Saturday, June 23, 2012

न जमीन मिली और न मुआवजा, मर गये दीदी के फेर में

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न जमीन मिली और न मुआवजा, मर गये दीदी के फेर में

न जमीन मिली और न मुआवजा, मर गये दीदी के फेर में

By  | June 23, 2012 at 5:00 pm | No comments | राज दरबार

अमित पांडेय

कल ही कोलकाता उच्च न्यायालय का वो फैसला आ गया जिसका बड़ी बेसब्री से सभी को इंतजार था। कृषक से लेकर वेंडर और इधर सत्ता से लेकर प्रतिपक्ष तक. सबके अपने दावे पर माननीय उच्च न्यायालय  के फैसले ने दीदी की दीदीगिरी को भयंकर चुनौती दे दी या यूं कहे कि जबरदस्त झटका दिया. वैसे दीदी को आजकल इन झटको से कुछ खास फर्क भी नहीं क्योंकि वे लगातार झटके ही झेल रही हैं.
2007 में दीदी, सिंगूर आन्दोलन से ही लोगो के जनमानस में बतौर मुख्यमंत्री अपनी जगह बना पाने में कामयाब हुई तथा अपने चुनावी घोषणापत्र में उन्होंने वायदा किया था कि उनकी सरकार आते ही अनिच्छुक कृषकों की ज़मीन वापस कर दी जायेगी लेकिन कानून की अपनी पेचीदगी है अगर ये पेचीदगी न रही होती तो शायद बात इतने आगे न बढ़ती. ममता के सरकार में आते ही कृषकों ने अपनी मांग शुरू कर दी. पर फंस वे गये, जिन्होंने जमीन अपनी स्वेच्छा से दिया था चाहे वे वामपंथी कर्मी हो या सामान्य नागरिक. चूंकि ये मुद्दा बड़ा ही संवेदनशील है. समझा जाता है कि दीदी नहीं चाहती थीं कि कोई तूल पकड़े सो बची हुई या स्वैच्छिक जमीन पर रेल प्रकल्प का शिलान्यास कर उन्होंने किसानों को मनाने का प्रयास किया पर स्नायू तंत्रो पर दबाब बढ़ता रहा।
बंगाल में जब भूमि सूधार लागू हुआ तो एक कानून बना था जिसे 1980 लैंड एक्वजिसन एक्ट के नाम से जाना जाता है इसमें केंद्र सरकार की भी रजामंदी रही. इस एक्ट में कहा गया कि सरकार किसी जमीन का अधिग्रहण कर सकती है पर उसको बेच नहीं सकती। दूसरे वो अधिग्रहण वाम के लाभ या भलाई के लिये होनी चाहिये। तीसरे सरकार को ऐसा कोई भी अधिकार नही दिया जा रहा जिससे कि वो किसी का भी जमीन लेले और किसी को सौंप दे। सरकार जब भी जमीन का अधिग्रहण करेगी तो अपने प्रकल्पो के लिये करेगी किसी निजी इकाई या संस्था के लिये नहीं. बस यही वो जगह है जहां वामपंथी फंस गये क्योंकि बंगाल में भूमि सुधार के समय कामरेड ज्योति बसु  ने बरगा संस्कार को जन्म दे दिया. ये बरगा मालिक और चासी के बीच की कड़ी होते थे। जब टाटा मोटर्स ने मुआवजा देना शुरू किया तो एक ही जमीन के तीन मालिक हो गये. विक्षोभ का जन्म वहीं हो गया क्योंकि एक जमीन का तीन दाम कौन देगा?
ममता दीदी के लिये उन्हें पक्ष में करना आसान था क्योंकि सभी को अपनी ज़मीन का दाम चाहिये था. चासी को, बरगा को और जमीनदार को. अधिकारो के आधार पर तो जमीन की कीमत मालिक की होती है पर कब्जा उसके पास नहीं इस तर्क पर उसे कुछ नहीं मिला सो वो अदालत चला गया. दीदी ने तीन दिसम्बर से भयंकर अनशन छेड़ा जो 25 दिनो तक चला और बंगाल दादामय से दीदीमय होने लगा पर राह आसान नहीं थी। अब दीदी को कानून बनाना था अपने रेल प्रकल्प के लिये, पर अधिग्रहण तो फिर भी जरूरी है। आनन-फानन में दीदी ने "सिंगूर भूमि पूर्नवास एवंम विकास अधिनियम 2011″ कानून बनाया पर उच्च न्यायालय उससे सहमत नहीं. न्यायालय ने कहा कि ये कानून असंवैधानिक और अमान्य है क्योंकि
1. ये कानून केंद्रीय कानून का उल्लघंन कर रहा  है,

2. ये कानून धारा 254 का भी उल्लघंन है,

3. इस कानून को राष्ट्रपति से अनुमोदन नहीं मिला है,

4. अधिग्रहित जमीन को पब्लिक इंटरेस्ट के नाम पर जमींदाताओ को वापस नहीं किया जा सकता,

5. राज्य द्वारा पारित इस कानून में कहीं भी उद्योगपतियों की क्षति पूर्ति की बात नहीं कही गयी।
अब जाहिर सी बात है, दीदी जानती हैं कि कांग्रेस सरकार तो कभी उन्हें किसी उद्योगपति का विरोध करने वाले कानून बनाने नहीं देगी. दीदी वामपंथियो की तरह राज्य का अधिकार और दायरा बढ़ाओ जैसे मुद्दे पर संघर्ष करती नजर आ रही है.  इधर प्रणव मुखर्जी भी दीदी को समझाने के बहाने हड़काने के लिये पहुँच गये हैं पर मौत तो बेचारे किसान की ही होनी है न जमीन मिली और न मुआवजा, भेंट चढ़ गये दो दलों की सियासी लड़ाई में।
जयहिन्द

अमित पाण्डेय, लेखक कोलकाता स्थित स्वतंत्र पत्रकार व हस्तक्षेप.कॉम के सहयोगी हैं,

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