স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে!
Sunday, May 20, 2018
স্মৃতিটুকু থাক্,ফিরে যাচ্ছি উদ্বাস্তু উপনিবেশে স্বজনদের কাছে হিমালয়ের কোলে! পলাশ বিশ্বাস
भारत के कुलीन वाम नेतत्व को उखाड़ फेंकना सबसे जरूरी पलाश विश्वास
Saturday, May 19, 2018
मेरा जन्मदिन कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है। पलाश विश्वास
उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते।
आदिवासियों का व्यापक भगवाकरण सबसे ज्यादा खतरनाक है
Friday, May 18, 2018
मुक्तबाजार का विकल्प मनुस्मृति राज है और अरबपतियों की सत्ता का तख्ता पलटने के लिए चुनावी राजनीति फेल है
मरे हुए वाम को जिंदा सक्रिय किये बिना,बहुजना आवाम को बदलाव के लिए लामबंद किये बिना अब बदलाव असंभव!
अल्मोड़ा में पानी का एटीएम? हिमालयक्षेत्र की जनता को धीमे जहर से मारा जा रहा है! पलाश विश्वास
पहाड़ में पैसे नही, पानी ATM से पीजिए
दोस्तों आज मैं उत्तराखंड के प्रसिद्ध साहित्यिक शहर अल्मोड़ा में हूँ । वह भी दिन थे जब यहा कभी प्याऊँ लगती थी । केमू स्टेशन के पास और बाल मिठाई के विक्रेता खेम सिंह मोहन सिंह की दुकान के पास , लाला बाजार में तथा शहर से गांव के आने जाने वाले प्रत्येक रास्ते पर बड़े-बड़े मटको में पानी भरकर लोगों को निशुल्क पानी पिलाया जाता था । मैंने देखे थे वह दिन भी । और देख रहा हूं आज का यह दिन भी जब अल्मोड़ा में पानी ATM से रुपए देकर पीने को मजबूर हो रहे है । क्या यह हमारी तरक्की है या विकास का यह आईना जो हमें हमारे भविष्य की ओर खतरे के संकेत देता प्रतीत हो रहा है । क्या हम अब नदी , झरना और चाल , खाल नॉलो , धारों और प्राकृतिक स्रोतों से पानी पीने की अपेक्षा मशीन से निकला हुआ पानी पीकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करेंगे..... ?
दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये। पलाश विश्वास
दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये।
पलाश विश्वास
लेखकों का संगठन बनाने के लिए चर्चा शुरु करने में परिचय, कौशल किशोर और विनय श्रीकर दोनों का बहुत योगदान रहा।धीरेंद्र सारिका में छपने के कारण स्थापित हो चुके थे।लेकिन हम लोगों तब सिर्फ लघु पत्रिकाओं में ही लिख रहे थे।
कोटा की बैठक में सुधीश पचौरी और धीरेंद्र ने व्यवसायिक पत्रिकाओं में न लिखने और सिर्फ लघु पत्रिकाओं में ही लिखने के बारे में सबसे जोरदार दलीलें पेश कीं।
कपिलेश भोज और मैं जीआईसी नैनीताल से गये हुए थे।तब तक गिरदा से भी हमारा संवाद शुरु नहीं हुआ था और न नैनीताल समाचार और पहाड़ निकल रहे थे।इसलिए लेखोकों के संगठन बनाने के सिलसिले में कौशल किशोर,विनय श्रीकर,सव्यसाची,शिवराम और महेंद्र नेह तो हमें भी बराबर महत्व दे रहे थे,बाकी लोगों के लिए हम बच्चे थे।
एक बात और,लेखक संगठन बनाने के बारे में शेखर जोशी,अमरकांत,मार्कंडेय,भैरव प्रसाद गुप्त और दूधनाथ सिंह भी सत्तर के दशक से सक्रिय थे।
हम लोग उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी में शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में इमरजेंसी के बाद संसदीय राजनीति के खिलाफ हो गये थे,इसलिए जनवादी लेखक संघ के लिए संवाद से जाहिरा तौर पर अलग हो गये थे।
1079 में इलाहाबाद में मैं एमए पास करने के बाद पीएचडी करने के इरादे से गया और वहां शेखर जी के घर ठहरा।वहीं हम लेखक संगठन बनाने की इलाहाबाद के लेखकों और कवियों की सक्रियता के मुखातिब हुए।भैरवजी इन लेखकों के सर्वमान्य नेता थे और जनपदों के इन तमाम लेखकों के साथ सव्यसाची जी का लगातार संपर्क बना हुआ था।लेकिन भोपाल और दिल्ली वाले लगातार इन्हें हाशिये पर डालने में लगे हुए थे।
इलाहाबाद में वीरेन डंगवाल,मंगलेश डबराल,उर्मिलेश,रामजी राय और नीलाभ हमारी धारा के लोग थे और तब हम भी संस्कृतिकर्मियों को संगठित करने में अलग से संवाद करने लगे थे।
जेएनयू पहुंचकर गोरख पांडे से मुलाकात हुई,जो इस बारे में सबसे ज्यादा उत्साही थे।
जेएनयू में पढ़े लिखने की महत्वाकांक्षा छोड़कर 1980 में मैं धनबाद चला गया और आवाज के माध्यम से कोयलाखानों के मजदूरों और झारखंड आंदोलन में सक्रिय हो गया।
तब कामरेड एकेराय और महाश्वेता देवी के संपर्क में आ जाने से हमारी दृष्टि संसदीय राजनीति के एकदम खिलाफ हो गयी।मैंने कभी सरकारी नौकरी के लिए कोई आवेदन पत्र नहीं लिखा।
सव्यसाची,शिवराम,महेंद्र नेह और इलाहाबाद के लेखकों कवियों से उनकी जेनुइन रचनाधर्मिता ,ईमानदारी और प्रतिबद्धता के कारण हमेशा वैचारिक मतभेद के बावजूद संवाद जारी रहा।
धनबाद में तब वीरभारत तलवार और मनमोहन पाठक शालपत्र निकाल रहे थे।मदनकश्यप अंतर्गत निकाल रहे थे और हमलोग सात हो गये।कुल्टी से संजीव भी हमारे साथ थे।फिर धनबाद से कतार का प्रकाशन शुरु हुआ और इसी बीच बिहार नवजनवादी सांस्कृति मोर्चा का गठन हो गया।जिसमें हम सारे लोग सक्रिय हो गये।महाश्वेता देवी इस सांस्कृतिक मोर्चा के साथ शुरु से थीं।जिसके साथ नवारुणदा हमेशा रहे और हमने उनके साथ कोलकाता में बांग्ला में भाषाबंधन भी निकाला।
फिर इंडियन पीपुल्स फ्रंट बना जिसमें शमशेर सिंह बिष्ट के नेतृत्व में उत्तराखंड और यूपी के हमारे तमाम पुराने साथी शामिल थे।दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के शंकर गुहा नियोगी भी इसमें शामिल थे।हम लोगों का इलाहाबाद,मथुरा ,अलीगढ़,बनारस जैसे जनपदों से कभी कोई टकराव नहीं रहा हालांकि आपातकाल का समर्थन करने वाले भोपाल बिरादरी से हमारा कोई संवाद नहीं था।
हम मेरठ में दैनिक जागरण में 1984 को चले आये तो नई दिल्ली में गोरखपांडे की पहल पर जनसंस्कृति मोर्चा के गठन की कवायद जोरों से चल रही थी।नई दिल्ली में यह संगठन बना तो इसमें बिहार नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा का विलय हो गया था।
इसी बीच इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, मथुरा, अलीगढ़, कोटा, अलवर,भोपाल,कोलकाता समेत सभी जनपदों में हिंदी के गढ़ों को ध्वस्त करके दिल्ली में सत्ता के नाभिनाल से जुड़े लोगों का हिंदी साहित्य और तमाम विधाओं पर एकाधिकार कब्जा हो गया और हम तिनके की तरह उड़ बिखर गये।
Thursday, May 17, 2018
रवींद्र विमर्श को कितने लोग समझते हैं,रवींद्र को कितने लोग जानते हैं? पलाश विश्वास
I was with religious fanatics for many years. In fact, I was one of them. They don't understand Tagore, and his message of universal humanity and emancipation. Their hate and bigotry is dark, divisive, and past. Rabindranath Tagore is love, light and future.
On the birthday of poet-philosopher-educator Rabi
বাঙালিদের একটা স্বভাব আছে, খুব কম জেনেও অনেক কথা বলা। তাও আবার ভুল বানানে। যাই হোক, আমি তো আর ব্যাকরণচঞ্চু নই। তাও, রবীন্দ্রনাথের উক্তি বলে যাহোক তাহোক কারুর একটা ভুলভাল উক্তি ভুল-বানানে কোট করে দিচ্ছে দেখলে মনে একটা রক্তলোলুপ প্রতিহিংসার মনোভাব জাগে। ভীষণরকম নন-ভায়োলেন্ট বলে কিছু করতে পারিনা। এই করে করে আঙুলের নখগুলো চিবিয়ে আখের ছিবড়ে করে ফেলেছি।
বাঙালি কত জানে! শ্লীলতা অশ্লীলতার ব্যাপারটা তো আছেই। আমেরিকা ঘোর অশ্লীল। বীভৎস। "ওখানে যা সব ব্যাপার হয়, সে আর কী বলবো মশাই। ট্রেন বাস রাস্তাঘাট পার্কে পশ্চিমে সর্বত্র চূড়ান্ত বেলেল্লাপনা চলে। মানুষ, না কুকুর?" "কোথায় দেখলেন, দাদা, দিদি?" "দেখার কোনো দরকার নেই। খবর পাই।" "আহা, কোথায় খবরটা পেলেন, সেটা বলুন?" "ওই তো, আমাদের এক ভাগ্নের বাড়িওলার ছোট ছেলের মেজো শালা গিয়েছিলো।" "ও আচ্ছা, তাই বলুন। আপনি অন্যের মুখের ঝোল ঝাল অম্বল খাচ্ছেন।"
এই পর্যন্ত বলার পরে কথার মোড় অন্যদিকে ঘুরেই যাবে। কারণ বক্তা এখন রেগে আগুন, এবং বিলো-বেল্ট একখানা ঝাড়ার জন্যে তৈরী হচ্ছেন। "আরে যান যান মশাই। আপনাদের আমেরিকার কথা আর বলবেন না।" "কেন, আবার কী হলো?" "কী আপনি আমেরিকায় স্কুলে ছেলেমেয়েদের ওপর মারধোর করা হয়না বলছেন? ছাত্রদের প্রতি হিংসা হচ্ছে না কিন্তু তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে। আমেরিকার কাণ্ড কারখানা দেখে হাঁসাও যায় না কাঁদাও যায় না।" (অ্যাকচুয়াল কমেন্ট আজকেই -- বানান বিভীষিকার "হাঁসি"।)। আমার উত্তর, " "তারা নিজেরা হিংসা ছড়াচ্ছে এবং গুলি করে মানুষ খুন করছে বিনা কারণে ।" -- কোথায় হলো? আপনারা কত জানেন! আমেরিকা সম্পর্কে কিছু না জেনেই সেখানকার ছাত্রদের সম্পর্কে আপনাদের কী মূল্যবান ধারণা! বরং, ফ্লোরিডার বন্দুকবাজির পরে সারা আমেরিকায় ছাত্রছাত্রীরা প্রতিবাদ করে রাস্তায় নেমেছে এই ভায়োলেন্স বন্ধ করার জন্যে। এসব খবর কি আপনাদের কানে পৌঁছয় না?"
এইরকম আরো আছে। অনেক। যদি বলি, এর পরেও কি আপনি আপনার ছেলেকে বা মেয়েকে আমেরিকায় আসার চান্স পেলে বন্ধ করবেন তার আসা?" তখন দেখবেন, সবাই অদৃশ্য। কিন্তু, ঝাল ঝাড়া থেকেই যাবে। যদি বলেন, "আচ্ছা, আমেরিকার ম্যাকডোনাল্ড, কোক, পিজ্জা হাট, কে এফ সি'তে যান না কখনো?" নিঃশব্দ। "আমেরিকান সিনেমা দেখেন না?" কেউ নেই তখন স্টেজে।
আর যা যা দেখেন আমেরিকার জিনিস (ইচ্ছে করেই "জিনিস" লিখলাম ভুল বানানে) -- শ্লীলতার খাতিরে সেসব আর লিখলাম না। আফটার অল, এই ফেসবুকে আমার বৌ, বোন, বন্ধু আর হাজার ছাত্রছাত্রী আছে। কিছুটা শুনুন, আর অন্যটা ইম্যাজিন করে নিন। সত্যজিৎ রায়ের "নীল আতঙ্ক" এর কাছে শিশু!
আমেরিকার শাসকদের বিরুদ্ধে, যুদ্ধ, সি আই এ, বন্দুকবাজি, পুলিশি অত্যাচার, মিডিয়া ও মানবাধিকার লঙ্ঘনের বিষয়ে আমি এতো লিখেছি যে লোকে ভাবে আমি পাগল। এতোই মূর্খ যে নিজের ভালোমন্দ, নিরাপত্তাও বুঝিনা। যা খুশি লিখি। একদিকে এইসব লিখি, আবার অন্যদিকে আমেরিকার বা অন্য কিছুটা উন্নত দেশের শিক্ষাব্যবস্থার আধুনিকতা, নারীর স্বাধীনতা সমানাধিকার, শিশুদের জন্যে হাজার আনন্দ পার্ক খেলার ব্যবস্থা সিনেমা, তারা যাতে ভয়হীন ভাবে বড় হতে পারে, তার জন্যে স্কুলে একেবারে প্রথম থেকেই নিবেদিতপ্রাণ শিক্ষক শিক্ষিকাদের দেওয়া ভালোবাসা -- তা নিয়ে লিখেছি বহু বছর ধরে। আবার এই মার্কিন বন্ধু ও বান্ধবীদের, গুরুস্থানীয় মানুষদের খুব কাছ থেকে দেখেছি হিউম্যান রাইটস'এর কাজ করতে, পরিবেশ নিয়ে আন্দোলন করতে, যুদ্ধের বিরুদ্ধে রাস্তায় নামতে। তাদের কাছে অনেক শিখেছি।
এইসব কথা বাঙালিরা তেমন কেউ জানতেও চায়না। শিখতেও চায়না। কিন্তু বাজে বকতে তো আর পয়সা লাগেনা। আর সেন্টিমেন্টাল বাঙালি বাজে বকতে পেলে আর কিছু চায়না। কাজেই ....
ফেসবুকে এসব কথা বলে কোনো লাভ আছে কি? যেখানে একটা তিনশো বছরের পুরোনো ঠাকুর, অথবা তিন বছরের পুরোনো কুকুরের ছবি পোস্ট করলে তিন হাজার নতুন লাইক পাওয়া যায়?
শ্লীলতা অশ্লীলতা আলোচনায় অনেক বাঙালি কুকুর প্রসঙ্গ এনেছেন। আমার মনে হয়, এঁরা মানুষ যত না চেনেন, কুকুর চেনেন তার চেয়ে বেশি। আমার মনে হয়, এঁরা আসলে সবাই সেই ধর্মরাজরূপী সারমেয়নন্দন। নইলে, এতো ধার্মিক আবার কুকুর-বিশেষজ্ঞ -- একসাথে এমন আশ্চর্য সঙ্গম তাঁদের মধ্যে ঘটলো কী করে?
এ যে অদ্ভুত মিরাক্কেল!
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রবীন্দ্র জয়ন্তীতে আমার কবি প্রণাম।
নিউ ইয়র্ক, ইউ এস এ।