Friday, 03 February 2012 10:01 |
मस्तराम कपूर कंप्यूटर संबंधी बयान पर भी शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं थी। आखिर घर-घर कंप्यूटर या मोबाइल फोन पहुंच जाने से बीस रुपए पर गुजारा करने वाली अस्सी प्रतिशत आबादी के पेट भरने वाले नहीं है। यह बात पिछले बीस सालों की प्रगति से सिद्ध हो जाती है। फिर लैपटॉप का वितरण रंगीन टीवी आदि के वितरण की तरह एक चुनावी तिकड़म ही है, जिसे घूस की श्रेणी में रखा जा सकता है। अगर युवाओं के हाथ में राजनीति की बागडोर आने के बाद भी राजनीति का पिटा-पिटाया ढर्रा नहीं बदलता तो उन्हें राजनीति में लाने का फायदा क्या? हम उम्मीद करते हैं कि राहुल गांधी कांग्रेस की संस्कृति में बदलाव लाएं और अखिलेश समाजवादी पार्टी के तौर-तरीकों में। राजनीति की वर्तमान जड़ता इसी तरह टूटेगी कि बूढेÞ लोग जवानों के हाथ-पैर न बांधें, बल्कि उन्हें उड़ान भरने दें। इन चुनावों में लोग भाजपा और बसपा से किसी बड़े बदलाव की आशा नहीं कर रहे हैं। भाजपा से तो इसलिए कि वह इन दिनों नेताओं के बाहुल्य के कारण किसी निश्चित दिशा को प्राप्त नहीं कर पा रही है। उसमें एक दर्जन से ज्यादा नेता प्रधानमंत्री पद की महत्त्वाकांक्षा पाले हुए हैं। इन सब नेताओं की दिशा अलग-अलग दिखाई दे रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुशासन अब पार्टी नेताओं को प्रभावित नहीं करता। सत्ता का स्वाद चख लेने के बाद संयम और सादगी की जिंदगी अपनाने को अब कोई तैयार नहीं है। नवउदारवादी नीतियों के गुणगान ने स्वदेशी और हिंदू राष्ट्रवाद की हवा निकाल दी है। कुछ राज्यों में उसका अस्तित्व इसलिए बना हुआ है कि कांग्रेस की जगह लेने वाली दूसरी कोई पार्टी नहीं है। बसपा ने उत्तर प्रदेश में पांच साल राज चला कर इतिहास बनाया है। उसकी यह सफलता सवर्ण जातियों के सहयोग से संभव हुई है। बसपा राज में उन्होंने इसका भरपूर फायदा भी उठाया है। लेकिन अब ये जातियां कांग्रेस में अपने वर्चस्व की संभावनाएं देखने लगी हैं, इसलिए उनका कांग्रेस की तरफ मुड़ना स्वाभाविक है। इसके अलावा मायावती ने दलित स्वाभिमान पार्कों का निर्माण कर ऊंची जातियों के मन में हमेशा के लिए जो जलन पैदा की है, उससे न केवल बसपा को चुनावों में नुकसान होगा, बल्कि आगे भी दरार बनी रहेगी। सवर्ण जातियों के आदर्श पुरुषों की निंदा और दलित जातियों के आदर्श पुरुषों की भीमकाय मूर्तियां स्थापित कर एक तरह से बौद्धों और हिंदुओं के हजार साला वैमनस्य को आमंत्रित किया जा रहा है। जलन पर आधारित दलित राजनीति स्थायी जलन पैदा करेगी, यह आशंका पहले से थी। यह तो जाति व्यवस्था को समाप्त करने और समता का समाज स्थापित करने का रास्ता नहीं है। यह डॉ आंबेडकर के सपनों को साकार करने का रास्ता भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव देश की राजनीति में परिवर्तन ला सकते हैं, यह संभावना कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से ही बनती है, क्योंकि दोनों पार्टियों की बागडोर इस समय युवाओं के हाथ में है। युवाओं का धर्म है लीक तोड़ कर आगे बढ़ना, जोखिम उठाना और नई राहें खोजना। पुराना नेतृत्व उन्हें रोकने की कोशिश करेगा। स्थिरता और परिवर्तन का टकराव समाज में हमेशा ही चला है। पर इससे परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं रुकनी चाहिए। कांग्रेस और नवउदारवादी राजनीति के लिए जड़ता को तोड़ने का काम राहुल कर सकते हैं और समाजवादी पार्टी के लिए अखिलेश यादव। समाजवादी पार्टी राजनीति की दूसरी बड़ी धारा का प्रतिनिधित्व करती है। यह धारा है समाजवाद की। इसे पोसा है डॉ राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव आदि नेताओं और विचारकों ने। यह धारा कांग्रेस और उसकी कार्बनकॉपी भाजपा से अलग तीसरे मोर्चे का मुख्य खंभा रही है। इसे लक्ष्य में रख कर अगर समाजवादी पार्टी जातियों और फिरकों के वोट बैंकों की राजनीति से ऊपर उठ कर समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करने की कोशिश करेगी तो उसे व्यापक समर्थन मिल सकता है। उत्तर प्रदेश की पहचान सारे देश की दिशा तय करने वाले प्रदेश की रही है। समाजवादी पार्टी कुछ ऐसी घोषणाएं कर सकती है, जो सारे देश को प्रभावित करने वाली हों। अगर समाजवादी पार्टी हिंदी के माध्यम से तमाम सरकारी कामकाज करने और डॉक्टरी-इंजीनियरी आदि की पढ़ाई हिंदी के माध्यम से शुरू करने का फैसला करे; जो लोहिया का सपना था और जिसमें उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक सत्येन बोस का समर्थन प्राप्त था- तो भारतीय भाषाओं के लिए भी रास्ता खुलेगा और देश एक बड़े परिवर्तन की ओर अग्रसर होगा। यह शुरुआत केवल उत्तर प्रदेश कर सकता है और उसका सबसे अच्छा मौका यही है जब समाजवादी पार्टी की कमान एक नौजवान के हाथ में है, जिसमें जोखिम उठाने और लीक को तोड़ने का दमखम दीखता है। |
Friday, February 3, 2012
युवा नेतृत्व की परीक्षा
युवा नेतृत्व की परीक्षा
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