Monday, June 18, 2012

रहबरी पर सवाल

रहबरी पर सवाल


Monday, 18 June 2012 11:10

अरविंद मोहन 
जनसत्ता 18 जून, 2012: यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वामी रामदेव और अण्णा हजारे के एक मंच पर आने और साथ आंदोलन चलाने की घोषणा भी बहुत उत्साह नहीं जगा पाई और चार जून का अनशन ताकत से ज्यादा बिखराव के प्रदर्शन का प्रमाण बन गया। अगर अण्णा समूह के लोगों को इस जलसे में आने और इस रणनीति पर काम करने में इतनी ही आपत्ति थी तो उन्हें यहां आने से परहेज करना चाहिए था। मंच पर जब स्वामी रामदेव ने जैसे ही काले धन पर कुछ बातें ढंग से रखीं (और इसका आधार वहीं मौजूद प्रो. अरुण कुमार जैसे जानकारों का योगदान लगा) वैसे ही न सिर्फ कार्यकर्ताओं में, बल्कि सरकारी खेमे में भी प्रतिक्रिया दिखाई देने लगी। हरीश रावत तुरंत विदेशी निवेश में खोट न होने की सफाई देते दिखे। पर जब अरविंद केजरीवाल ने कुछ नाम लेने शुरू किए तो बाबा रामदेव ने जिस ढंग से उन्हें झिड़का उससे माहौल एकदम बदल गया। और अगले दिन से जब उन्होंने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और राष्ट्रवादी कांग्रेस के अध्यक्ष शरद पवार समेत विभिन्न दलों के नेताओं से मिलना शुरू किया तो साझा मुहिम के प्रबल पक्षधर अण्णा हजारे भी बगले झांकते नजर आए। 
चार जून से पहले जब केजरीवाल ने पंद्रह मंत्रियों के खिलाफ आरोप लगाए और जांच कराने की मांग की तो भी बात जमती नजर आई थी। लग रहा था कि यह मसला उछालने और संयुक्त धरने का कार्यक्रम करके आंदोलन नई जान पा सकता है और लोकपाल समेत काला धन और भ्रष्टाचार के सवाल पर सरकार को फिर से घेरने में सफलता मिलेगी। तब इसे मनमोहन सिंह की ईमानदारी या भलमनसाहत का प्रमाण कम, मजबूरी ज्यादा माना गया कि उन्होंने टीम अण्णा को साधा जवाब दिया और यह चुनौती भी कि अगर उन पर लगे आरोप सही साबित हुए तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे। जाहिर तौर पर उनकी यह मजबूरी गठबंधन धर्म से पैदा मजबूरी नहीं थी। मनमोहन सिंह किसी सौदेबाजी या घपले में शामिल होंगे यह आज भी कोई यकीन करने वाला नहीं है, पर वे सब जान कर आंख बंद किए हुए हैं या गठबंधन की मजबूरी या फिर सिर्फ राज करने के लोभ में सब कुछ जानते हुए भी चुप हैं यह शक जरूर होने लगा है। यह बात 2-जी से लेकर कई अन्य मामलों में भी दिखने लगी है कि उन्होंने गड़बड़ी रोकने की कोशिश नहीं की। इससे यह सवाल उठा है कि जो व्यक्ति सत्ता के केंद्र में हो उसके लिए खुद बेदाग होना काफी है, या उससे कुछ और भी अपेक्षाएं की जानी चाहिए।     
अनशन शुरू होते ही हरीश रावत और कांग्रेसी प्रवक्ताओं की टोली बचाव की मुद्रा में आ गई या सीधे प्रधानमंत्री से बहस शुरू होने से? जो हो, इस मसले ने यूपीए सरकार को जितना घेरा है उससे ज्यादा खुद टीम अण्णा और बाबा रामदेव सवालों के घेरे में आ गए हैं। रामदेव नेताओं से मिल कर क्या साबित और हासिल करना चाहते हैं, समझना मुश्किल है। भाजपा अध्यक्ष से पैर छुआने से अपना पुण्य-प्रताप उन्हें सौंपने के सिवा कुछ हासिल नहीं हो सकता; शरद पवार और अजित सिंह में कोई फर्क वे मिलने भर से 
ला देंगे, इतनी चमत्कारिक शक्ति उनमें नहीं है।
फिर एक मसला टीम अण्णा और अण्णा हजारे के बीच दिख रही दरार का भी है। अण्णा हजारे अब भी मनमोहन सिंह को संदेह के घेरे में और शरद पवार को ईमानदार मानने को तैयार नहीं हैं और यह बात वे सार्वजनिक रूप से कह भी चुके हैं। स्वामी रामदेव के साथ साझा आंदोलन के हक में अण्णा थे, जबकि उनकी टीम इसके खिलाफ है। बात सिर्फ अण्णा और उनके आंदोलन के मुख्य सूत्रधारों के बीच मतभेद की होती तो एक बात थी। इस सवाल पर संतोष हेगडेÞ भी खुल कर विरोध में आ गए, वे विदेशमंत्री एसएम कृष्णा को आरोपी मंत्रियों की सूची में रखे जाने से नाराज हैं। अण्णा की उपेक्षा से नाराज कार्यकर्ता पहले ही इंडिया अगेंस्ट करप्शन के खिलाफ शिकायतें कर चुके हैं। 
अपने आंदोलन की तरफ से 'अंतिम बडेÞ दांव' को आगे बढ़ाने के लिए अरविंद केजरीवाल ने टीवी इंटरव्यू और अन्य माध्यमों से अपना अभियान जारी रखने का प्रयास किया। उधर बाबा की टोली भी ज्यादा अनुशासित ढंग से जंतर मंतर का कार्यक्रम चला कर उत्साहित है। पर ये सभी गुट और धाराएं साथ आती दिखाई नहीं देतीं। यही नहीं, ये धाराएं एक दूसरे से टकराने और एक दूसरे को काटने के खेल में भी लग गई हैं।
जंतर मंतर पर टीम अण्णा के कई सारे लोग नहीं आए, कार्यकर्ताओं को उत्साह से लगाने जैसा काम तो हुआ ही नहीं। सारा आयोजन बाबा के लोगों का था, जो इधर खुद को सेक्युलर बताने का कसरत भी करने लगे हैं। उनका सेक्युलरिज्म कितना चलेगा कहना कठिन है (क्योंकि इस सवाल पर सचेत रही टीम अण्णा ही अभी तक इस मामले में खास सफल नहीं हो पाई है)।
स्वामी रामदेव के पीछे संघ के खड़ा होने का प्रमाण ढ़ूंढ़ने के लिए दूर जाने की जरूरत नहीं है। संघ के लोग भी इसे नहीं छिपाते। संघ की ऐसी मौजूदगी उन्हें सेक्युलर बनने देगी इसमें संदेह है। ऐसे में यह जुड़ाव टीम अण्णा को नुकसान पहुंचाएगी या फायदा, यह हिसाब लगाना आसान नहीं है।

पर दूसरा पक्ष भी ज्यादा नंगा हुआ है। 2-जी के बाद कई नए घोटाले सामने आए हैं और सरकार की मुस्तैदी कहीं नहीं दिखती। पर इससे भी ज्यादा गड़बड़ ए राजा, कनिमोड़ी, कलमाड़ी समेत सभी दागियों का जमानत पर छूट कर बाहर आ जाना है। लगता ही नहीं कि सरकार की कोई दिलचस्पी इन्हें सजा दिलवाने में है। जिस सीबीआइ को अदालती   चौकसी के चलते हम मुक्तिदाता मानने लगे थे उसकी तरफ से ही ढील और गड़बड़ के प्रमाण सामने आए। वकील प्रशांत भूषण को तो अदालती दस्तावेज नहीं दिया गया, पर नेवी वाररूम लीक के दागी अभिषेक वर्मा के पास वे कागज पहुंचा दिए गए। उधर भाजपा के भी तेवर ढीले हो गए हैं और अब तो आडवाणी द्वारा उठाए मुद्दे को उनकी राजनीतिक कुंठा घोषित करके चुप्पी साध ली जा रही है। उन पर सीधे हमला करने या उनके द्वारा उठाए मुद्दों का जवाब देने की जगह अंशुमान मिश्र को आगे कर उन पर हमला कराया जा रहा है। दूसरी ओर नितिन गडकरी गंगा नहाने वाले अंदाज में बाबा के पैर छूकर प्रसन्न हैं। कथित तीसरे मोर्चे के नेताओं को इन सवालों से कोई लेना-देना ही नहीं लगता। वे कभी आंदोलन का पक्ष लेते हैं तो कभी इसकी खिल्ली उड़ाते हैं। 
यह एक बिल्कुल नई स्थिति है। कई मायनों में यह भ्रष्टाचार के खिलाफ उभरे जन आक्रोश- जिसकी अभिव्यक्ति अण्णा आंदोलन रहा है- का दूसरा चरण है। अब यह अच्छा है या बुरा, पर इसने सरकार की साख और इसके निष्कलंक मुखिया की छवि धूमिल की है और उसे सफाई देने और पलट कर चुनौती देने की जरूरत महसूस हो रही है। कुछ समय पहले तक मनमोहन सिंह, एके एंटनी, जयराम रमेश जैसे कांग्रेस के नेताओं की छवि सवालों से परे मानी जाती थी।
यह भी माना जाता था कि भाजपा एक पार्टी के तौर पर (और कम्युनिस्ट पार्टियां भी) भ्रष्टाचार के सवाल पर कांग्रेस से अलग हैं। तब कांग्रेस डरती थी कि अगर उसने कोई कदम नहीं उठाया तो आंदोलन का लाभ भाजपा उठा ले जाएगी। पर साल भर में भाजपा ने भी अपनी कमीज कांग्रेस जितनी दागदार बना ली है। दूसरी ओर, टीम अण्णा ने भी जब तक हिसार चुनाव में सीधे दखल देकर एक भारी भूल नहीं की थी तब तक उसकी सीधी आलोचना करना एक तरह से कुफ्र जैसा माना जाता था। याद कीजिए, मनीष तिवारी को एक गलत बयान देने के बाद नेपथ्य में जाना पड़ा था। 
हिसार से लेकर चार जून के धरने और पंद्रह मंत्रियों पर आरोप लगाने के बीच क्या-क्या हुआ और सरकारी पक्ष और टीम अण्णा की तरफ से क्या-क्या गलतियां हुर्इं हैं यह गिनाना संभव नहीं है। ऐसा करना हमारा उद्देश्य भी नहीं है। बाबा रामदेव तो पहले मुकाबले से भाग कर खुद को नेतृत्व के लिए अनुपयुक्त साबित कर चुके हैं, और सरकार भी उनके व्यवसाय के चलते उन पर आसानी से निशाना साध लेती है। अण्णा हजारे पर तो बे-ईमानी के आरोप चिपकाना असंभव-सा है, पर राजनीतिक चूकें उनसे भी हुई हैं और उन्होंने सार्वजनिक रूप से कुछ गलतियों को स्वीकार करके सुधार भी किया है। टीम अण्णा के ज्यादातर सदस्य भी कई तरह के आरोपों के घेरे में आए, कई ने खुद को बेदाग साबित किया तो कई के दाग धुंधले भर हुए। एनजीओ के लोगों को अपनी सीमा और सार्वजनिक जीवन की कीमत का अंदाजा तो हुआ, पर इस क्रम में उनके आंदोलन की छवि भी प्रभावित हुई। केजरीवाल, किरण बेदी, प्रशांत भूषण समेत ज्यादातर सक्रिय लोग सवालों के घेरे में आए तो अपनी खास जासूसी शैली से उन्होंने स्वामी अग्निवेश समेत कई को सरकारी जासूस बता दिया।
जाहिर तौर पर इन सबसे आंदोलन की चमक फीकी हुई। कोई बहुत सहानुभूति वाला रुख रखे तो इस सब को भूल सुधार और आगे के लिए अच्छी तैयारी का हिस्सा मान सकता है। पर बात आंदोलन और आंदोलनकारियों के सुधार भर की होती तो खुश हो लिया जाता। बात आंदोलन से उठे सवालों पर सरकार और हमारे सांसदों की तरफ से हुई भूल-चूक और सुधार के कदमों- जिनमें ए राजा, कनिमोड़ी, सुरेश कलमाड़ी जैसों के जेल जाने का मामला भी शामिल है- तक की होती तब भी खुश हो लिया जाता। पर बात इतनी भर नहीं है। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ सारी लड़ाई एक मुकाम पर आकर रुक गई है। इसे चलाने वाली मंडली की बाबा रामदेव वाली धारा जहां इस काम के लिए अनुपयुक्त साबित हो चुकी है वहीं टीम अण्णा भी लुटी-पिटी दिखती है। 
दूसरी ओर, सरकार और राजनेताओं ने इन बीमारियों से निपटने में जितनी दिलचस्पी दिखाई है उससे ज्यादा आंदोलन को निपटाने में। इसमें साम, दाम, दंड, भेद, किसी भी तरीके से परहेज नहीं किया गया। जिस लोकपाल के लिए पूरी संसद ने एक सुर में पूरे मुल्क से वादा किया उसे अब लालूजी ही नहीं कई और नेता भी खुलेआम बेकाम का बता रहे हैं। इसलिए मुद्दा कोयला ब्लॉकों के आबंटन के बारे में सीएजी की रपट के खुलासे और टीम अण्णा की ओर से चौदह मंत्रियों पर लगाए गए आरोपों का ही नहीं है। सवाल उससे बड़े हैं। भ्रष्टाचार और काले धन से सफाई की जरूरत ज्यादा बड़ी है।    

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