Wednesday, May 2, 2012

शताब्‍दी बदली, सत्‍ता बदली, पर नहीं बदली मजदूरों की तकदीर

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1283-2012-05-02-08-31-38]शताब्‍दी बदली, सत्‍ता बदली, पर नहीं बदली मजदूरों की तकदीर   [/LINK] [/LARGE]
Written by राजेश कश्‍यप   Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 02 May 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=fb2f0ac51b05d8eb9036ed20ffc4849e11ed0ab4][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1283-2012-05-02-08-31-38?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
आज इक्कीसवीं सदी में भी मजदूरों का शोषण बदस्तूर जारी है। शताब्दियों से संघर्षरत मजदूर वर्ग अपने सम्मान और हक से कोसों दूर है। इतने लंबे अनवरत संघर्ष के बावजूद स्थिति 'ढ़ाक के तीन पात' वाली ही है। पहले भी पूंजीपति लोग श्रमिकों का शोषण और दमन करते थे और आज भी वही क्रम जारी है। वैश्विक परिदृश्य में मजदूर वर्ग एकदम हाशिए पर नजर आता है। समय के बदलते दौर में सत्ताएं बदलीं, अर्थव्यवस्थाएं बदलीं, नीतियां बदलीं और परिस्थितियां बदलीं, लेकिन यदि कुछ नहीं बदली तो एकमात्र श्रमिक वर्ग की किस्मत नहीं बदली। निश्चित तौरपर यह विडम्बना का विषय है। इससे भी बड़ी विडम्बना का विषय यह है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में भी मजदूर वर्ग का शोषण व दमन चक्र निरन्तर जारी है। देश में कोई भी ऐसा राज्य नहीं बचा हुआ है, जहां मजदूरों का दमन व शोषण न होता हो। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता, जब समाचारों में मजदूरों पर अत्याचार अथवा अन्याय से संबंधित मामले सुर्खियों में न होते हों। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। यदि बीते अप्रैल माह पर ही सरसरी तौरपर नजर डाल ली जाए तो मजदूर वर्ग की वास्तविक स्थिति का सहज अनुमान लग जाएगा।

झारखण्ड के देवघर में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से मुक्त हुए 2000 बंधुआ मजदूर पिछले दो दशक से पुनर्वास के लिए छटपटा रहे हैं। इनमें से एक दर्जन मजदूरों की मौत भी हो चुकी है। उनके परिजनों को सामाजिक सुरक्षा पेंशन अथवा अन्य सुविधाएं तक नहीं दी जा रही हैं। इन्हें अन्तोदय एवं अन्य सरकारी कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित रखा गया है। इन मजदूरों के पास मनरेगा का पंजीकरण व कार्ड तक नहीं है। सरकारी हुक्मरानों की उदासीनता के चलते मजदूर नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। पंजाब के जालन्धर जिले में कंबल बनाने वाली चार मंजिला फैक्ट्री गिरने के कारण सैकड़ों श्रमिक जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं और कई अपने जीवन की जंग हार भी चुके हैं। प्रशासन ने घटना के कारणों पर पर्दा डालने का भरसक प्रयास किया और कई बहानों की आड़ ली। जबकि हकीकत यह है कि श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ाते हुए पुरानी हो चुकी इस चार मंजिला फैक्ट्री पर और भी निर्माण कार्य किया जा रहा था। पुरानी हो चुकी फैक्ट्री ज्यादा वजन सह नहीं पाई और पूंजीपति व्यापारी और प्रशासनिक लापरवाही के चलते निर्दोष मजदूरों की जिन्दगियां नरक बन गईं।

देश में मजदूरों को बन्धक बनाकर खूब काम करवाया जा रहा है। बानगी के तौरपर अम्बिकापुर (छत्तीसगढ़) की घटना का जिक्र किया जा सकता है। प्रतापपुर ब्लॉक के ग्राम कल्याणपुर पूर्व पारा से काम की तलाश में उत्तर प्रदेश के रेनुकूट में गए मजदूरों को एक ईंट भठ्ठा संचालक ने बंधक बना लिया और चार महीनों तक बिना मजदूरी दिए काम करवाता रहा। किसी तरह छह मजदूर भाग निकले और चार मजदूर भागने में सफल नहीं पाए। उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में हीरों के वेन्डर कारखानों रॉकमैन व सत्यम के प्रबन्धन के उत्पीड़न और वेतन वृद्धि को लेकर लंबे समय से संघर्ष कर रहे मजदूरों पर पुलिस ने जमकर कहर बरपाया। देहरादून के परेड ग्राऊण्ड में धरने व अनशन पर बैठे मजदूरों पर ढाए गए पुलिसिया कहर के बाद जले पर नमक छिड़कते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने बयान दिया कि राज्य को गुड़गांव नहीं बनने देंगे। यह स्थिति स्पष्ट दर्शाती है कि राज्य में कारखानेदारों की मनमानी, ठेकाकरण, श्रमिक कानूनों का खुला उल्लंघन और मजदूरों का सरेआम दमन व शोषण हो रहा है।

झारखण्ड राज्य में भी मजदूरों की दशा अत्यन्त दयनीय बनी हुई है। यहां असंगठित मजदूरों की संख्या लाखों में है। इनमें बीड़ी मजदूरों का बहुत बड़ा तबका है। उनकी हालत अत्यन्त दयनीय बनी हुई है। सरकार के पास इन मजदूरों की वास्तविक संख्या का भी आंकड़ा नहीं है। राजनीतिक चेतना व सक्रियता के अभाव के चलते इन मजदूरों को अपने अधिकारों का भी ज्ञान नहीं है। इन मजदूरों की मजदूरी का बहुत बड़ा भाग बिचौलिए ही हड़प कर जाते हैं। मूलभूत सुविधाओं के नित्तांत अभाव में ये मजदूर नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। इन मजदूरों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं है। मजदूर काम करते हुए अपनी जान तक कुर्बान कर देते हैं, लेकिन उनके प्रति कोई भी सहानुभूति नहीं रखता है। मिसाल के तौरपर गुंटुर (आन्ध्र प्रदेश) की इस घटना को लिया जा सकता है। गत अप्रैल माह में ही एक निर्माण स्थल पर जमीन के अन्दर बनाई गई सुरंग के अन्दर काम कर रहे पाँच मजदूर उस समय जिन्दा दफन हो गए, जब पास की दीवार उनपर गिर पड़ी। मजदूर पाँच मंजिला इंजीनियरिंग कॉलेज के लिए नींव खोद रहे थे। ठेकेदार और कॉलेज के कर्मचारी कोई मदद करने की बजाय घटना स्थल से ही फरार हो गए।

बाड़मेर (राजस्थान) में मजदूर अपने नेता कैलाश चौधरी की रिहाई के लिए प्रदर्शन कर रहे थे। पुलिस ने इन मजदूरों को बुरी तरह दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। इसमें दर्जनों मजदूर बुरी तरह घायल हो गए। आगरा (उत्तर प्रदेश) में रूनकता हाइवे की जूते बनाने वाली एक फैक्ट्री मालिक ने कार्यरत मजदूरों को डॉ. अम्बेडकर जयन्ती पर घोषित सरकारी अवकाश पर भी काम पर लगाए रखा। आसपास की फैक्ट्रियों में कार्यरत 350 मजदूरों ने संगठित होकर आक्रोश व्यक्त किया, लेकिन उनकी आवाज को बलपूर्वक दबा दिया गया। समृद्ध राज्यों में गिने जाने वाले हरियाणा प्रदेश में भी गाहे-बगाहे मजदूरों पर होने वाले अत्याचार व शोषण के मामले सामने आते रहते हैं। हाल ही में हरियाणा के गुड़गांव जिले के सैक्टर 37 स्थित ओरिंयटल क्राफ्ट में कार्यरत मजदूरों पर होने वाले शोषण ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरी। घटना के तहत एक मजदूर ने जब अपना वेतन मांगा तो ठेकेदार व उसके एक बदमाश साथी ने मजदूर पर कैंची से हमला बोल दिया। मजदूरों ने प्रबन्धन को इसकी शिकायत की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई तो मजदूरों में आक्रोश पैदा हो गया। इसके परिणामस्वरूप आगजनी जैसी घटनाएं घटीं।

उल्लेखनीय है कि कंपनी की गुड़गाँव, नोएडा और ओखला औद्योगिक क्षेत्र की 20 उत्पादन इकाईयों में लगभग 25000 मजदूर कार्यरत हैं। वर्ष 2010 में इस कंपनी का वार्षिक कारोबार 960 करोड़ रुपये का था। इसके बावजूद यहां मजदूर अपना वेतन पाने के लिए भारी जद्दोजहद करते रहते हैं। इसी गुड़गाँव जिले में गतवर्ष मजदूरों का एक अन्य बड़ा आन्दोलन हुआ। मारुति सुजुकी, मानेसर प्रबन्धन ने मजदूरों पर आन्दोलन तब थोप दिया, जब प्रबन्धन ने अपनी मनमानी करते हुए 49 मजदूरों को बिना कोई कारण बताए बर्खास्त कर दिया और 2000 ठेका मजदूरों व अप्रैंटिसों को भी घर का रास्ता दिखा दिया। मजदूरों ने इस अन्याय के विरूद्ध आवाज उठाई तो उन पर दमनात्मक कार्रवाईयां की गईं। आसपास के गाँवों में किराए पर रह रहे पीड़ित मजदूरों को कड़ी धमकियां तक दीं गई और इसमें गाँव के सरपंचों तक का सहयोग लिया गया।

त्रिपुर (तमिलनाडू) में मजदूरों की आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि वे आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। अकेले त्रिपुर जिले में जुलाई, 2009 से लेकर सितम्बर, 2010 तक 879 मजदूरों ने आत्महत्या कर ली। वर्ष 2010 के सितम्बर माह तक कुल 388 मजदूरों को मौत को गले लगाना पड़ा, जिनमें 149 महिला मजदूर शामिल थीं। उल्लेखनीय है कि त्रिपुर जिले में लगभग 6200 औद्योगिक इकाईयां हैं, जिनमें लगभग 4 लाख मजदूर काम करते हैं। इन मजदूरों को प्रतिदिन अनेक अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। मालिक उनका जमकर शोषण करते रहते हैं। ये मजदूर झोपड़-पट्टियों में नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। मजदूरों से कौड़ियों की दर पर काम करवाया जाता है। इन मजदूरों के पास इलाज तक के भी पैसे नहीं हैं। ये मजदूर प्रतिमाह 90 से 100 घण्टे कमरतोड़ मेहनत करने के बाद भी अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। जीवन की भयंकर परिस्थितियों के सामने हार मानने वाले मजदूर आत्महत्या जैसा कदम उठाने को विवश हैं।

पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र, तराई डवार्स के चाय बागानों में मजदूरों की दशा बेहद दयनीय और चौंकाने वाली बनी हुई है। इस भयंकर मंहगाई के दौर में भी इन मजदूरों को दिनभर कमर तोड़ मेहनत के बाद मात्र 67 रूपये मजदूरी दी जाती है। यहां सभी चाय बागान मजदूर कुपोषण और भूखमरी के शिकार हैं। इन मजदूरों को बीपीएल सूची में भी शामिल नहीं किया गया है। अब कुछ संस्थाओं के हस्तक्षेप के बाद मामला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दरबार तक पहुंचने की उम्मीद जताई जा रही है। मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजना में भी मजदूरों का जमकर शोषण हो रहा है। कई राज्यों में तो सिर्फ कागजों में ही मजदूरों से काम करवाया जा रहा है। कई राज्यों में मजदूरों को समय पर मजदूरी भी नहीं दी जा रही है। उदाहरण के तौरपर अलीराजपुर (मध्य प्रदेश) का मामला लिया जा सकता है। यहां के मजदूरों का मनरेगा जैसी कल्याणकारी योजना से विश्वास उठ गया है। काम की तलाश में मजदूर निरन्तर पलायन करने को विवश हैं। गाँवों में अक्सर कार्य बंद रहते हैं और काम करने के बाद मजदूरी भी समय पर नसीब नहीं हो पाती है। आदिवासी मजदूरों का कहना है कि उन्हें योजना के तहत न तो काम पूरा मिल पाता है और न ही समय पर मजदूरी मिल पाती है। वे मजदूरी पाने के लिए बैंकों में छह महीनों तक चक्कर काटते रहते हैं। ऐसे में उनके सामने पलायन करने के सिवाय और कोई रास्ता ही नहीं बचता है।

देशभर में मनरेगा में हो रही बड़ी-बड़ी धांधलियों ने मजदूरों के हकों पर भारी वज्रपात किया है। इसकी बानगी कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश) ही काफी है। इस जिले में वर्ष 2011-12 में 1 लाख 92 हजार जॉब कार्ड धारकों के लिए 89 करोड़ 17 लाख रुपये का लेबर बजट पास हुआ। लेकिन 50,000 मजदूर तो काम मांगते ही रह गए। परिणामस्वरूप, बैंकों में पड़ा 12 करोड़ रुपया डम्‍प हो गया। इसी कारण आगे मिलने वाले 56 करोड़ रुपयों पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया। उल्लेखनीय है कि ये सभी सन्दर्भ सिर्फ गत अप्रैल माह में घटित घटनाओं से ही लिए गए हैं। इससे पहले घटित घटनाएं एवं मामले और भी भयंकर हैं। उनकी सूची बहुत लंबी है। कुल मिलाकर विकसित देशों की कतार में शामिल होने के लिए बेताब भारत में भी अन्य देशों की भांति मजदूरों की हालत अत्यन्त दयनीय एवं चिंताजनक बनी हुई है। यहां पर बाल मजदूरी का अभिशाप भी बराबर बना हुआ है। हालांकि बालश्रम अधिनियम, 1961 के अन्तर्गत इस समय 16 व्यवसायों तथा 65 अन्य खतरनाक कामों में बच्चों से काम लेने पर प्रतिबंध लगाया हुआ है, लेकिन इसके बावजूद आंकड़े अत्यंत चिंताजनक हैं। महिला श्रमिकों की हालत भी अत्यंत दयनीय बनी हुई है। पूंजीपतियों और नेताओं से अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर यह संकल्प लेने की आशा की जाती है कि वे मजदूरों के मान-सम्मान एवं अधिकारों के मुद्दे पर चिंतन करेंगे और भविष्य में श्रम कानूनों और कल्याणकारी योजनाओं का भलीभांति पालन करने का संकल्प लेंगे। हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के अर्थतंत्र की मूल धुरी मजदूरों के कंधों पर ही टिकी हुई है। यदि मजदूरों के दमन व शोषण का क्रम यूं ही जारी रहा तो निश्चित तौरपर इसका भयंकर खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ेगा।

[B]लेखक राजेश कश्‍यप स्‍वतंत्र पत्रकार, लेखक तथा समीक्षक हैं. [/B]

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