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दो साल पहले 58 की उम्र मैं भी संपादक पद से मुक्त हो गया था। मैने कार्यकारी संपादक पद से अवकाश ग्रहण किया और कभी भी कारपोरेट संपादक नहीं बन पाया। शायद इसके लिए जो समझौते और काइंयापन चाहिए था वह मुझमें नहीं आ पाया। इतने संपादकों के साथ काम किया पर मुझे आज तक कोई संपादक ऐसा नहीं दिखा जिसने अपने सहकर्मियों के साथ मानवीय व्यवहार किया हो। अंग्रेजी में भी जार्ज वर्गीज के अलावा किसी भी अन्य संपादक के बारे में नहीं सुना कि वे अपने अधीनस्थों के साथ तमीज से पेश आते रहे। भले वे आपको दारू साथ बैठ कर पी लें मगर अपना लैपटॉप अपने अधीनस्थ से ही उठवाते थे। और हर वक्त भाई साहब कहलवाना पसंद करते थे। और जो लोग खुद को यूनियनबाज और राजनेताओं का करीबी बताते हैं उनके बारे में भी संपादक कहता था कि वह साला कहां मर गया नौटंकीबाज। नंबर दो पर रहने के यही तो मजे हैं कि आप सबकी पोल जानते हैं। अब फेसबुक पर चाहे जितनी बहादुरी दिखा लो।
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