम्बरीश कुमार
नक्सली बताकर जेल भेजी गयी बबिता से पहले सामूहिक बलात्कार हुआ फ़िर जेल में उसका गर्भपात कराया गया. बलात्कार की शिकार शिवनारायण की 19 साल की बेटी बबिता जब अदालत में आयी तो न्यायिक मजिस्ट्रेट आर. के. मिश्र के सामने अपने आँसू नहीं रोक पाई. सोनभद्र में नक्सलवाद के नाम पर पुलिस प्रशासन ने न सिर्फ़ बेगुनाहों को फंसाया बल्कि फर्जी मुकदमें भी लादे.
रोमा का उदाहरण सामने हैं जिन् राज्य सरकार की पहल के बाद बावजूद जमानत मिलने में कई दिन लग गए. रोमा ने जहां जेल के भीतर के हालात की जानकारी दी, वहीं नक्सली बताकर जेल भेजी गई बबिता ने अदालत में आपबीती बता कर लोगों को हैरान कर दिया. बबिता ने पेशी पर जेल से बाहर आने के बाद 'जनसत्ता' से कहा कि मेरे साथ सामूहिक बलात्कार किया गया तीन ठेकेदारों ने रायपुर थाने की पुलिस के सहयोग से सिल्थम गांव के पास बलात्कार किया था. गौरतलब है कि 'जनसत्ता' में नक्सली बबिता के गर्भपात की खबर प्रकाशित हुई, जिसके बाद प्रशासन लीपापोती में जुटा.
मिर्जापुर के मानवाधिकार कार्यकर्ता शरद शाक्य ने कहा यह 'गंभीर मामला है जिसकी उच्चस्तरीय रात कराई जानी चाहिए. वरना पुलिस फ़िर कोई फर्जी कहानी गढ़ देगी' दूसरी तरफ़ स्थानीय स्तर पर आदिवासियों के लिए काम कर रहे एक कार्यकर्ता ने आशंका जताई कि बबिता का मामला उछलने के बाद उस पर दबाव डालकर पुलिस प्रशासन फ़िर कोई फर्जी बयान तैयार करा सकता है.
बबिता ने अदालत के बाहर साफ़ कहा कि उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया. यह पूछे जाने पर कि क्या पुलिस वाले इसमें शामिल थे. बबिता ने इंकार किया और कहा कि पुलिस वालों ने गलत काम नहीं किया लेकिन थाने के एक नायाब दरोगा के संरक्षण में उसके साथ ठेकेदारों ने बलात्कार किया. मानवाधिकार कार्यकर्ता रोमा ने बताया कि बबिता के नाक और शरीर पर चोट के निशान गैंगरेप व जुर्म की दास्तान स्वयं बयान कर रहे हैं. -जनसत्ता
शर्म शर्म शर्म , जनसत्ता को , आलोक तोमर को , मृणाल वल्लरी को और आप लोगों की साजिशों में शामिल सभी को ! क्यूँ आलोक जी , अब क्या जवाब है आवेश के सवाल का ? हम किस खबर को सही माने ? पिछले दिनों आप लोगों ने आवेश तिवारी के खिलाफ तो जमकर अस्त्र -शस्त्र चलाये , जम कर गेम खेले , अपने अपने पोर्टल्स पर ख़बरें छापी , अब इसका क्या जवाब देंगे जो खबर अखबार में छपी हुई है | जनसत्ता का पतन बहुत पहले ही हो चुका था , इस तरह की पत्रकारिता को देखकर साफ़ लगता है कि अब उसके पत्रकार या तो सरकार की दलाली करते हैं या फिर अलग अलग प्लेटफार्म्स पर लिजलिजे और कुंठाग्रस्त बयान देकर खुद को संतुष्ट करते हैं |
ठीक से पढो .खबर में जो अपने मुंह से कह रहा है वह उसका बयान है .ज्ञान और विचार नही .
न ही पहले किसी जोनल कमांडर से बलात्कार कराया गया और बाद में उसे पुलिस वालो से करा दिया गया हो .
खबर और ज्ञान देने में फर्क करना सीखो .
कुछ लोग पहले माओवादियों को बलात्कारी बताये और फिर उन्ही माओवादियों का पक्ष ले यह अंतर्विरोध ज्ञान का है किसी खबर का नही .
मुलायम सिंह पहले कल्याण सिंह को गाली देते थे फिर गले लगा लिया और फिर उन्हें भगा दिया .उनका बयान जितनी बार बदलेगा उतनी बार खबर बनेगी .इसका अर्थ यह नहीं की पहले की खबर गलत हो जाएगी .
पर पहले कोई माओवादियों का विचारधारा के स्तर पर विरोध करे और फिर राजा का बाजा बन जाए तो जरुर उसकी निष्ठां पर सवाल उठेगा .
"समय के साथ साथ बदली हुई परिस्थितयों में जो सच्चाई सामने आती है ,पत्रकार का काम होता है उसको ईमानदारी से लिखे |"
- और "बदली हुई परिस्थितियों" में "ईमानदारी" से "सच्चाई" का बयान वाले पत्रकार का काम होता है कि "नई सच्चाई" के बरक्स वह "झूठ ठहराई गई सच्चाई" का जिक्र तक न करें, संदर्भ तक न बताए और पत्रकारिता का धर्म निबाहने वाला "ईमानदार" पत्रकार भी बना रहे।
सवाल है कि आवेश जैसे पत्रकारिता के तमाम "तिवारियों" को यह "गरज लगी तो हर-हर गंगे" तभी याद क्यों आता है जब उनके चेहरे से पर्दा उड़ जाता है…
पत्रकारिता के इन आवेश तिवारियों की बात पर भरोसा कीजिए और देखिए कि ये लोग एक बबिता का कितनी बार और किन-किन लोगों से बलात्कार करवाते हैं।
हा बबिता… हा बबिता…
आवेश, तुम्हारे जैसे तमाम "तिवारियों" का काम यही है कि जिस "ईमानदारी" से "पत्रकारिता" करने का दावा करते हो, वही करते रहो, जिस तरह से तुम्हारा "भला" हो रहा होगा, वह जरूर होता रहेगा…
आलोक तोमर ने जो भी कहा उसके जवाब में मैं नक्सल आन्दोलन की एक प्रख्यात टपोरी, जो अपने धुन की पक्की, जिसने अमीरी ज़िन्दगी को लात मार जंगल में आदिवासी के बीच काम किया, की गाथा और उपलब्धि राहुल पन्डिता के लेख को paste कर रहा हूं .आलोक जी ने एक भी कोइ ऐसा काम किया है कि जिससे वो अपनी किये पे गर्व कर सकें.और दुसरे भी उनसे प्रेरित हों
Written By Rahul Pandita
On a muggy April evening in 2008, somewhere in Mumbai, a doctor was trying desperately to get in touch with his patient. The patient happened to be a woman in her early 50s, who had come that morning with high fever. The doctor had advised a few blood tests, and, as he saw the reports, he started making frantic calls to the phone number the patient had scribbled in her nearly illegible handwriting. The number, he soon realised, did not exist. He was restless. The reports indicated the presence of two deadly strains of malaria in the woman's bloodstream—she had to be admitted to a hospital without delay. Time was racing by and there was no trace of her.
By the time the woman contacted the doctor again, a few days had passed. The doctor wanted her placed under intensive care immediately. But it was too late.
The next morning, on April 12, Anuradha Ghandy was dead. She had suffered multiple organ failure, her immune system already weakened by systemic sclerosis, an auto-immune disease responsible for, among other things, her bad handwriting.
The news spread quickly among friends and followers of Anu, as she was fondly called. Before long news had reached Indora, a Dalit basti in Nagpur where Anu had lived for seven years. This was before her name appeared in the Home Ministry dossiers as Janaki alias Narmada alias Varsha – the only woman in the CPI(Maoist)'s Central Committee, the highest decision-making body of the Naxalites.
How did the daughter of a high profile lawyer of Bombay High Court, a graduate of the city's prestigious Elphinstone college, an M.Phil in Sociology, a girl born into privilege, come to choose a life of struggle and hardship in the treacherous jungles of Bastar, a rifle by her side and a tarpaulin sheet for a bedding? The answer perhaps lies in the times she lived in. Or the kind of person she was. Or maybe a bit of both.
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Anuradha was born to Ganesh and Kumud Shanbag, both of them activists, who chose to marry in the office of the Communist Party of India (CPI). As a young boy, Ganesh Shanbag had run away from his home in Coorg to join Subhash Chandra Bose's army, and later, as a lawyer, he would fight the cases of communists arrested in the Telangana struggle. While his briefcase would be full of petitions filed on behalf of the arrested comrades, Kumud would be busy knitting and collecting sweaters to be sent for soldiers fighting war with China.
Anuradha's brother Sunil Shanbag, who is a progressive playwright, recalls her being good at studies as well as extra-curricular activities like dancing. But she was extremely aware of what was happening around her. Says Sunil: "When I was in boarding school, she would send me letters, writing about issues like the nationalisation of banks. And she was only 12 then." But beyond this awareness, Anuradha was like any other girl when she joined college in 1972. "She would come home and straighten her hair with the help of a warm iron as girls would do in those days," recalls Kumud Shanbag.
The early 70s were heady days for the youth. Much was happening all around the world. Mao had ushered in the Cultural Revolution in China. Vietnam was offering fierce resistance to the American forces. Back home, the spring thunder of Naxalbari had erupted. Hundreds of students of elite colleges were giving up their careers and joining the Naxalite movement. Young men from affluent families, who had gone abroad for higher studies, were getting radicalised. One of them was an alumnus of Doon School, and a classmate of Sanjay Gandhi. Kobad Ghandy's father was a top Glaxo executive, and the family lived in a sprawling sea-facing flat in Worli. He had gone to pursue a course in chartered accountancy in England, and it was there that he got initiated in radical politics. Leaving his course unfinished, he returned.
Meanwhile, Anuradha had been working as a lecturer, but she was dedicated to the Progressive Youth Movement (PROYOM), which drew its inspiration from the Naxal movement. Later, she would become one of the torchbearers of the civil liberties movement in Mumbai. It is around this time that Anuradha and Kobad came in touch with each other. It is not clear who inspired whom, but soon both had turned "staunch activists," as one common friends puts it.
The two soon fell in love, and Kumud vividly remembers the day Kobad came visiting their house. "My husband was here on this chair," she points out, "and Kobad came and fell on his knees and said: 'Can I marry your daughter?'"
The two got married in November 1977.
By 1980, Naxal squads from the erstwhile CPI(ML) (People's War) were entering Dandakaranya—a swathe of forest spread across Andhra Pradesh, Chhattisgarh, Maharashtra, and Orissa—to set up a guerrilla base. In 1981, the founder of the People's War, Kondapalli Seetharamaiah expressed his desire to meet Kobad during a conference of the Radical Students' Union in Andhra Pradesh. The People's War was keen to enter the Gadchiroli region of Maharshtra. Naxal ideologue Varvara Rao says the meeting between the two paved the way to the formation of People's War in Maharashtra.
The couple's commitment was total. A year later, Anuradha moved to Nagpur, which has the second largest slum population in Maharashtra, and is also home to a significant number of Dalits (It was in Nagpur in October 1956 that BR Ambedkar accepted Buddhism). She first stayed in a barsati [small, one-room terrace apartment] in the Lakshmi Nagar area. Kumud remembers visiting her there with her husband. "When we saw where she stayed, we couldn't believe our eyes," says Kumud. The roof leaked from many places. And it rained that night. "Our helper was with us who crept under a table and slept there," recalls Kumud.
By 1986, however, Anuradha had shifted to north Nagpur's Indora locality, the epicentre of Dalit politics. She rented two small rooms at the house of a postal department employee, Khushaal Chinchikhede. "There was absolutely nothing in their house except two trunksful of books and a mud pitcher," he says. Anuradha also worked as part-time lecturer in Nagpur University. Later, Kobad would also come to live there. Both would be out till midnight. Anuradha used a rundown cycle to commute, and it was later at the insistence of other activists that Kobad bought a TVS Champ moped.
Indora was notorious for its rowdies. "No taxi or autorickshaw driver would dare venture inside Indora," says Anil Borkar, who grew up in Indora. But Anuradha was unfazed. "She would pass though the basti at midnight, all alone on a cycle," remembers Borkar. He met Anuradha through a friend. "She made me aware of so many things. It was like the whole world opened in front of me," he says.
Because of Anuradha, Devanand Pantavne, a black belt in karate turned into a poet and the lead singer of a radical cultural troupe. Pantavne remembers her as a stickler for deadlines. "She would get very angry if we took up a job and then didn't deliver on time," he says. Another young man, Surendra Gadling was motivated by Anuradha to take up law. Today, he fights cases for various activists and alleged Naxals. "She is my guiding light," he says. It is not without reason. Anuradha led by example, living the life she wanted the basti boys to lead.
In 1994, a Dalit woman, Manorama Kamble, working as a maid in an influential lawyer's house was found dead, with the lawyer's family claiming that she had accidently electrocuted herself to death. But the activists feared that she had been raped and then killed by the lawyer. Anuradha led an agitation, and it was due to her efforts that the case created ripples in the state assembly and in Parliament.
In Indora, one of Anuradha's trusted lieutenants was Biwaji Badke, a 4ft-tall Dalit activist. "Every morning Badke would come to her house and share all news with Anuradha over tea," recall friends. Later, when he was diagnosed with throat cancer, Anuradha brought him to her house and nursed him for months. Another associate, Shoma Sen remembers her being very sensitive to the lives of others. "Her house in Indora was open to everyone. Every time someone would come and one more cup of water would be added to the tea," she says.
Because of her, many others from well-to-do families were inspired to become activists. Says her old friend and associate of her activist days, Susan Abraham: "When I became an activist it was always heartening to see someone from Anu's background working along with you."
It was in the mid 90s that Anuradha joined the Naxal leadership in the jungles of Bastar and finally went underground. Maina, a member of the CPI-Maoist's Special Zone Committee in Dandakaranya, remembers her efforts to mingle with the local Gond tribals: "Many people used to question us about her, saying didi (Anuradha) is not from this country, she does not know our language. Didi would smilingly approach them saying: 'I know what you are asking; please teach me your language; I will learn everything from you.'"
Life in the jungle is very harsh. The guerrillas are always on the move, from one village to another, carrying heavy kitbags. Even there, Anuradha wouldn't shy away from enduring hardships; she did everything that other guerrillas would do. A Naxal leader, who was in Bastar when she first came there, remembers her not sparing herself any of the regular military drill: running, crawling, push-ups, the works. Says Maina, "She would slip and fall many times while walking in the slushy mud, but she would get up and laugh."
In 1999, Anuradha was camping along with other guerillas in Chhattisgarh's Sarkengudem village when the police surrounded them. An encounter ensued. Lahar, a senior guerilla remembers Anuradha taking cover and aiming her gun at the 'enemy'. Later, she would always recollect that incident, urging the youth to learn the skills of guerrilla warfare. But Sunil remembers her speaking about the "awkwardness of carrying a gun."
The hard life of the jungle was not easy on her body—she suffered frequent bouts of malaria. During the same summer, she had been walking for hours one day when she stopped and lost consciousness. Her comrades made her drink glucose water. Apparently, she had suffered a sun-stroke. After she recovered, she refused to hand over her kit-bag to others, says Lahar.
When south Bastar was affected by severe drought in 1998-99, the tribals were forced to eat rice, which, Maina says, "had more stones than grain in it." The same rice was offered to the guerrillas as well, which they would eat with tamarind paste. "Taking one fistful after another and then gulping water in between, she used to take a lot of time to finish her meal," recalls Maina. She also developed ulcers in her stomach. "She would relieve the pain by eating one or two biscuits and a glass of water," she says.
To lessen her load, Anuradha also decided to do away with the heavy blanket guerrillas carry, opting instead for a thin bedsheet. It was during this time that she developed sclerosis.
No matter what the Centre claims, the Naxals often fill in the void created by the government in their areas of influence. In Basaguda in Chhattisgarh, an embankment needed to be built around a tank called Kota Chervu; some ten villages were counting on supplies from this tank. The government had ignored the villagers' pleas for years. It was under Anuradha's guidance that people from 30 villages undertook this work. Those who worked were given a kilogram of rice a day. The government panicked and sanctioned Rs. 20 lakh; it was refused. By 1998, more than a hundred tanks had been constructed by the Naxals in Dandakaranya.
Anuradha also took on the responsibility of crafting learning models to educate women. She regularly took classes on the problems faced by women guerillas, and wrote and translated Naxal propaganda material. She would prepare charts with photos of political leaders and explain world affairs to local illiterates. Sometimes, she would conduct classes on health issues.
Between all this, Anuradha would make secret trips to Mumbai. "She would come, and I would apply oil in her hair and massage her body. I wanted to pamper her as much as I could," says Kumud.
"The most amazing thing was she would always know much more than us about films and other popular culture," says Sunil. During the staging of one of his plays in Mumbai, Anuradha slipped in quietly, watched the play, and left quietly. "I came to know later that she was there," says Sunil.
At the ninth congress of the CPI(Maoist) in 2007, Anuradha was made a member of the central committee. By this time, Kobad had become one of the key Naxal leaders, in charge of party documentation. (He was arrested in Delhi on September 20).
It was on the basis of Anuradha's work that the Naxals prepared the first-ever caste policy paper within the Marxist movement in India. She also drafted papers on 'Marxism and Feminism', of which the top Naxal leadership took note.
During the time spent in Dandakaranya, Anuradha helped the guerrillas overcome the limitations of collective work by making them understand what roles cooperatives could play in increasing agricultural production.
In Bastar, Anuradha raised questions on the patriarchal ideas prevalent in the party. At the time of her death, she had been working with the woman cadre, to devise plans that would help them take greater leadership responsibilities. It was in Jharkhand while taking classes with the tribals on the question of women's oppression that she contracted cerebral malaria, which led to her death.
In her memoirs of Anuradha, her friend Jyoti Punwani wrote: "The 'Naxalite menace', says Manmohan Singh, is the biggest threat to the country. But I remember a girl who was always laughing and who gave up a life rich in every way to change the lives of others."
In Nagpur, I requested Chinchikhede to open the rooms once occupied by Anuradha. All that remained of the old days was a sticker of Bhagat Singh on the door. It was sunset and the sky had turned crimson. A comrade who accompanied me lay on the floor, a floor he was too familiar with. And he recited a poem by Gorakh Pandey:
It's thousands of years old/their anger/thousands of years old/is their bitterness/I am only returning their scattered words/with rhyme and rhythm/ and you fear that/ I am spreading fire.
और भैया क्या गलत लिखा है खबर में यह भी तो बता दो ?
हत्त्यारे और निर्लज्ज माओवादियों के कायर समर्थकों की बाढ़ आनी ही थी… जिन्हें मेरे होने पर शर्म आ रही है उनसे तो खैर क्या संवाद करना मगर जनसत्ता जो कर रहा है अच्छा या बुरा उसका जिम्मेदार मैं कहा से हो गया… मुझे तो 1993 में नौकरी से निकाल दिया गया था… रही बात माओवादियों के सामाजिक चरित्र की और असामाजिक कर्मों की तो अगर सच कहना बगावत है तो मुझे बागी ही मान लीजिए… कुछ लोगों का दावा है कि वो मुझे अच्छा पत्रकार समझते थे और उनका मोहभंग हो गया है… मुझे उनसे सहानुभूति है… आवेश तिवारी जो अपने ही लिखे के विरोधाभासों में फंसकर यहीं काफी गालियां खा चुके हैं, जनसत्ता के अम्बरीश कुमार द्वारा लिखी गई दो खबरें भेजकर क्या साबित करना चाहते हैं… मुझे नहीं पता.. मैं शायद इतनी प्रखर बुद्धि का नहीं हूं… फिर कह रहा हूं कि माओवादी हत्यारे हैं… उनके नायक होने का दावा करने वाले चरित्रहीन हैं… और व्यवस्था बदलने का जो तरीका माओवादी अपनाने का अभिनय कर रहे हैं वह चोरों और डकैतों का तरीका है… अरे जब चीन में माओवाद निपटा दिया गया और फीदेल कास्त्रो जैसे महान क्रांतिकारी माने जाने वाले ठिकाने लग गए… चेगवेवारा को एक पूरी पीढी ने लगभग पूजा मगर उनकी जिन्दगी के विरोधाभास जब सामने आए तो लोग स्तब्ध रह गए… अन्याय के प्रतिकार में बंदूक उठाना समझ में आता है… मगर ये बंदूके किसकी हैं… अन्याय के प्रतिकार में अन्याय करने वालों को मैं क्रांतिकारी मानने इनकार करता हूं… और अकसर छत्तीसगढ़..आंध्रप्रदेश और महाराष्ट्र जाता रहता हूं… इसलिए उनसे डरने का सवाल ही नहीं होता… आखिर में एक बात और कि जिन निष्पाप लड़कियों के साथ हुए अन्याय को लेकर बहस खड़ी की जा रही है उनका अपमान हो रहा है…अगर बहस करनी है तो माओवाद के मूल पर करो जहां एक विराट शून्य के अलावा कुछ नहीं है…माओवादियों ने सबसे ज्यादा आदिवासी मारे है और अगर भारत सरकार और सारी राज्य सरकारें निकम्मी हैं जोकि आमतौर पर वो हैं तो उन्हें उखाड़ फेंको… लोकतंत्र में आस्था नहीं है तो ये उम्मीद करना बेकार है कि आप अगर हथगोले फेंकेंगे तो जवाब में आपको गुलदस्ते मिलेंगे…
आलोक जी आवेश के लिखे गए कमेन्ट को पढ़कर मुझे आपसे ज्यादा आवेश जैसों पर शर्म आती है जो आपको गुरु मानते हैं ,ऐसे लोग होते ही हैं लात खाने के लिए ,आखिर आप भी द्रोणाचार्य जैसे शातिर निकले ,एकलव्य का अंगूठा काट लिया और अपने तथाकथित अर्जुन अम्बरीश को(वो शकुनी टाईप है ) पत्रकारिता का युगपुरुष बनाने में जुड़ गए |आपके लोग उत्तर प्रदेश में माओवाद के विरोध के नाम पर क्या कर रहे हैं इसका पूरा दस्तावेज है मेरे पास |जब कहेंगे प्रस्तुतु कर दूंगा ,हम नहीं जानते इनकी दुकानदारी में आपका कितना हिस्सा है |पत्रकारिता का ये कौन सा चेहरा दिखा रहा "जनसत्ता "और क्या साबित करना चाहते हैं आप |और हाँ एस के सिंह तुम और तुम्हारे जैसे लोग सिर्फ दलाली कर सकते हैं |
wah sanjay bhaiya kya sndesh de rahe ho jiyo ……matalab samay ke sath khabar likne ke maamle me badalte raho ab smjaha gart me kyu ja rahi ahai patrakarita …kyuki aapke jaise kalmchi nishana kabhee belgam parshashan or baigart rajniti nahi hoti balki aapka nishana hota hai, tiwari vali kahabr dubey vali khabar mishra vali khabar or na jane kitne naam diye honge ab tak aapne …sahi hai aap ka dosh nahi balki ye to nazar ka dosh hai …..ki aap aek khabar ko kis nazriye se dekhte ho …khair mai to bhagvan se vinti karunga ki aapko satbudhhi de ki patrkarita ko jati ke aaine na dekhkar patrakarita ke aaine se dekhe !
कुछ लोग सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ भी कर सकतें हैं.
आवेश तिवारी भी उनमें से एक हैं.
पत्रकारिता तो बची नहीं अब करें क्या तो क्या करें जो मिला उसके खिलाफ कुछ भी अनाप सनाप लिख कर अपना समय व्यतीत कर रहे हैं.
अगर शुद्ध भाषा में कहें तो " खिशियानी बिल्ली खम्बा नोचे" यह कहावत इनपे चरितार्थ होती है.
तथाकथित श्यामली जी कुछ भी लिखने से पहले पढ़ लिया करिए क्या लिख रही हैं.
और हाँ अपनी कुंठा कृपया दूसरों पर मत सोपें.
भाषा से ही श्यामली तिवारी उर्फ़ अश्वनी तिवारी आदि की बेबसी ,बेचारगी हताशा झलकती है अभी तो दलाल ,द्रोणाचार्य आदि पर ही है कुछ और आगे बढे
दोनों ही पक्ष यानि माओवादी या उनके विरोधी केवल विरोध की लिए विरोध करते दिखाई दे रहे है .लिखी गयी टिपणिया तो यही जाहिर करते हैं की सभी विद्वान महनुभाव निर्लजता की हद से भी आगे गालियों की भाषा तक उतर आये हैं.शायद सभी हम सभी घरों में बैठकर अपनी विचारधारा अनुसार टिपणिया कर रहे हैं .और जो मोर्चे (और क्या कहूँ )पर जा आये या हैं वे आंख,कान और चेतना शुन्य हो गए लगते हैं.क्यों वे गोलियों,बमों और मानव चीत्कार को सुन नहीं पा रहे .इतने पत्थर हो चुके है दिल की सुविधा अनुसार बलात्कार जेसी घिनोनी हरकतों पर भी स्तरहीन टिप्पणियाँ देखी जा रही हैं की मेरे जेसा निष्पक्ष आदमी जो किसी भी हिंसा का हिमायती नहीं है ,इतना व्येथित होता है कि शब्द ही नहीं . सभीपक्षों के ये विद्वान वकील गर्व पूरक घिनोनी हरकतों के पुलेंदों के साथ सारी हिंसक घटनाओं को जाईज साबित करने में लगे है .क्या कियाजाये .माओवादियों से मुझे पूरी सहानुभूति है और हिसा से सत्तापक्ष के भर्स्ट ,निकम्मे और आचारहीन पदासीनों की सत्ता मद में चूर आंखे दलित शोषित और टूटे हुवे लोगों की और देखने पर मजबूर हो रही है.पर हिंसा किसी सूरत फ़ाइनल समाधान नहीं लगती(Seeing present circumstances , dialog is best solution for final victory.Please give a peace chance) .पहले के हिंसक आंदोलनों से सीख लेते हुवे हमें गांधीजी की विचारधारा की और लोटना ही होगा.यही विजय मार्ग है.हिंसा हमें मोत(चारु मजुमदार ,जंगल संताल,कानू सान्याल और बहुत से अनाम भर्मित देश भक्त ) और देश की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं देगी .
thoda bahar nikaliye aur sach ka samna karna sikhiye janab…desh ke chottte aur gadddar netaon ke lie kaside likhte hue hi aap log achchhe lagte hain …kyo in pachadon me padte hain…dalit aadivasiyon kee ladai to aapko bahar se aayatit lagegi hi …satta ke zarkharid ghulamon aap sab se aur ummid hi kya ki ja sakti hai…jab saval apni mitti ,pani .jangal, samman ka ho jaye to vahan hinsa – ahinsa jyada mayne nhin rakhta …vhan mahatv hai to sangharsh kee aur sirf sangharsh kee…maoist ki nitiyon ki aalochna ho sakti hai ,,lekin aap to chidamram kee zaban bolne lagte hain
बहस काफी लम्बे अरसे से चल रही है और वीभत्स होती जा रही है. सूचना और बुद्धि के अभाव में लोग उल-जलूल, लम्बे और भद्दे कमेन्ट कर रहे हैं, जो निश्चित ही मोहल्ला की छवि को हानि पहुंचा रहा है. बहरहाल, माओवाद या नक्सलवाद को देखने के (आप सभी के परिप्रेक्ष्य में) दो नज़रिये हैं. पहला – अगर आप एक एनालिस्ट के नज़रिये से देखते हैं तो आपको इसका निर्णय करना होता है कि सही क्या है और गलत क्या है? इस दौरान हम सब कभी गलत को सही और सही को गलत ठहराने की जिद में भी आ जाते हैं, जो स्वाभाविक है. लेकिन अगर दूसरे नज़रिये पर गौर करें तो वो एक पत्रकार का होता है, जो एकदम स्वतंत्र होता है और उसकी मजबूरी होती है कि वो सच को ही सच माने/ मनवाए और गलत को गलत.
यहाँ पर बस इन्हीं दो नजरियों के बीच भिडंत होती दिख रही है. आलोक तोमर के लेख से मैं हल्का परेशान ज़रूर हूँ क्योंकि मेरा नजरिया शायद एनालिस्ट वाला है, लेकिन पत्रकारिता के पहलू पर भी गौर करता हूँ तो ये भी मानता हूँ कि आलोक तोमर का कहना स्वाभाविक है. आवेश एक अच्छे पत्रकार हैं, उन्होंने क्या किया… क्या नहीं किया इस पर ध्यान ज़रूर देना चाहिए, लेकिन इसका भी इल्म होना चाहिए कि आवेश तथ्यों के अभाव में नहीं बात करता, आवेश आवेश में बात नहीं करता और उसके पत्रकारिता वाले रवैये को नज़रअंदाज करना गलत होगा. मैं इन लोगों का पैरोकार नहीं हूँ, गलती करने पर मैं भर्त्सना करने, कोसने और सबक सिखाने ज़रूर आऊँगा, लेकिन अभी मुझे इसकी कोई ज़रुरत नहीं लगती. नक्सलवाद को हथियार नहीं ताक़त बनाना चाहिए, मैं भी नक्सलवाद का घोर समर्थक हूँ लेकिन ये बात भी है कि इसको वीभत्स नहीं प्रेरणादायक बनाना होगा क्योंकि ये सर्वविदित है कि ये नक्सलवाद लोगों को कितना बड़े स्तर पर प्रभावित कर रहा है.
इसे कहते हैं सौ सुनार की एक लुहार की ,आलोक जी, बड़ा बुरा फंसाया चेले ने आपको ,अब जवाब देना भी आपको कठिन लग रहा है,आप खुद ही नहीं समझ पा रहे आप क्या कह रहे हैं ?खैर जैसे आप वैसे चेले ,चाहे आवेश हों या अम्बरीश |उस दिन तो आपने अपनी एक टिप्पणी में कहा कि मै नहीं चाहता था छोटा भाई अपमानित हो ,और आज कह रहे हैं कि विरोधाभाषी ख़बरों की वजह से उसने जमकर गालियाँ खायी ,जैसे सभी गालियों को आपने ही प्रायोजित किया हो |खैर किया हो तो भी उसमे कोई बड़ी बात नहीं | आज वीरांगना मृणाल वल्लरी नजर नहीं आई ,शायद कोयलनगर की यात्रा पर निकली हैं |अगर होती तो शायद आज यहाँ का नजारा कुछ और होता नारीवादी संगठनों ,पत्रकारों का आवाहन कर अम्बरीश की निर्लज्जता और घिनौनेपर भी अपने उदगार व्यक्त करती |
@सत्यप्रकाश -बच्चा खुद को sofisticated साबित करने की कोशिश में अंग्रेजी मत पढाओ |