Saturday, June 8, 2013

उत्तराखंड में चकबंदी के लिये गरीब क्रान्ति का झंडा जारी

उत्तराखंड में चकबंदी के लिये गरीब क्रान्ति का झंडा जारी

पर्वतीय क्षेत्रों में चकबन्दी के लिये लम्बे समय से उठाई जा रही आवाज कैसे जन-जन तक पहुँचे इसके लिये इसे आन्दोलन का रूप देने के प्रयास किये जा रहे हैं, ताकि जनता इसे अपने विकास के मुख्य मार्ग के रूप में पहचान सके और जनप्रतिनिधिंयों पर इसे मनवाने के लिये दबाव बना सके। इसी क्रम में गरीब क्रान्ति आन्दोलन का ध्वज तैयार किया गया है, जिसके जरिये सब एक आवाज में एक साथ चल सकें। ध्वज की पृष्ठभूमि हरी रखी गई है जो हरियाली यानि समृद्धि का प्रतीक है। किनारे मडुवे की बालियाँ हैं जो पहाड़ की पारम्परिक कृषि को दर्शाती हैं। बीच में रणसिंहा यहाँ की संस्कृति का द्योतक है और युद्ध के लिये मैदान में आने का आह्वान है। जबकि झण्डे पर दिया गया छोटा सा दीपक गणेश सिंह गरीब जी द्वारा जलाई गई उस लौ का प्रतीक है जिससे होकर ही गाँव के विकास का रास्ता जाता है।

पिछले दो वर्षों से चकबन्दी आन्दोलन से जुड़े 30 वर्षीय युवा कपिल डोभाल ने ही 'गरीब क्रान्ति आन्दोलन' का ध्वज तैयार किया है और उनकी दिल्ली से इस आन्दोलन की शुरुवात करने की योजना है। कपिल का मानना है कि राज्य का पहाड़ी क्षेत्र बदले हालात में कैसे आबाद हों, इसके बारे में युवा पीढ़ी भी सोच-समझ रही है। चकबन्दी की मांग दूसरे मंचों से भी बुलंद हो इसके लिए भी काम हो रहा है ताकि युवाओं के हाथ में इस आन्दोलन की कमान हो और वे इसको मनवा सकें। 'गरीब क्रान्ति आन्दोलन' नारा इसकी ही परिणति है। इसका पहला लक्ष्य चकन्बन्दी को मनवाना है ताकि यहाँ की बिखरी भूमि खेती करने लायक बन सके। तदोपरान्त पहाड़ में कृषि के आधार को मजबूत करने के लिये पहल होगी कि कैसे स्वावलम्बन हासिल हो। इसीलिये चकबन्दी के प्रति जनचेतना जगाने व इस विचार को जन-जन तक ले जाने के लिये चकबन्दी नेता गरीब जी के जन्म दिन 1 मार्च 2012 को चकबन्दी दिवस मनाने की पहल की गई थी। इस वर्ष भी देहरादून के गाँधी पार्क व दूसरे स्थानों पर पहाड़ के दर्द को जानने-पहचाने वाले लोगो एवं समाजसेवियों के सहयोग से मनाया गया।

वर्ष 2014 में इसे दिल्ली में 'म्यर उत्तराखण्ड' और 'हिमालयन ड्रीम' के सहयोग से मनाने का निर्णय हुआ है। दिल्ली देश की राजनीति का केन्द्र है व पहाड़ से पलायन करने वाली एक बडी आबादी दिल्ली में बसती है। वह पलायन के दर्द व पहाड की समाप्त होती पहचान के प्रति चिंतित हैं। दिल्ली से उनकी आवाज के साथ और लोगों की आवाज जुड़ कर केन्द्र सरकार व राज्य सरकार को जगा सके यह इसका लक्ष्य है। इसकी तैयारी इस वर्ष नवम्बर माह से आरम्भ कर दी जायेगी।

कपिल डोभाल का मानना है कि मीडिया के माध्यम से एक सीमित दायरे में जनजागरण हो सकता है इसलिए इस आवाज को और बुलंद करने के लिये छोटे-छोटे कस्बों, गाँवों और जिला मुख्यालयों में गोष्ठियों एवं नुक्कड़ नाटकों, ढोल दमाऊ के साथ सड़कों पर भी यह अभियान शुरू करना होगा और स्कूली बच्चों, नौजवानों, बुर्जुगों को भी साथ लेना होगा। चकबन्दी को लेकर 'गरीब (ग्रामीण कृषि क्रान्ति के लिए एकीकृत आधार) क्रान्ति आन्दोलन' की शुरुआत की है। इसे धरातल पर लाने के लिये वे 2 साल से लगे हैं। कभी बसों में पर्चे बाँट कर, कभी पुस्तिकायें बेच कर तो कभी देहरादून के बुद्धिजीवियों, नेताओं के बीच चर्चा कर सोसियल साइट व ब्लॉग बना कर चकबन्दी नारे को आगे बढ़ाने में लगे हैं।

चकबन्दी को लेकर अधिकांश लोग सहमत हैं और लगता है कि सरकार भी कुछ करने जा रही है लेकिन हर बार बात 'ढाक के तीन पात' ही सिद्ध हो रही है। पहाड़ के हालात को देखते हुए अब समय आ गया है कि चकबन्दी को अनिवार्य रूप से लागू किया जाय। वरना एक बार पहाड़ बंजर हुआ तो इसे दोबारा बसाना संभव नहीं रह जायेगा। पहाड़ तभी आबाद हो सकता है जब यहाँ समाज की पाँच मूलभूत आवश्यकता यथा रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा उपलब्ध हों और पहाड़ में रोटी कैसे कमाई जाय यह सबसे बड़ी समस्या है? लेकिन सरकार इस ओर आँखें बंद किये है। खेतों के बँटते चले जाने के कारण पर्वतीय क्षेत्र में कृषि भूमि लगातार बंजर होती चली जा रही है और अनुपयोगी कृषि भूमि होने से लोगों को रोटी के विकल्प हेतु पलायन को मजबूर होना पड़ रहा है। सरकार द्वारा पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों के लिये चलाई जा रही योजनायें महज कागजी सिद्ध हो रही हैं जिन पर अरबों रुपये खर्च करने पर भी लाभ नहीं मिल पा रहा है। गाँवों से ही उत्तराखण्ड की संस्कृति व परम्परायें बची हैं। लेकिन इस चिंतनीय हालत को देखते हुए सरकार इसके समाधान के लिये कोई कारगर पहल नहीं कर रही है।

76 वर्षीय चकबन्दी नेता गणेश सिंह 'गरीब' मानते हैं कि चकबन्दी को लेकर सरकार ने अभी तक प्रारूप बनाने का कार्य भी शुरू नहीं किया है जबकि इसे अब तक बन जाना चाहिये था। यदि पहाड़ को बरबाद ही होना था तो राज्य किसलिये मांगा गया ? पूर्व चकबन्दी अधिकारी कुँवरसिंह भण्डारी का मानना है कि पहाड़ में भी चकबन्दी लागू हो सकती है जबकि इसके लिये प्रारूप बने हैं। सरकार चकबन्दी की बात तो कर रही है मगर प्रारूप पर मौन है। पहाड़ को आबाद करना है तो इसके लिये लोगों को जमीन से जोड़ना ही होगा। यहाँ की जमीन भी सोना उगल सकती है बशर्ते यहाँ पर जमीन एक जगह पर हो।

इस जगजागरण के कार्यक्रम की शुरुआत शीघ्र ही पौड़ी गढ़वाल के सतपुली से की जा रही है। चकबन्दी होती तो- राज्य के लगभग दस लाख परिवारों को ग्रामीण क्षेत्र में ही पूर्ण रूप से स्वरोजगार मिलता। प्रत्येक परिवार अपनी सोच, सुविधा, योग्यता, सामथ्र्य और आवश्यकता के अनुसार योजना बना पाता। वैज्ञानिक तरीके से लाभकारी खेती, बागवानी, पशुपालन वानिकी आदि का कार्य होता। अनुसूचित जाति-जनजाति के भूमिहीनों को भी भू-स्वामित्व का अधिकार मिल जाता। कृषि उत्पादन में लगभग दस से पन्द्रह गुना वृद्धि होती और किसान की क्रय शक्ति बढ़ती। भूमि व जल संरक्षण तथा पर्यावरण व विकास कार्याें में जनता की स्वैच्छिक भागीदारी सुनिश्चित होती। गाँव व खेती के प्रति रुचि बढ़ती और पलायन की प्रवृत्ति घटती। मूल निवास, मूल व्यवसाय, मूल भाषा तथा हमारी पहचान व हैसियत की सुरक्षा होती। घरेलू कुटीर उद्योगों तथा कृषि विपणन और कृषि के प्रति रुचि बढ़ती। स्वीकृत बजट का सदुपयोग होता और गरीबी, महंगाई व भ्रष्टाचार पर अंकुश लगता। महिलाओं के ऊपर से काम का बोझ कम होता तथा उनकी आय व स्वावलम्बन में वृद्धि होती। भाई बंटवारे-संटवारे, क्रय-विक्रय संजायती खाते सम्बन्धी भूमि विवाद समाप्त होते। कठिन ग्रामीण जीवन आसान होता और शहरों की भीड़ भी कम होती। हमारा अपना कृषि पैटर्न तैयार होता। गाँव में रहने से शुद्ध ताजा व पौष्टिक जैविक आहार खाने को मिलता। ग्रामीण युवाओं को सही दिशा मिलती और बच्चों के घर से न भागने से बाल मजदूरी समाप्त होती। सार्थक विकास के लिये तब चिंतन-मनन होता। गाँवों की जनशक्ति बढ़ती और जनसंख्या के अनुसार परिसीमन की समस्या सुलझती। हमारे लोक संस्कार, संस्कृति, बोली-भाषा, रिश्ते- नाते तथा गाँव व खेती सुरक्षित रहती। हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी व हर खेत को पानी मिलता। पहाड़ का किसान अपनी 1 हैक्टेयर भूमि में लाखों रुपयों का उत्पादन करता। कृषि और ग्रामीण विकास के नाम पर प्रति वर्ष अरबों रुपये की बरबादी न होती। खेत सरसब्ज होते घर आबाद होते और युवा काम काज में होते। जंगली जानवरों द्वारा जान-माल की भारी क्षति न होती। पहाड़ का किसान भी कृषि अनुदान व आधुनिक तकनीक का लाभ उठाता। समाज में आशा, उत्साह व विश्वास का वातावरण बनता और राज्य खुशहाल होता। काश्तकार, शिल्पकार एवं दस्तकार अपना पुश्तैनी कार्य छोड़कर दर-दर न भटकता। पहाड़ी राज्य की मूल आत्मा जिन्दा रहती और अपनी पहचान व सम्मान की रक्षा होती। उत्तराखण्ड आन्दोलन और पृथक पहाड़ी राज्य का सपना वास्तव में साकार होता

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