Thursday, 04 April 2013 10:05 |
उदित राज आए दिन अखबारों में ऐसी भी खबरें आती हैं जो बताती हैं कि झूठे आरोप में कई पुरुष जेल में पड़े हैं। मायापुरी बलात्कार मामले में निरंजन कुमार मंडल बरी तो हो गए हैं, लेकिन गुनहगार की भांति जी रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए हैं कि जिस तरह से मीडिया ने उनकी गिरफ्तारी और उनके दोषी होने की खबर दिखाई, निर्दोष होने की खबर क्यों नहीं दी? लड़के-लड़कियां प्रेम करते हैं और भाग कर शादी कर लेते हैं। कुछ दिन बाद घर वाले बहला-फुसला कर बुला लेते हैं। लड़की के घर वाले धीरे-धीरे उसे प्रभावित करकहलवा देते हैं कि उसके साथ बलात्कार हुआ है। ऐसे कई मामले हैं और निर्दोष लड़के जेल में पड़े हैं। इस तरह की भी बहुत-सी घटनाएं सामने आर्इं कि दोनों सहमति से शारीरिक संबंध बनाते हैं लेकिन बात बिगड़ जाती है या भंडाफोड़ हो जाता है तो जबर्दस्ती करने का आरोप लगा दिया जाता है। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद स्त्रियों की स्थिति में प्रगति हुई है। उनमें भी आजादी, भावनाएं, संवेदनाएं जगी हैं तो वे भी कुछ हद तक वैसा ही व्यवहार कर सकती हैं जैसा पुरुष करते हैं। और क्यों न करें! अगर सारे पुरुष अनुशासित नहीं हैं तो सारी औरतों से ऐसी उम्मीद क्यों की जाती है? ऐसे में क्या इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि नए कानून का गलत इस्तेमाल नहीं होगा? इसलिए बिना सबूत के कार्रवाई नहीं होनी चाहिए। इससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है सोच में बदलाव के लिए संघर्ष किया जाए। बलात्कार या बदसलूकी की शिकायत सही पाई जाए तो कितनी भी कड़ी सजा दी जाए, शायद ही किसी को एतराज होगा। न तो हम रूढ़िवादी समाज में रह रहे हैं और न ही पूरी तरह शिक्षित और आधुनिक समाज में। इसवजह से भी महिलाओं का शोषण और उत्पीड़न हो रहा है। रूढ़िवादी समाज में भावनाओं के दमन और ईश्वर के डर की वजह से लोग संयमित रहते हैं, लेकिन संक्रमणकाल के समाज में स्थिति बदल जाती है। हमारा समाज इसी दौर से गुजर रहा है। एक समाज वह भी है, जहां दोषी ठहराए गए व्यक्ति को पत्थर से मार-मार कर मार दिया जाता है या गोली से उड़ा दिया जाता है। इसलिए ऐसी वारदातें वहां पर नहीं होतीं या बहुत कम होती हैं। लेकिन यह भी जान लेना चाहिए कि वहां जनतंत्र नहीं है। जो समाज मुकम्मल आधुनिक हो चुका है वहां पर भी ऐसी समस्या कम है। वहां पर खुलेपन की वजह से आवश्यकता और उसकी पूर्ति भी उपलब्ध हो जाती है। अतीत को हम सनातनी और आदर्श समाज मानते हैं, लेकिन उसमें सेक्स-वर्क (वेश्यावृत्ति) को सामाजिक मान्यता मिली हुई थी। प्रत्येक पचीस-पचास गांवों के मध्य में एक गांव 'सेक्स-वर्करों' का भी हुआ करता था और लोग जाकर अपनी इच्छा-पूर्ति कर लेते थे। इस उपलब्धता की वजह से कम से कम परिवार और रिश्तेदारों के साथ ये कुकृत्य तो कम करते थे। कड़े कानून की भी सीमा वहां हो जाती है, जहां पर घर के भीतर या रिश्तेदारों के साथ छेड़छाड़ और शोषण की घटनाएं होती हैं। यह कटु सत्य है कि तमाम लोग यहां पर सेक्स की भूख से गुजर रहे हैं और वहशी मानसिकता के भी हैं, जिसकी वजह से जब पागलपन छाता है तो अपना-पराया कुछ नहीं दिखता। मध्यवर्ग या जिनकी आर्थिक क्षमता है वे ज्यादातर उन्हीं देशों में जाते हैं, जहां पर नाइट लाइफ और फ्री सेक्स है, लेकिन इस सच्चाई को हम दोहरे चरित्र वाले आसानी से स्वीकार नहीं करेंगे। हम अपनी कमियां यह कह कर छिपाते हैं कि ऐसा तो विकसित देशों में भी होता है। मगर हमारा समाज सभ्यता के मामले में यूरोप और अमेरिका से कम से कम पांच सौ वर्ष पीछे चल रहा है। सोच का संबंध सभ्यता से है। राजनीतिक लोग वोट के लालच में सोच बदलने की लड़ाई नहीं लड़ेंगे, जबकि उनके अंदर इस काम को करने की इच्छा होती है। हमारे पुरातनी और पाखंडी समाज में बदलाव सरकार और राजनीतिकों की वजह से न के बराबर हुआ है। http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/41809-2013-04-04-04-38-25 |
Thursday, April 4, 2013
कड़े कानून संकीर्ण सोच
कड़े कानून संकीर्ण सोच
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment