Thursday, April 26, 2012

हिंदी सिनेमा की हिंदी पत्रकारिता का अंधेरा छंटना जरूरी है

 आमुखसिनेमा

हिंदी सिनेमा की हिंदी पत्रकारिता का अंधेरा छंटना जरूरी है

26 APRIL 2012 NO COMMENT

♦ ब्रजेश कुमार झा

क अप्रैल को 'द हिंदू' अखबार ने अपनी साप्ताहिक अखबारी मैग्जिन में सिनेमा को पहला पन्ना दिया है। शीर्षक है "100 years of Indian cinema"। 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' ने भी इस तरफ दिलचस्पी दिखाई है। उसने भी अखबार के साथ शुक्रवार को आने वाली पत्रिका 'IDIVA' में उन लोगों को याद किया है जो हिंदी सिनेमा को नया मोड़ देने में सफल हुए। इसमें अभिनेता भी हैं, अभिनेत्रियां भी हैं और खलनायक भी। साथ-साथ कुछेक महान फिल्मकारों की भी चर्चा है। पत्रिका की यह कवर स्टोरी है और इसे कुल नौ पन्ने दिये गये हैं। कुछेक दूसरे अखबारों ने भी ऐसी कोशिश की है। यह सब ऐसे समय हो रहा है, जब हिंदी सिनेमा अपने सौ वर्ष पूरे कर रहा है। इस खास मौके पर उक्त अखबारों समेत दूसरी जगहों पर सिनेमा के बारे में जो चर्चाएं हैं, वह संतोषप्रद नहीं कही जा सकती। उनमें कोई नयापन नहीं है।

हालांकि, सिनेमा व उससे जुड़े लोग अखबारों में खूब जगह पाते हैं। पर जिन खबरों को जगह मिलती है, वह या तो हवा बनाने वाली रपट होती है या फिर किसी खास को सुर्खियां में रखने के लिए। वैसे, कुछेक फिल्मों की चर्चा संपादकीय पेज तक आ जाती है। एक-दो हालिया उदाहरण भी हैं। जैसे 'पान सिंह तोमर'। इससे पहले 'पीपली लाइव' थी। फिल्म 'राजनीति' भी आयी थी, जिसकी बारीक चीजों पर कुछेक लोगों का ध्यान गया था। पर ऐसे उदाहरण कम हैं। रिवाज यही है कि सिनेमाई पत्रकारिता में ढूंढ़ने-सूंघने का काम कम होता है, पर समां खूब बांधा जाता है। दुख होगा, पर सच है कि इस काम में हिंदी अंग्रेजी से कहीं आगे है। इसे आप क्या कहेंगे कि हिंदी सिनेमा पर आज ऐसी कोई हिंदी पत्रिका नहीं है, जो उसके बारे में मौलिक समझ बढ़ाने का काम करती हो। खैर, समझ की छोड़ें! ऐसी पत्रिका भी नहीं है जो अंग्रेजी के दूसरे दर्जे की पत्रिका का मुकाबला कर सके। कुछेक सार्थक प्रयास रह-रह कर होते हैं, पर उसका हाल हिंदी के समानांतर सिनेमा सरीखा ही है।

इसके बावजूद सिनेमाई हिंदी पत्रकारिता का इतिहास इतना गरीब नहीं है, जो कि कुछ गर्व करने के लिए मिले ही नहीं। यहां हमें पीछे लौटना होगा। बात जून, 1989 की है। 'नई दुनिया' अखबार ने हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत पर एक विशेषांक छापा था। उस विशेषांक का नाम था, 'सरगम का सफर'। वह विशेषांक करीब 150 पृष्ठों का था। इसके संपादकीय में लिखा था, "संगीत ने सभ्यता के यहां तक पहुंचते-पहुंचते एक विराट यात्रा पूरी की है। वह लोकसंगीत से चल कर शास्त्रीयता को समेटता हुआ, सुगम और सिने संगीत तक आ गया। इस यात्रा के बीच उसने कई पड़ाव देखे – ये सभी पड़ाव समान्य-श्रोता की रुचि के आधार बने, बदले और बिगड़े। … हम मानकर चलते हैं कि अभी भी संगीत की जनप्रियता का आधार यही वर्ग बनाता है। लेकिन इसे उस सुगम संगीत के जो उसकी रुचि को झनझनाता है, लयबद्ध करता है, विभिन्न पड़ावों की महत्वपूर्ण सामग्री एक जगह नहीं मिलती। मिलती भी है तो वह मोटी-मोटी जिल्दों में कैद होती है। … पाठकों को ध्यान में रखकर सरगम का सफर नामक इस अंक को संजोया है। संवारा है।"

हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत पर अब तक ऐसा कोई दूसरा विशेषांक नहीं आया है। न तो हिंदी में, न ही अंग्रेजी में। हां, किताबें कई अच्छी आयी हैं। एक पंकज राग हैं, जिन्होंने संगीतकारों पर एक मोटी किताब ही लिखी है। लेकिन पत्रकारिता में कोई मौलिक लेखन या काम नहीं हुआ है। सच यही है कि खबर कि तात्कालिकता का बहाना बना कर हम हर नायाब काम टालते रहे हैं। सिनेमा पर लिखने वाले जो हिंदी के बड़े पत्रकार हुए, उन्होंने अपना नाम किताब लिखकर ही कमाया है। किताब ही उनकी पहचान है। अखबार उनके हुनर का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पाया है। इस मामले में अंग्रेजी की सिनेमाई पत्रकारिता आगे है।

एक और बात है। सिनेमाई पत्रकारिता अब स्टार पर चलती है। यानी फलाना फिल्म को ढाई स्टार, फलाना को चार और फलाना को पांच। और फिर पांच स्टार पाने वाली फिल्म उक्त सिने पत्रकार की नजर में सर्वश्रेष्ठ हो जाती है। इन दिनों हम इसी ढर्रे पर हैं। याद करें 1998 का समय, जब फिल्म 'सत्या' आयी थी। यह शायद हिंदी की पहली फिल्म थी, जिसे स्टार का रिवाज चलाने वाले अखबार ने पूरे पांच स्टार दिये थे। इसके बावजूद शुरू के सप्ताह में फिल्म अधिक नहीं चली, लेकिन जो लोग इस फिल्म को देखकर आते, वे दोबारा दूसरे को लेकर पुन: फिल्म देखने जाते थे। स्वयं इस पंक्ति के लेखक ने कई मर्तबा यही किया। वह स्टार-मैनिया नहीं था, बल्कि माउथ पब्लिसिटी थी। पर यह भी सच है कि तभी से स्टार-मैनिया हावी है। हालांकि, इससे कई बार दर्शक धोखा खा जाते हैं, पर इसका बाजार चल निकला है। अब हिट है। यह सही है या गलत इस निष्कर्ष को तो सुधी पाठक स्वयं निकाल सकते हैं।

दूसरी तरफ जयप्रकाश चौकसे हैं। वे खूब लिखते हैं। नयी जानकारी देते हैं। पर एक व्यक्ति सिनेमा के कितने खंभे संभाल सकता है। वेब मीडिया ने कदम बढ़ाया है तो अजय ब्रह्मात्मज याद आते हैं। नये लोगों में मिहिर पांड्या दखल रखते हैं। पर, यहां खबरनवीसी कम है। शोध व साहित्य का अंश ज्यादा है। वहीं अंग्रेजी में दो-चार लोग इनसे अधिक हैं जो मानते हैं कि सिनेमा विधा को समझाने की जिम्मेदारी भी उनकी ही है। इससे अंग्रेजी के पाठक हिंदी के मुकाबले फायदे में हैं। हिंदी सिनेमा की अंग्रेजी पत्रकारिता दो कदम आगे है। इसकी एक दूसरी वजह भी है। सिनेमाई दुनिया के लोग हिंदी के उस भदेस रंग में डूबकर कमाई तो करते हैं, पर उस भाषा में बतियाना उसे पसंद नहीं। इसे वे अपनी हेठी समझते हैं। हालांकि कुछेक अपवाद हैं। पहले ऐसा न था। अब भी जब कभी सार्वजनिक मंच से दिलीप कुमार बोलते हैं, तो मुंह से हिंदी ही फूटती है। पर नया कौन है, मुश्किल से कोई एक नाम याद आएगा।

(ब्रजेश कुमार झा। युवा पत्रकार। राष्‍ट्रवादी समझ के साथ चलने वाले आंदोलनों के साथ संपर्क, सहानुभूति। पत्रिका प्रथम प्रवक्‍ता से जुड़े हैं। इनसे jha.brajeshkumar@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)


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