Thursday, 06 June 2013 09:52 |
हरिपाल दास इस प्रसंग में विजिटर के कार्यालय की दीर्घसूत्रता पर भी विचार किया जाना चाहिए। उनके पास पिछले छह महीने से इस संदर्भ में चिट्ठियां जा रही हैं। उनका जवाब तो देना दूर, उस कार्यालय ने इतना भी जरूरी नहीं समझा कि वह उनकी पावती दे। कहा जा सकता है कि विजिटर तो आखिरकार मंत्रालय के माध्यम से काम करता है। वह मंत्रालय की सलाह के बिना कुछ भी कैसे बोलता? और इस सरकार की आम किंकर्तव्यविमूढ़ता की बीमारी का शिकार मंत्रालय हाथ बांधे बैठा रहा। तो विजिटर कैसे बोलते? इस सच्चाई को जानते सब हैं, फिर किस स्वायत्तता का ढोंग किया जा रहा है? सुनते हैं, प्रधानमंत्री ने बड़ी मासूमियत से पूछा कि वे कैसे एक स्वायत्त संस्था के काम में दखल दें? फिर उतने ही निश्छल भाव से उन्होंने जानना चाहा कि आखिर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग क्यों कुछ नहीं करता! वे शायद कहना चाहते थे कि आयोग भी सरकार से स्वतंत्र है। उनकी इस सादगी पर कुर्बान होने को जी चाहता है। क्या वे भूल गए कि आयोग के अध्यक्ष के चयन में प्रधानमंत्री कार्यालय की क्या भूमिका थी? कि किस तरह उन्होंने खुद आयोग के अध्यक्ष की खोज के लिए बनी चयन समिति के प्रस्ताव को खारिज किया और उस समिति को कहा था कि वह अपनी सूची में और नाम डाले? क्या यह सच नहीं कि उक्त चयन समिति को बाध्य होकर वे नाम भी डालने पड़े जिन्हें पहले उसने योग्य नहीं पाया था? और क्या यह सच नहीं कि पहली बार चयन समिति की अंतिम सूची से खारिज कर दिए गए व्यक्तियों में से ही एक, आज आयोग के अध्यक्ष हैं? जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी महत्त्वपूर्ण संस्था के प्रमुख के चयन में इस प्रकार का सीधा हस्तक्षेप निस्संकोच किया जाता है और वह भी ऐसे व्यक्ति के पक्ष में, जिसके बारे में सरकार के नौकरशाहों का खयाल है कि उनके साथ काम करना सबसे आसान है, तब स्वायत्तता एक सुविधाजनक आड़ के अलावा और कुछ नहीं रह जाती। वह स्वेच्छाचारी निष्क्रियता के लिए एक सुंदर तर्क है। दिल्ली विश्वविद्यालय के नए स्नातक कार्यक्रम की निगरानी के लिए बनी समिति फिर भी एक अवसर है। अध्यापकों, अभिभावकों, छात्रों के लिए। इस समिति को खुद भी नए पाठ्यक्रम का अध्ययन करना चाहिए और दूसरे विशेषज्ञों की भी राय लेनी चाहिए। हम क्या उम्मीद करें कि यह समिति स्वतंत्र रूप से, बौद्धिक साहस के साथ काम करेगी और किसी गैर-अकादमिक, तकनीकी तर्क से अस्वीकार्य को स्वीकार्य बनाने के लिए कोई बहाना नहीं खोजेगी? पिछले वर्षों में हमने अनेक बार बौद्धिकों का इस्तेमाल सरकार द्वारा अपने कृत्यों को जायज ठहराने के लिए होते देखा है। इस बार फिर इसका खतरा है। इस निगरानी समिति के गठन के ही दिन मीडिया से बात करते हुए आयोग के अध्यक्ष ने समिति के कार्य के बारे में एक ऐसी बात कही है जो आयोग की अधिसूचना में कहीं नहीं है। उन्होंने एक अंग्रेजी दैनिक से कहा कि यह समिति अन्य विश्वविद्यालयों के लिए इस चार साला पाठ्यक्रम की उपयुक्तता पर भी विचार करेगी। समिति के काम शुरू करने के पहले ही वे इसके लिए निर्धारित काम से अलग अनौपचारिक इशारे कर रहे हैं। स्थापित प्रक्रियाओं को किनारे करके अनौपचारिक तरीकों से काम निकाल लेने की प्रवृत्ति इस सरकार की खासियत बन गई है। आयोग इस सरकारियत का शिकार हो तो हैरानी क्यों हो! लेकिन आयोग के अध्यक्ष के इस इशारे को नजरअंदाज करना खतरनाक होगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के बोर्ड की अगली बैठक में यह सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्यों इस विषय पर बोर्ड को विचार करने का अवसर नहीं दिया गया? यह एक मौका भी हो सकता है कि सांस्थानिक प्रक्रियाओं को फिर से बहाल किया जाए। इसकी जितनी सख्त जरूरत दिल्ली विश्वविद्यालय को है उतनी ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और इस सरकार को भी। |
Friday, June 7, 2013
स्वायत्तता के बहाने
स्वायत्तता के बहाने
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