Friday, August 28, 2015

अपनी बेबसियों का जरा भी अंदाजा नहीं है आपको। आपने लकीरें देख लीं,खाली हाथ नहीं देखे अभी। नागरिक हैं भी और नागरिक नहीं भी हैं आप यकीनन। राशनकार्ड,पैन,आधार,डीएनए प्रोफाइलिंग से लेकर जान माल पहचान तक नहीं है नागरिकता के सबूत। पलाश विश्वास



अपनी बेबसियों का जरा भी अंदाजा नहीं है आपको।
आपने लकीरें देख लीं,खाली हाथ नहीं देखे अभी।
नागरिक हैं भी और नागरिक नहीं भी हैं आप यकीनन।
राशनकार्ड,पैन,आधार,डीएनए प्रोफाइलिंग से लेकर जान माल पहचान तक नहीं है नागरिकता के सबूत।
पलाश विश्वास

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    Komal Gandhar - Wikipedia, the free encyclopedia

    https://en.wikipedia.org/wiki/Komal_Gandhar
    Komal Gandhar (Bengali: কোমল গান্ধার Kōmal Gāndhār), also known as A Soft Note on a Sharp Scale, is a 1961 Bengali film written and directed by noted film ...
    Overview - ‎Cast - ‎Soundtrack - ‎See also

    Komal Gandhar (1961) - IMDb

    www.imdb.com/title/tt0055055/
     Rating: 6.9/10 - ‎147 votes
    Directed by Ritwik Ghatak. With Supriya Choudhury, Abanish Banerjee, Anil Chatterjee, Satindra Bhattacharya. A highly critical look at the role of "progressive" ...

    Komal Gandhar (1961) - Ritwik Ghatak - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=LiPgs6HIdsg
    Feb 22, 2014 - Uploaded by Art House Cinema
    Komal Gandhar, also known as A Soft Note on a Sharp Scale, is a 1961 Bengali film written and directed by ...

    Komal Gandhar The Bengali movie classic - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=1r73UBFrCPA
    Sep 12, 2010 - Uploaded by Entertainment CK Butch
    Komal Gandhar The Bengali movie classic. Entertainment CK Butch. SubscribeSubscribedUnsubscribe 528 ...

    Komal Gandhar review, story, songs, photos, videos

    www.gomolo.com/komal-gandhar-movie/13796
    Check out the latest movie review, trailers, story, plot, music videos, songs, wallpapers, cast and crew details of Komal Gandhar bengali movie on Gomolo.com.

    Komal Gandhar (Ritwik Ghatak) 1961 – Indiancine.ma

    https://indiancine.ma/JYE
    Director: Ritwik Ghatak; Writer: Ritwik Ghatak, Rabindranath Tagore; Producer: Ritwik Ghatak; Cinematographer: Dilip Ranjan Mukhopadhyay; Editor: Ramesh ...

    Komal Gandhar: A Maverick's Dream - DearCinema.com

    dearcinema.com/review/komal-gandhar-a-mavericks-dream/4507
    Nov 19, 2007 - Komal Gandhar is layered with cultural references — urban and folk. Heroes take names from Indian mythology- Bhrigu, Anasuya ; the theatre ...

    KOMAL GANDHAR (Ritwik Ghatak, 1961) | Dennis Grunes

    https://grunes.wordpress.com/2009/.../komal-gandhar-ritwik-ghatak-196...
    Oct 3, 2009 - History as tragic illusion: writer-director Ritwik Ghatak, cinema's Bengali poet of the Partition of India, begins Komal Gandhar, a.k.a. E-Flat, set in ...

    Komal Gandhar/A Soft Note on a Sharp Scale (Ghatak's ...

    www.1947partitionarchive.org/node/724
    From Wikipedia: "Komal Gandhar...also known as A Soft Note on a Sharp Scale, is a 1961 Bengali film written and directed by noted film maker Ritwik Ghatak.

    Komal Gandhar, Cinema, Bengali, Ritwik Ghatak, India, 1961

    www.indiavideo.org/cinema/komal-gandhar-bengali-films-2134.php
    Komal Gandhar known as A Soft Note on a Sharp Scale, a film by Ritwik Ghatak.
समकालीन तीसरी दुनिया का अगस्त अंक मेरे सामने है।
लगता है नये सिरे से सत्तर के दशक में दाखिला हो गया है।

सत्तर के दशक के बाद जनसुनवाई और जनता के मुद्दों पर केंद्रित इतना बेहतरीन अंक कोई देखा नहीं है।

कोहिनूर की तरह अंक निकाला है हमारे बड़े भाई आनंद स्वरुप वर्मा ने।बड़े भाई की तारीफ भी बदतमीजी मानी जायेगी और इस अंक में ऐसा कुछ भी नहीं है,जिस पर अलग से चर्चा न की जा सकें।

बेहतर हो कि हमारे लिखे का कतई भरोसा न करें।

तुरंत जहां मिले,वहीं इस अंक को सहेज लें।
सबसे बेहतर, तुरंत आनंद जी को आजीवन सदस्यता का चेक भेज दें ताकि ऐसे अंकों का सिलसिला बना रहे।रुके नहीं हरगिज।

शायद 1980 की जनवरी में नई दिल्ली में सप्रू हाउस से चाणक्यपुरी सोवियत दूतावास तक अफगानिस्तान में सोवियत हसत्क्षेप के किलाफ लंबा जुलूस निकला था।उर्मिलेश और गोरख और जेएनयू के तमाम साथियों के साथ उस जुलूस में हम शामिल थे।

चलते चलते चप्पल टूट गयी थी।
हम हाथ में लिये चल रहे थे।
किसी साथ ने कहा कि जुलूस में चल रहे हो।
चप्पल झोले में डालो।
उसने कहा कि हम लोग नौटंकी नहीं कर रहे हैं।

काम मांगने प्रकाशन विभाग गया,जहां पंकज दा आजकल में थे।
छूटते ही बोले,दिल्ली आये हो तो पहाड़ भी सात लिये चल रहे हो।
पिर उनने जुलूस में मेरा चेहरा दिखाया।
आंनदस्वरुप वर्मा ने,मेरे बड़े भाई ने समकालीन तीसरी दुनिया के कवर में वह तस्वीर लगायी।

इसीतरह माहेश्वरभाी ने श्रमिक सालिडेरिटी के कवर पर जुलूस में न मेरा चेहरा दाग दिया।

उतना खूबसूरत मेरा चेहरा फिर कभी नहीं हुआ है।
वैसे खासा बदसूरत भी हूं।

वे तमाम लोग मेरा चेहरा चमका देते हैं,जो मेरे दोस्त हैं और जिनसे हमें बेपनाह मुहब्बत हैं।

वे सारे लोग मेरे परिवार में शामिल हैं,जिनसे मेरे खीन का रिश्ता नहीं होता।

आज ही भरे हाट में सोदपुर में लोगं ने गुजरात के बारे में पूछ लिया।देश के कोने कोने से ऐसे ही सावलात से परेशान हूं।

दोस्तों को जो कह सुनाया था,आज भरे बाजार बक गया।गनीमत है कि किसी ने पीटा नहीं है।

मुक्यमंत्री आनंदीबैण पाटीदार और पूर्व मुख्मंत्री केशुभाई पटेल।
कुल डेढ़ करोड़ के करीब हैं पाटीदार गुजारत में।गुजरात की कुल जनसंख्या देखें।उसमें से मुसलमानों को अलग निकाल लें। दलितों,बंजारों और आदिवासियों को निकाल लें।

फिर बताइये कि पाटीदारों को आरक्षण मिलने के बाद गुजरात में किसके हिस्से में क्या बचता है।
यूं समझ लें कि यादवों और कुर्मियों को आरक्षण के बाद दलितों और बाकी पिछड़ों और आदिवासियों के हिस्से में क्या बचता है।

फिर हिसाब लगाइये कि गुरजरों और जाटों को आरक्षण मिलने के बाद उत्तर भारत में किसके हिस्से क्या बचता है।

तदनंतर मांझा महाराष्ट्र,वहींच एकच मराठा को आरक्षण मिल गया तो बाकी लोगों को क्या हासिल होने वाला है सोच लीजिये।

कुल कितनी जातियों को,उस जाति के कितने फीसद लोगों को आरक्षण से कितना लाभ मिला है,इसका भी हिसाब जोड़ लीजिये।

फिर समझिये,सत्ता केसरिया।गुजरात केसरिया।वास्तव गुजरात नरसंहार का और विकास का माडल पीपीपी कारपोरेट।मुख्यमंत्री पाटीदारों का।फायदा पाटीदारों का।तो हार्दिक पटेल को अरविद केजरीवाल कौन बना रहे हैं,बूझ लीजिये।

बाकी हमने खुलेआम बांग्ला में भी लिखना बोलना शुरु कर दिया है कि बांगाल ही असली बंगाली असुरवंशज है और आदिवासी भी हैं।

हम यह भी कह रहे हैं कि यह सरासर गतल प्रतार है कि आरक्षण बाबासाहेब का किया धरा है।
आरक्षण पुणे करार है।
आरक्षण स्वतंत्र मताधिकार का निषेध है।
आरक्षण मनुस्मृति स्थाई बंदोबस्त को जारी रखने का सबसे चाक चौबंद इंतजाम है।क्योंकि आरक्षण सत्ता की चाबी है।आरक्षण रोजगार है।इसीलिए जो वंचित नहीं हैं,उनका आंदोलनसबसे तेज होता जा रहा है आरक्षण के खातिर।जो सिरे से आरक्षण के किलाफ रहे हैं,वे आरक्षण मांग रहे हैं बाबुलंद जाति की पूरी ताकत झोंककर।

धर्म आधारित जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक हैं।अब देर सवेर जाति आधारित जनगणना भी सार्वजनिक होंगे।

धर्म अस्मिता का जलवा देख रहे हैं।
अब जाति अस्मिता का जलवा देखते रहिये।

बाकी सौदागर देश को बेच दें,कत्लेआम मचा दे,किसी को कोई मतलब नहीं।हिंदुत्व के नर्क को मजबूत बनाते रहिए।

यहा स्वर्गवास का सबसे आसान रास्ता है।परमार्थ है।मोक्ष।

इस मामले में बहुत सारे खुलासे आगे भी होते रहेंगे।

अब आनंद तेलतुबड़े का सारा लिखा भी हम हिंदी में परोसते रहेंगे।
जिनकी आंखें अभी बंद हैं,उंगली डालकर उनकी आंखें भी खोलेंगे।

बहरहाल किस्सा यूं है कि आनंद जी हमसे दस साल से कम बड़े न होंगे।शुरु से वे हम नैनीताल वालों के अभिभावक भी हैं।शर्मिंदगी तब होती है,जब मुझसे पहले वे फोन पर नमस्कार दाग देते हैं या फिर दादा कहकर पुकारते हैं।वे हमसे कहीं बहुत ज्यादा मजबूत हैं और हम भरसक उन्हींके रास्ते चलने की कवायद में लगे हैं।

एक बूढ़ा और हैं।वे हैं हमारे पंकजदा।हिंदी वाले उन्हें बेहतरीन उपन्यासकार मानते हैं।हमारी मान लें तो वे किसी आलोचक के मोहताज नहीं हैं।

सिर्फ समयान्तर निकाल रहे होते तो भी उनका महत्व कम नहीं होता।इन दिनों वे खासे अस्वस्थ चल रहे हैं और डाक्टरों के चक्कर भी लगा रहे हैं।

गिरदा की असमय विदाई के बाद मन बहुत कच्चा हो गया है।भीतर से बहुत डरने लगा हूं।जिन लोगों की वजह से मुझे अपने पिता की कमी महसूस नहीं हुई कभी उनकी सेहत के लिए परेशां परेशां भी हूं।

इसीलिएवीरेनदा को कसके पकड़ा हुआ है कि यूं अलविदा कहने न देगें।कि जान से पहले कुछ और बेहतरीन कविताएं दागो पहले और फिर फुरसत में चले भी जाना।16 मी के बाद कविता को जिंदा करो सबसे पहले।वो रणजीत वर्मा हमें कवि कवि नहीं मानेगा।इसलिए हम कविता लिखने का दुस्साहस भी नहीं करते।

चैन की जुगत कोई है नहीं सिवाय इसके कि वे हमारी भी परवाह करें और अपनी सेहत का ख्याल भी रखें।
काफिर हूं सिरे से कि किसी रब के आगे सजदा नहीं कर सकता।
न दुआ मांग सकता हूं न मन्नतें।इबादत का अदब भी नहीं है।

मेरे दिल के वैसे तीन टुकडे़ अभी दिल वालों के शहर दिल्ली में बसे हैं।अमलेंदु को तो मैं आसमान पर बैठाये रहता,इतना बढ़िया काम कर रहा है।उससे बेहतरीन संपादक कोई होही नहीं सकता।

आज के अखबार मालिक न नरेंद्र मोहन हैं और न अतुल माहेश्वरी।जिस राजुल को हम जान रहे थे,सुना है कि वे भी बदल गये हैं।कितने बदलें,नहीं मालूम।

वरना नरेंद्र मोहन जी और अतुलजी मुझसे जुड़ा जानकर भी लोगों को ठीक ठीक पहचान लेते थे।

मेरे हाथ पांव इसतरह कटे नहीं होते तो जिनका भला मैं चाहता हूं खूब ज्यादा,उनकी तकलीफों से इतना लहूलुहान न होता और न मेरा इकलौता बेटा भी बेरोजगार रहा होता।

बाकी दो हैं,रेयाज और अभिषेक।

हमारी रंगबाजी उनमें भी संक्रमित हैं और उनमें अपना रंग देखना बेहद सुहाता है।कई दिनों से बेहद गुस्सा आ रहा है दोनों पर कि सिर्फ अंग्रे जी से अनुवाद करते हैं जबकि हमारे पास अनुवादक और कोई नहीं है।पकड़ में नहीं आते दोनों के दोनों।

दुनियाभर का फीडबैक मारे पास है,हिंदी में अंग्रेजी के अलावा बाकी भाषाओं में भी चलते फिरते प्रेत नहीं है।

1079 में दिल्ली के बड़े बड़े प्रकाशक कहते थे कि भारत में आनंद स्वरुप वर्मा से बड़ा कोई अनुवादक नहीं है।
हमालरे कमजोर अनुवाद पर उनका यह मंतव्य होता था।

बेहद अफसोस की बात है कि रेयाज और अभिषेक की कड़ी मेहनत के बावजूद आज भी आनंदस्वरुप वर्मा से बेहतर कोई अनुवादक नहीं है।

आनंदजी की सबसे अच्छी बात यह है कि फोन पर बात न हो सकी तो मिसकाल पर रिंगबैक हर हाल में करते हैं।एको बार नागा नहीं हुआ।

ये दोनों बदमाश इतने हैं कि अव्वल तो फोन उठाते नहीं है।
रिंगबैक भी नहीं करते ससुरे।

आनंद स्वरुप वर्मा से बड़ा अनुवादक बनने की खुली चुनौती है।
हो कोई माई का लाल तो फौरन हमारी चंडाल फौज से जुड़ने की जुगत लगायें।

हमारे मित्र,सहकर्मी और संपादक शैलेंद्र मुझे अक्सर पंकजदा, वीरेनदा, मंगलेशदा,जगूडी़,राजीव नयन,शेखर,राजीव लोचन, राजीवकुमार के बहाने ताना मारते रहते हैं कि पहाड़वालों की लाबी बेहद जबर्दस्त है।

हम इसका मतलब समझते हैं लेकिन जवाब देना उचित नहीं समझते।वैसे भी शैलेंद्र से दोस्ती बहुत पुरानी है।ताना वाना गाली गलौज से वह दोस्ती टूट नहीं सकती।

केसी पंत,श्यामलाल वर्मा,तिवारी तो बाद में हुए,पिताजी के गोविंद बल्लभ पंत और पीसी जोशी से भी मधुर संबंध थे।
उनने कभी फायदा उठाया हो तो हमपर तोहमत लगा लें बाशौक।

इंदिराजी और अटलजी तक पहुंच थी उनकी।चंद्रशेखर और चरणसिंह के करीबी थे।हमने उनकी दुनिया में दाखिल होने की कभी कोशिश की हो तो बतायें।

पत्रकारिता में मनोहरश्याम जोशी भी थे।तो मृणाल तो शिवानी की बेटी रही हैं और हमें शेक्सपीअर सिखानेवाली दुनिया की सबसे हसीन खातून मिसेज लीलू कुमार की सगी बहन की बेटी,पुष्पेश और मृगेश पंत की बहन,हमने इस लाबी का कभी फायदा उठाया होता तो हम कमसकम शैलेंद्र जी के मातहत पंद्रह सोलह साल से सबएडीटर नहीं होते।

हमें गिला भी नहीं है कि मेरा दोस्त संपादक है और मैं नहीं हूं।
क्योंकि वे मेरे संपादक कम दोस्त बहुत ज्यादा हैं।दोस्त से लड़ तो सकता हूं।कसकर गरिया भी सकता हूंं।लेकिन दोस्त के बदले अपनी तरक्की को सोदा नहीं कर सकता।यह मेरी सोहबत नहीं है।

क्योंकि इसी पहाड़ में हमने जाना है,हिमालय के चप्पे चप्पे पर हमने जाना है कि मुहब्बत आखिर किस चिडिया का नाम है।

बुलबुल के सीने में कांटा चुभा नहो तो बुलबुल के सीने में मुहब्बत भी न हो सकै है और न वो मीठा गा सकै हैं।

दुनिया में जो सबसे ज्यादा तकलीफ में होते हैं,वे ही कर सकते हैं सबसे ज्यादा मुहब्बत।उनकी जिंदगी मुहब्बत होती है।

डिकेंस के सारे उपन्यासों में वही मुहब्बत है।
गोर्की की लिखावट ही बुलबल है।
ह्यूगो के ला मिजरेबल्स की कहानी भी वही है।

दास्तावस्की से लेकर काफ्का तक सबसे पीड़ित,सबसे वंचित लोगों का मुहब्बतनामा है।

लिओन यूरीस के एक्जोडस और मिला 18 के यहूदी हों या फिर पर्ल बक के चीनी,या थामस हार्डी के अंग्रेज देहाती या ताराशंकर बंदोपाध्याय के अछूत,या मंटो और इलियस से लेकर नवारुणदा की दुनिया,मुहब्बत पर मोनोपाली लेकिन वंचितों,उत्पीड़ितों की है।

पूरे हिमालय में,पूरे मध्यपूर्व में,पूरे पूर्वोत्तर भारत,कच्छ के रण और राजस्थान के रेगिस्तान,मध्यभारत समेत देश के आदिवासी भूगोल के वाशिंदों से बेहतर,हम शरणार्तियोंसे बेहतर मुहब्बत कोई कर ही ना सकै है।

क्योंकि जीने के लिए मुहब्बत के सिवाय हमारे पास कुछ नहीं होता है।बाकी खाली हाथ हैं।दिलीपकुमार और बलराज साहनी इसीलिए बड़े कलाकार है।इसीलिए कपूर खानदान बेमिसाल है।

इसीलिए हमेशा सत्यजीत से दो कदम आगे होंगे ऋत्विक घटक।

अपनी बेबसियों का जरा भी अंदाजा नहीं है आपको
आपने लकीरें देख लीं,खाली हाथ नहीं देखे अभी।
नागरिक हैं भी और नागरिक नहीं भी हैं आप।

राशनकार्ड,पैन,आधार,डीएनए प्रोफाइलिंग से लेकर जान माल पहचान तक नहीं है नागरिकता के सबूत।

खाली हाथ नंगा तू आया है
खाली हाथ नंगा तुझे चले जाना है
बे, सोच ले कि जिंदगी मिली है
तो आखिर कहां क्या उखाड़ना है
फिर क्या क्या उखाड़कर गट्ठर बांधकर
कहां ले जाना है,कैसे जाना है

हमारे पुरखे इसीतरह जनमने का बाद नये सिरे से खाली हाथ नंगे हो गये थे।भारत के विभाजन के साथ साथ।

हर दिल में तब उस तमस दौर में,उस पिंजर के दौर में,उस नीम की छांव में,उस आधा गांव में खोये हुए टोबा टेक सिंह की धमक थी।

कंटीली बाड़ से लहुलूहान दिलों के दरम्यान जनमा हूं इसतरह कि सर्पदंश से भी मरना नहीं है,यह सीखकर बड़ा हुआ हूं।

जहरीले सांपों के संग संग बड़ा हुआ हूं और कभी कभी तो सोचता हूं कि उन तमाम जहरीले सांपों  का जहर मिल जाये तो इस मिसाइली, रेडियोएक्टिव, डिजिटल, रोबोटिक मुक्त बाजार को डंस लूं ऐसे कि ससुरा बिन पानी वहीं के वहीं दम तोड़ दें।  

हमारे गांव बसंतीपुर के लोगों ने अमावस्या की रात में हमारे खेतों की मेढ़ों पर चलती फिरती चकाचौंध रोशनी को मणिधारी नागराज समझते थे।

मैंने जिंदगीभर तमन्ना की है कि मैं अपने गांव के लोगों की खातिर,हिंदुस्तान तो क्या इंसानियत की दुनिया के हर गांव के लिए वह मणिधारी सांप बन जाउं और तमाम तांत्रिकों और उनके मठों को डंस लूं।तहस नहस र दूं उनके किलों और तिलिस्मों को।

मैंने देश दुनिया के शरणार्थियों के लिए दिलोदिमाग में बेपनाह मुहब्बत देखी है।वह दिलोदिमाग मेरे बाप का है।
मैं बस उसी दिलोदिमाग का अहसानफरामोश वारिश हूं।
नालायक।

हमने बंगालियों,सिखों,बर्मियों,तिब्बतियों और भूटानियों के रिफ्यूजी कालोनियों के साथ सात दिल्ली में सिख नरसंहार की विधवाओं और फिर सुंदरवन मे बाघों की शिकार विधवाओं के डेरे देखे हैं- ये जो तमाम फिल्मोंवाली मुहब्बतहै,सीरियल और डाराम थिएटर वाली मुहब्बत है,उनकी यूनिवर्सल मुहब्बत के आगे यह मैं मैं तूतू मुहब्बत झूठी है।

सच है कि पहाड़ों से मेरा खून का रिश्ता नहीं है।
सच है कि फिलीस्तीन से मेरे खून का रिश्ता नहीं है।
अप्रीका को अश्वेतों से ,लातिन अमेरिका और यूरोप से भी हमारा रिश्ता नहीं है कोई।जैसे पाकिस्तान और श्रीलंका से भी नहीं।

हमारी मुश्किल यह है कि हम जाने हैं बचपन से कि इंसानियत का डीएनए दुनियाभर में एकच है ,भले नस्लें अलग अलग हैं।

यह भारत विभाजन है जिसने हमें पैदा होते ही मुहब्बत करना और मुहब्बत जीना सिखा गया।

शरणार्थियों के पास इस मुहब्बत के सिवाय कुछ पूंजी तब थी ही नहीं।

उसी मुहब्बत का बेमिसाल करिश्मा है कि देश टुकड़ा टुकड़ा हो जाने के बावजूद अब भी पंजाबी,सिख,सिंधी और बंगाली और काश्मीरी लोग भी बेनाह मुहब्बत की वजह से मौत के बावजूद मुकम्मल जिंदगी जीते रहे हैं जिसमें नफरत के सौदागर जहर के बीज बो रहे हैं।जहर के बीजो से निकल जंगलों के स्मार्टशहरों के हम स्मार्ट वाशिंदा बनते जा रहे हैं।हम दर्सल जी भी नही रहे हैं।

मेरी मुश्किल है कि मुहब्बत का अभ्यस्त हूं मैं दरअसल।

मुझे कहीं भी किसी से भी, कभी भी मुहब्बत हो सकती है।

मेरे दुश्मनों, मुझसे बचकर रहना कि आपसे मेरी मुहब्बत हो गयी तो खैर नहीं है।दुश्मनी से बच निकले भी तो मुहब्बत से बचोगे नहीं।

इसी मुहब्बत का कारनामा है कि अगर  इकलौता भी लड़ना पड़े तो हम मैदान हरगिज न छोड़ेंगे और आखिरी गेंद तक खेलकर आखिरी ओवर में सौ छक्के भी नामुमकिन नामुमकिन लगाने पड़े तो लगायेंगे और फासीवाद के खिलाफ आखेर हम ही जीतेंगे।

यह मेरी औकात का मसला नहीं है हरगिज और न समझें कि बेहद बढ़ चढ़कर बोल रहा हूं।तवारीख देख लें कि हर कहीं,हर बार मुहब्बत की जीत हुई है,नफरत को शिकस्त मिली है और फासीवाद के रास्ते दुनिया फतह करने वालों के तमाम बूत चकनाचूर हैं।

यही अफसाना है आखिर,हर दिल की दास्तां है यही कि कुरबानियां चाहे कितनी हो जायें,दिलों में बसेरा मुहब्बत का ही होता है।हर हाल में मुहबब्त के मुकाबले नफरत को जलकर खाक हो जाना है।

सबकुछ खोकर सबकुछ हासिल करती है मुहब्बत और सबकुछ हासिल करके,सारी दुनिया दखल करके आखिर सबकुछ खोने के अलावा नफरत और जिहाद में किसी को आज तक कुछ हासिल हुआ ही नहीं है।

रब को जो माने हैं,वे भी जाने हैं कि मुहब्बत का मजहब मजहब के रबों से कम पहलवान नहीं होता है।

सच है कि दुनियाभर की काली लड़कियों से मेरे खून का रिश्ता नहीं है न काले लोगों से मेरा कोई रिश्ता है।

उसी तरह सच है कि मणिपुर औक कश्मीर से मेरे खून का कोई रिश्ता नहीं है, न पूर्वोत्तर के दूसरे हिस्सों से।

मैं यकीनन नहीं कह सकता कि आदिवासियों के साथ मेरे खून का रिश्ता है या नहीं।

अब हमारे पास पुख्ता सबूत हैं कि नदियों,जंगलात,दलदल और गीतों के बंगीय बांगाल भी दरअसल असली बंगाली और डीएनए से लेकर खून,पुरातत्व और रुप रंगत नाक नक्श कद काठी,विरासत और इतिहास के हिसाब से,भूगोल के हिसाब से आदिवासी हैं।

लेकिन हमें मुहब्बत किसी से लेकिन कम नहीं है।

हम असुरों के वंशज हैं और महिषासुर का वध करने वाली दुर्गा हमारे लोगों के असुर विनाशक देवी हैं जो मजे की बात है कि पहाड़ की बेटी भी है।हिमालय की बेटी और अनार्य शिव की पत्नी भी।

हमसे बेहतर कोई शायद इस दुनिया में जान ही नहीं सकता कि दुर्गा के पिता उस हिमालय ने असुरों के वंशज हम अछूत बांगाल शरणार्थियों के लिए क्या क्या नहीं किया है।हिमालय की बेटी आखेर असुरों का वध कैसे कर सके हैं जबकि वह अनार्य शिव की खास दुल्हन है और उस हिसाब से उनके बच्चे भी सुर नहीं असुर हैं।

कथा को कथा ही रहने दें तो बेहतर।
मिथक झूठे सच को मिथक ही रहने दें तो बेहतर।
इस रचनाकर्म से हमें कोई खास ऐतराज भी नहीं है।

मिथकों को नरसंहार को जायज ठहराने के लिए मजहब बनाने की जो रघुकुल रीति है,प्राण जायें तो जायें,इंतहा हो गयी जुलुम की,अब
इस रिशाचक्रम धतकरम को धर्म कहने से बाज भी आइये।

मैं यह हरगिज भूल नहीं सकता कि उत्तराखंड के बंगाल के हक में पश्चिम बंगाल कभी खड़ा नहीं हुआ।

यह बंगाल मेरा बंगाल नहीं है और न यह कोलकाता मेरा कोलकाता है।यह फिलहाल पच्चीस साल से मेरा डेरा है,बसेरा नहीं है।
हिमालय का हूं और नहीं भी हूं हिमालय का,जड़ें वहीं हैं।

मैं यह हरगिज भूल नहीं सकता कि  कोई पंडित गोविंद बल्लभ पंत न होते तो वहां अब भी जिम कार्बेट पार्क रहता।

मैं यह हरगिज भूल नहीं सकता कि केसी पंत,तिवारी और पहाड़ के तमाम राजनेता न होते तो उनकी कहीं कभी कोई सुनवाई नहीं होती।

मैं यह हरगिज भूल नहीं सकता कि नैनीताल में मेरे लोकल गार्जियन ढिमरी ब्लाक आंदोलन में पिताजी के साथी हरीश ढौंडियाल रहे हैं।

मैं यह हरगिज भूल नहीं सकता कि मेरे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी न होते तो सीने में यह आग कबके राख हो गयी रहती।

हमारी नागरिकता की लड़ाई में,हमारी जमीन की लड़ाई में,मतलब कि हमारी हर लड़ाई में मैदान पर उतर आया है हिमालय।

महतोष मोड़ में दुर्गा पूजा के पंडाल में जमीन दखल के लिए जब बंगाली रिफ्यूजी महिलाओं से बलात्कार हुआ सामूहिक, मुजफ्फरनगर बलात्कार कांड से पहले तब हिमालय की तमाम वैणियों और इजाओं ने पहाड़ों मे आग सुलगा दी थी।

उस हिमालय की बेटी दुर्गा हामरे पुरखे महिषासुर का वध कैसे कर सके है,यह मिथक हमारे गले में उतरता नहीं है।

क्योंकि असुर होने के बावजूद पहाड़ों में मुझे इतनी मुहब्बत मिली है,जो जिंदगीभर बसंतीपुर से मिला मुहब्बत के बराबर है।
हमने बार बार तौला है और बार बार हिसाब बराबर पाया है।

दरअसल पंकजदा, वीरेनदा, मंगलेशदा, जगूड़ी, गिरदा, शेखर, विपिनचचा,शमशेर दाज्यू,महेंद्र पाल,राजा बहुगुणा,प्रदीप टमटा,हरीश रावत,कपिलेश भोज, बटरोही,शेखर जोशी,शैलेश मटियानी, राजीवलोचन साह,राजीव कुमार,जहूर आलम,उमेश तिवारी,गोविंद राजू,राजेश जोशी बीबीसी,सुंदर लाल बहुगुणा,प्रताप शिखर,कुंवर प्रसूण,धूमसिंह नेगी,गौरा पंत,विमलभाई,कमला राम नौटियाल,उमा भाभी,कमल जोशी,राजीवनयन,शेखर,पवन राकेश,हरुआ दाढी,निर्मल जोशी,निर्मल पांडे,गीता गैरोला,मिसेज अनिल बिष्ट,कैप्टेन एलएम साह,काशी सिंह ऐरी और युगमंच,नैनीताल समाचार, तल्ली मल्ली, नैनीझील,लाला बाजार अल्मोड़ा,सोमेश्वर घाटी, कौसानी, उत्तरकाशी,टिहरी डूब तलक फैली है मेरी मुहब्बत नैनीझील।सविता बाबू भी नैनीझील।

आखेर यही मेरी लाबी है तो यही मेरी जिंदगी है।
बाकी किसा फिर वहींचः

अपनी बेबसियों का जरा भी अंदाजा नहीं है आपको
आपने लकीरे देख लीं,खाली हाथ नहीं देखे अभी
नागरिक हैं भी और नागरिक नहीं भी हैं आप
राशनकार्ड,पैन,आधार,डीएनए प्रोफाइलिंग से लेकर जान माल पहचान तक नहीं है नागरिकता के सबूत

खाली हाथ नंगा तू आया है
खाली हाथ नंगा तुझे चले जाना है
बे, सोच ले कि जिंदगी मिली है
तो आखिर कहां क्या उखाड़ना है
फिर क्या क्या उखाड़कर गट्ठर बांधकर
कहां ले जाना है,कैसे जाना है
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