भारतीय सिनेमा के दूसरे सहगल थे मास्टर मदन
{ मास्टर मदन की प्रतिभा से प्रख्यात कवि मैथलीशरण गुप्त भी काफी प्रभावित हुये और उन्होंने इसका वर्णन अपनी पुस्तक "भारत भारती" में किया है }
सुनील दत्ता
भारतीय संगीत जगत में अपने सुरों से जादू बिखरने वाले और श्रोताओं को मदहोश करने वाले पाश्वर्गायक तो कई हुये और उनका जादू भी उनके सिर चढ़कर बोला, लेकिन कुछ ऐसे गायक भी हुये जो गुमनामी के अँधेरे में खो गये और आज उन्हें कोई याद नही करता। उन्हीं में से एक ऐसी ही प्रतिभा थे " मास्टर मदन"।
28 दिसम्बर 1927 को पंजाब के जालन्धर में जन्मे मास्टर मदन एक बार सुने हुये गानों के लय को बारीकी से पकड़ लेते थे। उनकी संगीत की प्रतिभा से सहगल काफी प्रभावित हुये। उन्होंने मास्टर मदन से पेशकश की। जब भी वह कोलकाता आयें तो उनसे एक बार अवश्य मिलें। मास्टर मदन ने अपना पहला प्रोग्राम महज साढ़े तीन साल की उम्र में धरमपुर में पेश किया। गाने के बोल कुछ इस प्रकार थे "हे शरद नमन करूँ"।कार्यक्रम में मास्टर मदन को सुनने वाले कुछ शास्त्रीय संगीतकार भी उपस्थित थे, जो उनकी संगीत प्रतिभा से काफी प्रभावित हुये और कहा "इस बच्चे की प्रतिभा में जरूर कोई बात है और इसका संगीत ईश्वरीय देन है।"
मास्टर मदन अपने बड़े भाई के साथ कार्यक्रम में हिस्सा लेने जाया करते थे। अपने शहर में हो रहे कार्यक्रम में हिस्सा लेने के एवज में मास्टर मदन को अस्सी रूपये मिला करते थे। जबकि शहर से बाहर हुये कार्यक्रम के लिये उन्हें दो सौ पचास रूपये पारिश्रमिक के रूप में मिलता था।
मास्टर मदन की प्रतिभा से प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त भी काफी प्रभावित हुये और उन्होंने इसका वर्णन अपनी पुस्तक "भारत भारती" में किया है।
मास्टर मदन ने श्रोताओं के बीच अपना अन्तिम कार्यक्रम कलकत्ता में पेश किया था जहाँ उन्होंने "राग बागेश्वरी" गाकर सुनाया। उनकी आवाज के माधुर्य से प्रभावित श्रोताओं ने उनसे एक बार फिर से गाने की गुजारिश की। लगभग दो घंटे तक मास्टर मदन ने अपनी आवाज के जादू से श्रोताओं को मदहोश करते रहे। श्रोताओं के बीच बैठा एक शख्स उनकी आवाज के जादू से इस कदर सम्मोहित हुआ कि उसने उनसे उपहार स्वरूप पाँच रूपये भेंट किया।
कुछ समय बाद मास्टर मदन दिल्ली आ गये जहाँ वह अपनी बड़ी बहन और बहनोई के साथ रहने लगे। उनकी बहन उन्हें पुत्र के समान स्नेह किया करती थीं। दिल्ली में मास्टर मदन दिल्ली रेडियो स्टेशन में अपना संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। शीघ्र ही उनकी प्रसिद्धि फिल्म उद्योग में भी फ़ैल गयी और वह दूसरे सहगल के नाम से मशहूर हो गये। एक बार एक फिल्म निर्माता ने उनके पिता से मास्टर मदन के काम करने की पेशकश भी की लेकिन उनके पिता ने निर्माता की पेशकश को यह कह के ठुकरा दिया कि फिल्म उद्योग में मास्टर मदन के गुणों का सदुपयोग नहीं हो पायेगा। दिल्ली में ही मदन की तबियत प्राय: खराब रहा करती थी। दवाओं से उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो पा रहा था। इसीलिये वह स्वास्थ्य में सुधार के लिये दिल्ली से शिमला आ गये। मगर उनके स्वास्थ्य में कुछ ख़ास असर नही हुआ। महज 15 वर्ष की अल्पायु में 5 जून 1942 को शिमला में मास्टर मदन इस दुनिया से चिर विदा हो लिये। मास्टर मदन ने अपने सम्पूर्ण जीवन में महज आठ गीत रिकॉर्ड कराये थे।
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