Tuesday, August 28, 2012

उदासी में उत्तरकाशी

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Tuesday, 28 August 2012 10:49

संजय सेमवाल 
जनसत्ता 28 अगस्त, 2012: पहाड़ियों के बीच से गुजरती भागीरथी नदी और उसके दोनों ओर बसा छोटा-सा खूबसूरत शहर उत्तरकाशी मुख्य रूप से चार हिस्सों में बंटा है। पहला मुख्य शहर, दूसरा और तीसरा नदी के पार का तिलोथ और जोशियाड़ा इलाका और चौथा ज्ञानसू। शहर को आपस में जोड़ते हैं तीन पुल, जिनमें दो मोटर पुल हैं और एक है शहर के बीचोंबीच झूला पुल। इसके नीचे नदी दो धाराओं में बंटी है और बीच में एक बड़ा-सा टापू है। जब मैं छोटा था तो कई बार दोस्तों के साथ टापू पर खेलने चला जाता था। झूला पुल शहर और जोशियाड़ा को आपस में जोड़ता है तो एक मोटर पुल तिलोथ और शहर को। नदी के किनारे घूमना यहां के सभी लोगों को अच्छा लगता है, इसीलिए यहां नदी के किनारे एक पक्का रास्ता बना हुआ है।
कुछ समय पहले तीन अगस्त का दिन तो दूसरे दिनों की तरह बीता, लेकिन रात को तेज बारिश शुरू हो गई। चूंकि मौसम बरसात का था, इसलिए सब कुछ सामान्य ही लगा। मैं सोने की तैयारी में था कि लगभग ग्यारह बजे हमारे साथी जगमोहन जी का फोन आया। उन्होंने कहा कि हमारी एक और साथी जिया ने फोन किया था, वह बहुत घबराई हुई है। उसने बताया कि उसके घर में नदी का पानी आने वाला है। जिया का घर नदी से थोड़ी ही दूरी पर है। वह इस बात से हमेशा खुश होती थी कि उसकी खिड़की से गंगा साफ नजर आती है। लेकिन शायद उसने सोचा भी न होगा कि वही गंगा जब घर में प्रवेश कर जाए तो क्या हाल हो सकता है।
रात के ग्यारह बजे हम दोनों जिया के घर की ओर भागे। सड़क पर बारिश का पानी घुटनों से ऊपर तक आ गया था। पूरे शहर में अफरा-तफरी का माहौल था। सभी लोगों के चेहरे पर दहशत थी और वे इधर-उधर भाग रहे थे। हम झूला पुल के पास पहुंचे तो देखा कि अंधेरे में वहां सारे लोग हैरान-परेशान नदी की ओर देख रहे हैं। नदी का वह विकराल रूप! ऐसा मंजर मैंने पहले नहीं देखा था। ऐसा लग रहा था मानो थोड़ी ही देर में पानी इस पुल को तोड़ देगा या इसके ऊपर से बहने लगेगा। नदी से इतनी भयानक आवाजें आ रही थीं, मानो कोई सेना गर्जना करती हुई लड़ने जा रही हो। पुल पार करने को कोई तैयार नहीं था। हमें जिया की चिंता थी, सो हमने हिम्मत की, पुल की ओर बढ़े और पार कर लिया। घबराई हुई जिया को सबसे पहले सुरक्षित जगह पहुंचाया। अब समस्या उसी पुल से वापस आने की थी। हमने जैसे-तैसे आंखें बंद करके फिर किसी तरह पुल पार किया और घर पहुंचे। फोन बंद हो चुके थे, बिजली जा चुकी थी। बस लोगों की दहशत भरी आवाज और नदी का विकराल रूप। बादलों का फटना जारी था। सुबह जोशियाड़ा पहुंचा तो देखा कि सड़क पर लोगों के घरों का सामान बिखरा हुआ है। चारपाई, कुर्सी, मेज, टेलीविजन, फ्रिज से लेकर दाल के डिब्बे और भी न जाने क्या-क्या। एक लड़की सड़क पर खड़ी रुआंसी होकर कह रही थी- 'भैया, प्लीज मेरी सारी मार्कशीट अंदर रह गई हैं। बस उन्हें ला दो!'

पता चला कि रात में सड़क से लगी नदी के किनारे पीडब्ल्यूडी की कॉलोनी आधी ढह गई थी और लोग रात से ही किसी तरह अपना कुछ सामान बचा लेने की कोशिश कर रहे थे। इसी बीच कॉलोनी का एक आदमी सामान लेने अपने घर में गया कि इतने में वह पूरा घर ही नदी में चला गया। अजीब खौफनाक मंजर था।
झूला पुल की ओर जाने वाली सीढ़ियां और वहां की दुकानें नदी में समा चुकी थीं। यहां के लगभग दो सौ परिवार अचानक बेघर हो गए। हर कोई कोशिश कर रहा था, अपनों को बचाने की और दूसरों की हर संभव मदद की। बुजुर्ग बता रहे थे कि 1978 की भयानक बाढ़ में भी इतना बुरा हाल नहीं हुआ था। किसी ने बताया कि यहां से पांच किलोमीटर दूर एक कस्बा गंगोरी जमींदोज हो गया है। पहले विश्वास नहीं हुआ। लेकिन यह सच था। वहां का मंजर देख कर आंखें फटी रह गर्इं। कल तक जहां लगभग डेढ़ सौ पक्के घर थे, अग्निशमन केंद्र, वन निगम का पार्क, गोदाम और एक बडा-सा लोहे का पुल था। वहां अब नदी लहरा रही थी। मकान और गाड़ियां नदी में खिलौनों की तरह गिरे पड़े थे। इसके ऊपर के इलाके की और भी बुरी स्थिति थी और वहां जाने का कोई रास्ता ही नहीं था। लोग किस हाल में थे, पता नहीं। आखिर हम वहां नहीं जा पाए।
बेहद उदास मन से लौट रहा था कि सिर पर लकड़ी और घास का गट्ठर लादे कुछ महिलाएं आती दिखीं। कुछ महिलाएं और पुरुष धान के खेत में काम करते दिखाई पड़े। लगा कि आपदाएं भी यहां जीवन का हिस्सा हैं। इनसे लड़ कर आगे बढ़ने का ही नाम जीवन है।

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