Monday, April 15, 2013

महत्त्वाकांक्षा की राजनीति

Monday, 15 April 2013 09:13

कुमार प्रशांत 
जनसत्ता 13 अप्रैल, 2013: राहुल गांधी के बाद नरेंद्र मोदी! भारतीय जनता पार्टी वालों को सामान्यत: तो ऐसा क्रम पसंद नहीं आएगा, लेकिन अभी उन्हें इससे कोई एतराज नहीं है। राहुल गांधी के बाद नरेंद्र मोदी अपनी बात लेकर देश के सामने आ रहे हैं, इससे उन्हें साबित करने में आसानी हो रही है कि देखिए, हमारा नेता कितना सयाना है, कितना अच्छा वक्ता है, कितना गहरा विचारक है और किस तरह वह समाज के हर वर्ग के साथ तालमेल बिठा लेता है!
इसलिए दिल्ली में, सीआइआइ के कॉरपोरेट जगत को राहुल ने जब अपनी अटकती-भटकती बातें बतार्इं तब उनका उपहास करने वाले भारतीय जनता पार्टी के लोगों के मन में लड््डू फूट रहे थे। उन्हें पता था कि कुछ ही दिनों बाद, उनका नेता कॉरपोरेट जगत के दूसरे क्लब फिक्की की महिला उद्यमियों को संबोधित करेगा तो एकदम सीधा मुकाबला हो जाएगा और राहुल हवा में उड़ जाएंगे। वह दिन आया भी, गया भी, लेकिन हवा में कौन उड़ गया इसका हिसाब लोग आज तक लगा रहे हैं। इसमें राहुल गांधी की कोई विशेषता नहीं है कि कांग्रेसी जिसका जश्न मनाएं, लेकिन ऐसा बहुत कुछ है जिसका भाजपाई शोक मनाएं। 
नरेंद्र मोदी इन दिनों जो कर रहे हैं, उसे देश का प्रधानमंत्री बनने की ड्रेस-रिहर्सल कहा जाना चाहिए। वे पहले राजधानी दिल्ली में, फिक्की की महिलाओं के बीच आए, फिर वहीं एक समाचार चैनल के समारोह में अपना विशेष चिंतन पेश किया और फिर वहां से सीधे पहुंचे कोलकाता। उन्हें पता था कि इन सभी जगहों पर वे जो कुछ भी कहेंगे-करेंगे वह सारे देश में देखा जाएगा और उनके लोग, उनकी हर बात और हर अदा को, प्रधानमंत्री बनने की उनकी योग्यता के प्रमाण के रूप में पेश करेंगे।
इसलिए कपड़ों से लेकर अपनी भाषा, अपनी प्रस्तुति, अपनी कटूक्तियों, अपने चेहरे के भावों आदि सब पर उन्होंने सावधानी से काम किया था और यह सारा इतनी मेहनत से साधा गया था कि नरेंद्र मोदी बहुत हद तक प्लास्टिक के हुए जा रहे थे। हम उनकी कटूक्तियों, बेढब टिप्पणियों और छिपी धमकियों वाले वाक्य भी नहीं सुन पाए; और वे सारे उपदेश भी अनसुने रह गए जिन्हें देने की उनको आदत पड़ गई है। मुझे लगता है कि गुजरात के लोगों के लिए भी यह पहचानना मुश्किल हुआ होगा जिस आदमी को उन्होंने अमदाबाद से विमान पर बिठाया था वही दिल्ली उतरा क्या! मोदी इन सारे आयोजनों में भले बबुआ के मूर्तिमान स्वरूप बने हुए थे। यह बहुत कुछ मोदी का राहुलीकरण था जो देखने में अटपटा और सुनने में बेहद कच्चा लग रहा था। 
फिक्की की महिला उद्यमियों से उन्होंने उद्योग-धंधे की कोई बात नहीं की और न उन्हें यह बताने की ही जरूरत समझी कि उनका गुजरात महिला उद्यमियों को कैसी सुविधाएं देने को तैयार है ताकि गुजरात भी और वे भी प्रगति कर सकें। हिंदुत्ववादियों को महिलाओं की ऐसी कोई आधुनिक भूमिका सहज ग्राह्य नहीं होती है। इसलिए मोदी भी, कम से कम अपने गुजरात के संदर्भ में लगभग अर्थहीन हो चुके मां-बहन, शक्तिदायिनी-मुक्तिदायिनी आदि-आदि विशेषणों से आगे कहीं पहुंच नहीं पाए। यही कारण था कि महिलाओं के आरक्षण के सवाल पर भी अपनी या अपनी पार्टी की कोई स्पष्ट भूमिका रेखांकित करने के बजाय, वे गुजरात की महिला राज्यपाल पर, बड़े संयमित शब्दों में सारी जिम्मेदारी डाल कर किनारे हो गए। मोदी ने इतनी ईमानदारी भी नहीं बरती कि सभा को यह भी बता दें कि राज्यपाल ने उनके उस विधेयक का पूरा समर्थन ही नहीं किया है बल्कि प्रशंसा भी की है।
साथ ही यह भी कहा है कि आपने इसे अनिवार्य मतदान के साथ जिस तरह जोड़ कर पेश किया है वह ठीक नहीं है, दोनों को अलग-अलग पेश करें। इसमें राज्यपाल का पक्ष सही है या मुख्यमंत्री का, यह हमारे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है, हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है मोदी साहब से यह जानना कि क्या राज्यपाल के असहमति के अधिकार को वे मान्य करते हैं और उसकी इज्जत करते हैं? दूसरों की राय कोई मतलब नहीं रखती है, ऐसा प्रशासन अब तक मोदी ने गुजरात में चलाया है।
जब तक भाजपा में थोड़ी-बहुत आंतरिक शक्ति बची हुई थी, ऐसे मोदी को वहां जगह नहीं मिली थी। जैसे-जैसे पार्टी कमजोर और खोखली होती गई है, ऐसे तत्त्वों की बन आई है। यह वृत्ति लोकतंत्र की नहीं, अधिनायकवादी तंत्र की प्रतीक है और अधिनायकवाद के बारे में जो एक छिपा स्वीकार हिंदुत्ववादियों के भीतर है उससे सीधा जुड़ता है। 
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी महत्त्वाकांक्षा को, भारतीय समाज के जिन तत्त्वों ने सबसे पहले स्वीकार किया था और उसकी विरुदावली गाई थी, उनमें हिंदुत्ववादी भी थे, कॉरपोरेट जगत भी था, किताबी बुद्धिवादी भी थे। शिवसेना के ऐसे स्वर्गीय तत्त्व बाल ठाकरे भी थे जो खुलेआम हिटलर की तानाशाही की सिफारिश करते थे और अपने राजनीतिक व्यवहार में वैसा ही बरतते भी थे। ऐसे ही कई तत्त्व आज भी हैं जो दबे-छिपे ऐसी बातें करते हैं। मोदी ने कुल मिला कर उच्च मध्यवर्ग की मानसिकता को भाने वाली बातें करके, फिक्की के आयोजन से छुट््टी पाई। 

टीवी चैनल के कार्यक्रम में मोदी ने यह जताने की भरपूर कोशिश की कि वे एक राजनीतिक चिंतक हैं जिसने गुजरात में कई तरह के प्रयोग कर, कुछ ऐसे सत्य पाए हैं कि जिसे देश को बताना ही जरूरी नहीं है बल्कि जिस पर देश को चलाना भी जरूरी हो गया है। ऐसा ही एक चिंतन उनका गवर्नमेंट और गवर्नेंस के बीच फर्क का था। राहुल गांधी ने भी कहा   था कि देश किसी एक व्यक्ति के चलाने से नहीं चल सकता है, मोदी ने भी इसे स्वीकार करते हुए कहा कि कोई सरकार अकेले दम पर राज्य नहीं चला सकती है। लोगों का सहयोग जरूरी है।
मोदी ने इस बारे में गुजरात का अपना अनुभव भी बताया। लेकिन कहीं भी उन्होंने यह नहीं कहा कि सरकार और प्रशासन में जिस फर्क और दूरी की बात वे करते हैं, क्या गुजरात में ऐसा कुछ साकार हुआ है? सारे अधिकार और सारे निर्णय जब एक ही व्यक्ति और एक ही कुर्सी से जुड़े होते हैं, जैसा कि मोदी के गुजरात में है, तब शब्दों का ऐसा खिलवाड़ अच्छा लगता है।  
हकीकत यह है कि ब्रितानी ढंग के जिस प्रशासनिक ढांचे को हमने अपने यहां चलाए रखा है उसकी ताकत इसी में है कि शासन-प्रशासन की ऐसी जुगलबंदी बनी रहे कि एक-दूसरे के स्वार्थ पर कभी आंच न आए। इसलिए हम देखते हैं कि 2002 के गुजरात दंगों की जांच में सबसे बड़ी बाधा अगर कहीं से आ रही है तो वह मोदी की सरकार और मोदी के प्रशासन की तरफ से आ रही है।
जिन अधिकारियों ने और जिन राजनीतिकों ने भी, दंगों के दौरान का अपना कोई सच दुिनया के सामने रखा या रखना चाहा, उनका क्या हुआ यह हम देख रहे हैं। परिणाम यह हुआ कि हमारी न्यायपालिका को यह विधान करना पड़ा कि अपराध भले गुजरात में हुआ है, उसकी जांच गुजरात के बाहर होगी, क्योंकि गुजरात में स्वाभाविक न्याय का कोई आधार नहीं बचा है। ऐसा पहले, कभी किसी राज्य के साथ नहीं हुआ। इस बारे में नरेंद्र मोदी और मोदीमय भाजपा कभी कुछ नहीं कहते हैं। जब ऐसी स्थिति गुजरात में है तो सरकार और प्रशासन का मोदी-फार्मूला विफल हुआ न!
ममता बनर्जी के कोलकाता में पहुंच कर मोदी ज्यादा खुले यानी असली रंग में आए। उन्होंने यहां यह साबित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि वे प्रधानमंत्री बनने की जमीन तैयार करने के लिए घूम रहे हैं। एक कुर्सीप्रधान व्यावहारिक राजनीतिज्ञ की तरह वे हवा सूंघ रहे हैं कि भविष्य में कब, किसके समर्थन की जरूरत आन पड़े। यह सब कोई नया मॉडल हो तो यह मोदी और भाजपा को ही मुबारक हो, लेकिन हम देख रहे हैं कि सत्ता पाने की राजनीति भले ममता को खूब आती हो, सत्ता का कोई वैकल्पिक समीकरण भी हो सकता है यह उन्होंने न सीखा है न समझा है।
इसलिए वे इतनी जल्दी अपनी दिशा भी खो चुकी हैं और संतुलन भी; और इसलिए बार-बार कोलकाता में दिल्ली का हौवा खड़ा करने के अलावा उन्हें अब कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है। वे तेजी से बंगाल हारती जा रही हैं। भारतीय जनता पार्टी भी इसी तरह वह सारी जमीन कांग्रेस से हारती गई जो उसने अटल-राज में कमाई थी। इसलिए यह ठीक ही है कि ममता के साथ मोदी अपना साम्य देखते हैं। लेकिन भाजपा को इस बात की फिक्र होनी चाहिए कि अगर मोदी इस साम्य को ज्यादा दूर तक ले जाने की कोशिश करेंगे तो कहां होगी पार्टी? 
मोदी कहते हैं कि लोगों का इस व्यवस्था में भरोसा नहीं रहा है! अगर यह सच है तो मोदी भी इसमें शामिल हैं न! ऐसा कह कर वे मनमोहन सिंह पर तीर चलाते हैं लेकिन वे खुद भी अपने ही तीर के निशाने पर आ जाते हैं, यह देख नहीं पाते हैं। क्योंकि व्यवस्था तो एक ही है जिसे गुजरात में वे और दिल्ली में मनमोहन सिंह चला रहे हैं। सरकार अलग बात है और व्यवस्था अलग, इसे भूल कर आप कैसे चल सकते हैं? मोदी बार-बार दोहराते हैं कि ढाई हजार करोड़ के घाटे की गुजरात की अर्थव्यवस्था आज 6,700 करोड़ रुपए के फायदे में चल रही है। इसे वे अपनी उपलब्धि बताते हैं। ऐसे कितने ही आंकड़े मनमोहन सरकार के पास भी थे, पर आज सब कहां बिला गए?
दरअसल, बताना तो यह चाहिए न, कि घाटे से फायदे में आने वाली यह रकम आई कहां से? क्या राज्य की यानी लोगों की उत्पादन क्षमता बढ़ी और वे स्थायी रूप से संपत्तिवान हुए? गुजरात में बेरोजगारी की दर क्या थी और आज क्या है? मोदी हर साल अमदाबाद में बड़े-बड़े आर्थिक सम्मेलन करते हैं, कॉरपोरेट जगत को जमा करते हैं। ऐसे आयोजनों में निवेश के जो आंकड़े घोषित होते हैं उनमें से कितने धरती पर उतरते हैं? जो धरती पर उतरते हैं वे समाज के सभी वर्गों तक पहुंचते हैं? ऐसे सवालों के जवाब मिलें तभी पता चलेगा कि गुजरात में व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क आ रहा है क्या?
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/42460-2013-04-15-03-43-59

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